पत्रकारिता जगत में जोशी जी का जाना वास्तव में यह प्रभाशंत है। किसी युग का अंत नही बलिक यह अपने आप में भाषा के शिल्पी का जाना कहा जाना चाहिए। जोशी जी ता उम्र भाषा खास कर हिन्दी पत्रकारिता को ले कर खासे सक्रिए रहे। उनकी लेखनी ने कई सालोंतक जनसत्ता में रविवार को कागद कारे किया। उनकी चाह थी की उम्रे के ७५ वें साल तक इस स्तम्भ को लिखे। मगर काल का चक्र कब, कैसे , किस गति में घूमेगा यह कोई नही बता सकता।
नई दुनिया को अपनी सेवा देने के बाद डेल्ही में जनसत्ता के १९९५ तक रह दीखते रहे। हालाकि सम्पद्किये जिमादारी छोड़ दी लेकिन सलाहकार संपादक बने रहे। देश भर में घूम घूम कर आन्दोलन के सूत्रपात करने वाले जोशी जी के लिए डेल्ही में बैठ कर लेख लिखना न भाया। उनसे आखरी मुलाकात आन्ध्र भवन डेल्ही में सितम्बर में हुई तब भी वो उसी प्रखरता से बोल रहे थे।
प्रभाष जी के साथ इक फुदकती पालवी मधुरता में पगी पत्रकारी भाषा भी शायद चली गई। पर उनको कोटि कोटि नमन ....
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Saturday, November 7, 2009
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शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...
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