Thursday, November 30, 2017

यात्राएं...





कौशलेंद्र प्रपन्न
कई बार सोचता हूं कि हम अपने जीवन में कितनी यात्राएं करते हैं। कहां कहां जाते हैं, किन किन से मिलते हैं। कभी पहाड़ की यात्रा करते हैं तो कभी समंदर की। कभी किसी कछार की। कहां नहीं जाते हम?
यात्राओं से होता क्या है? क्या मिलता है इन यात्राओं से ? और कुछ मिले न मिले हमारी समझ और अनुभव तो व्यापक होते ही हैं। तरह तरह के भाषा-भाषी हमें मिलते हैं। कहीं खान-पान में विविधता दिखाई देती है। कहीं का पहनावा हमें अपनी ओर लुभाता है। कहीं की प्रकृति हमें आकर्षित करती है।
हमारे आस-पास ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपने गांव की दहलीज तक नहीं लांघी है। उनके लिए वहीं गांव की चौहद्दी दुनिया है। उनके लिए दुनिया वहीं पोखर,पीपल के पेड़ और हरी भरी ख्ेती तक महदूद है।
वहीं लोग तो रातों रात सात समंदर पार कर पूरी संस्कृति को लांघ आते हैं। रात बिती और नई जमीन और नए लोगों के बीच खुद को पाते हैं। अपने तजर्बे साझा करते हैं।
रूदयाड किपलिंग लिखित उपन्यास ऑन द टै्रक ऑफ किम पढ़ने लायक है। इसमे बनारस से अमृतसर तक की रेल यात्रा का दिलचस्प वर्णन मिलता है।
वहीं साहित्य में यात्रा संस्मरण भी खूब लिखे गए हैं। जिन्हें पढ़ने से देश दुनिया की समझ विकसित होती है।
मेरे ख़्याल से जितनी अपनी चादर हो उसके अनुसार हमें यात्राएं कर लेनी चाहिए। क्योंकि जिंदगी में पैसे कमाने के काम से भी ज्यादा और भी जरूरी काम हुआ करते हैं।

Wednesday, November 29, 2017

उनकी वजह से....



कौशलेंद्र प्रपन्न
कंपनियों में कई बार कुछ ख़ास व्यक्ति की वजह से लोग कंपनी छोड़ देते हैं। वह व्यक्ति इस कदर परेशान कर देता है कि दूसरों के लिए नौकरी छोड़ना ही विकल्प बचता है।
जब एक व्यक्ति उसमें भी सक्षम और तज़र्बेकार स्टॉफ कंपनी छोड़ता है तब वह केवल उस व्यक्ति की हानि भर नहीं होती बल्कि उस संस्था और कंपनी को भी इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। एक व्यक्ति की वजह से एक कंपनी को एक बेहतर मानव संसाधन से हाथ धोना पड़ता है।
कहते हैं कंपनी व संस्था किसी व्यक्ति से नहीं चलती। सच है कि लेकिन संस्था को बनाने और स्थापित होने में कई लोगों का हाथ होता है। कई बार एक व्यक्ति ही संस्था बन जाता है। इसकी दो संभावनाएं होती हैं। पहला या तो वह तानाशाही हो जाता है या फिर कई संस्थानों को जन्म दे सकता है। जब एक व्यक्ति यह समझने लगे कि संस्था उसी की वजह से चल रही है तब दिक्कत आती है।
लेकिन इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, शिक्षा आदि क्षेत्र में एक व्यक्ति को संस्था बनते हुए भी देखा गया है। लेकिन उसके बावजूद उन्हें संस्था से बाहर किया गया है।
संस्था व्यक्ति के जाने के बाद भी बतौर जारी रहता है। व्यक्ति चले जाते हैं लेकिन अपनी छाप छोड़ जाते हैं। उनके नाम और काम से संस्थाएं याद की जाती हैं।
संस्थान से किसी का जाना और किसी का आना तो लगा ही रहता है। संस्थाएं न तो रूकती हैं। और न रूक सकती हैं। लेकिन एक व्यक्ति के जाने से संस्था को कुछ तो असर पड़ता ही है। लेकिन एचआर और ऊपर बैठे लोगों को महसूस तक नहीं होता कि उन्होंने क्या खोया और क्या पाया। जिस सैलरी पर पहला व्यक्ति था संभव है उसके स्थान पर आने वाला उन्हें उससे कम लागत में मिल जाए किन्तु पहले वाले को स्थानांतरित नहीं कर सकता। उसकी शैली की कापी नहीं कर सकता। वैसे भी गुणवत्ता से आज किसी भी कोई ख़ास लेना देना नहीं होता। आप कितना काम करते हैं इससे अंतर नहीं पड़ता बल्कि आप कितना अपने काम को दिखा पाते हैं, यह ज्यादा जरूरी होता है।
कंपनियों में काम करने से ज्यादा दिखाने का चलन होता है। काम कम दिखावा ज्यादा। एक बॉस की वजह से यदि कोई संस्था छोड़ता है तो यह एक बड़ी घटना मानी जा सकती है।

