यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Thursday, December 31, 2009
हमारे समय की सब से बड़ी चुनौती यही है की हम अपनी कमजोरी कुबूल नहीं करते। जब की स्वीकारने में ही भलमनसत होगी। हम आगे से उन गलतियों को दुहराएंगे नहीं। मगर हम अपनी आदतों से कहाँ बाज आते हैं। लेकिन हमें देश और खुद के लिए करना होगा। यही की अपनी भूल को आने वाले समय में न दुहरायें।
अतीत कितनी भी सुखद या की दुखद क्यों न हो उसके संग चिपक कर रहा नहीं जा सकता। यदि कोई भी समाज या की लोग येसा करते हैं तो सच माने की वह विकास नहीं कर सकता। हम अतीत से सीख ले कर अपने वर्तमान को तो सुधर ही सकते हैं साथ ही भविष को भी बना सकते हैं।
अब यह इस बात पर निर्भर करता है की आपको क्या पसंद है। या तो आप अपने अतीत से चिपक कर लाइफ ख़त्म कर लें यह फिर अपने बेहतर भविष का निर्माण कर सकते हैं। यह बात देश और समाज पर भी लागु होता है। यही समाज विकास कर पता है जो अपने वर्त्तमान के साथ प्रयोग करने के लिए तैयार रहता है। जो भी प्रयोग करने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं। तो सम्झ्यें की वो अपने विकास के रफ़्तार को ब्रेक लगा रहे हैं।
२००९ कई कोण से खास है - कोपन्हागें में वर्ल्ड सुम्मित। भारत का रुख, भारत के सम्मान में अमरीका के प्रेसिडेंट हाउस में आमंत्रण। देश के लिए राजनायक के रूप में देखा गया। १९९२ में अयोध्या में शर्मनाक घटना मस्जीद को गिरा कर जिस तरह की सहिशुनता का मिसाल पेश किया जाया उसपर शर्म तो आती ही है। लिब्राहन आयोग ने १९ साल बाद उस घटना पर आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की।
सरकार रेस्सेशन के दौर के ख़त्म होने का और्र बना चुकी है। लेकिन सरकार के रिपोर्ट पर विश्वास नहीं होता। यही सरकार है जिसने दिसम्बर २००८ के आखरी हप्ते में कुबूल की थी की हाँ , देश में ६८,००० लोगों की नौकरी जा चुकी है। फिनांस मिनिस्टर ने उद्योग से जुड़े लोगों से कहा की लोगों की नौकरी न ख़त्म करें बल्कि वेतन कम कर दें। आज यही सरकार है जो कह रही है की देश मंदी के बुरे दौर से बाहर निकल चुकी है। अब देखना यह होगा की क्या वास्तव में यह है या की सरकारी बयानबाज़ी भर है।
उम्मीद की किरण साथ होने से रात की काली सेः ज़ल्द खत्म होने की उम्मीद जगती है। न हम हार माने न ही उम्मीद का दमन तोड़ें। रहिमन चुप हो बैठ्या देखि दिनन को फेर। नीके दिन जब आयेहं बनत न लागियाह दीर।
अलबिदा २००९ और अतिथि २०१० को सलाम आइय साहब अब आप क्या रंज या के रंग उछालते है।
साल की पहली मुलाकात
हर सुबह इक आशा की किरण,
हर शाम सुकून भरी,
रात विश्राम...
जीवन में काम-
इक मुकाम,
जिस की चाह,
उसे पूरा का सकने का आत्म बल...
शुभ साल करे इन्त्ज्ज़र...
आप का कौशल
Wednesday, December 30, 2009
जाने वाले साल की मार
पाकिस्तान से क्या हमारे रिश्ते यैसे ही रहा करेंगे। या दोनों देशों की जनता बस खाबों में ही पुनर्मिलन के सपने देखा करेंगे या हकीकत में भी येसा घाट सकता है। पाकिस्तान में हुक्मरान बाद के दिनों में केवल अपनी कुर्सी बचाने के प्रयास में लगे नज़र आते हैं। वो बेहतर जानते हैं की अगर शासन करना है तो लोगों को बुनियादी ज़रूरतों से विचलित करना होगा। वर्ना वो लोग रोज़गार, शिक्षा , सुरक्षा , देश की प्रगति के बारे में सोचने लगेगे। इस लिए उन्हें मूल मुद्द्ये से बहकाना होगा। और यह खेल १९४७ से आस पास से खेली जा रही है।
भारत और पाकिस्तान के बीच सद्भावना पूर्ण रिश्ते तब तक नहीं कायम हो सकते जब तब दोनों देशों के राज्नेतावों को अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचना शुरू नहीं करते।
Monday, December 28, 2009
इस साल देश में आम चुनाव हुवा जिसमे कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई। कांग्रेस के खाते में ज्यादा तो वोट नहीं गिरे लेकिन राज्य में सरकार बनाने की बारी को हाथ से जाने नहीं दी।
सरकार तो बनी। लेकिन संसद में सांसदों की हाज़री बेहद चिंता वाली रही। लोक सभा और राज्य सभा दोनों ही सदनों में सांसदों की गैर हाज़री को स्पीकर ने ले कर सभी दलों के प्रमुख से चिंता प्रगट की। जिस पर कांग्रेस की आला कमान ने नेतावों जो हाज़िर नहीं थे उनसे कारन बताने को कहा। गौर तलब है की संसद में इक दिन करवाई पर ७०, ८० लाख रुपया खर्च आता है। ज़रा सोच कर देखे इक दिन में अगर तीन बार भी संसद अवरुद्ध होती है तो देश को कितना नुकशान होता है। आम जनता की खून पसीने की कमाई को यूँ जाया कैसे कर सकते हैं।
अब हम बात करते हैं अपने प्रधान मंत्री मनमोहन जी को अमरीका में ओबामा सरकार ने खासकर अपने पद ग्रहण के बाद किसी राजनायक को भोज पर आमंत्रित कर देश की शान यानि पहले देश को न्योता मिलना वाकई महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
Friday, December 25, 2009
२००९ की अंतिम साँस
देश दुनिया की राजनीती हो या भूगोल हर जगह कुछ बड़ा घटा है इस साल वह जगह है कोपेन्हागें जहाँ दुनिया की तमाम लीडर्स मिले। आवास तो वर्ल्ड इन्वोर्न्मेंट को बचाने के लिए कुछ खास दस्तावेज़ पर सहमती होनी थी। मगर यह मीटिंग बेनातिज़ रहे। खुद ओबामा मानते है कि देशों के बीच सही तालमेल की कमी की वजह से यह मीटिंग अपने उधेश्य में सफल नहीं हुई।
साहित्य एंड कला की बात करें तो हिंदी की लब्ध नाम कैलाश वाजपई के २००९ का साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा जायेगा। कुछ वरिष्ठ पत्रकार ,लेखक हमारे बीच से रुख्शत हुए। प्रभाष जोशी जी भी आखिर कागद कारे करने अब उस लोक चले गए। बातें और भी हैं _ रफ्ता रफ्ता हम इक इक कर बात करेंगे.....
