Thursday, August 8, 2019

पिताजी के जाने के बाद याद आती हैं उनकी उपस्थिति


कौशलेंद्र प्रपन्न
हर जगह उनके होने का एहसास ताज़ा रहती हैं। जहां जहां जैसे  वो चलते थे। चलते नहीं बल्कि पांव घसीटकर चलते थे, वह पदचाप सुनाई देती है। सुनाई तो उनके खखारने की भी आती है जहां वो दिन में कई दफा मुंह धोया करते थे। मुंह धोते धोते आंखों में पानी के छींटे भी मारा करते। वो छींटे अब भी जेहन पर टंगी हैं।
कहां कहां नहीं हैं पिताजी। उन किताबों के पन्नों में जज्ब हैं जिन्हें वो पलटा करते थे। अख़बारों को पूरी तरह से पढ़ाकरते थे। उनके पढ़ने के बाद अख़बार कुछ ऐसा हो जाता जैसे पुराने कपड़े। एक एक तह को  उघार कर पढ़ा करते थे। अंग्रेजी के हों या हिन्दी के जिस दिन अख़बार हाथ नहीं लगते उस दिन लड़ भी जाते थे।
वॉक पर जाना उन्हें  बेहद प्रिये था। जिस दिन वॉक पर नहीं जाते बच्चों से मचलने लगते। उम्र कोई बाधा नहीं थी। आंखें भी दुरुस्त हैं। कान थोड़ा साथ नहीं देता। एक कान से सिर्फ 35 फीसदी ही सुना करते हैं। इसलिए मशीन का प्रयोग करते हैं। मशीन लगाने प्रयोग करने के पीछे की अलग ही कहानी है। मशीन लगाने से दूर भाग रहे थे। कहते हैं मशीन प्रयोग करूंगा तो मेरे कान और खराब हो जाएंगे। यह शायद तकनीक का डर है जो शायद किसी से सुनकर बैठ गया। लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद कान में मशीन का प्रयोग करने लगे हैं। अच्छा सुनते हैं। वैसे मां बताती हैं जो सुनना चाहते हैं वो यूं ही सुन लेते हैं। जो नहीं सुनना चाहते वो नहीं  सुनते।
वैसे कोई ज्यादा उम्र नहीं है। कहने को 88 साल के हैं। लेकिन घूमने-फिरने में आनंद आता है। किन्तु मॉल जाना, लोगों से ज्यादा बातें  करना उन्हें  न तब पसंद था और न अब। जब जवान थे तब भी उन्हें किताबें पढ़ना और लिखना ज्यादा प्रिये था। और वही शौक आज तलक बरकरार है।
एक कविता लिखने  बैठते हैं तो उसे एक एक माह और उससे भी ज्यादा वक़्त लिया करते हैं। पूछने पर बताते हैं लय नहीं मिल रहा है। कई  बार मितला और मिसरा मिलाने में काफी वक़्त लगाते हैं। लेकिन कविता तैयार होती है तब मुझे ही तलाशते हैं सुनाने के लिए। सुनना बबुआ। बबुआ कहते हैं मुझे। और मुझे उनकी कविता को गाना बेहद रूचता है। कई कविताओं का गायन किया है। जो सुनने वालों को मोह लेती है। उनकी कविताओं को  एक किताब की शक्ल देने की कोशिश की। जिसमें  1952 से लेकर अब तक की कविताओं को शामिल किया। पाहुन नाम दिया था मैंने। जब उनके हाथ में किताब आई तो आंखों में लोर भर गए थे जो अब तक याद है। मैंने पूछा कैसे लग रहा है? उन्होंने कहा कुछ भी नहीं। बस एक टक देखते रहे। मुझे मेरे सवालों का उत्तर मिल गया था।
अब कुछ कुछ भूलने  लगे हैं। लेकिन अपना चश्मा, अपनी कलम, अपनी किताब नहीं भूलते। अपना वह झोला भी नहीं भूलते जिसमें ये सामान रखा करते हैं।

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