Tuesday, November 28, 2017

लिट्रेचर फेस्ट यानी साहित्य की नई मुंह दिखाई



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम साहित्य उत्सव का विकेंद्रीकरण भी कह सकते हैं। इन दिनों बाज़ार में साहित्य फेस्ट के आयोजन का चलन तेजी से बढ़ा है। कभी विश्व पुस्तक मेले में पुस्तक चर्च, पुस्तक लोकार्पण, लेखक-संवाद, ऑथर टाक्स हुआ करते थे। इनमें देश के जाने माने लेखक, संपादक, कवि आदि शामिल हुआ करते थे।
पिछले दिनों आजतक ने भी लिट्रेचर फेस्ट का आयोजन किया। इसमें देश के नामीगिरामी हस्तियों ने हिस्सा लिया। गीतकार, कवि, शायर, लेखक आदि ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। इस उत्सव में नए लेखक भी मंच में दिखाई दिए।
पिछले हप्ते टाइम्स आफ इंडिया ने भी लिट् फेस्ट किया। इसमें शशि थरूर, जावेद अख्तर, शबाना आजमी, बाबा रामदेव आदि को बुलाया। सब ने राष्ट्रवाद, संस्कृति, पद्मावती आदि से लेकर संस्कृति पर हो रहे हमले पर बात की। वहीं पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते पर भी सत्र में चर्चा हुई।
मैं उस उत्सव में हिन्दी वाली लेखक, कवि, साहित्यकार तलाशता रहा मगर एक भी नजर नहीं आए। वहां जो भी नजर आए वे अंग्रेजीदां किस्म के लोग थे। क्या श्रोता क्या वक्ता सब के सब एक रंग में रंगे। महंगी महंगी किताबें, बंडी, लंबे बाल वाले लोग और फैशन में डबी फेस्ट नजर आई।
हमें विचार इस पर भी करना होगा कि क्या इन फेस्टों से साहित्य की कुछ भी स्थिति सुधरने वाली है। क्या इस फेस्ट से कुछ ख़ास मीडिया घराने महज अपनी दुकान चमकाने की जुगत तो नहीं कर रहे हैं। बाकी आप समझदार हैं!!!