Wednesday, December 23, 2009
मीडिया के न्यू पौध
मीडिया की इस पौध को दरअसल सही खाद पानी ही नहीं मिल पाते। जिसका परिणाम यह होता है की वो जब जौर्नालिस्म के कोर्से करने के बाद जब जॉब शुरू करते हैं तब किताबी और वास्तविक खबर में अंतर दिखाई देता है।
Sunday, December 13, 2009
तकनीक से डरता मन
पिछले दिनों अपने पिता जी को मोबाइल उसे करना सिखा रहा था तब मैंने महसूस किया की उन्हें मोबाइल के बटन प्रेस करने में कठिनाई हो रही है। कई बार इक बात समझा कर थक गया। मुझे लगा शायद मैं सिखने में सफल न हो सकूँ। मगर इक बार मुझे बचपन में पढ़ते समय पिताजी के चहरे पर उदासी दिखी। पिताजी निराश से लग रहे थे। पास की चाची ने कहा पंडी जी पूरे शहर के लड़कों को पढ़ाते हैं मगर अपना बेटा ही नही पढ़ा पाते। पिताजी को बात लग गई। उन्होंने कहा अगर मैं सही में कुशल मास्टर हूँ तो इसे को पढ़ा कर ही दम लूँगा। और देखते ही देखते वह दिन भी आया की वह लड़का इक दिन पढ़ लिख गया। यह ज़वाब था मेरे पिताजी का चाची के लिए। पिताजी ने उस टाइम तो कुछ नही कहा था मगर मन में बैठा लिया की इस को पढ़ा कर ही रहूँगा। वह लड़का कोई और नही बल्कि मैं ही हूँ।
अब मेरे आखों के सामने २० २२ साल पहले की घटना घूम गई । मैंने सोचा जब पिताजी मुझे पढ़ा कर ही चैन लिए तो मैं भी उनको मोबाइल का इस्तमाल करना सिखा दूंगा। तीन ऋण में इक ऋण पित्री ऋण भी है, सो मोबाइल के इस्तमाल के सिख दे कर ऋण में मुक्त होना चाह थी। और देखा की उन को मोबाइल के कमांड और बटन के इस्तमाल में परेशानी हो रही है। सो कई तरह के उद्धरण से मोबाइल का प्रयोग सिखा दिया। मुझे उस टाइम गुस्सा, खीज भी होती की क्या है पढ़े लिखे हैं फिर क्यों समझने में बाधा क्या चीज है। मैंने देखा की दरअसल जो लोग जीवन में तकनीक के इस्तमाल से भागते हैं उन के लिए नये नए तकनीक इक डर से कम नही है।
अपने डर के ऊपर ख़ुद को काबू पाना होता है।
Wednesday, December 9, 2009
अथातो म्रत्यु दर्शनं
भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा का पुनर्जन्म नही होता। कुछ दर्शन मानते हैं की आत्मा अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेती है। मगर संख्या , योग , न्याय और चार्वाक दर्शन न तो पुनर्जन्म को मानती है और न आत्मा की कोई सत्ता ही स्वीकारती है। बलिक दर्शन का तो यह भी कहना है के अनु परमाणु आदि ही नही बल्कि हमारे शरीर में पाए जाने वाले सेल जब काम करना बंद कर देते हैं तब हमारा शरीर मृत मान लिया जाता है। आप इसे मोक्ष, निर्वान, मुक्ति जो भी नाम दे लें दरअसल शरीर को त्याग कर हमारी सासें यानि हवा, पानी , मिटटी, आकाश और आग इन पञ्च तत्वा में विलीन हो जाती है।
मौत जब की कितनी करीब होवा करती है इसका अंदाज़ा नही लगा सकते।
Tuesday, December 8, 2009
तेरे मन्दिर मेरे राम
सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक स्थल नही होना चाहिए। जो पहले से बन चुके हैं उसे गिरना यदि संभव नही तो कम से कम राज्य और केन्द्र सरकार कोर्ट को विश्वास दिलाये के सरकार किसी भी कीमत पर सार्वजनिक स्थल पर मन्दिर , मस्जीद, गुरुद्वारा आदि का निर्माण नही होने देगी। सरकार को इससे पहले भी कोर्ट ने इस बाबत आदेश दिया था मगर सरकार के और से बरती जा रही लापरवाही को कोर्ट ने गंभीरता से लिया है। कोर्ट ने कड़े शब्द में कहा है सार्वजनिक स्थल पर धार्मिक प्रतिक यानी मन्दिर , मस्जीद आदि का निर्माण नही होगा। अगर एसा नही हुवा तो भुगता नही जाएगा।
सुप्प्रेम कोर्ट ने सेंट्रल और स्टेट गवर्नमेंट को आगाह किया है। किसी को भी पब्लिक प्लेस पर धार्मिक स्थल निर्माण की इज़ाज़त नही होगी। अक्सर देखा गया है की मन्दिर या मस्जीद आदि के बहाने सरकारी जमीन पर कब्ज़ा कर लिया जाता है। शुरू शुरू में तो यह छोटे छोटे स्थर पर किया जाता है मगर जब लगता है की अब यहाँ मन्दिर बनाई जा सकती है तब सांसदों , अन्य अधिकारी के बल पर निर्माण कार्य शुरू हो जाता है । सरकार देखती ही रह जाती है उसके सामने पब्लिक प्लेस पर कुछ खास लोगों का कब्ज़ा हो जाता है। इतना ही नही जब इक बार मजार बन जाता है या की मन्दिर बन कर पूजा होने लगती है तब उस जगह को खली करना बोहोत मुश्किल काम होता है। समाज में मन्दिर, मस्जीद , गुरुद्वारा को ले कर आम जनता में खासे लगाव होता है। यदि कोई सरकार भी तोडना चाहे तो समाज में लोग विरोध करने उतर जाते हैं। इसे मुद्दा बना कर विपक्ष सरकार को घेर लेती है। मामला धर्म से जुड़ने के कारण कोई भी सरकार धार्मिक स्थल को तोडना नही चाहती। यही वो जमीन है जिस पर आम लोगो के पीछे चुप कर कुछ खास लोग जमीन पर कब्ज़ा करते रहते हैं। इसी प्रवृति को काबू में करने के लिए कोर्ट ने राज्य और केन्द्र सरकार को आदेश दिया है।
Sunday, December 6, 2009
सरयू में बह गए हजारों खोयाहिशों
आज ही के दिन भारत के धर्निर्पेचता के धज्जी उडी थी। जी सही समझ रहे हैं। अगर नही पल्ले पड़ा तो ज़रा मेमोरी पर सर्च बटन प्रेस कीजिये। हाँ अब आपके मेमोरी के सेर्फस पर दिसम्बर ६ १९९२ उभरा होगा। साथ ही खून से लाल सरयू नदी भी खामोश दिख रही होगी। सरयू का पानी लाल होगा। इस के साथ ही सरिया, तोड़ फोड़ के आवाज़ भी सुनाये दे रही होगी।
बस अब आप देख सकते हैं, अजी साहिब ज़रा कानो को साफ करे तो वह आवाज़ भी सुन सकते हैं, जय श्रीराम मन्दिर वहीं बनायेंगे.... जो राम का नाम नही लेगा वो हिन्दुस्ता का काफ़िर है। अब मथुरा की बारी है। और लोग नारे लगा कर अपनी पौरुश्ता का प्रमाण दे रहे थे। साथ ही हिंदू होने के निकष भी दुनिया के सामने रख रहे थे। मीडिया की नज़रें उत्तर प्रदेश के सस्र्यु के तट पर टिके थे।
देखते ही देखते गुम्बद सदियों से धुप , पानी , धुल फाक रहा था। आज उसे सचे हिंदू भीड़ ने ज़मिन्दोस्त कर दिया। चलिए साहिब गुम्बद को अब रहत मिली या नही पर कुछ लोगों के आत्मा ज़रूर शांत हुई। मगर अभी उनकी मुराद पुरी नही हुई है। उन्होंने तो देश के हिंदू समाज को वचन दे रखा है की जब तक राम लाला का मन्दिर नही बन जाता तब तक हम कैसे कह सकते हैं गर्व से कहो हम हिंदू हैं। अभी आगे की लड़ाई बाकि है।
इन्ही दिनों लिब्राहन कमिटी की रोपोर्ट संसद में रख दी गई , लेकिन उस पर चर्चा होना बाकि था। मगर अगले दिन मीडिया में आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हो गई। बीजेपी के नेतायों को इक मुद्दा मिल गया की यह कांग्रेस की चाल है। कुछ स्टेट में इलेक्शन होने हैं इसी को ध्यान में रख कर रिपोर्ट लीक की गई।
बहरहाल, बहस तो संसद में होगी ही। मगर ध्यान देने की बात यह है की जब यह घटना को अंजाम दिया जा रहा था उस टाइम सेण्टर में कांग्रेस की सरकार थी। नर्शिन्घा राव प्रध्यान्मंत्री थे। उन्होंने लापरवाही की। इस को कोई झुठला नही सकता। मग राव sahib के समिति बा इज्ज़त बरी कर देती है। समिति की रिपोर्ट जो भी हो। इक बात साफ है, सरकारें बदलती हैं, पार्टी के चहरे बदल सकते हैं। मगर राम लाला की ज़मी पर लाखों लोगों की खून से सनी ६ दिसम्बर १९९२ नही बदल सकती। सरयू में जल मग्न तमाम चहरे आज भी अपने गावों की तरफ़ आस लगाये टुकुर टुकुर देख रही हैं.
