Saturday, March 31, 2018

मार्च में शिक्षा...


कौशलेंद्र प्रपन्न
मार्च पहले बजट के नाम से बदनाम था बेचारा। हर कोई मार्च से डरा करते थे। दूसरा डर बच्चों में नींद उड़ाने के लिए काफी होता था। यही वह माह है जिसमें बच्चे पूरे साल की मेहनत परीक्षा के मत्थे चढ़ा दिया करते हैं। मार्च ही है जो पूरी ज़िंदगी पर भारी पड़ा करता है। बच्चे और बच्चांे के साथ ही अभिभावकों के लिए भी तनाव भरा हुआ करता है।
इस बार का मार्च कुछ ज़्यादा ही उथल पुथल भरा रहा। दसवीं और बारहवीं के पेपर लीक हुए। बच्चे निराश और तनाव सह रहे हैं। अभिभावकों को अपनी नौकरी और यात्रा के बीच ज़द्दो जहत करनी पड़ रही है। यह पहली दफ़ा नहीं है जब परीक्षा के पेपर लीक हुए हों। लेकिन आख़िर भी नहीं है। जब जब परीक्षा के पेपर लीक होते हैं तब एक परीक्षा तंत्र शक के घेरे में नहीं आते बल्कि पूरी शिक्षा और परीक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े होते हैं।
परीक्षा शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए है या परीक्षा बच्चों की जिं़दगी में तनाव घोलने के लिए? क्या परीक्षा सचमुच बच्चों की प्रतिभा और दक्षता को मापने मंे सक्षम है? सवाल कई हैं जिनके उत्तर दिए जाने चाहिए। परीक्षा व्यवस्था को संचालित करने वाले तंत्र को प्रबंधित करना होगा। वरना इसकी तरह की लापरवाही व चूक होती रहेंगी।
परीक्षा शिक्षा की मुंहबोली बहन सी है। कभी कभी इतनी रूखी हो जाती है कि पहली वाली को दुखी कर जाती है। जबकि परीक्षा को शिक्षा के साथ सहयोग का रिश्ता रखना चाहिए। वास्तव में परीक्षा के रूपरूप समय समय पर सत्ता के अनुसार बदलते रहे हैं। जब भी सत्ता ने शिक्षा को औजार के रूप में प्रयोग किया है तब तब शिक्षा और परीक्षा की मूल प्रवृत्ति से छेड़छाड़ किया ही गया है।
सरकार और सत्ता शिक्षा को हमेशा ही इस्तमाल करती रही है। जब भी पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों में बदलाव किए गए हैं तब तब शिक्षा की चिंता कम अपनी नीति और दिशा को मजबूत करने का प्रयास किया गया है।

Thursday, March 29, 2018

च्ुप यूं क्यों रहती हो बोलो...


कौशलेंद्र प्रपन्न
यूं ही कहां कहां कैसे कैसे गहन कंदराओं, वन उपत्यकाओं, पहाड़ों के बीच से चुप चाप बहती हो। कभी इतनी वाचाल और शोख़ हो जाती हो कि समझ नहीं आता तुम वही हो जो कहीं तो एकदम ख़ामोश रहती हो तो कभी झूमने लगती हो। तुम जितनी शांत नज़र आती हो उतनी ही अंदर से बेचैन भी होती हो। जब तुम बेचैन होती हो तो गांव गांव के जल समाधि...
पूरा का पूरा का गांव रातों रात भूगोल से ग़ायब। टिहरी को ही लो अब वहां नामों निशान नहीं। लेकिन कभी तुम उस गांव की शान और पहचान हुआ करती थी। तुम्हीं तो हो कहीं के लिए जीवन रेखा बन जाती हो तो कहीं के लिए जीने मरने का सवाल। तुम्हें लेकर दो राज्यां और देशों के बीच फसाद होता रहा है। क्या चनाब, क्या झेलम और क्या व्यास इन सब को अकेले और शहर के बीच से गुजरते हुए देखना और उन्हें महसूसना बेहद दिलचस्प एहसास होता है। देखा तो सिन्धू नदी को भी है। उसके अकेलेपन को भी देखा। कैसे दो पहाड़ों के बीच ख़ामोशी से बहती रहती है।
एक नदी मेरे पास भी है। उसे अब तक तो ज़िंदा रखा है। मगर डरता हूं कहीं मेरी नदी खो न जाए। वैसे भी शहर और महानगरों में नदी हो या न हो कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता। नदी सूखे या गंधाए किसी की नींद नहीं टूटती। लेकिन हमारे हिस्से नदी नहीं बल्कि नद मिला। वह नद जो तथाकथित अभिशप्त है। देश के चार नदों में से एक नद मेरे शहर के हिस्से आया है। अब आप कहेंगे कौन सा नद मेरे हिस्से आया तो बता ही देता हूं सोनभद्र। यह निकलता तो अमरकंटक से है लेकिन हमारे शहर से गुजरता हुआ आगे निकल जाया करता है।
किसी भी शहर के पास नदी का होना कई बार लगता है एक ईश्वरीय या प्राकृतिक धाय का मिलना है। पर्व त्योहार में डूबकी लगाना हो तो नदी। कभी शहर से उदास हुए तो नदी का तट। कभी उल्लास के पलों की तटस्थ नदी। तो कभी जीवन ख़त्म करने में मां समान गोदी की तरह नदी हुआ करती है।