Friday, November 24, 2017

भाषा टोला




कौशलेंद्र प्रपन्न
भाषा टोला सुन कर थोड़ी देर के लिए हैरान हो सकते हैं। होना ही चाहिए। क्योंकि आज हमारे बीच के बहुत सारी भाषाएं, बोलियां, शब्द ग़ायब हो चुकी हैं या बहुत तेजी से खो रही हैं।
हालही में एक कार्यशाला में मैंने प्रयास किया कि जिस तरह से समाज में बहुभाषा भाषी लोग होते हैं उसी तरह से कक्षा में भी बहुभाषी बच्चे होते हैं। ऐसे में भाषा बोली को कैसे बचाएं और उन्हें कैसे बच्चों में जिंदा रखें।
हमने पहले एक घंटे में सभी शिक्षक/शिक्षिकाओं से आग्रह किया कि वो अपनी मातृभाषा के शब्दों कों आमंत्रित करें। उन शब्दों, भाषाओं को बुलाएं जिन्हें कभी बचपन में इस्तमाल किया करते थे।
शुरू में थोड़ी दिक्कत आई किन्तु देखते देखते ही हमारे सामने तरह तरह के शब्द झांकने लगे। बल्कि वे शब्द हमारे आस-पास तैयारे लगीं।
उन फुदकती बोलियों, शब्दों में गढ़वाली, पंजाबी, भोजपुरी, ब्रज, हरियाणवी, खड़ी बोली हिन्दी, राजस्थानी आदि के शब्द एक के बाद एक आने लगीं। शुरू में बोलने में शिक्षक/शिक्षिकाओं को बोलने में थोड़ी शर्म सी महसूस हो रही थी।
लेकिन एक बार जब हमने अपनी भाषा-बोली को याद करना शुरू किया तो अब नजारा ही बदला हुआ था।
धिनाई पाणि, चोपल, मौडी-मौडा, बोतो, गोर डांगर, सौंझ बैणी, दाज्यू, पनारा, बुआरी, भेड दे, सुधरी घणा, वा चला ग्यो, गांझ, रोल्ला,  पाइन सेर तड़कै, भकार , गदैड़ा, बुझाया कि नहीं, केरवा के पत्ता आइल कि ना, शेरवा, बघवा आदि। इन शब्दों की सूची देना लक्ष्य नहीं था। बल्कि हमें यह भी समझना था कि इनमें कितने शब्द अब हमारे आस-पास गुम हो चुकी हैं।
तमाम रिपोर्ट इस ओर इशारा करते हैं कि रेज दिन न सही लेकिन बड़ी तेजी से भाषाएं और बोलियां हमसे दूर होती जा रही हैं। इन्हें बचाने के लिए हमें सजग होने की जरूरत है। यह शुरूआत स्कूली कक्षा से तो कर ही सकते हैं साथ ही आपस में भी बरतने से उन्हें बचा सकते हैं।

Thursday, November 23, 2017

पढ़ाने के सिवा

कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘सुबह के आठ बजने वाले हैं। बच्चे अपनी अपनी नाक पोंछते हुए धकीयाते, मुकीयाते पंक्ति में खड़े हो रहे हैं। साथ में लगभग चिल्लाती, डाटती मैडम उन बच्चों के साथ खड़ी हैं। प्रार्थना संपन्न होता है। कुछ आदर्श वाचन होते हैं। अब बारी आती है अभिभावकों के लिए कि आधार कार्ड अब तक नहीं दिए जल्द जमा करा दें। बच्चो को समय पर स्कूल साफ सुथरे रूप में भेजें आदि। और अंत राष्ट्र गान से होता है।’’
‘‘कहानी अब शुरू होती है। शिक्षक/शिक्षिका एक एक कर बच्चों के नाम उपस्थिति रजिस्टर पर दर्ज करती जाती हैं। बीच बीच में कॉपी फाड़ने, चिकोटी काटने, मारने, गाली देने जैसे आम शिकायतों को निपटारा भी करती हैं। अब बारी है स्कूल के एक कमरे में लगे चेहरादर्ज मशीन के आगे सभी बच्चों को खड़ा करना और उपस्थिति दर्ज कराना।’’
हाल ही में बिहार के भागलपुर और औरंगाबाद में शिक्षा विभाग ने आदेश जारी किए कि स्कूल आने से पूर्वी और जाने के उपरांत अपने आस-पास यदि कोई खुले शौच करता मिले तो उसकी तसवीर खींच कर उन्हें भेंजें और उन्हें समझाने की कोशिश करें। पहली बात तो यही कि जिसकी तसवीर खींची जाएगी वह क्या सहजता से चुपचाप बैठा रहेगा या फिर मारने दौड़ेगा। दूसरी बात शिक्षक मैदान मैदान घूम घूम कर पता करे कि कौन खुले में शौच करता है। उसपर तुर्रा यह कि राज्य के शिक्षामंत्री मानते हैं कि इसमें हर्ज ही क्या है। शिक्षक समाज पढ़ा लिखा है। जनगणना आदि काम तो करते ही हैं। इसे भी अंजाम दे सकते हैं।
और कहानी ऐसे अंतिम मकाम पर पहुंचती है कि मिड डे के बाद 10.40 में बच्चे वापस कक्षा में आते हैं। अब शिक्षक के पास 10.45 से 12 बजे तक का समय होता है। इस समय में वह कितना पढ़ा पाता है। इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। 

Wednesday, November 22, 2017

मोबाइल जी का साथ...