Tuesday, December 1, 2009
संसद से अनुपस्थित रहे संसद
इस तरह आज यानि मंगलवार को तमाम अख़बारों के प्रथम पेज पर बड़ी महत्तया के साथ ख़बर छापी गई । कुछ हेडिंग पर नज़र डालते हैं ' और संसद में सवाल तो पूछे मगर ज़वाब सुनने के लिए संसद ही नही', ' सवाल पूछने में दिखाई बे रुखी संसद से नदारत रहे सदस्य', आदि।
Thursday, November 26, 2009
ताज पिछले साल यूँ ,
खून से यूँ रंग गया,
पर कहाँ बोलो ज़िन्दगी ठहरी भला,
न रुकी ज़िन्दगी ,
न रुकी लहरें समंदर की,
रोड भी जगमग रही भागती।
ज़िन्दगी कब, कहाँ
किस मोड़ पर,
छोड़ अंगुली,
रूठ कर,
चल दे आप से,
या की हम से,
रूकती नही है ज़िन्दगी,
पर यह ज़िन्दगी,
आती रही है,
कई रंग औ कई रूप में।
न रुकी ज़िन्दगी बोम्बे में -
रूकती भला कब तलक राजस्थान में ,
आख़िर डेल्ही की भी ज़िन्दगी चलती रही ,
दिन, महीने, साल में यूँ ढल जायेगे,
पर न रुक ये जाएगी
हर चलती जाएगी यह ज़िन्दगी।
कसाब आए या युनुश,
या की पंडित पादरी,
गर दिलों में है नही इन्सान की वो धरकन,
वह कहाँ सुन पायेगा किसी की चीख,
या फिर प्यार के मनुहार में क्या कोई आबाद,
यूँ होते रहे हैं।
साल
Saturday, November 21, 2009
ठाकरे का नया रार
ठाकरे का नया रार
ठाकरे रोज दिन कोई न कोई राग छेड़ते रहते है। कभी भाषा हिन्दी को टार्गेट बनते हैं तो कभी इन्सान को। लेकिन राग ज़रूर छेड़ते हैं। वरना उनको महाराष्ट्र में कोई याद भी करने वाला नही होगा। पहचान के लिए कभी चाचा तो कभी भतीजा मराठी मानुष का ज़हर बामन करते रहते हैं। यह उनकी मज़बूरी है के वो इसी तरह के एक्शन से कम से कम न्यूज़ में तो बने रहते हैं।
राग बाहरी पहले तो बाला साहिब ठाकरे ने है महाराष्ट्र में बुलंद किया था। लेकिन जब शरीर थकने लगा तो भारतीय परम्परा के अनुसार अपनी गद्दी पर भतीजे को बिराजमान कर दिया , उन्हें क्या पता था के अपना भतीजा चाचा के ऊपर इतना भरी पड़ेगा। इक दिन उनसे बड़ा पोवेरफुल्ल बन जाएगा। खलबली तो मचनी ही थी। सो बाला साहिब ने भी बुढ़ापे में खखार कर सचिन पर निशाना साधा। के वो खेल पर ध्यान देन राजनीति न करें। गोया राजनीति कुछ खास लोगों के घर के मुर्गी हो। जब चाह हुई दुह लिया। नही तो दुत्कार कर भगा दिया। सो सचिन को दी नसीहत पर पुरे देश में बाला साहिब के थू थू हुई। पर चमड़ा काफी मोटा है कोई असर नही पड़ता। इसी लिया तो महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ने २१ नवम्बर को बॉम्बे स्टॉक एक्स्चंगे को धमकी दे डाली के इक वीक के अन्दर वो मराठी भाषा में अपनी वेब साईट बना ले।
दिन पर दिन मनस का मन बढ़ता ही जा रहा है।
Sunday, November 15, 2009
राज ने छेदे फिर बाहरी राग
देश , समाज को भाषा के आधार पर बरता जाएगा तो इसे दुर्भाग्य ही तो कहना होगा। देश व् भाषा आपस में सौहादर्य भाव पैदा करती है, न के समाज के फाक करती है। जो लोग भाषा , धर्म को समाज में ओईमनाश्य फुकने के रूप में इस्तमाल करते है तो उन्हें बक्सा नही जन चाहिए।
देश को अपनी भाषा और संविधान पर नाज़ हुवा करती है जो इसे विलगने की कोशिश करेंगे उनको न तो देश वासी माफ़ करेगी और न ही किया जन चाहिए। लेकिन राज ठाकरे महाराष्ट्र में इक खास तारा के सुनामी लेन की कोशिश कर रहे है। समये रहते इसको रोका नही गया तो यह इक दिन हमारी साझा संस्कृति का मटिया मेट कर देंगे।
Thursday, November 12, 2009
कफ़न भी मयसर नही कैसी मौत है यह
कफ़न भी मयसर नही कैसी मौत है यह। कितने दुर्भागे हैं वो लोग जिनके शरीर को मरने के बाद कफ़न भी नसीब न हो तो क्या कहा जाए। आज इक यैसे ही उत्तरी परिसर डेल्ही यूनिवर्सिटी से लगे नाले में इक बहती लाश देखि। पहचान पाना मुश्किल था। वह औरत थी या आदमी यह भी तो पता नही चल पा रहा था। उस लाश को या ततो पुलिस अपने पास कुछ समय के लिए सिनाक्थ के लिए रखेगी अगर कोई अपना मिल गया तो उस को अन्तिम संस्कार नसीब हो गी वरना पुलिस लावारिश मान कर संस्कार कर देगी।
ज़रा सोच कर देखे की कोई येसा भी बद नसीब होता है की उसको मरने के बाद भी कोई अपना नही कहता। इस का इक और पहलु है की वह भी इक मंज़र होता है जब इन्सान तनहा ही मर जाता है मागर किसी को ख़बर भी नही लगती। कई इस तरह की खबरें अख़बारों में देख सकते हैं जो लिखा होता है गुमशुदा की पहचान। कोई चेहरा इतना ख़राब होता है की पहचान मुश्किल होती है।
बस यह तो आप की किस्मत है या आप के घर वालों की जो आपकी लाश तो मिली।
Tuesday, November 10, 2009
हिन्दी के साथ संविधान का उपहास ही यह
बॉम्बे विधान सभा में सोमवारको जो भी हुवा उसे किस तरह संसद शर्मसार हुवा है इस की कल्पना की जा सकती है। यह तो खुलम खुला न केवल भारतीये संविधान की अवहेलना है बल्कि संसद की मर्यादा के साथ खिलवार है। हिन्दी में शपथ लेना क्या इतना बड़ा गुनाह है की विधान सभा की मर्यादा को ताख पर रख कर मनस के लोगों ने हंगामा खड़ा किया। हलाकि उसके लिए उन्हें ४ साल के लिए संसद से निष्काषित कर दिया गया। मगर क्या यही उस कृत्या के लिए पर्याप्त ही