Wednesday, March 28, 2018

कुछ सपनों का प्रबंधन



कौशलेंद्र प्रपन्न
सपने देखना और उन सपनों को पूरा करना दोनों ही अलग अलग हक़ीकतें हैं। सपने देखना हमारी छूट है। जो भी सपने देखना चाहें। देख सकते हैं। लेकिन उन्हें पूरा करना कई बार हमारे हाथ में नहीं होता। हालांकि यह दूसरों पर दोष मढ़ने जैसा है। लेकिन कुछ हद तक ठीक हो सकता है।
मैनेजमेंट के जानकार मानते और कहते हैं कि यदि कोई भी प्रोजेक्ट व प्लान को शुरू में ही पूरी शिद्दत से योजना, रणनीति, रास्ते,प्लान दो और तीन, रिस्क, संभाव्य चुनौतियों , बजट प्रबंधन, मानवीय ताकतों की समुचित प्रबंधन आदि को ध्यान में रखते हुए कदम उठाए जाएं तो वे सपने और प्रोजेक्ट दोनों ही पूरे होते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, डेटा से लेकर आम जिं़दगी की तमाम योजनाएं और प्लान यूं ही फूसससस नहीं हो जातीं बल्कि उनके पिछड़ने में या न पूरा हो पाने में हमारी योजना और काम करने की क्षमता और गति, दिशा और इच्छा शक्ति दोनों ही काम करती है। यदि किसी सपने को उक्त चीजें समय पर नहीं मिलीं तो वे सपने अधूरे ही दम घुट कर मर जाते हैं।
आज हमारे युवा सपनों के साथ यह दुर्घटना खूब घट रही है। यदि सपने हैं तो उन्हें पूरा करने की इच्छा शक्ति व ताकत नहीं है। सपने पाल तो लेते हैं कि लेकिन जब बीच में संघर्ष व विपरीत स्थितियों आती हैं तब उनसे डट कर सामना नहीं कर पाते। सामना नहीं कर सकने के पीछे भी अभिभावकों और शिक्षकों आदि के हाथ होते हैं। हम उनके अंदर यह जज़्बा व एहसास ही पैदा नहीं कर पाते कि वे अपनी ताकत का अंदाज़ा लगा सकें। हमेशा उन्हें हाथ में सब कुछ दे देना। सब कुछ रेडीमेड नहीं होता। यह हम तब बताते हैं जब हमारे बच्चे हमारी ही आंखों के सामने अपने सपनों को ऑल्टर करते नज़र आते हैं।
नागर समाज का हर वह व्यक्ति, संस्था व परिस्थितियां सपने ऑल्टर करने की दुकानें हैं जहां हम बच्चों को सीखाते हैं कि कोई बात नहीं यदि फलां सपना पूरा नहीं हो पा रहा है तो वह वह वे वे सपने पाल हो। पाल लो न।
नीरज जी प्रसिद्ध कविता याद आ रही है-
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है
कुछ चेहरों की उदासी से दर्पण नहीं....

Tuesday, March 27, 2018

शिक्षा में हिचकी यानी हाशिए से मुख्यधारा का सफ़र


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा की कई सारी कहानियां हैं। इनमें से कुछ कहानियां समय समय पर फिल्मों में देखने को मिलती रही हैं। हिचकी हमारी शैक्षिक कहानियों में से एक है। यह फिल्म दरअसल हमारी शिक्षा में समावेशीकरण और बहिष्करण के विभिन्न पहलुओं को विमर्श पटल पर गहरे उभारती है। बात सिर्फ फिल्म की ही नहीं है बल्कि हमारी शिक्षा ऐसे दिव्यांग बच्चों के साथ किस प्रकार का बरताव करती है उस ओर भी शिद्दत से विमर्श करती है। छुटपन में बच्ची को स्कूलों से इसलिए निकाल बाहर किया गया क्योंकि वो बोलते न बोलते हिचकी लेती है। चक चक करती है आदि आदि। उस पात्र को स्कूल से यह कहते हुए निकाला जाता है कि हम इसे क्यों निकाल रहे हैं उस वज़ह को हम नहीं बताएंगे। अंत में वह बच्ची न केवल स्कूलों से निकाल बाहर की जाती है बल्कि कक्षा में भी उसे अपने सहपाठी और शिक्षक की डांट और उपहास का पात्र बनना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर हमारी शिक्षा समावेशीकरण के सिद्धांत को तवज्जो देती है। इसी शैक्षिक दर्शन को मानते हुए विभिन्न निजी स्कूलों में मोटी फीस लेकर बच्चों को कहीं न कहीं आत्मकुंठा और बहिष्करण की मार झेलनी पड़ती है।

Saturday, March 24, 2018

कहानी जब औजार बन जाए



कौशलेंद्र प्रपन्न ं
मैनेजमेंट प्रोफेशनल अकसर कहानी के ज़रिए कुछ कहा करते हैं। सीधे सीधे सिद्धांत कहने की बजाए कहानी के मार्फत कहने की कला ख़ासकर श्रोताओं को लुभाया करती हैं।
कहना और प्रभावशाली तरीके से कहना दोनां ही दो बातें हैं। आज की तारीख़ को हर कोई कहने को बेताब होते हैं लेकिन उन्हें श्रोता नहीं मिलते। मिलते हैं तो सुनाया करते हैं यार पका देगा भाग आ रहा है। वही दूसरे की इंतज़ार किया करते हैं। लोग सुनने के लिए पैसे भी खर्च किया करते हैं। कहो ऐसा कि सुनने वाले पीछे पड़ जाएं।
कहानी है ही ऐसी विधा जिसके ज़रिए हम गंभीर से गंभीर और हल्की सी हल्की बातें कह दिया करते हैं। ख़ासकर व्यंजना और लक्षण में भी भाषा के इस कौशल का इस्ताल किया जाता है। कहानी वही विधा है जिसमें सीधे सीधे कहने की बजाए कहानी के पात्रों के ज़रिए कह दिया करते हैं।
हम सब के पास बहुत सी कहानियां हैं। उनमें से कुछ को कह पाते हैं और कुछ अनकही रह जाती हैं। ं

