पातंजल योगदर्शन में सूत्र है योगः कर्म्शु कौशलम यानि कर्म में जो कुशल है यही योगी है। यहीं दूसरी तरफ़ गीता का इक शलोक कहता है , कर्मनेवा धिकरास्ता माँ फलेषु कदाचना यानि कर्म की प्रधानता यहाँ भी है। दुसरे शब्दों में कहें तो यह होगा की कर्म प्रधान यही जग माही। जो भी कर्म में जी चुराता है उसकी तमन्न कभी भी कैसे पुरी हो सकती है। हमारी आदत में शामिल है हम अपनी असफलता का ठीकरा भाग्य के माथे फोड़ते हैं , जबकि गौर से विचार करें तो पयांगें की हमारी अपनी सोच ही दूषित है। कर्म तो करते नही हाँ असफलता की दारोमदार सीधा भाग्य को देते हैं।
ज़रा कल्पना करें , कोई आदमी बाढ़ में फस्सा हो तो उसे आवाज़ लगाना चाहिए की कोई आएगा और उसे ख़ुद निकाल लेगा सोच कर बैठ जाना चाहिए। उत्तर साफ है अगर हाथ पावों नही मरेगा तो डूबना तै है। उसपर भाग्य को कोई कोसे तो उसे क्या कह सकते हैं। भाग्य तो हमारे कर्मों से बनता है। अपनी हाथ की लकीरें हम ख़ुद बनते हैं।
इक बार थान लेने पर कोई भी काम कठिन नही होता।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...
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