हिन्दी को या हिन्दी बोलने वालों को न केवल मुंबई में बल्कि आसाम में भी दुर्गति सहनी पड़ी है। मगर हमारी चेतना फिर भी जागने को तैयार नही है। हिन्दी भाषी के साथ आज से नही बल्कि इक लंबे अरसे से दोयम दर्जे के बर्ताव सहने पड़े हैं। लेकिन यह घटना इक नही विवाद को जन्म देती है। वह यह की तो क्या हिन्दी और संविधान में प्रदत अधिकार के इसी तरह ताख पर रख कर भारत में कोई भाषा के आधार पर नौकरी करने , राज्य में रहने से वंचित किया जाता रहेगा। अगर हाँ तो इस तरह भारत में हर राज्य इसी तर्ज़ पर अपने यहाँ दुसरे राज्य के लोगों को काम करने रहने के मौलिक अधिकार को धता बताता रहेगा।
ज़रूरत इस बात की है के हम इस तरह की मनोदशा को सुधरें वरना वह दिन दूर नही जब देश के अन्दर लोग खुल कर नही रह सकते।
Saturday, November 7, 2009
प्रभाशंत है यह
नई दुनिया को अपनी सेवा देने के बाद डेल्ही में जनसत्ता के १९९५ तक रह दीखते रहे। हालाकि सम्पद्किये जिमादारी छोड़ दी लेकिन सलाहकार संपादक बने रहे। देश भर में घूम घूम कर आन्दोलन के सूत्रपात करने वाले जोशी जी के लिए डेल्ही में बैठ कर लेख लिखना न भाया। उनसे आखरी मुलाकात आन्ध्र भवन डेल्ही में सितम्बर में हुई तब भी वो उसी प्रखरता से बोल रहे थे।
प्रभाष जी के साथ इक फुदकती पालवी मधुरता में पगी पत्रकारी भाषा भी शायद चली गई। पर उनको कोटि कोटि नमन ....
Tuesday, November 3, 2009
सुना है
अगर आपको वो कहीं मिले तो मेरा पता दे देना।
कहानी जो कहती है
उसको सुन लो जी तुम...
उसको सुन लो जी तुम।
कहानी के बिना क्या है बचपन?
बचपन सुना है जी ,
बचपन बेगाना जी ।
कहानी जो कहती है तुम से ,
उसको सुन लो जी तुम....
कहानी जो कहती है किताब से,
उसको पढ़ लो जी तुम।
कहानी जो रोटी है उसको,
तुम तो सुन लो जी हाँ।
कहानी में बस्ती है नानी उसको गुन लो जी तुम।
कहानी जो कहती है तुम से उसको सुन जी तुम........
Friday, October 16, 2009
वो दीप....
न वो अँधेरा ही,
चारो और,
रौशनी ही रोध्नी,
आखें धुन्धती,
चाँद पल की खातिर,
सुकून....
दीप जो,
रोशन कर दे,
अंतर्मन
छाए अंधरे और लोभ की घटा टॉप को....
चलो ले कर आयें,
येसी रोशन दीप,
जो चीर दे,
अन्धतम की छाती....
Friday, October 9, 2009
कर्म बड़ा या किस्मत
ज़रा कल्पना करें , कोई आदमी बाढ़ में फस्सा हो तो उसे आवाज़ लगाना चाहिए की कोई आएगा और उसे ख़ुद निकाल लेगा सोच कर बैठ जाना चाहिए। उत्तर साफ है अगर हाथ पावों नही मरेगा तो डूबना तै है। उसपर भाग्य को कोई कोसे तो उसे क्या कह सकते हैं। भाग्य तो हमारे कर्मों से बनता है। अपनी हाथ की लकीरें हम ख़ुद बनते हैं।
इक बार थान लेने पर कोई भी काम कठिन नही होता।
Friday, October 2, 2009
गाँधी छाए रहे शास्त्री रहे गायब
Thursday, October 1, 2009
प्रेम में आंसू यानि रोते हुवे
प्रेम में आंसू यानि के रोते हुवे दिन कट जाते हैं। कभी उसको याद कर के तो कभी उसे कोसते हुवे। मगर याद ज़रूर करते हैं। अपनी तमाम ज़रूरी काम पीछे छोड़ कर बस इक ही काम होता है उसको पानी पी पी कर कोसना या फिर पुराणी बात को जिन्दा रख कर अलाव तपते रहते हैं। जबकि सोचना तो होगा ही के समये बदल चुका है। उसकी प्राथमिकता बदल चुकी है। आप उसके लिए इक बिता हुवा सुंदर सपना भर हैं और कुछ नही। कभी कभार याद आजाते होगें वो अलग बात है। मगर अब संभालना तो होगा ही।
समय तो हर चीज के मायने बदल दिया करती है तो फिर रिश्ते किस खेत की मुली हैं। ज़नाब बेहतर तो यही होगा के आप अपनी पुराणी यादों को तिलंज़ली दे देन वरना होना तो कुछ नही बस अपनी ज़िन्दगी को बैशाखी ज़रूर पकड़ा रहे हैं। जब वो आपके बिना जी सकती है तो आपमें वो हिम्मत क्यों नही। अगर नही है तो पैदा करना होगा। ज़िन्दगी तो इक ही मिली है मुझे या आपको या फिर उसे ही, इसे आप प्रयोग करने में जाया कर देन या बेहतर बनने में यह तो आप पर निर्भर करता है।
बस यूँ समझ लें की, उपदेस नही है यह तो संसार है यही जो दुनिया। यहाँ पर ज़ज्बात की डरकर कम दिमाग की जायद जुररत होती है।
Saturday, September 26, 2009
रावन ज़यादा ही शर्म्स्सर था
Friday, September 11, 2009
इस कदर शा
क्या कोई किसी कि ज़िन्दगी में इस कदर शामिल हो जाता है? क्या किसे कब अच लग जाए कब पीछे चला जाए कुछ भी तै शुदा नही।
जब कोई चला जाता है तब महसूस होता कि उस नाम का क्या और किस तरह का प्रभाव होगा या होता है। ह्स्स्र कि जहाँ तक बात है मंज़र तो यह भी होता है कि सुबह हो या रात या फिर कोई भी पल उसके ख्याल से खाली नही होता।
लेकिन जो भी कदम किचता है वो काफिर भी तो नही हो सकता।
Saturday, August 29, 2009
जब कोई बात अटक जाए
कई बार मान लिया जाता है की वो तो येसा ही है येसा ही सोचता है हमें चाहिए यह की ज़रा उसकी जगह रख कर ख़ुद को परख लिया जाए।
Wednesday, August 19, 2009