Thursday, March 22, 2018

शिक्षा पर नहीं लिखूंगा पर लिखने से बच नहीं पाता




कौशलेंद्र प्रपन्न
रोज़ दिन मन कड़ा करता हूं। अपने आप से वायदा करता हूं कि आज शिक्षा और शिक्षक पर बिल्कुल ही नहीं लिखूंगा। मगर रोज़ ही ऐसी कुछ घटनाएं घट जाती हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ करने का मतलब है कहीं न कहीं हम अपनी जिम्मदारी से दूर भाग रहे हैं। फर्ज़ कीजिए हम शिक्षा जैसे मसलों पर बात नहीं करेंगे तो कौन करने वाला है। किसी को भी शिक्षा की बेहतरी से कोई ख़ास लेना देना है। हाल में ही एक लड़की ने आत्महत्या की। स्कूल प्रिंसिपल जिस गैरजिम्मेदराना तरीके से मीडिया के सवालों को जवाब दे रहा था उससे ज़रा भी नहीं लगता कि उसे किसी भी बच्ची या बच्चे से संवेदना रखता होगा। उसे स्कूल के बाजार से पैसे बनाने है चाहों तरीके जो भी हों।
वहीं कई बार आपको और हमें राह चलते कुछ ऐसे भी टीचर और टीचिंग संस्थाएं हमें अपनी ओर मोड़ लेती हैं। ऐसी ही एक संस्था है सेंटर फोर सोशल एंड कल्चरल प्रशिक्षण,यहां देश भर से कलाकार, बच्चे, टीचर, गुरु आदि छात्रवृति पाते हैं। साथ ही विभिन्न राज्यों के टीचर और बच्चों को पूरे साल छात्रवृति देकर उनकी प्रतिभा को बढ़ावा दिया जाता हैं। यहां की चयन प्रक्रिया में कलाकारों और प्रतिभावान बच्चां, टीचर, मेंटर आदि को प्रोत्साहित किया जाता हैं।
फर्ज़ कीजिए एक ऐसा हॉल हो जहां कर्नाटक, असम, ओड़िसा, बिहार, तमिलनाडू, केरल आदि प्रांतों से बच्चे और शिक्षक मौजूद हैं। इस हॉल में विभिन्न आयु और कक्षा, भाषा भाषी श्रोता हों तो आप उनसे किस भाषा में और किस स्तर पर बात करना चाहेंगे? क्या यह उतना आसान होगा जैसा एक सामान्य समूह में हो सकता है। निश्चित ही अपने आप में एक चुनौतीभरा काम रहा होगा।
इस मायने में मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मान सकता हूं कि हाल ही में ऐसे ग्रुप के साथ पूरे दिन बातचीत करने और सीखने का अवसर मिला। कितनी कमाल की बात है कि पूरे दिन आप अपनी मूल भाषा भूल कर दूसरी भाषा को संप्रेषण का माध्यम चुनते हैं। इसमें ख़तरे हैं तो फायदे भी हैं। आप अपने आप को भी चेक करते रहते हैं कि क्या आप चल सकते हैं या नहीं। े
जैसा कि पहले कहा कि इस ग्रूप में दस साल से लेकर पचास साल तक से बच्चे और किशोर और वयस्क थे। विभिन्न भाषा भाषी। जब दस वर्षीय अर्थव ने कहा मैं तो बहुत इन्ज्वाय किया। आप जैसे पढ़ाया बहुत बहुत अच्छा लगा। वहीं प्रसन्न ने कहा कि मेरी भाषा हिन्दी नहीं है। मेरे को यह अच्छा लगा कि आपने हम सभी को एक परिवार की तरह से बना दिया। पहले हम अलग अलग थे। हम किसी को जानते तक नहीं थे। लेकिन आपकी टीचिंग और एक्टिविटी ने हमें जोड़ दिया। आदि आदि। जब इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं आती हैं तो लगता है कि शायद आज मैंने कुछ अच्छा किया। उसपर भी जब लोग अपना लंच छोड़कर काम कर रहे हों और छुट्टी ने मांग रहो हों। समय हो जाने के बावजूद भी बैठे सुन और सुना रहे हों तो लगता है कि कुद अच्छा हो रहा है। शिक्षा में अच्छा भी काफी हो रहा है और ख़राब भी। ख़राब को जल्दी लोग जान जाते हैं और अच्छाई थोड़ी देर लेती है।

Wednesday, March 21, 2018

पिछली यात्रा की कुछ बातें



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों कुछ शिक्षण-संस्थानों और बच्चों से बातचीत करने का अवसर मिला। पहला देहरादून और दूसरा सेंटर फोर कल्चर एवं रिसोर्स प्रशिक्षण केंद्र दिल्ली। दोनां ही जगहां के तज़र्बे अपने आप में कई स्तर पर शिक्षा और प्रशिक्षण की पद्धति को खोलने और समझने के लिए झरोखे सा काम करने वाली रही।
एक और देहरादून में मनोरम पहाड़ों के बीच बसा पुरकल यूथ डेवलप्मेंट सोसायटी की ओर से पहाड़ी और पिछड़े क्षेत्रों के बच्चे और बच्चियों के लिए तमिलनाडू के श्री स्वामी ने यही कोई बीस साल पहले इस बीया बान में बच्चों को पढ़ाने की ठानी। उनकी दिली ख़्वाहिश रही कि दिल्ली, चेन्नैय, मुंबई आदि शहरां में तो बच्चों को पढ़ने, स्कूल जाने के भरपूर अवसर मिलते हैं। बच्चे बेहतर प्रदर्शन भी करते हैं। लेकिन इन बच्चों के पास न तो सुविधा है और न व्यवस्था। व्यवस्था और संसाधन की कमी उनकी ज़िंदगी को ख़राब कर रही हैं। सो स्वामी जी ने यहां इस पुरकल गांव में यहीं कोई पांच बच्चों को लेकर पढ़ाना शुरू किया।
आज की तारीख़ में इस स्कूल में तकरीबन 502 बच्चे हैं। कुछ बच्चों से बातचीत हुई। एक गुलमोहर सदन की बच्ची ने बताया कि उसका बीजा नहीं बन पाया बरना वो भी यूएस जाती। कॉमर्स की छात्रा जो कि 11वीं में पढ़ रही है। वहीं पूनम जोशी जो यही की छात्रा रहीं और अब यहीं पर पैडागोजी और फैकेल्टी के तौर पर काम रही हैं। बताती हैं कि यहां पर पढ़ने के लिए बच्चों और अभिभावकों को कड़े प्रोसेंसंग से गुजरना पड़ता है। वहीं एक दस साला बच्चे से बात कर के लगा कमाल है कॉफिडेंस है। जिस अंदाज़ में वह अंग्रेजी में अपनी बात रख रहा था। वह सच में प्रशंसनीय था। हमने कई सवाल पूछे। मजाल है कहीं भी अटका हो। वो बच्चा प्रोजेक्ट कर नेशनल लेबल की प्रतियोगिता में शामिल हुआ। संभव है अगले साल वो यूएस चला जाए।
इस स्कूल में पढ़ने के लिए दूर दराज के गांव से बच्चे आते हैं। कुछ के लिए हॉस्टल की सुविधा है लेकिन वह सिर्फ 11 वीं और 13 वीं के लिए। यहां हर बच्चे को कोई न कोई गोद लिए हुए है। इसका मतलब है हर एक बच्चे के खर्चें को कोई और उठा रहा है। बच्चों को कुछ भी नहीं देना पड़ता। यहां के पिं्रसिपल ने बताया कि एक बच्चे की साल भर का खर्च तकरीबन 70से अस्सी हजार आता है।

