Thursday, January 29, 2015

स्कूली शिक्षा में गुणवत्त की बुनियाद



कौशलेंद्र प्रपन्न
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की मांग और अपेक्षा समाज के हर तबकों को है। सामाजिक मंचों और अकादमिक बहसों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को केंद्र में रख कर राष्टीय स्तर पर विमर्श जारी है। यह मंथन इसलिए भी जरूरी है , क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सब के लिए शिक्षा का लक्ष्य वर्ष 31 मार्च 2015 अब ज्यादा दूर नहीं है। गौरतलब है कि इएफए और मिलेनियम डेवलप्मेंट लक्ष्य में भी प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता की बात गंभीरता से रखी गई थी। यदि जमीनी हकीकत का जायजा लें तो जिस किस्म की तस्वीरें उभरती हैं वह चिंता बढ़ाने वाली हैं। निश्चित ही हमारे सरकारी स्कूलों में जिस स्तर की शिक्षा बच्चों को दी जा रही है वह मकूल नहीं है। वह शिक्षा नहीं, बल्कि साक्षरता दर में बढ़ोत्तरी ही करने वाला है। यहां दो तरह की स्थितियों पर ध्यान दिया जाएगा जिसे नजरअंदाज कर स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता की प्रकृति का नहीं समझा जा सकता। पहला, पूरे देश में एक उस किस्म के सरकारी स्कूल हैं जिनके पास बच्चे, शिक्षक, लैब, लाइब्रेरी आदि सुविधाएं उपलब्ध हैं। हर साल इनके परीक्षा परिणाम भी बेहतर होते हैं। स्कूल की चाहरदीवारी से लेकर पीने का पानी, शौचालय आदि बुनियादी ढांचा हासिल है। दूसरा, वैसे सरकारी स्कूल हैं जहां न तो पर्याप्त कमरे, पीने का पानी, शौचालय, खेल के मैदान, खिड़कियों में शीशी, दरवाजों में किवाड़ हैं और न बच्चों के अनुपात में शिक्षक। ऐसे माहौल में यदि कहीं किसी स्कूल में कुछ अच्छा हो रहा है तो उसे समाज में लाने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि सकारात्मक सोच को बढ़ावा दिया जाए। उनकी कोशिशों को सराहा जाए। बजाए कि सिर्फ उनकी बुराई ही समाज के सामने रखें।
स्कूल की शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार सिर्फ शिक्षक के कंधे पर ही नहीं होता बल्कि हमें इसके लिए शिक्षक से हट कर उन संस्थानों की ओर भी देखना होगा जहां शिक्षकों को शिक्षण-प्रशिक्षण की तालीम दी जाती है। डाईट, एससीइआरटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों में चलने वाली सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी विमर्श करने की आवश्यकता है। अमूमन शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में जिस किस्म की प्रतिबद्धता और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही है उसे भी दुरुस्त करने की आवश्यकता है। एक किस्म से इन संस्थानों में अकादमिक तालीम तो दी जाती है। लेकिन उन ज्ञान के संक्रमण की प्रक्रिया को कैसे रूचिकर बनाया जाए इस ओर भी गंभीरता से योजना बनाने और अमल में लाने की आवश्यकता है।
दिल्ली में ही नगर निगम और राज्य सरकार की ओर से चलने वाले स्कूलों में झांक कर देखें तो दो छवियां एक साथ दिखाई देती हैं। एक ओर वे स्कूल हैं जिसमें बड़ी ही शिद्दत से शिक्षक/शिक्षिकाएं अपने बच्चों को पढ़ाती हैं। उन स्कूलों में नामांकन के लिए लंबी लाइन लगती है। सिफारिशें आती हैं। हर साल बच्चे विभिन्न प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतते हैं। ऐसा ही एक स्कूल है शालीमार बाग का बी बी ब्लाॅक का नगर निगम प्रतिभा विद्यालय यहां पर जिस तरह से स्कूल को संवारा गया है और बच्चों की शैक्षणिक गति है उसे देखते हुए लगता है कि इन स्कूलों मंे रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम क्यों नहीं जाती। जहां कुछ तो अच्छा हो रहा है लेकिन रिपोर्ट में एकबारगी सरकारी स्कूलों को नकारा साबित करने के लिए ऐसे ही साधनविहीन और खस्ताहाल स्कूलों को चुना जाता है। दूसरे स्कूल वैसे हैं जैसे वजीरपुर जे जे काॅलानी में नगर निगम प्रतिभा विद्यालय जहां स्थानीय असामाजिक तत्वों की आवजाही है। खिड़कियां हैं पर उनमें शीशे नहीं। कक्षों में दरवाजे तक नहीं हैं। पलस्तर न जाने कब हुए होंगे। कक्षाओं में गड्ढ़े हैं। लेकिन उन हालात में भी शिक्षिकाएं पढ़ा रही हैं।
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अंतर्गत आने वाले स्कूलों में भी अमूमन एक सी कहानी है। एक ओर ए ब्लाॅक दिलशाद गार्डेन में जहां अच्छे भवन हैं। शिक्षक हैं लेकिन बच्चे कम हैं। वहीं ओल्ड सीमापुरा के उर्दू स्कूल में बच्चों के पास बैठने के लिए टाट पट्टी तक मयस्सर नहीं है। एक एक कमरे में दो तीन सेक्शन के बच्चे बैठते हैं। जहां न रोशनी है और न धूप। यदि कुछ है तो महज अंधेरा। सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर यानी गुणवत्ता को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता एक ओर शिक्षकों के कंधों पर है तो वहीं दूसरी ओर प्रशासन को भी अपने गिरेबां में झांकने की आवश्यकता है।
बेहतर प्रशिक्षक के शिक्षकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर मोड़ना मुश्किल है। प्रशिक्षक का काम शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया से जोड़ना है। यदि सिर्फ शैक्षिक पौडागोगी यानी प्रविधि पर जोर दिया जाएगा तो वह प्रशिक्षण कार्यशाला भी ज्यादा कारगार नहीं हो सकती। शिक्षक कार्यशालाओं में प्रशिक्षक का चुनाव भी बेहद चुनौतिपूर्ण काम है। यदि एक ही कार्यशाला में दो अलग अलग विचारों और शिक्षण तकनीक बताया जा रहा है तो वह शिक्षकों के लिए भ्रम पैदा कर सकता है। इसलिए इस बात को भी ध्यान में रखन की आवश्यकता है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...