जस अंत
क्या किताब लिखना महज वजह है या की कुछ और। और यह भी जानना होगा की इसके पीछे क्या मनसा रही। क्या कोई ये बता सकता है के किताब लिखना मेरे पार्टी से निकला गया है या की पार्टी के ऊपर किसी तरह का दबाव कम कर रहा है।
जो भी हो मुझे शब्दों के कीमत चुकानी पड़ी
Tuesday, August 18, 2009
शाह रुख और न लज्जित हों
अभी तब यह मामला थमा नही है। तमाम समाचार पत्र सम्पद्किये तक लिखा सब के स्वर इक से है। लेकिन इक तर्क पड़ व् सुन कर हैरानी होती है, यह पहली बार किसे भारतीये के साथ नही हुवा और फिर लगातार इक के बाद इक घटनायों के बेव्रे दिए गए। फलना फलना के साथ भी हुवा है यह कोई नै बात नही। ज़रा सोचने वाली बात है के जहाँ के प्रेजिडेंट के साथ ज़लालत सहनी पड़ी हो क्या यह भी चलता है वाली धरे पर मान लिया जाए॥
किताब से उठा विवाद
दो घटनाएँ इक साथ लिकना पड़ रहा है। पहली, जसवंत सिंह की किताब से उठी विवाद की जिन्ना साहब विभाजन के हीरो नही हैं। इस किताब में बड़ी ही शिदत्त से बयां किया गया है की दरअसल दोनों देशों से विभाजन के लिए जिन्ना साहब दोषी मन जाता है जबकि नेहरू और गाँधी भी उतने ही दोषी हैं जितने की जिन्ना। लेकिन जिन्ना को इसके लिए भारतीये राजनीती में खलनायक साबित किया गया। यह कांग्रेस की चल थी जो लंबे समाये तब इस तथ्य को दबा कर रखा।
जसवंत सिंह बीजेपी के नेता तो रहे ही है साथ ही विदेश मंत्री भी रह चुके हैं। ध्यान हो की पार्टी ने कुछ नेतावों को भर का रास्ता दिका चुकी है । यैसे में जसवंत सिंह के कलम से जन्मी यह किताब इक अलग विवाद को जन्म दे रही है। जन्म दे विवाद से डरता कोण है लेकिन क्या देश में पहले से समस्या कम है जो इक न्यू किस्म के विवाद को हवा दिया जा रहा है। क्या जसवंत सिंह हिस्टोरियन हैं जो तथ्य को इक नै रौशनी में देखने की कोशिश कर रहे हैं या यह उनकी कोई राजनितिक चल है। यह जानना ज़रूरी होगा।
Tuesday, August 11, 2009
कुछ जगह याद दिलाती हैं
Monday, August 3, 2009
हौसला तोड़ने वाले
नकारात्मक सोच अपना और बनने लगता है जिसे हम या की आप आसानी से दूर नही कर सकते....
Saturday, July 25, 2009
शर्म मगर नही आती
साहब दूसरी घटना है हरयाणा की जहाँ खुलायम संविधान का उल्नाघन हुवा , बल्कि पुलिस तो दम दबा कर उस जींद के गावों से भाग खड़ी हुई। वो पुलिसको तो अपनी जान जोखिम में लगा जो भाग लिया।
Thursday, July 23, 2009
जब कोई आप का फ़ोन न...
ज़रा सोचें यैसे में क्या गुजरती है जब आपके दोस्त साथ काम कर चुके ही आपके फ़ोन उठाने से कतराने लगें तो समझ लें दोस्ती की लो में अब ज़यादा तेल बचा नही॥ बस आप मान कर चल रहे है की बोहोत से लोग हैं जो आप के साथ हैं... मगर वास्तव में आप साहब मुगालते में हैं। बेहतर है ख़ुद को संभाल ले। वरना मुह के बल गिरने से कोई बचा नही सकता।
चलिए कम से कम आखों में इतनी तो पानी बची रहे ताकि कही राह में मुलाकात हो तो....
Thursday, July 16, 2009
पाक की समस्या
पाक के साथ हमारे रिश्ते यूँ सुधर नही सकते जब तक की पाक अपनी तरफ़ से आतंक को बधवा देना बंद नही कर देता। मगर उस देश के सामने जो मंज़र है उसे भी हमें समझना होगा। कुछ कदम हमें भी बढ़ने होंगे जो पाक में अमन चैन ला सके। क्या पाक महफूज है येसा नही कह सकते। बहरहाल वकुत तो लगेगा दोनों देशो में विश्वाश बहल होने में,।
Thursday, July 9, 2009
समलैंगिक कोई आसमान से नही टपके
समाज तो यूँ ही चला करता है किसे कब ठोकर मार दे किसे गले लगा ले यह समाज समाज पर निर्भर किया करता है।
Tuesday, July 7, 2009
ज़रा सोच कर देखने में क्या जाता है
हमने आसपास यैसे ही विचारो को पनाह दे रखा है जो सही मायने में हमारी कोई मद्द नही करते
Monday, July 6, 2009
निरा यकांत
Monday, June 29, 2009
रिश्ते की चुभन
हर रंग हर रिश्ते के अपने तशीर और परिणति होती है। आप या की हां उसे रोक नही सकते। जिसे जन है वो लाख रोक लें वह रुकने वाला है ज़रा भी भरम न पले इस की कोशिश रहनी लाज़मी है वरना आसू की जड़ी तो लगेगी ही , कोई रोक नही सकता। जो कभी आप के बगैर रह नही पाने के दम भरा करते थे वो साहब आराम से रहने लगते हैं। बात बिल्कुल साफ है , उसने तै कर लिया है रह सकते हैं। रहते रहते तो पत्थर से भी लगाव हो जाया करता है।
Tuesday, June 23, 2009
जब कोई रिश्ता
जब नही बाँधता कोई भी शब्द, या रिश्ते तो यही कह सकते हैं की अब वो बात नही रही जॉब कभी आपस में हुवा करती थी। इसे यूँ भी समझ सकते है, हमारी हर बात या हर रिश्ते उसी ट्रैक पर नही चलते जिसपर हम सोचा करते हैं। बात बिल्कुल दुरुस्त है चले भी क्यों हर कोई अपनी तरह जीना चाहता है आप या की हम उसे अपनी तरह चलने को नही विवश कर सकते।
Wednesday, June 17, 2009
बहिन
नही बांधे ,
किसी पेड़ को धागे,
न ही काटे चक्कर,
हाँ हर रोज सुबह ,
तिफ्फिन में रखे ,
रोटी और आचार,
इस विश्वास के साथ के,
वो शाम लौट,
आयेंगे।
पर...