Sunday, March 18, 2018

जीवन एक कहानी ..

जीवन एक कहानी सी है. जब जीवन कहानी है तो कई सारे पात्र और घटनाएं भी होती हैं.कुछ समय के साथ धूमिल हो जाती हैं तो कुछ एहसास हमेशा साथ रहा करती हैं.
मंसूरी कई बार आना हुवा.लगातार बदलते मसूरी को देखा. बाज़ार और चमकदार ही गए. लोग पर वही हैं. कई बार जीवन बाज़ार सा भी लगता है दूकान के सामान सा भी.मगर जीवन के बाज़ार में वही लोग और एहसास मायने रखते हैं जो बेहद करीब होते हैं. कई एहसास चलते चलते भी मिल जाया करती हैं जिन्हें ताउम्र सहेज सकते हैं.

Saturday, March 17, 2018

गुड और योजनाबद्ध मैनेजमेंट....

 जीवन और प्रोजेक्ट वही सफल होते हैं जिसकी प्लानिंग और अवलोकन लगातार हो.मैनेजमेंट एक्सपर्ट मानते हैं प्रोग्राम वही फेल या सफल होते हैं जिसकी प्लानिंग में रिस्क का अनुमान लगा लिया जाए और समाधान की योजना और पथ बना ली जाती है.
भारत प्रोजेक्ट इसीलिए फेल हो जाती है या डेडलाइन मीट नहीं कर पातीं क्योकिं प्रॉपर प्लानिंग और बजट की योजना नहीं बनाई जाती. दूसरी बात जिमेदारी तय नहीं किये जाते.

Thursday, March 15, 2018

पेपर लीक या व्यवस्था में छेद



कौशलेंद्र प्रपन्न
साल भर तैयार में लगे रहे। कहां कहां नहीं कोचिंग में समय लगाया। कितनां लोगों की नसीहतें सुनीं। घर में टीवी बंध। बाहर खाना बंद। घूमना फिरना बंद। लोगों का घर में आने जाने पर कर्फ्यू। खुद कितने दिन हो गए कहीं आना जाना सब बंद हो चुका है। बच्चों की बात तो है ही बड़ों की भी दिनचर्या कोई अच्छी नहीं है। दफ्तर से लेकर पड़ोसी तब। घर से लेकर कोचिंग तक हर जगह एक ही चर्चा। किसके घर में कौन पेपर दे रहा है। कितने सपनों को आंखों में संजोकर एक्जाम सेंटर पर जाते हैं। जूता,चप्पल, उतार कर परीक्षा कमरे में बैठते हैं। कहीं तो अंडरवीयर और बनियान में बच्चे बैठकर बच्चे परीक्षा देते हैं।
इधर हमारे बच्चे परीक्षा में कलम घीस रहे होते हैं उधर परीक्षा की रीढ़ प्रश्न-पत्र घर जेवार और दुकान में चक्कर काट रहा होता है। न जाने कहां कहां किस किस के हाथ में प्रश्न पत्र हल हो रहा होता है। धीरे से क्लास में भी हल सवाल पहुंच जाता है। जिनकी जितनी पहुंच उनके पास उत्तर हाज़िर। बाकी बच्चे जवाब लिखने में लगे होते हैं।
उन्हें क्या मालूम कि जिन सवालां को शिद्दत से हल कर रहे हैं वो तो बाहर कब का हल हो चुका है। कुछ बच्चे अच्छे अंक लेकर कहीं बड़े नामी गिरामी संस्थान में दाखिल हो जाएंगे। रह जाएंगे तो बस वे जिन्हें कहीं कोई नहीं सुनता।
परीक्षा से पहले पेपर कैसे लीक हो जाते हैंं। कौन सी कड़ी है या वो कौन का छेद है जिसमें से पेपर हुर हुर कर नीचे गिरने लगता है। गोया रेत हो। हमें जानने की ज़रूर है और जिम्मदार कड़ी भी देखने होंगे ताकि उसे ठीक किया जा सके। पेपर का परीक्षा हॉल से बाहर आना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जब अत्यंत विश्वसनीय संस्थानों के पेपर भी बाजार में लुढ़कते नज़र आएं तो एकबारगी विश्वास की पेंदी डोलने लगती है।
परीक्षा के पेपर बनाने वाले जानते हैं कि किन किन स्तरों पर सावधानी बरती जाती है। चाहे वह स्कूल स्तर हो, कॉलेज हो या विश्वविद्यालय हर स्तर संभवतः सावधानी तो बारती ही जाती है फिर पेपर बाहर कैसे आ जाते है? क्या उनके पर निकल आते हैं या पांव जिसके बदौलत बाजार घूमने लगते हैं?
न तो पर निकलते हैं, न पांव, और न ही कोई ताकत जो पेपर को बाजार में चलने और दौड़ने की ताकत दे सके। बल्कि हमारी ख़ुद की इच्छा और लोभ इतनी ताकतवर हो जाती है कि उसके आगे हम घुटने टेक देते हैं। वह चूक किसी भी किसी भी स्तर पर संभव हैं पेपर बनाने वाले से लेकर डिस्पैच, टाइपराइटर, कंपोजर, प्रिंटिंग, से लेकर परीक्षा केंद्र पर पहुंचने में कहीं भी कभी भी चूक हो सकती है। किसी का भी ईमान डोल सकता है। यदि एक बार डोला तो क्या वज़ह है कि दूसरी बार न डोले। और यह सिलसिला निकल पड़ता है।
सीबीएससी 2018 के 12 वीं के कैमेस्टी और एकॉउंट के पेपर लीक हो चुके हैं। वहीं फरवरी में कर्मचारी चयन आयोग क पेपर लीक हो चुके हैं। 2003 में पहली बार आईआईएम ने मिलकर ज्वाइंट पेपर ऑनलाइन कराने फैसला किया। इस सिस्टम में चूक नहीं होगा ऐसा मानना था। लेकिन टाईटेनिक की तरह वह विश्वास चूर चूर हो चुका। लेकिन इस आईस बर्ग से टकराने तो हमारे बच्चे हैं। बच्चों के विश्वास और जीवन टकराती हैं। उनके सपने डूबने से लगते है।

