Wednesday, October 12, 2016

बचपन का संरक्षण


कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की तारीख में बच्चां के बचपन का संरक्षण और देखभाल काफी अहम है। बच्चों पर होने वाले चौतरफा प्रहार की मार को हम आज बेशक नजरअंदाज कर दें लेकिन उसके घातक परिणामों से इंकार नहीं कर सकते। हमनें अनुमान तक नहीं किया है कि नब्बे के दशक के बाद और 2000 के आरम्भिक दौर में बच्चों पर कई प्रकार के दबाव और प्रभावित करने वाले तकनीक उभर कर सामने आए। हमें उन तमाम घटकों की प्रकृति और बुनावट को पहचानने की आवश्यकता है जो बच्चों से बचपन को खत्म करने पर आमादा हैं। इनमें सबसे मजबूत घटक है विभिन्न माध्यमों में बच्चों के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगिताएं। प्रतियोगिताओं से परहेज नहीं है लेकिन उन प्रतियोगिताओं के बाजारीय दर्शन और सिद्धांतों से असहमति रखी जा सकती है। क्योंकि इन प्लेटफॉम पर प्रतियोगिता के साथ कुंठाएं, निराशा, दुःचिता को धीरे से सरका दिया जाता है। दूसरा घटक तकनीक है जिनसे धीरे धीरे बच्चों से उनके पारंपरिक सहगामी क्रियाओं, खेल, मनोरंजनों के माध्यम का गला घोटा दिया। कभी समय था जब बच्चे पत्रिकाएं, कहानी की किताबें आदि पढ़ा करते थे। अब न किताबें रहीं और न घर में पढ़ने का माहौल। इस संस्कृति को विकसित करने में टीवी की बहुत बड़ी भूमिका रही। भूमिका तो सूचना और तकनीक क्रांति की भी कम नहीं रही जिसने हाथों में खेलों के सामान को छीन कर स्मॉट फोन, टेब्लेट्स, आई पैड पकड़ा दिए। फोन में होने को तो वर्ड्स गेम भी होते हैं जिससे अपनी शब्द-भंड़ार को बढ़ाया जा सकता है कि उसकी जगह पर गेम्स खेलने की प्रवृत्ति ज्यादा विकसित होती गई। मोटेतौर पर बच्चों से बचपन छिनने वाले घटकों की पहचान हम इन रूप में कर सकते हैं- सूचना और तकनीक क्रांति, प्रतियोगिताओं का डिजिटलीकरण और हमारे बीच से पढ़ने-सुनने और सुनाने की आदतों को छिजते जाना।
विभिन्न निजी और सरकारी टीवी चैनलों पर बच्चों के लिए बच्चों के कंटेंट के नाम पर जिस प्रकार के जाल बिछाए गए उनमें हमारे अभिभावक,बच्चे, नागर समाज धीरे धीरे फंसते चले गए। हमें कंटेंट के स्तर पर, उसकी प्रस्तुति के स्तर, उसके दर्शन पर सवाल उठाने चाहिए थे लेकिन हमने उन्हें बिना जांच-पड़ताल किए, बगैर विमर्श के अपने अपने घरों में स्वागत किया। उसी का परिणाम है कि अब अभिभावक शिकायत करते हैं कि उनके बच्चे उनकी नहीं सुनते। दिन भर टीवी के सामने बैठे रहते हैं। इसमें दोष सिर्फ बच्चों का ही नहीं है बल्कि अभिभावक भी उतने ही जिम्मेदार हैं क्योंकि जब बच्चों को व्यस्त रखना है तो टीवी ऑन कर देने की शुरुआत भी तो हमने ही की थी। शुरू में बच्चे व्यस्त रहे। हमने अपने काम निपटा लिए। सिर दर्दी से जान छूटी। लेकिन जब वही टीवी के कार्यक्रमों बच्चों की आम जिंदगी में शामिल हो तब हमारे चिंता बढ़ी कितना बेहतर होता कि हमने शुरू में ही इन माध्यमों के इस्तमाल और समय-सीमा पर घर में बातचीत की होती। हालांकि यह जल्दबाजी होगी कि कैसे अनुमान लगा लें कि वह हमारे बच्चों के महत्वपूर्णसमय को खत्म कर रहा है।लेकिन इतनी एहतीयात तो बरती ही जा सकती थी कि जिन चैनलों के हाथों हम अपने बच्चों को सौंप रहे हैं उन्हें खुद देख परख लेते। इसी लापरवाही का नतीजा हैकि बच्चे दिन दिन भर टीवी से चिपके होते हैं। मांए, घर के अन्य सदस्य चिल्लाते रहते हैं लेकिन टीवी देवता बंद नहीं होते।
टीवी पर प्रसारित होने वाले बच्चों के कार्यक्रमों की वेशभूषा पर नजर डालें तो एक दिलचस्प बात यह नजर आएगी कि बड़ों के पहनावे और बच्चों के पहनावे, मेकअप आदि में बुनियादी अंतर खत्म हो चुके हैं। हेयर स्टाइल, वेशभूषा, बोलने के अंदाज आदि सब एक दूसरे में ऐसे मिल चुके हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल होगा। यह कहीं न कहीं बच्चों की सहज दुनिया और उनकी देह भाषा,पहनावे को बड़ी चतुराई से उनसे छीन ली गई। और हम उसी मूर्खता से उन्हें स्वीकारते और स्वीकृति भी देते रहे।
तकनीक के विकास के साथ ही बाजार ने कभी नारा दिया था कर लो दुनिया मुट्ठी में हम उसके पीछे भागने लगे। बच्चों तक के हाथों में मोबाइल आ गए। अब मोबाइल सिर्फ संवाद का माध्यम भर नहीं रहा। बल्कि मनोरंजन के अन्य साधनों के तौर पर भी हमारी मुट्ठी में ऐसे बंधा कि सोना,जगना,बाथरूप जाने तक में साथ होता है।बच्चों हमीं से सीखते हैं जब बच्चे स्वयं देखते हैं कि मां-बाप, भाई बहन सब शौचालय में भी फोन लेकर जाते हैं तो वे क्यों पीछे रहें। तकनीक विकास का फंदा आज इतना कस चुका हैकि हमारा निजी से निजी पल भी उसी के हाथ में है।वही बच्चे भी सीख रहे हैं। सुबह आंखें मीचते,रात सोते हाथ में मोबाइल देख सकते हैं। बच्चों की मुट्ठी से हमने पत्रिकाएं, किताबें छीन कर गजेट्स पकड़ाकर अब रो रहे हैं।
पढ़ने की आदत न केवल बच्चां में खत्म सी हो गई बल्कि बड़ां की जिंदगी से भी लगभग कमतर ही होती चल गई। जब बच्चों में अपने घरों में पत्रिकाओं, किताबों के स्थान पर गजट्स देखेंगे तो उनकी रूचि भी उन्हीं में होगा न कि किताब पढ़ने व पत्रिकाओं में उलटने पलटने में। हम यह दोष दे कर नहीं बच सकते कि आजकल बच्चों को पढ़ने में मन नहीं लगता। बच्चे किताबें नहीं पढ़ते आदि। बच्चों के आस-पास यानी परिवेश से ही पठनीय सामग्रियां खत्म हो गई हैं। जो कुछ सामग्री बची है वह पाठ्यपुस्तकें हैं जिसमें अमूमन उनकी रूचि मुश्किल से जगती है। पाठ्यपुस्तकेत्तर पठनीय सामग्रियों उपलब्ध कराना हमारी जिम्मेदारी बनती है न की बाजार की।
 

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