कौशलेंद्र प्रपन्न
काश! तुम लौट आते इक बार/ कितनी बातें/कितने चैट बिछ जाते बन पराग/जो तुम आ जाते इक बार महादेवी वर्मा जी की कविता से प्रभावित हो कर। मोबाइल जी क्या चले गए गोया पूरी दुनिया ही बरबाद हो गई। बार बार पॉकेट में हाथ जाए। कभी कहीं कभी कहीं मोबाइल जी को तलाशता रहा। लेकिन उन्हें नहीं मिलना था सो नहीं मिले। कुछ पल के लिए लगा सारी की सारी दुनिया बदरंग हो गई। कहीं कुछ भी नहीं हो रहा। न संगीत है। व आवाज है। और न यार दोस्त हैं।
वाकया क्या बताएं। बताते हुए रोना आता है। रे रो कर आंखें देखिए सूज गई हैं। अब तो आंखें अश्रुविहीन हो गईं। कहानी ही है मोबाइल की। कल ही तो मेटो्र में मोबाइल को चोर जी ने अपना बना लिया। उनके हाथ में खेलता इठलाता अपने पुराने दोस्त को पता नहीं याद करता होगा या नहीं। यह भी तो तब पता चले जब उनके मुलाकात और संपर्क हो सके। मैंने तो अपनी तरफ से खूब कोशिश की। कोशिश भी इतनी कि अपरिचितों से फोन मांगे।
कल का पूरा दिन खाली खाली बरतन का सा रहा। गुलज़ार के शब्दों में। मगर एक चीज हुई। पूरे दिन बिन टुनटूने के रहना का अपना सुख था तो अपनी कैफ़ियत भी थी। आस पास अब टेलिफोन बूथ भी तो नहीं रहे। सो किसी से भी फोन मांगना भीख मांगने जैसा है। दस बार अलग अलग नज़रों से देखते हैं। उनकी नज़रें आप पर टंगी होती हैं। किस को कर रहे हैं? कितनी देर बात कर रहे हैं आदि। उन्हें यह भी डर होता है कि इसके चले जाने के बाद कॉल बैक आए इन्हें कहां देखने जाउंगा।
शाम हुई तो फिर याद आए मोबाइल जी। अब अपनी सहयात्री को कैसे बताउं कि आफिस से निकल चुका हूं। कैसे बताउं कि कहां पहुंच गया आदि। कदम कदम पर टै्रकिंग होने बच गया। गूगल से ज्याद तेज़ अपनी सहयात्री होती हैं। जो स्टेशन स्टेशन आपको टै्रक करती हैं। कहीं बीच में तो नहीं उतर गए। कल इससे भी मुक्ति मिली।
कल तमाम सोशल अड्डा से बाहर रहा। सोच रहा था क्या क्या कहां कहां क्या हुआ होगा। इस चिंता और उत्सुकता से ऊपर उठ चुका था। न टी टी न लाइक्य, न कमेंट्स सब से बेख़बर।
आख़िर आप सोच रहे होंगे कि यह भी कोई कहानी है? क्या बेकार सी बात में आपका समय जाया किया। मगर बाबूजी कहानी तो कहानी होती हैं। वह मोबाइल की हो या इंसान की। उसकी कहानी हम सब की जिंदगी से जुड़ती चली जाती हैं।
चिंता न करें। आज मेरे पास मोबाइल है। नेटवर्क है। बातें हैं। और मोबाइल की तमाम पेचिंदगिंया हैं।