Wednesday, March 14, 2018

बच्चों के सपने उनके हैं तो संघर्ष भी...



कौशलेंद्र प्रपन्न
बच्चे सिर्फ परीक्षा के भय से भयभीत नहीं हैं बल्कि बच्चां पर अपने और और के सपनों को पूरा करने का भी भार होता है जिसे वे ढोते हैं। ढोने की पूरी कोशिश करते हैं। भला कौन अपने सपनों को पूरा होते नहीं देखना चाहेगा? किसी अच्छा नहीं लगेगा कि उसके देखे, पाले सपने साकार हो रहे हैं। लेकिन दिक्कत तब आती है जब हम दूसरों के सपनों में अपने सपने का एहसास करने लगते हैं। दूसरे के सपनों को अपना मान कर जीवन के लक्ष्य तय करने लगते हैं। जितने लोग हैं उतने ही सपने हैं। कई बार तो लगता है सड़क पर चलते हैं हम कितने ही सपनों से रू ब रू होते हैं। कितने ही सपने टकराकर आगे निकल जाते हैं। हम कितनी बेरूख़ी से दूसरों के सपनों को सुनकर मुसकुरा के चल दिए... चल देते हैं। बजाए कि उसके सपने को साकार करने में यदि अपनी भिमका निभाई होती तो शायद उसके सपने पूरे हो जाते। बल्कि हम एक कुंठा में जी रहे होते हैं। हम सोचते हैं मेरे सपने अधूरे रह गए तो भला उसके सपने क्योंकर पूरे हों। कांफ्लिक्ट यहीं पैदा होती है। हम पोजेटिव पोजेटिव कांफ्लिक्ट को जीने और सुलझाने की बजाए निगेटिव सेच और अवधारणा की ओर मुड़ने लगते हैं।
इन दिनों बच्चों पर चौतरफा दबाव है। न केवल अभिभावकों का बल्कि रिश्तेदारों, दोस्तों और स्कूली दबाव भी कम नहीं होते। कौन किस कोर्स को चुन रहा है? कहां कहां परीक्षा के फार्म भरे हैं? वहां नहीं हुआ तो क्या होगा? उस एक्जाम में पास नहीं हुआ तो सब हंसेंगे। दोस्त भी मजाक उड़ाएंगे। इतने पैसे लग गए कहां कहां नहीं कोचिंग में पैसे दिए आदि आदि। आर्थिक दबाव भी कम नहीं है। एक ओर परीक्षा दूसरी ओर परीक्षा के आगामी प्रभाव की चपेट में हमारे बच्चे जी रहे हैं।
इन्हें कैसे बचाया जाए इस ओर सोचने की बज़ाए हमारा पूरा ध्यान समाज में घटने वाले अन्य घटनाओं में दिलचस्पी लेता है। उससे अपने परिवार और घर पर असर तो पड़ेगा लेकिन आपकी औलाद जिस मनोदशा से गुजर रहा है। उससे न तो रिश्तेदारों को वास्ता होता है और न समाज के अन्य लोगों को। इसलिए पहले पहल हमें अपने घर के चराग को दुरुस्त करने की आवश्यकता है।
परीक्षा की चपेट में सपने इस तरह आते हैं कि परीक्षा में यदि पेपर अच्छे नहीं हुए या नहीं जा रहे हैं तो हम अपने सपनों और लक्ष्यों को ऑल्टर करने लग जाते हैं। और यहीं से दुश्चिंता, तनाव, अवसाद आदि घर करने लगते हैं। किसी की शुभकामनाओं में इतनी ताकत नहीं होती कि वो आपके पेपर कर दे। बल्कि वे शुभकामनाएं महज़ दिल को तसल्ली ज़रूर देती हैं। दरअसल सपने हमारे हैं तो उसकी पीड़ा और संघर्ष भी हमारे ही होंगे।हमें उसे भी स्वीकार करना होगा। यदि सपनों को ऑल्टर करना हो तो करने में हिचकिचाहट क्यों। क्योंकि जतो हंसने वाले हैं वो तो वैज्ञानिक पर भी हंसते हैं और सड़क चलते रहगीर पर भी। हमें अपने सपने को पाने के लिए कठोर भी होना होता है। कभी कभी अपने आप से तो कभी दूसरों से भी। इसे ग़लत भी नहीं कह सकते। क्यांकि प्रेमचंद ने कहा है ,‘‘सक्सेस हैज नंबर आफ फादर बट डिफिट इज ऑर्फन’’