इस साल पेड़ में धागे बंधते,
देख आखें भर आयें,
अगर धागे बंधते उसके भी राम सलामत
रहते उसके भी राम तो पुरी साड़ी ओढा आती
नही ही लौटे राम बहन के ,
बिटिया खाना खाते समय पूछती है-
माँ तुमने कहा था,
पापा कहीं गए हैं...
मैं भूल गई,
कहाँ गए हैं बतावो न...
बहिन दूध में बोर कर,
रोटी खिलाती है,
ताकि भूल जाए,
की उसके पापा जहाँ चले गए ,
कोई लौट आता है भला.....
Monday, June 15, 2009
मुहब्बत भाषा से
Friday, June 12, 2009
कुछ सवाल
पुरा का पुरा पेज मांगता है ज़बाव लिखने में।
Tuesday, May 19, 2009
भाषा का पेड़
पर बाबा को यह सब देखा नही जा रहा था। उन्होंने सब को बुला कर कहा तुम सब मेरी बगिया के फूल हो आपस में झडो मत। प्यार से रहना सीखो। साडी भाष्यें अची हैं।
भाषायें समझ गईं। साथ साथ रहने लगीं।
Monday, May 11, 2009
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ नही हूँ
मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत !
क्या जाने कब
इस दुरूह चक्रव्यूह में
अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय !
अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
बड़े-बड़े महारथी
अकेली निहत्थी आवाज़ को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें
तब मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया
उसके हाथों में
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ !
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने
सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !
बिल्कुल भरती जी ने सही लिखा की न मामूली से चीज भी न जाने कब काम आ जाए कुछ कह नही सकते। हर इन्सान अपने अपने रन लड़ ही तो रहा है।
कुछ लोग यैसे ही हुवा करते हैं
कुछ लोग यैसे ही हुवा करते हैं जिनके लिए न बना ही नहीं। यैसे लोगो को आज के चालाक लोग बेवकूफ कहा करते हैं। और तो और साहब लोग इन महासये को जितना हो सकता है उसे करते हैं ऊपर से मुर्ख समझते है। क्या है कि उनकी सहजता को ये लोग नासमझी मानते हैं।
क्या कीजियेगा साहिब ये लोग होते है यैसे हैं कि ठोकर खा कर भी हेल्प के लिए आगे आ जाते है।
Wednesday, May 6, 2009
फिल्मी गीतों में केवल बुरे अल्फाज़ धुन्धने निकला जाए तो सब के सब बुरे ही नज़र आयेंगे। लेकिन येसा नही है कई गीत यैसे हैं जिसे आज भी गुनगुना कर जी हल्का होता है। केवल गीतों में हल्केपन को तलाशा जाए तो यह अलग बात है। दर्शन भी है, जीवन भी है साथ ही चुहल है सरे तो जीवन के रंग ही तो हैं कोई क्या इन रंगों से ख़ुद को विल्गा सकता है। संभतः नही।
जाने वो कोण सा देश जहाँ तुम चले गए , न चिट्ठी न संदेश जाने वो कोण सा देश जहाँ तुम चले गए
Monday, May 4, 2009
Sunday, May 3, 2009
मंदी की दसा को समझें
येसी हालत को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है
मंदी भगा मंदी भगा
कोई कंपनी नै दिला,
जॉब दिला जॉब दिला
मंदी भगा मंदी भगा।
बाज़ार की हालत दुरुस्त बना,
मंदी भगा मंदी भगा,
लिकुदिटी तो बहा,
मंदी भगा मंदी भगा,
यन्न रुपिया
Tuesday, April 28, 2009
कूड़ा आप लिखें
तभी तो हिम्मत कर के लंबे समय के बात पोस्ट कर रहा हूँ।
Sunday, March 29, 2009
हिन्दी साहित्य इतिहास में हाशाये पर बाल साहित्य
हिन्दी साहित्य का इतिहास उठ कर देखें तो इतिहास में बाल साहित्य की कहीं चर्चा नही मिलती। चाहे वो रामचंद्र शुक्ला का इतिहास हो या फिर हजारी प्रसाद का या फिर बाद के साहित्य इतिहास लेखन हर जगह बाल साहित्य उपक्षित है। वजह जो भी हो मगर बाल कथा जगत को इस लायक ही समझा गया की इस के बारे में भी चर्च करें। जब की साहित्य में दलित , महिला आदि कि चर्च है मगर बाल साहित्य को क्या वजह है हाशिये पर धकेल दिया गया।
जब हम प्रेमचंद , माखनलाल , सोहनलाल और मुक्तिबोध से लेकर महादेवी वर्मा तक के लेखन में बाल रुझान पाते हैं। इन सब साहित्येकारों ने बाल गोपाल के लिए भी लिखा यहाँ तक कि विष्णु प्रभाकर ने भी जम कर लिखा। बाल कहानियो का अपना अलग संसार है जिसमें बड़े लेखक प्रवेश नही करना चाहते।
Wednesday, March 25, 2009
कलाकार का अन्तिम अरण्य
मेह्न्दिहासन को किसने नही सुना है क्या पाकिस्तान क्या ही हिंदुस्तान हर जगह उनको बेंतेहन मुहब्बत करने वाले मिल जायेगें मगर वो भी इनदिनों बीमार पड़े है , उनके बेटे के पास इतना सामर्थ्ये नही की वो हॉस्पिटल का खर्च उठा सके। बेचारे ने अपनी असमता जाहिर की है। वहीं हमारे देश में भूपेन हजारिका को भी इनदिनों कुछ इसे तरह के दौर से गुजरना पड़ रहा है। उनके खर्च को कोई उठाने वाला नही न तो सरकार न ही कोई घराना। दरसल कलाकार जब तक अपनी कला का प्रदर्शन किया करता है तब तक लोगों की भीड़ जमा हुवा करती है लेकिन जब वो असक्त हो जाता है तब कोई पूछता भी नही। यैसे में वो वनवास की ज़िन्दगी बसर करने को विवास होता है।
केवल गायक या कलाकार ही नही बल्कि लेखक , कवि भी इसे भीड़ में शामिल है। साहित्य का इतिहास पलट कर देख लें चाहे प्रेमचंद हों , निराला हों या फिर प्रवोग वादी चर्व्हित कवि नागार्जुन ही क्यो न हो बल्कि त्रिलोचन सब की वही गति हुई अंत काल में पैसे की किल्लत में दिन गुजरना हुआ। कथाकार अमरकांत ने तो यहाँ तक की अपनी रचनाये तक नीलम की, उन्होंने तो जीवन के पुरस्कार तब बेचने के पस्कास कर डाली।
साहब मामला बस इतना सा है की ये लोग अपनी लेखनी से वो लिखा जो इनके जी में आया वो नही लिखा जिसके पाठक की मांग है , बाज़ार किस तरह के लेखन की है इस को ध्यान में नही रखा।
Saturday, March 21, 2009
जब कभी हो
गमगीन ज़रा से बात पर
तो देखना
इक चेहरा
हसने को हो काफी
तो समझना
है उम्मीद ,
मुस्कराने की ...