Monday, November 20, 2017

नदी जो गंदी रही



कौशलेंद्र प्रपन्न
नदी गंदी सिर्फ बाहरी तत्वों से नहीं होती। कई बार नदी को हम अपने हित में गंदी ही रखते हैं। यदि नदी साफ हो गई तो करोड़ों रुपए का व्यापार कैसे होगा। गंगा, यमुना, झेलम, चिराब आदि नदियां तो हैं ही जिन्हें बचाना है।
मगर एक नदी हमारे भीतर बहा करती है। इस नदी को साफ करने के लिए बाहरी अनुदान की जरूरत नहीं होती। हम चाहें तो अंतर नदी को साफ और निर्मल रख सकते हैं। लेकिन अफ्सोस कि हम अपनी अंतर नदी को गंदली ही रखना चाहते हैं। ताकि कोई तल की गहराई न जान सके।
यह नहीं कहता कि लोगों के चेहरे पर कई चेहरे होते हैं। यह तो बात पुरानी है। चलिए नए बिंब से देखते हैं। नद ीवह बिंब मुझे आई कि नदी केवल बाहर ही नहीं बहा करती। बल्कि एक नदी हमारे भीतर भी बहा करती है। निरंतर।
कई मोड़-भाव, मनोदशाओं के किनारों से टकराती बहती रहती है। हम इस नदी को बड़ी होशियारी से साफ नहीं रखते। यदि साफ हो गई तो लोगों को मालूम चल जाएगा कि फलां की नदी ख़ासा गंदली है। वह कभी भी अपनी नदी का प्रच्छालन नहीं करते।
हमारे भीतर बहने वाली नदी बेहद जरूरी है कि वो साफ सुथरी रहे। लेकिन साफ नहीं रख पाते। जबकि यम,नियम, प्रणायाम, धारणा, ध्यान आदि के जरिए हम चाहें तो अपनी अंतर नदी को निर्मल कर सकते हैं।
आध्यात्म में इस नदी को साफ करने के लिए साधनों का जिक्र है। लेकिन भौतिक सफाई की बात करें तो हमें अपनी अंदर और अपने व्यवहार को हमेशा जांचते रहना चाहिए। इससे हमें मालूम होता है कि हमने कहां और कब गलती की। इसलिए कहां गया है कि हमें मनसा,वाचा कर्मण किसी भी स्तर पर हत्या नहीं करनी चाहिए। लेकिन हम यह जानते हुए भी अनजाने में न जाने किस किस को मानसिक, भावनात्मक स्तर पर चोट पहुंचाते हैं।
दूसरे शब्दों में हमें न केवल अपनी भौतिक नदी को बचाने का प्रयास करना है बल्कि अंदर की नदी को भी निर्मल और स्वच्छ रखने का प्रयास करना है।

Friday, November 17, 2017

हवा में भेदभाव




कौशलेंद्र प्रपन्न
लगभग फ्लाइट टेक ऑफ करने वाली थी। कैबिन बंद हो चुके थे। बत्तियां बुझा दी गई थीं। घोषणा भी हो चुकी थी कि कृपया कमर बेल्ट बांध लें आदि। कि तभी आवाज़ आई ‘‘ आपको सुनाई नहीं देता कैप्टन ने अपनी सीट पर बैठने की घोषणा की है।’’
साधारण से कपड़े में खड़ा व्यक्ति सहम गया। शॉरी मैडम। और अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।
तकरीबन चालीस हजार फीट की ऊंचाई पर लोग उड़ रहे थे। फिर आवाज़ आई ‘‘ आपको समझ नहीं आती, ऐसे खड़े होते हैं? सट के मत खड़ें हों। दूर जाइए।’’
दूसरी सवारी को बोली गई। वह भी सहम गया। ‘‘मैडम सट नहीं रहा था। आग जाने की जगह नहीं थी सो...’’
‘‘पता नहीं कहां कहां से आ जाते हैं। तमीज़ भी नहीं हैं।’’ बुदबुदाती हुई मैडम आगे बढ़ गईं। लेकिन मेरा मन थोड़ा ख़राब हो गया। इन्हीं की वजह से उनकी नौकरी है। ये हैं तो इनकी फ्लाइट उ़ड़ती है। और अपनी सवारी पर ऐसे बुदबुदाना...।
मगर उस साधारण से कपड़े में ट्रैवल करने वाला एक साधारण कामगर लगा। जो दो साल बाद अपने घर लौट रहा था। चेकिंग के दौरान उस पर नजर पड़ी थी। बड़े बड़े और भारी बैग उसके साथ खड़े थे। जब वे आपस में बात कर रहे थे तो उनकी भाषा भोजपुरी, अवधी और ब्रज मिश्रित सी महसूस हुई। एकबारगी ऐसा लगा किसी रेलवे फलेटफॉम पर हम खड़े हैं। लेकिन यहां अंतर था। लोगों के कपड़े,भाषा, हाव-भाव, बॉड़ी लैंग्पवेज एलीट किस्म के थे। उनके सब के बीच ये मजदूर किस्म की सवारी सभी को खटक रही थी। मेरे साथ बैठा सवारी सवारी ही कह रहा हूं क्योंकि अभी तक नाम नहीं जानता था। बातचीत शुरू हुई तो पता चला अफगानिस्तान में ऑर्मी विंग्स में गाड़ी चलाते हैं। छह माह के बाद आंख के ऑपरेशन के लिए भारत भेजा गया है। बातों ही बातों में कई बातें मालूम चलीं। फैलो यात्री हरियाणा के सोनीपत का रहने वाला था। अपनी वहां की कई ऐसी बातें साझा की कि आंखें ख्ुली रह गईं। उसकी ख़बरें किसी भी मीडिया में दिखाई नहीं देती। सौभाग्य था मेरा कि मुझे उसके वास्तविक तजर्बे को सुनने और जानने का मौका मिला।
बहरहाल जब दिल्ली एयरपोर्ट पर बिदा हुए तो महसूस हुआ आज ग्लोबल गांव में रहने वाले सब पहले इनसान हैं। जहां भी हैं जैसे भी हैं।