Tuesday, March 13, 2018

कविता की मांग


कौशलेंद्र प्रपन्न
सामान्यतौर पर कविता और कहानी को क्लास या फिर पाठ्यपुस्तकों तक महदूद कर दिया जाता है। जब कविता को क्लास से निकाल कर जनसामान्य तक ले जाने की कोशिश होती है तब कई प्रकार की चुनौतियों सामने आती हैं।
आज देश में कई सारे मंच हैं। कई सारे मंचीय कवि। सब की अपनी अपनी शैली है। सब की अपनी अपनी पहचान। किसी कोई को भी अच्छा या ख़राब नहीं कह सकते। डॉ राहत इंदौरी से लेकर मुनौव्वर राण हैं तो वहीं इमरान प्रतापगढ़ी भी हैं। कुमार विश्वास हैं तो कविता भी हैं। वंदना यादव भी हैं। इनकी आवाज़ और गले में नज़्म या गीत उतर कर एक आकार पाती हैं। लगता है इन पंक्तियों को इन्हीं के लिए रची गई हैं। वहीं मंच पर चिल्लाने वाले कवि और शायर भी हैं। जो छोटे मोटे शेर या कविता से मंच को जीत लेना चाहते हैं। मंच तो जीत लेते हैं। तालियां भी बटोर लेते हैं। लेकिन कुछ है जो पीछे छोट जाता है। वह है श्रोताओं के दिलों में बसना। स्मृतियों में अपनी कविता को बो देना।
मुझे अपने ही संस्थान के एक कार्यक्रम में कविता पढ़ने का आदेश कहें या मनुहार हुआ है। मैं तब से सोच रहा हूं कंपनी के लोगों ( मैनेजर, प्रोजेक्ट मैनेजर, सिनीयर मैनेजर, सीओओ, सीइओ) के बीच कैसी कविता का चुनाव किया जाए। क्योंकि मेरे श्रोता काव्य या फिर साहित्य के नहीं हैं। वे हैं मैनेजमेंट के लोग। इन्हें कविता सुनाना जोखिम भरा काम है। इनकी अपेक्षाओं को पूरा करना भी एक मसला है। हास्य गीत सुनाएं जो लोग हंसते हैं। हंसेंगे। संवेदनशील सुनाएंगे तो मनोरोगी कहलाएंगे। मुझे लगता है जो भी कवि या मंच पर बोलने अपनी रचनाओं से मोह छोड़कर श्रोताओं को ध्यान में रखकर रचना पाठ करता है तब आधी समस्या तभी खत्म हो जाती है।
कभी हरिवंश राय बच्चन जी को भी साहित्य में वह स्थान नहीं मिला था जो समकालीन कविओं को प्राप्त था। वजह इतनी सी थी कि मंचीय कवि का टैग बच्चन जी को लगा था। वो मंच पर आने के लिए पैसे भी लेते थे। आलोचना तो इसकी भी हुई किन्तु मंच पर कवियों को पैसे मिलने लगे यह एक अच्छी शुरुआत थी। वरना कवि अपनी कविता और श्रम के लिए कुछ मांगने तक से डरते थे।

Friday, March 9, 2018

चलो दोस्तों ! बडोदरा शराफ् फाउंडेशन कौशल विकास केंद्र




कौशलेंद्र प्रपन्न
इन दिनों गुजरात के आणंद स्थित इंस्टीट्यूट आफ रूलर मैंनेजमेंट में प्रोग्राम मैंनेजमेंट एंड लीडरशीप प्रोग्राम करने करने का अवसर मिला है। सो आपको भी इस शैक्षिक यात्रा का आनंद दिलाता हूं। यदि आपकी रूचि है तो वास्तव में आपको भी आनंद आने वाला है।
विभिन्न सत्रों में विभिन्न प्रोफेसर के साथ बातचीत और विमर्श का मौका मिला रहा है। जिनमें संस्थान के निदेशक प्रो हितेश भट्ट की शैली कमाल की है। कहानियों के ज़रिए जिस साफगोई से कठिन से कठिन सिद्धांतों को समझा देते हैं। सच में एमबीए के कई पेचों को एक पल में खोल कर रख देते हैं। उन्होंने अपने लेक्चर में बताया कि कोई भी प्रोग्राम व प्रोजेक्ट बाद में विफल नहीं होता बल्कि प्रोग्राम के शुरू में ही बेहतर प्लानिंग, परिकल्पना, रणनीति, संभावित चुनौतियों के अनुमान न लगा पाने की वजह से देश में कई बड़ी से बड़ी योजनाएं और प्रोजेक्ट फेल हो जाते हैं। बल्कि हुए हैं। उनके इस उदाहरण से मैंने दिल्ली के यमुना पर बनने वाले सिग्नेचर ब्रिज का उदाहरण पेश किया। और कहा कि ओर वह ब्रिज है और दूसरी और डीएमआरसी है। दोनों की कार्यशैली तय करती है कि कौन सा प्रोजेक्ट समय पर खत्म होगा और किसमें विलम्ब होगा बल्कि हो रहा है। कहां तो सिग्नेचर ब्रिज को 2010 में पूरा होना था। जो आज भी जारी है। वहीं उसके बाद के डीएमआरसी के दूसरे प्रोजेक्ट न केवल पूरे हुए बल्कि सफलता पूर्वक चल रहे हैं।
इस कोर्स के अंतर्गत हमें बडोदरा के पास शराफ फाउंडेशन विजिट कराया गया। यहां की ख़ासियत यह है कि आस पास के ट्राइवल क्षेत्र के बच्चों और वयस्कों को कौशल दक्षता प्रदान की जाए। यानी हाथ का काम सीखाया जाए ताकि भविष्य में उन्हें नौकरी मिल सके। इस संस्थान में बच्चे और बच्चियां दोनों ही विभिन्न कोर्स में प्रशिक्षण हासिल कर अपना जीवन बेहतर जी रहे हैं।
गौरतलब हो कि जब वर्तमान प्रधानमंत्री गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तब उन्होंने राज्य भर में कई ऐसे केंद्रों की शुरूआत की थी जहां युवाओं को रोजगार मिल सके इसके लिए प्रशिक्षण दिया जाता था। शराफ कौशल केंद्र की तारीफ करने के लिए नहीं लिख रहा हूं बल्कि इसलिए आज इसपर कहानी सुना रहा हूं ताकि इस सक्सेस स्टोरी को देख पढ़ और सुन कर हम अपने आस पास के युवाओं के सपनां को पूरा करने में मदद कर सकें।
मैंन उन युवाओं से पूछा कि आपका सपना क्या है? तो एक ने जवाब दिया नौकरी करना। वहीं दूसरे ने कहा परिवार को सुख देना आदि आदि। इस केंद्र में वो सब चीजें सिखाई जाती हैं जो आईटीआई में कोर्स हुआ करती है। अंतर बस इतना है कि इन बच्चों से कोई भी शुल्क नहीं लिया जाता। अगर हमारे युवा सपने देख रहे हैं तो उन्हें पूरा करना हम नागर समाज की जिम्मेदारी बनती है।  
 

