सुना है के कल रात कहानी पुरी रात रोटी है। कोई उसके साथ नही था दुःख बटने वाला सो ख़ुद ही कहती ख़ुद ही सुनती रही पुर्री रात। सुनने में तो यह भी आया की कल रात कहानी के आसू पोछने वाला भी कोई नही था। आठ आठ आशु रोटी रही। मुमकिन है याद हो न हो चेहरा उसका। पकड़ कर नानी का दमन दूर कहीं वादियों में , नाले पहाड़ घूम आती थी। लौटती थी तो खुश्बुयों से लबरेज़ बाँहों में भर लेती बच्चों को। पुरी पुरी रात कहनी में कट जाती वो सुने दिन। सुना है इक दिन वो मायूस अपनी ही गम था या के न बात पाने का दुःख चुप हो गई। तब से खामोश कहानी की दुनिया कुछ सुनी रहने लगी।
अगर आपको वो कहीं मिले तो मेरा पता दे देना।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Tuesday, November 3, 2009
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