या फिर पल भर सोचना ,
जाती नही है सड़क कहीं ,
जाता है इन्सान ,
हफ्ता हुवा ,
रोता हुवा ,
पर गर कोई ,
मुस्कराते हुवे ,
जा रहा हो तो समझना ...
वो साथ है सभी के
Thursday, March 19, 2009
साथी
साथी आप से खफा हो तो उसे मन से याद करने पर हिचकी जरुर आएगी। यानि आपका दोस्त आपको बोहोत याद करता है। इसे क्या नाम देना चाहेगे आप इसे दोस्ती का तकाजा नही कहना चाहते?
पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़
पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़
सबलोग पत्रिका की सामग्री बेहद अची है इसकेलिए सम्पद्किये टीम को साधुवाद। इस पत्र में राजनीती, बाज़ार , गंभीर लेख सब कुछ हैं। नीलाभ का लेख पढ़ कर आताम्तोश मिला।
इक सुझावों देने से रोक नही पा रहा हूँ ख़ुद को, वो यह की पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़ जाए तो यह अधुरा पत्र पूर्ण सा हो जाएगा।
Tuesday, March 17, 2009
साथी जो दूर चला जाए
उसके लिए आप या की हम दुयाएँ ही किया करते हैं ,
वो चाह कर भी दूर भला कैसे जा सकता है ,
रहता तो करीब ही है पर ,
महसूस करने के लिए समय ,
कहाँ है हमारे पास ,
कभी नौकरी,
कभी लाइफ के पेचोखम ,
सुलझाते ,
पता ही नही चलता की ,
जो पास हुवा करता था ,
कितना दूर जा चुका है ।
इतना की आवाज भी दो तो ,
अनसुना सा लगता है ,
नाम किसे और का जान पड़ता है ...
क्या नाम दे कर पुकारें उसे ,
जो कभी सासों में समाया होता था ,
आज वही किताबों में धुंध करते हैं ,
दोस्ती का सबब...
कुछ शब्द खली से लगने लगते हैं ,
जब वो मायने नही दे पते ,
खासकर तब जब आप बेशब्री से धुंध रहे हों ,
इक खुबसूरत सा शब्द जो बयां कर सके ,
आप की अनकही भावना ,
जो अकले में शोर करने लगती हैं ।
Monday, March 16, 2009
दुनिया उसके आगे
दुनिया उसके आगे
दुनिया उसके आगे ख़त्म नही हो गति जहाँ से आगे हमें कुछ भी दिखाई नही देता। दरसल हमारी आखें वही देखने की आदि हो चुकी होती हैं जिसे हम देखना चाहते हैं। जब की दुनिया किसे के रहने या चले जाने से इक पल के लिए भी थर्टी नही। वो तो अपनी ही रफ्तार से चलती रहती है बल्कि भागती है।
लेकिन उसकी दुनिया जैसे कुछ देर के लिए जैसे रुक गई हो उसके सामने दुनिया इक बार के लिए बड़े ही तेज़ रफ्तार से चक्कर काट गई हो। जैसे ही उसे ऑफिस में बुलाया गए उसे अंदेशा तो हो चुका तह मगर मनन कुबूल नही कर रहा था।
.... हाथ में पिंक स्लिप थमाते हुए कहा गया हम साथ हैं कम्पनी साथ है कोई चिंता की बात नही। पर चिंता तो होनी शरू हो गई। आज बीवी को क्या मुह दिख्यागा जब सब को पता चलेगा की आज से साहब घर में बैठ जाने वाले हैं। लोग तो लोग अपने भी सोचेंगे की नाकारा है इसीलिए बहार किया जाया वरना यही बहार है बाकि त्यों काम कर रहे
Saturday, March 14, 2009
कुछ रह जाती हैं
साहित्य में इसे आप या की हमारा अपना अनुभूत सत्य होता है।
लेकिन कई बार रचनाकार पर गमन करता हुवा कुछ यासी रचना कर डालता है जो उसे कालजई बनादालता है।
इन्ही कुछ रचनाकार में निराला
Monday, March 9, 2009
सेक्स और इंटरनेट में से चुनेंगी इंटरनेट को
शब्द जो निकल गए
साहब जो कहा जाया है की बंद मुह से पता नही चलता सामने वाला विद्वान है या....
सूक्ति है न की कोयल और कौए के पहचान बसंत में बेहतर हुवा करता है। चोच खोला तो पता चलता है को को कर रहा है क्यु क्यु...
शब्द इन्सान को सोहरत दिलाता है तो दूसरी और जुटे भी खिलाता है। अब साहब तै आप को करना है की क्या चाहते हैं....
कालिदास ने ठीक ही लिखा है-
'इको शब्दा सु प्रोक्ता सोव्र्गे लोको काम धुक भवति'
इक शब्द नाद जागृत करता है तो इक ॐ या अल्ला उस से मिलाता है...
Sunday, March 8, 2009
तो फागुन आ ही गया
पर ज़नाब पॉलिटिकल धरो में जम कर जोड़ तोड़ चल रही है
१५ वी लोक सभा में अपनी पुरी कोशिश झोक देने में कोई कसार नही उठा रखना चाहते सभी पार्टी अपनी दावेदारी मजबूत करना चाहती है।
कोण किस दल में जा मिलेगा कुछ भी तै नही है। दुनिया में मंदी की जम कर कोहराम सा मचा है लेकिन आने वाले चुनावो में प्रचार पर लाखों नही करोड़ से ज्यादा बर्बाद किए जायेंगे।
Saturday, February 28, 2009
तो क्या निराश हुआ जाए
बिल्कुल नही प्रयाश तो करना ही होगा वरना बाद में यह मलाल रह जाएगा की कोशिश की होती तो आज सूरते हाल कुछ और होता।
ज़नाब अन्दर की दुनिया को दुरुस्त रखा तभी जा सकता है जब आप मान और सम्मान के प्रभावों से कुछ खास समाये में ख़ुद को अलग रख सकें।
पर यह कहना आसन है निभना मुस्किल।
पर अगर थान लिया जाए तो क्या मुशिकिल।
चलिए हार के बाद ही जीत आती है अगर विश्वाश डोलने लगे तो इक बार अपने सपने को खोल कर देख लेना चाहिए इससे उर्जा मिलती हुई लगती है।
Thursday, February 26, 2009
मन्दिर के बहने
अगर मंदिरों में चादावे पर नज़र डालें तो आखें फटी रह जाएँगी। तिरुपति मन्दिर में सालाना कोरोड़ से भी जयादा कमी होती है। इस साल जनवरी में साईं बाबा में मन्दिर में इतना चदवा आया की वह तिरुपति को पीछे धकेल दिया जाएगा
Friday, February 20, 2009
सपने क्या यूँ ही टुटा कर्तवे हैं
सपने तो यूँ ही आखों में आ आ कर बिखर जाया करते हैं, तो क्या सपने देखना हम छोड़ दे नही बिल्कुल नही।
Tuesday, January 27, 2009
Monday, January 26, 2009
मंदी की गाज मीडिया के माथे
मंदी की गाज मीडिया के माथे
दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने 5 हजार स्टाफ को नौकरी से निक
ाल दिया है। अपने 34 साल के इतिहास में माइक्रोसॉफ्ट ने पहली बार जॉब कट किया है। दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने 5 हजार स्टाफ को नौकरी से निक
ाल दिया है। अपने 34 साल के इतिहास में माइक्रोसॉफ्ट ने पहली बार जॉब कट किया है। मंदी की वजह से दूसरी तिमाही के खराब नतीजों के बाद कंपनी ने यह ऐलान किया है। दूसरी तिमाही में कंपनी के प्रॉफिट में 11 परसेंट की कमी दर्ज की गई है। कंपनी के सीईओ स्टीव वामर ने कहा है - ' हम फिलहाल ऐसी हालत में हैं जो विरले ही आती है। कैश की कमी की वजह से बिजनेस इंडस्ट्री और कंज्यूमर्स अपने खर्च कम कर रहे हैं। ऐसे में नए कंप्यूटर्स की बिक्री कम हो रही है। '
चौथे खम्भे में लगा मंदी का दीमक
दरसल मंदी का इस्तमाल कैची के रूप में किया जा रहा है। शिकार तो छोटे पत्रकार को होना पड़ रहा है। उचे पड़ पर बैठे लोग तो दुरुस्त हैं। यैसे में इंडिया के कुछ गिने हुए मीडिया हाउस लोगों को निकालने के बजाये बड़े पदों पर बैठे अधिकारीयों के तनख्वा में से कटोती कर रहे है।
Sunday, January 25, 2009
मंदी का रोना हुवा पुराना
जिसमे आप थोडी देर के लिए अपना सब कुछ भूल जायें,
वो क्या हो सकता है?