Thursday, March 8, 2018


कौशलेंद्र प्रपन्न
कल एक फ्रैंड का फोन आया उसका दाखिला दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी में हो गया है। ख्ुशी हुई। दोस्त है आखिर। पीएचडी करेगी। विषय पूछने पर जो बताया तब निराशा हुई। निराशा को साझा भी किया। आज की तारीख में विश्वविद्यालयों में होने वालों शोधों पर कितना समय और पैसे खर्च होते हैं इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। कठिन तो यह भी नहीं है कि एक शोधकर्ता अपने जीवन का कितना अहम वक़्त शोध लिखने में लगाता है। उसके बदले उसे का़ग़ज के प्रमाण पत्र मिल जाते हैं। इसका और लाभ हो न हो समाज में दिखाने और नौकरी में थोड़ा और आगे जाने में मदद मिलती है।
यदि सम्मान की बात करें तो समाज में कोई ख़ास नहीं मिल पाता। डॉक्टर लिखने और बुलवाने में अच्छा तो लगता है। क्यों न लगे क्योंकि उसके लिए कम से कम पांच से छह साल तो छात्र खर्च करता ही है। उसके बाद क्या वह डॉ लिखने से भी चूके।
साहित्य शास्त्र कहता है कि किसी भी साहित्य की रचना के मकसद हुआ करती हैं। मसलन-अर्थ, प्रसिद्धी, समाज में सम्मान, भार्या प्रीति आदि आदि। सामान्यतौर पर साहित्य लेखन में और भी मकसदों को ध्यान में रखा जाता है। ठीक वैसे ही यदि पीएचडी के शोधों की बात करें तो इसमें भी मकसद तो होंगे ही। जैसे प्रसिद्धी, भार्या प्रीति, समाज में सम्मान आदि। लेकिन इससे एक कदम आगे बढ़कर समाज को क्या उस शोध से कोई मार्गदर्शन या बेहतर कार्ययोजना में मदद मिलती है? क्या शोध से समाज और देश को विकास करने में तर्कपूर्ण रणनीति मिल पाती है। सामान्यतः देखा यही जाता है कि आज की तारीख में शोध पुस्तकालयों और शोधार्थी की आलमारी में शोभा बढ़ाती हैं।
ख़ासकर भाषा, समाज विज्ञान, शिक्षा आदि क्षेत्र में हुए शोधों के शीर्षक शोध के मज़मून बता देते हैं। फलां शोध किस विषय को कवर करता है। मसलन कालिदास के साहित्य में वनस्पति और जीव जंतु, प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री पात्र, जयशंकर प्रसाद की कविताओं में नारी चित्रण आदि आदि। क्या इन शोधों से समाज को कोई रोशनी मिलती है? क्या कोई दिशा मिलती है? कितने लोग उन शोधों को पढकर समाज को कुछ वापस लौटा पाते हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर दिया जाना चाहिए।
कई शोध प्रपत्र बताते हैं कि भारत में होने वाले शोध ख़ासकर पीएचडी के वे कूड़े से ज़्यादा नहीं होते। उसमें भी भाषा घेरे में आती है। न केवल भाषा बल्कि अन्य मानविकी विषयों में कोई बेहतर स्थिति नहीं है। सवाल यह उठता है कि पीएचडी करने बाद क्या करने वाले की ज़िंदगी में कोई बड़ा बदलाव घटित हो जाता है या समाज में कोई अनहोनी घटना घटती है। शायद दोनों ही घटनाएं व परिणाम पोस्ट पीएचडी की ऐसी है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि न तो समाज को और न ही साहित्य में कोई विशेष परिवर्तन दिखाई देता है। यदि स्वांतः सुखाए की गई है तो बात अलग है। पीएचडी करने में कोई आपत्ति किसी को भी नहीं हो सकती। बल्कि सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि उस पीएचडी का औचित्य क्या है जिसका आम जिंदगी में इस्माल नहीं है। या जिससे समाज को कोई नई दृष्टि नहीं मिल पाती।

