Tuesday, August 5, 2008

अर्जुन की गांडीव

कभी सोचता हूँ,
अर्जुन की गांडीव जब पेड़ पर तंगी गई होगी ,
तब कैसे अपनी अन्दर के अर्जुन का समझए होंगे ,
तीर तो चलने को तैयार पर गांडीव ही नही ,
कलम तो पास में हो पर ,
लिखने पर पावंदी लगी हो तो ...
विचार यूँ ही पड़ पर फलते होंगे ,
आज कल कई हैं जिनके विचार की पोटली पड़ पर ही रहा करती है।
.........
बाहर की आवाज़ से तंग आ कर ,
अक्सर अन्दर के कमरे में चला जाता हूँ ,
पर वहां भी माँ के घुटने से उठी आह बजने लगती है,
पिताजी की आखें कहने लगती हैं ढेर से सवाल ,
या फिर कालेज की दोस्त की हँसी गूंजने लगती है॥
तंग आकर बैठ जाता हूँ -
देखने टीवी पर वहां संसद के हंगामे सुनाये जाते हैं ।
परेशां पहले की तस्वीर देखने लगता हूँ ,
सोचा अतीत की फोटो में तोडी देर रह लूँ ,
मगर उन तस्वीरों में मेरे भरे काले बाल सर दिखे ,
जैसे ही अपने उचाट होते सर पर सोचता हूँ ,
तभी काम वाली बेल बजा देती है ,
मैं सोचता ही रह जाता हूँ ,
आवाज कमरे में भी शांत न हो सका।

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