Monday, February 24, 2014

लोकार्पण से आगे किताबें


 विश्व पुस्तक मेले में बहुत- सी किताबों के घूंघट उठाए जा रहे हैं। रोज़ किताबों को अनावर्नित किया जा रहा है। वो किताबें खुश हैं। मगर उन किताबों का क्या जो अपनी पारी के इंतजार में हैं। उन्हें भी कोई पुचकारे, पलटे और कहीं किसी के बैग में आए और घर में पहंुचे। ऐसी बहुत- सी किताबें हैं जो प्रकाशकों के स्टाॅल पर चुपके- चुपके कह रही हैं, आओ जी हमें भी पढ़ो। हमारे मुखड़े से घूंघट उठा दो। गौरतलब है कि रोज दिन तकरीबन सौ किताबों को लोकार्पण तो इस विश्व पुस्तक मेले में हो ही रहे हैं। उसमें कहानियां, कविताएं, आलोचना, निबंध आदि शामिल हैं। यदि थोड़ा ठहर कर देखें तो पाएंगे कि कविताओं की किताबें ज्यादा लोकार्पित हो रही हैं। वैसे यह एक मोटे तौर पर ही कहा जा सकता है क्योंकि लोकार्पित होने वाली किताबों में न केवल कविताएं हैं बल्कि कहानियों और आलोचनाओं की किताबें भी शामिल हैं। प्रश्न यह उठता है कि जिन किताबों का लोकार्पण इस मेले या अन्य मेलों में हो रहे हैं या हुए हैं क्या उनकी पठनीयता और बिक्री में भी इजाफा हुआ है या महज लोकार्पित होकर प्रकाशक के गोदाम में या फिर पुस्तकालयों में सेल्फ पर सजी हुई हैं।
बड़ी तदाद में किताबों का प्रकाशन एक आत्मतोष तो देता है कि किताबें छप रही हैं। उनके खरीद्दार और पाठक होंगे तभी तो प्रकाशक छापने का जोखिम उठाता है। लेकिन प्रकाशकों के अपने तर्क हैं उस ओर यदि ध्यान दें तो वो हमेशा यही कहते पाए जाते हैं कि किताबें नहीं बिकतीं। हमें दूसरे रास्ते से किताबों को खपाना पड़ता है। लेखक तो लिख कर अपनी जिम्मेदारी से निकल जाता है। मित्रों, परिचितों को किताबें भेंट कर अगली प्रति की मंाग सरका देता है। लेकिन प्रकाशक होने के नाते हमारी जिम्मेदारी बन जाती है कि कैसे किताबों को पाठकों तक पहुंचाया जाए। सामान्यतौर पर प्रकाशक मूल्यों में बढोत्तरी को लेकर जो तर्क चस्पा करते हैं उसके पीछे यही वजह गिनाते हैं कि कागज की कीमत, खरीदने वालों की कमी की वजह से किताबों के मूल्य ज्यादा रखना पड़ता है।
मेले में किताबें तो आ जाती हैं। उनका लोकार्पण भी बड़े नामी गिरामी लेखकों, कलाकारों आदि से कर दिया जाता है। लेकिन क्या उन किताबों का समुचित, समीक्षा, आलोचना भी हो पाती है? क्या उन किताबों का मूल्यांकन पाठक व आलोचक करता है आदि सवालों पर भी आज विचार करने की आवश्यकता है। आलोचना व समीक्षा किस प्रकार होती हैं और किताबों की समीक्षा आज किस रूप में हो रही है इस तरफ यदि नजर डालें तो पाएंगे कि वह समीक्षा कम पुस्तक परिचय ज्यादा होता है। मसलन किताब में कितने पन्ने हैं, कथानक कैसा है, लेखक ने किस विषय पर कलम चलाई आदि। जबकि एक समीक्षा न केवल लेखक के लिए बल्कि पाठकों के लिए मार्गदर्शक का काम करता है। लेखक से कहां कमी रह गई। पाठक को फलां किताब में क्या मिलेगा आदि पर विमर्श किए जाएं और बिना किसी पूर्वग्रह के समीक्षा हो तो वह किताब के साथ ही लेखक और पाठक के लिए ज्यादा लाभकरी साबित होगा।
अमूमन इन दिनों लोकार्पित होने वाली किताबें के भविष्य और वत्र्तमान पर भी ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है। क्या आज जिस तरह की किताबें लिखी जा रही हैं वह आज की चुनौतियों से सामने करने के लिए हमें तैयार करती है या सिर्फ अतीत की सुखद-दुखद यादों व समय में विचरने भर की रचना है। क्योंकि अधिकांश कविताएं महज अतीतगामी दिखाई पड़ती हैं। ऐसी किताबों का क्या और कितना भविष्य है यह भी अहम है।

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