Tuesday, June 18, 2019

शपथ की भाषा



कौशलेंद्र प्रपन्न
संसद में कौन सांसद किस भाषा में शपथ ले रहे हैं इस बाबात मीडिया और सोशल मीडिया में ख़ासा चर्चा है। कोई अंग्रेजी में शपथ ले रहा है तो विवाद तो कोई भोजपुरी में शपथ लेने की मांग कर रहा है तो उसे यह तर्क दे कर रोका गया कि यह संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा नहीं है इसलिए इस भाषा में शपथ नहीं ले सकते। जिन भाषाओं में शपथ लेने से रोका गया उसमें बघेली भी शामिल है। अचानक संस्कृत भाषा को मुहब्बत करने वाले ज्यादा ही जोश में हैं। फलां ने संस्कृत में शपथ लिया। उसने भी लिया और इसने भी संस्कृत में शपथ ली। क्या हम नहीं जानते कि आज संस्कृत कुछ फीसदी लोगों की व्यवहार की भाषा हो सकती है। कुछ संस्थानों, स्कूलों आदि में ही पढ़ी और पढ़ाई जाती हैं। बाकी तो आम जिं़दगी से नदारत भाषा के दिन अचानक शिक्षा नीति के मसौदे आने से जान आ गई है। न केवल संस्कृत बल्कि पालि, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाएं इन दिनों खूब इठला रही हैं। हिन्दी भी उन्हें के संग ज्यादा खुश हो रही है। यह अगल बात है कि कुछ राज्यों ने इसे अनिवार्यतौर पर पढ़ने-पढ़ाने पर सवाल उठाए और सरकार को यह निर्णय वापस अपनी झोली में रखना पड़ा।
संस्कृत में शपथ लेने वाले वे सांसद हैं जो कभी कभार शौकीयातौर पर बोल लिया करते हैं। इनमें साध्वी प्रज्ञा, प्रताप सारंग, देबू सिंह पटेल आदि। वहीं अंग्रेजी में शपथ लेने वालों में राहुल गांधी, गौतम गंभीर, बाबुल सुप्रियो हैं। इन्हें क्या दोष देना कि क्यों इन्होंने अंग्रेजी में शपथ ली? राहुल बेशक जनता को हिन्दी में संबोधित करते हैं क्या वह स्क्रीप्ट हिन्दी में होती है या रोमन में? बाबुल सुप्रियो गाने तो हिन्दी की भी गाते हैं लेकिन संभव है उसकी स्क्रीप्ट भी रोमन की होती हो। लेकिन हम सवाल उठा रहे हैं। जबकि यह किसे नहीं मालूम कि पूरा का पूरा हिन्दी फिल्म जगत रेमन मार्का हिन्दी में ही पैसे पीटा करती है। जहां तक हिन्दी में शपथ लेने वालों की बात है तो ये लोग सीधे सीधे हिन्दी पट्टी से आया करते हैं या फिर हिन्दी सी दीखने की कोशिश करते हैं7 स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद, रमेश पोखरियाल निशंक, डॉ महेंद्र नाथ पांडे, जनरल वीके सिंह आदि।
भाषा से मुहब्बत शायद थोपी जाए तो यह हमारी अपनी नहीं हो सकती बल्कि वह दूसरी भाषा के तौर पर ही बरती जा सकती है। कौन किस भाषा में सहज है इसको लेकर किसी दूसरी शक्ति या दबाव तो कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही जब उत्तर भारतीय भाषायी समाज दक्षिण भारतीय भाषायी समाज पर हिन्दी सीखने-सिखाने की मजबूरी पैदा करते हैं तब भाषायी संघर्ष को जन्म देते हैं। जबकि यही कहानी उलट भी सकती है। फ़र्ज कीजिए दक्षिण भारतीय इतनी ताकत हासिल कर लें कि भाषायी समाज को प्रभावित कर सकते हैं तो संभव है हिन्दी के स्थान पर तमिल, कन्नड़, मलयाली आदि भाषाओं को सीखना-सिखाना अनिवार्य कर दे। तब भी संघर्ष शुरू होंगे ही। दरअसल भाषायी समाज को राजनीति हस्तक्षेपों को ख़ासा आकार दिया है। सत्ताएं तय करती रही हैं कि कौन सी भाषा कब और कैसे अचानक शक्ति प्रदाता भी भूमिका में आ जाएंगी।
भाषाओं को लेकर लंबे समय से संघर्ष और वाक्युद्ध चले हैं, जिसकी सत्ता और ताकत प्रभावित करने वाली रही है उसने दूसरी भाषा को पनपने से पहले ही कूचलने की पूरी कोशिश की है। इस पददलन में वे भाषाएं काफी हद तक सफल भी रही हैं। जबकि यदि हम 1968 की राष्टीय शिक्षा नीति की बात करें तो स्पष्टतौर पर कहा गया है कि अंग्रेजी को प्राथमिक स्तर पर शिक्षण का माध्यम नहीं बनाया जा सकता। न ही इतनी बड़ी संख्या में शिक्षक ही मुहैया करा सकते हैं। लेकिन वही अंग्रेजी हमारे करीब रहकर अन्य भारतीय भाषाओं की नींव खोदती रही है। एक भाषा के तौर पर अंग्रेजी सीखने-सिखाने में किसी को भी कोई गुरेज़ नहीं सकता किन्तु दूसरी भारतीय भाषाओं को धकेलकर अंग्रेजी को थोपना किसी को भी खटकेगा। हालांकि नई राष्टीय शिक्षा नीति आधुनिक और भारतीय भाषाओं को संरक्षित करने और पढ़ने-पढ़ाने के माहौल सृजित करने के प्रति गंभीर है। भारतीय भाषाओं को बचाना और सीखना-सिखाना ग़लत नहीं है बल्कि किसी एक भाषा को ताज पहनाना और अन्य भाषाओं को हाशिए पर धकेलना उचित नहीं। 

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