Tuesday, January 7, 2014

हिन्दी को बचाएं ही क्यों


विश्व हिन्दी साहित्य पुरस्कार सम्मामन समारोह में यूं तो कई बातें अमह रहीं जिन्हें स्वीकारना और अपनाना पड़ेंगा। पहली बात तो यही कि कोई अल्पावधि में भी कैसे अपनी पूरी गति, मति बनाए रखते हुए वर्तमान में अपनी जगह बना सकता है। दूसरी पुरस्कारों में ताज़ातरीन व्यक्तित्वों को तरजीह देना मसलन स्व दीनानाथ मिश्र के नाम पर पुरस्कार दिया जाना भी शामिल है, इस वर्ष सुशील सिद्धांत को यह सम्मान मिला। तीसरी बात कि व्यक्तिगत आग्रह और अनुरोध पर कितने लोग आपके साथ खड़े हो जाते हैं, यह आशीष कंधवे से सीखी जा सकती है जो इस विश्व हिन्दी साहित्य परिषद् के जन्मदाता है। और मुख्य बात यह भी कि राहुल देव जैसे धाकड़ पत्रकार की फटकार कार्यक्रम में उपस्थित तमाम लेखकों ने न केवल सुना बल्कि उन्हें उनकी फटकार के लिए साधुवाद भी दिया।
कार्यक्रम में डायस पर विराजमान बीएल गौड, हीरामन, महेश दर्पण, राहुल देव, मृदुला सिन्हा, हरीश नवल एवं संचालक हरीश अरोड़ा ने जिस बेहतरीन ढंग से पूरे कार्यक्रम में संचालित किया वह वाकई काबिले तारीफ कह सकते हैं।
महेश दर्पण, हीरामन, राहुल देव और मृदुला जी ने जिस अंदाज़ और ठसक के साथ अपनी बात रखी उसे सुनने के लिए हिन्दी साहित्यकारों को जिगरा चाहिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास से लेकर वर्तमान और भविष्य की ओर ले जाने वाले वक्तव्यों पर नजर डालें तो एक बारगी या तो अतीत गौरव के बोझ से दब जाएंगे या फिर भविष्य की चुनौतियों एवं हिन्दी की बदहाली को लेकर दुश्चिंता में डूब जाएंगे।
हीरामन जी को कोट करने के मोह से रोक नहीं पा रहा हूं। सो लीजिए, मैं भारत से गांधी और हिन्दी मांगता हूं। क्योंकि यह हमारी भूमि रही है। हमने यहीं से हिन्दी को जाना, माना और पहचाना। यदि आपके यहां हिन्दी नहीं रहेगी तो हमारे यहां से क्या उम्मींद कर सकते हैं।
राहुल देव ने कटू किन्तु हकीकत बयां कर के लोगों को झकझोर दिया। यह झकझोरना अकसर गैर हिन्दी वाले जब करते हैं तब हमारी तंद्रा टूटती है। हमारा हिन्दीपन जागता है और हम कहते हैं आपने हिन्दी के लिए किया ही क्या है? आपको हिन्दी के बारे में जानकारी ही कितनी है आदि सवालों के ढाल से खुद को बचाने की कोशिश करते हैं। सचपूछा जाए तो हिन्दी के बचाने की चिंता किसे है, कौन अपनी रीढ़ दधीच बनाना चाहता है। यह भी विचार का विषय है। क्या महज पुरस्कारों के वितरण से हिन्दी की रक्षा की जा सकती है या कि कोई और तरीका इज़ाद करना होगा।
क्या वास्तव में हिन्दी मर रही है या उसे संरक्षित करने का समय आ गया है? यह कौन से लोग हैं जो हिन्दी की मौत पर रोटी सेक रहे हैं उनकी भी पहचान जरूरी है। हरीश नवल ने जो बात कही कि हर शब्दों को हिन्दी मंे जो ऐत्तर हिन्दी के हैं उन्हें कबूल करने में परहेज क्यों तो हमें विचार करना होगा कि क्या वास्तव में हिन्दी को चलायमान रखने के लिए हमें यह भी जोखिम उठाना होगा।
गोपालदास नेपाली सम्मान से सम्मानित डाॅ लालित्य ललित, सुशील सिद्धांत या कि अन्य सम्मानित लेखकों से हिन्दी समाज और ज्यादा अपेक्षाएं नहीं की जानी चाहिए। की जानी चाहिए क्योंकि उन्हें यह सम्मान इसलिए नहीं मिला कि वो महज लेखक हैं बल्कि इसलिए भी मिला कि वो हिन्दी की चिंता भी करते हैं। लालित्य ललित कविता, व्यंग्य, आलेख से लेकर वाचन परंपरा के भी वाहक हैं उनसे तो सामाजिक को और भी उम्मींद बंधती हैं।

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