Monday, March 5, 2018

परीक्षा के डर पर चर्चा ए आम


कौशलेंद्र प्रपन्न
शायद पहली बार हुआ है कि जब प्रधानमंत्री, प्रेसिडेंट ने बच्चों को परीक्षा से पूर्व संवाद किया। संवाद करने के तरीके बेशक अलग थे। किन्तु संवाद तो स्थापित किया। इससे पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने बच्चों की परीक्षा को शायद इस गंभीरता से नहीं लिया। यदि लिया होता तो बच्चों से संवाद भी करता। जो भी हो इस बार प्रेसिडेंट साहब ने भी परीक्षा से पूर्व बच्चों को बधाईयां एवं शुभकामनाएं दीं।
प्रधानमंत्री ने तो बाजाप्ता बच्चों से कांफ्रेंसिंग कॉल के ज़रिए संवाद स्थापित किया। इसमें केंद्रीय विदयालय और कॉलेज के छात्र भी शामिल थे। क्या उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर राज्य बल्कि जम्मू कश्मीर से लेकर लेह लद्दाख तक के बच्चों से जुड़कर परीक्षा बिना भय के संदेश संप्रेषित किया।
प्रो. यशपाल ताउम्र बच्चों को शिक्षा और परीक्षा बिना बोझ के लिए काम करते रहे। लेकिन आज तक तो बच्चे परीक्षा के भय से बाहर निकल सके। बल्कि प्रो. यशपाल जी ने तो नीतियों और समितियों के माध्यम से भी शिक्षा और परीक्षा को भय से मुक्ति दिलाने का प्रयास करते रहे।
आज तकनीक बदली है। संदेश प्रेषित करने के माध्यम बदले हैं। वैसे ही संदेश भेजने वाले का चेहरा भी बदला है। वह वह चेहरा है जो बच्चों में प्रिय बनने के लिए लालायित है। इतना ही नहीं विभिन्न राज्यों में शिक्षा के मार्फत घर घर बस्मे में पहुंच बनाना चाहता है।
साहब ने परीक्षा से पूर्व बच्चों से कहा कि परीक्षा में मुसकुराते हुए रहना। चिंता मत करना। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? क्या बच्चे मुस्कुराते हुए परीक्षा भवन से बाहर आएंगे। अगर आ भी गए तो मई के अंतिम पखवाड़े में उनकी मुस्कुराहट खत्म हो जाएगी। उम्मीद तो की ही जा सकती है कि प्रधानमंत्री जी तब भी मन की बात करेंगे और कहेंगे चिंता मत करना। अगर फेल भी हो गए तो क्या अगला साल फिर बैठ जाना। अगर पास हो गए तो और भी अच्छा।
कितना अच्छा होता कि संदेश की बजाए ऐसी नीतियां बनतीं और उन नीतियों को अमल में भी लाया जाता जिनसे वास्तव में बच्चे चिंता और भय मुक्त हो परीक्षा दे पाते।

Thursday, March 1, 2018

मसान चारों ओर जहां चाहों खेलो होरी...


कौशलेंद्र प्रपन्न
शंकर को मसान की तलाश थी। शंकर थे तब उन्हें मसान ढूंढ़ना पड़ा होगा। अब शहर और गांव, महानगर चारां ओर मसा नही मसान है। कभी वक़्त था जब श्मशान शहर के बाहर हुआ करते थे। गांव या फिर कस्बे के सीमांत पर जला करती थी लाशें। अब तो शहर सिकुड़ते चले गए और मसान
शहर के अंदर ही आ गया।
इससे पहले की लोग धुत्त हो जाए कुछ समझदार लोगों से बात कर ली जाए। क्यों कल का असर आज से ही दिखने लगा है। एक दिन पहले ही बधाइयां भी आने लगी हैं। गोया मरना तो है ही क्यों न आज ही कफ़न ख़रीद कर रख लें। क्या पता कल को कफ़न के भाव बढ़ जाएं। लकड़ी और घी भी ख़रीदकर रख लेने में कोई हर्ज नहीं।
समझदार किस्म के लोग प्लान कर के लाइफ में चला करते हैं। ऐेसे लोग जीवन में सक्सेस होते हैं। चलिए हम भी थोड़े समझदार हो जाएं और मौत के सामना आज ही ख़रीद कर रख लें। होली में मसान क्यां जाया जाए? क्यों शंकर को मसान के लिए दर ब दर भटकना पड़े। उन्हें क्यों न शहर के भीतर ही मसान मुहैया करा दी जाए। सर्विस एट योर डोर।
अब तो मसान कहां नहीं है। कौन धुत्त नहीं है। क्या अस्पताल क्या स्कूल, क्या बैंक सब जगह मसान ही तो है। अस्पताल में ऑपरेशन उन अंगों का हो जाता है जो खराब नहीं है। स्कूल में बच्चे पढ़ने की बजाए मरने मारने जाते हैं। अब बताईए कौन धुत्त नहीं है। बैंक वाले अलग ही रो रहे हैं। बैकर को बीम बेचने कर अपना टॉरगेट पूरा करना होता है। टीचर को भी तो टारगेट मिलता है इतना प्रतिशत आना ही चाहिए। सो जैसे तैसे कर कर बच्चों को कूटते हैं।
सड़कों पर कौन पी कर नहीं चलता। सब होश को घर पर छोड़कर आते हैं। जैसे ही गाड़ी में खरोच आ जाए तो मर्डर किया जाता है। जब गाड़ी व्यक्ति से ज़्यादा अहम हो जाए तो बताईए और धुत्त नहीं है।
होली तो होली हम रोज़ ही रंगों की नहीं बल्कि ख़ून की होली खेला करते हैं। अभी अभी ख़बर आई है कि होली में सड़क पर हुड़दंग मनाना खतरे से खाली नहीं। साहब कहां हुड़दंगई नहीं है। संसद क्या इससे महरूम हैं। वहां भी रोज़ ही भाषाओं में खेला करते हैं होली। होली इज्जतों की। होली बिलों की और न जाने कैसी कैसी होली हो रही है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...