Wednesday, January 29, 2014

भगोड़े नहीं थे वो


कौन कहता है कि वो भगोड़े थे। उन्होंने तो सबको यही कहा था कि कल सुबह घर से जाएंगे, लेकिन रात में ही निकल गए। इसमें भगोड़ा की बात कहां से आ गई। बड़ी आसान सी बात भी आपको समझ नहीं आती कि घर बेच कर जा रहे थे। यानी दूसरे शहर। अब इस शहर से उनका दाना पानी खत्म हो गया था। बेटा अपना नया मकान बनाना चाहता था, उसे पैसे की आवश्यकता थी। सो उन्होंने बेटे के लिए अपनी गहरी कमाई से बनाए मकान ही तो बेच रहे थे। आखिर मरने क बाद भी तो यह मकान उसका ही होना था। यह अलग बात है कि जीते जी इस मकान को बेच गए। हां इसे भी बनाने के लिए अपने खेत और रिटायरमेंट के मिले पैसे लगाए थे। अब यह मायने नहीं रखता कि कैसे कैसे एक एक कमरे बनवाए और भर भर दुपहरिया, बरसात में बैठकर काम कराए। एक बार मोह टूटता है तो फिर हम कुछ भी कर देते हैं।
सुबह उनके दरवाजे पर ताला भाई साहब थे। खामोश और निरपेक्ष भाव से टंगे ताले की भी अपनी ही कहानी थी। वो ताला भी मास्टर साहब के घर से मांग कर लाए गए थे कि कल नया खरीद कर वापस कर दूंगा। तो ताले की भी मजबूरी रही होगी शायद। वो लटका था और कई कहानी रात की कह रहा था। वो तो रातों रात चले गए और लोगों की बातें, शिकायतें सुनने के लिए इसे लटका गए। ताला भी आखिर मजबूत दिल वाला था। वो भी बिना बेचैन हुए सब की बातें, लानतें सुन रहा था। लोग यही तो कह रहे थे कि बिना बताए चले गए। मेरा 10 हजार उनके पास था। तो कोई कहता मेरी साइकिल उनके पास थी। बैंक पास के साव जी भी आ गए कहने लगे एक महिने से राशन ले रहे थे अचानक पैसे लेकर भाग गए।
अरे भाई आप भी कहां रहते हैं? इसी दुनिया में रहिए। जब उन्हें मकान बेच कर जाना ही था तो फिर इस शहर और शहर के लोगों स ेअब क्या लेना देना। क्यों भला वो पैसे लौटाते? क्यों किसी से लिए उधार चुक्ता कर जाते। कौन उनसे पैसे लेने नए शहर जाएगा। कुछ दिन की ही तो बात है लोग बोल बोल कर थक जाएंगे। धीरे धीरे भूल जाएंगे। जैसे बसंतु वाली घटना अब किसे याद है। सब भूल ही तो गए। मान लिया कि अब वो पैसे नहीं मिलेंगे। यह भी संतोष कर लिया कि आकर दिखाए यहां। मगर जिसके पैसे लेकर बसंतु गया वो तो रो ही रहे थे। कईयों की गहरी कमाई लेकर चंपत हो गए थे बसंतु। मगर कहते हैं न कि समय इज द बेस्ट पेन हिलर सो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
याद आता है कैसे इस मुहल्ले में सबों ने धीरे धीरे मकान- दुकान, बच्चे करिअर बनाए थे। स्कूटर से कार तक का सफर तय किया था दुलुकन बाबु ने। और पंडीजी के घर में कैसे पहली बार मजमा लगा था जब दिल्ली की बहुरिया आई थी। इन्हीं गलियों में खेल कर सभी के बच्चे जवान दाढ़ी मूछ वाले हुए थे। सर्दियों में रजाई दुकान से नहीं आती थी लोगों के घर से मांग कर आती थीं रात भर के लिए। दाल-सब्जी और चीनी की मित्रता थी घरों में। यह सब अब आंखों के आगे घूमनेे लगे हैं। हर कोई हर किसी के रिश्तेदार से भी परिचित था इस मुहल्ले में। सब कुछ सारे रिश्ते तार तार कर कैस कोई जा सकता है।

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