कुछ पुराने पल ,
दोस्तों के साथ चाँद देखना,
सुंदर लड़की को देख कर....
पर मन को बहलाना जरुरी है,
क्या है की आप खुदी से निराश हो गए तो,
किसे क्या फर्क पड़ने वाला,
कोण आप के गम में साझा होगा,
ख़ुद ही आसू पोछने होंगे,
गिर कर धुल झाड़ कर फिर से भागना होगा,
ताकि खुले मुह को बंद कर सकें।
इसके लिए आपको हौसला बना के रखना होगा।
गणतंत्र मंदी और आम आदमी की नौकरी
- अपनी नौकरी पर लटकती तलवार
- घर_बाहर सवाल पूछतीं नज़रें क्या मिया क्या इनदिनों घर में बैठक कर रहे हो
- बीवी भी चेहरा देख कर बार बार आखों में सपने लिए टुकुर टुकुर देखती है क्या होगा अब
- दोस्तों की बैटन में वो गर्माहट खो गई
- दफ्तर में फ़ोन करो तो बहानो की जड़ी मिलती है
- उस पर तीन दिन की छुट्टी उफ़ क्या निठल्ला समय भी भरी पड़ता है
- और भी सवाल है इस गणतंत्र पर सर उठा रहे हैं
- आतंक, बेरोजगार होते कम्पनी के लोग, बिटिया के सवाल आदि आदि
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानि ये भी...
इन दिनों अखबार और न्यूज़ चैनल में जम कर मंदी को लेकर लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। मगर आपने किसे चैनल या अखबार में इस बाबत ख़बर नही पढ़ी होगी। क्यों सोचा है आने वाले दिनों में और कितने लोग रोड पर होंगे यैसे पत्रकार जो आप को हर पल की ख़बर दिया करते थे वो भी हर कीमत पर। लेकिन उनकी हर पल खबरे कहीं नज़र नही आती।
क्या पत्रकारिता का यह कला फिलहाल संकट के दौर गुजर रहा है?
Thursday, January 22, 2009
जिनके जॉब चले गए
बेचारे इसी डर से आप से खुल करबोल तक नही पते। कहना तो वो भी चाहते हैं मगर डर अनदेर निकल दिए जाने का सताता है। इन दिनों बड़े मीडिया हाउस से लोगो को बहिर का रास्ता दिकाया जा रहा है। यैसे में कोण कोई भी हो हर किसे के सर पर मंदी की तलवार लटक रही है।
कोई भी बेरोजगार नही होना चाहता पर साहिब मंदी की लाठी खूब भांजी जा रहीहै।
दीखते हैं कितने लोग इस आंधी में बर्बाद होते हैं।
Tuesday, January 20, 2009
साजिश में शामिल हूँ
यूँ तो साजिश रचना,
किसी के खिलाफ कहीं स्वीकार नही,
लेकिन मैं शामिल हूँ साजिश में उनके खिलाफ,
जो ज़हर उगल रहे हैं धर्म , कॉम के नाम पर।
हाँ मैं स्वीकार करता हूँ_
मैं षडयंत्र रच रहा हूँ,
उनके बिरुद्ध,
जो हर पल लगे हैं देश , समाज को....
Saturday, January 17, 2009
संभावना आश जगती है
आप उसे इक नै रचना करने और ज़िन्दगी से लड़ने की शक्ति देती है। इन दिनों हर सेक्टर में चटनी हो रही है।
नौकरी पर यमराज का शय है। सारे डरे और सम्हे हुए। कब किस की नौकरी चली जाए कहा नही जा सकता। मगर इन्ही हालत में हमें अपनी उर्जा और हिम्मत को बना कर रखन है।
वरना बिखरने से कोई रोक नही सकता। वैसे देखा जाए तो मंदी को औजार के रूप में इस्तमाल किया जा रह है। कम्पनी अपनी बैलेंस शीत में घटा दिखा कर एम्प्ली को हटा रहे हैं। कहा जाता है की समय ठीक होते ही पुराने लोगोको बुला लिया जाएगा। बहरहाल यह मंदी कितने लोगो का नेवला चिनेगी।
किते घरों में मातमी छायेगी पता नही ज़ार जार रोते लोगो को अभी लंबा समाये इन्ही हालत में काटन होगा।
बाज़ार के पंडितों का मानना है की यह दवार अभी दिसम्बर तक रह सकते हैं।
Wednesday, January 14, 2009
क्या आप जानते हैं
कभी सोचा है कैसा लगता होगा?
खैर रहने देन इन बैटन को अब कोई मतलब नही। जब साथ थे तो साडी बार\तें हुआ करती थी, अब तो साहिब दिख्वे की रह गई हैं।
चलिए साहिब आप भी खुश की इक हमारे साथ से गया।
मगर ज़रा सोचे की आप पर जब बात आएगी तब भी इसी तरहं सोचा करेंगे शयद न।
Sunday, January 4, 2009
क्या सड़क लाल दिखती है
सड़कें कहीं नही जाती जाते हैं हम सजीव लोग। मगर रस्ते में बिना देखे की कौन कुचल जाए। सड़क अगर बोलती तो कहती की भाई जावो जहाँ जेआना है। मगर घर जावो। बिटिया राह तक रही है। बीवी की आस में तंगी आखें आपको जोह रही हैं।
Friday, January 2, 2009
साल की सुबह
साल का अमूमन दिन सृजन में बीते।
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...