- अपनी नौकरी पर लटकती तलवार
- घर_बाहर सवाल पूछतीं नज़रें क्या मिया क्या इनदिनों घर में बैठक कर रहे हो
- बीवी भी चेहरा देख कर बार बार आखों में सपने लिए टुकुर टुकुर देखती है क्या होगा अब
- दोस्तों की बैटन में वो गर्माहट खो गई
- दफ्तर में फ़ोन करो तो बहानो की जड़ी मिलती है
- उस पर तीन दिन की छुट्टी उफ़ क्या निठल्ला समय भी भरी पड़ता है
- और भी सवाल है इस गणतंत्र पर सर उठा रहे हैं
- आतंक, बेरोजगार होते कम्पनी के लोग, बिटिया के सवाल आदि आदि
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Sunday, January 25, 2009
गणतंत्र मंदी और आम आदमी की नौकरी
आम आदमी इस गणतंत्र में क्या देख रहा है?
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शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...
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