Friday, August 2, 2013

बोलने की करो प्रैक्टिस



कौशलेंद्र प्रपन्न
बोलना भी एक कला है। दोस्तों के बीच बोलना और किसी प्रतियोगिता या सभा में बोलना बिल्कुल अलग बात है। जब हम दोस्तों से बातचीत कर रहे होते हैं तब हमें डर नहीं लगता। क्योंकि वहां कोई आपको जज नहीं करता। लेकिन जब बच्चे पोडियम पर खड़े होते हैं तब उन्हें हाॅल में बैठे मैडम, जज, बच्चे और बाहर के स्कूलों से आए दूसरे बच्चे भी सुन रहे होते हैं। ऐसे में कई बच्चे ठीक से नहीं बोल पाते। कुछ तो हकलाने लगते हैं तो कुछ बोलते बोलते चुप हो जाते हैं। उन्हें याद किया हुआ भाषण, कविता याद ही नहीं आती। ऐसे में बच्चे रूआंसा सा चेहरा लेकर वापस आ जाते हैं। और दूसरा बच्चा जो बेधड़क बोल कर जाता है उसे एवाड मिल जाता है।
बोलने से डरना नहीं है। बल्कि कैसे बोलना है? क्या बोलना है? किस तरह से बोलना है इसकी तैयारी तुम्हें करनी चाहिए। जो भी विषय यानी टाॅपिक मिला है उसपर मैडम, पापा, भईया या दीदी से विचार-विमर्श यानी जानकारी हासिल कर अच्छे से तैयारी करनी चाहिए।
पोडियम पर सीधे खड़ा होना ही अच्छा रहता है। दूसरी जरूरी बात यह कि तुम्हारे सामने जो बैठे या खड़े हैं उनकी आंखों में आंखें डाल कर बोलना चाहिए। इससे पता चलता रहता है कि सुनने वाले तुम्हारी बात ध्यान से सुन भी रहे हैं या नहीं। हां पता है कि जब तुम बच्चों को देखते हो तो वो तुम्हें मुंह चिढ़ाते हैं। हंसाने की कोशिश करते हैं। लेकिन तुम्हें उन लोगों को ऐसे देखना है जैसे वो कुछ नहीं कर रहे हैं। अगर एक बच्चे पर देखोगे तब मुश्किल है। इसलिए किसी भी एक पर नजरें मत टिकाना। सभी की नजरों में देखने की कोशिश करना।
जिस भी विषय पर बोलना है उसकी प्रैक्टिस घर पर, ग्राउंड में, मिरर के सामने कई बार बोल कर करना चाहिए। इससे पता चलता है कि कहां गलती हो रही है। कई बार बच्चे पाॅकेट में हाथ डालकर खड़े होते हैं तो कई अपने कपड़े, बाल ही संवारते रहते हैं। ऐसे में आपके माक्र्स कटते हैं और दूसरा जीत जाता है।
बोलते समय आपका उच्चारण बिल्कुल साफ, शुद्ध और धाराप्रवाह होनी चाहिए। आपकी प्रस्तुती कैसी है इसपर भी ध्यान दिया जाता है। इसलिए हाथों, चेहरे, बाॅडी के हाव-भाव भी जीत दिलाने में मदद करते हैं।

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