Thursday, November 16, 2017

उबाऊ प्रार्थना



कौशलेंद्र प्रपन्न
स्कूलों में आज भी उबाऊ प्रार्थना जारी है। तकरीबन बीस साल पहले प्रो. कृष्ण कुमार जी ने स्कूली प्रार्थना का विश्लेषण शिक्षा समाज को दिया था। जो पढ़ना चाहें वे बच्चों की भाषाः अध्यापक निर्देशिका में पढ़ सकते हैं।
स्कूलों में प्रार्थना जिस बेरूखी और उबाऊ तरीके से होती है कि जिसे सुनकर लगता है इससे अच्छा न हो। यह बरताव न केवल प्रार्थना के साथ किया जाता है बल्कि राष्ट्र गान भी उसमें शामिल है। कभी कभी स्कूलों में होने वाले प्रार्थना और राष्ट्र गान को सुनता हूं तजो लगता है हमारे बच्चे और शिक्षक किस स्तर तक उच्चारण के जरिए अर्थ का अनर्थ करते हैं।
शिक्षक की भूमिका में भी इसमें साफ झलकती है। शिक्षक सामान्यतौर पर हाथ बांधे अनुशासनात्मक व्यवस्था संभालने में लगे होते हैं। उनका काम बच्चों पर निगरानी रखना होता है कि वे ठीक से खड़ें हैं या नहीं। प्रार्थना व राष्ट्र गान गा रहे हैं या नहीं।
राष्ट्र गान में आए शब्दों को यदि कभी बच्चों के मुख से सुनने का अवसर मिले तो जरूर समय निकाल कर सुनें। जो लोग सिनेमा हॉल जो कि शुद्ध मनोरंजन स्थल है वहां भी राष्ट्र गान में खड़े होने, गाने की पैरवी करते हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या वे स्वयं शुद्ध राष्ट्र गान करने में सक्षम हैं।
स्कूल जिम्मेदार नागरिक बनाने की पहली पाठशाला के तौर जानी जाती है। लेकिन वहां राष्ट्र गान और अन्य प्रार्थनाओं के साथ बच्चे रू ब रू होते हैं यह एक चिंतनीय विषय है। कायदे से प्रार्थना और राष्ट्र गान को शुद्ध उच्चारण के साथ गाया जाना चाहिए। हालांकि कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि शुद्धतावादियों ने ही हिन्दी व अन्य भाषाओं को सबसे ज़्यादा हानि पहुंचाई है। लेकिन फिर भी कम से कम राष्ट्र गान को सही तरीके से गाने की वकालत को नकारा नहीं जा सकता। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि क्या स्कूलों में सभी बच्चों को राष्ट्र गान की तालीम दी जाती है? थोड़ी देर के लिए मान लें विद्यालय के पास सभी बच्चों पर ध्यान देने का समय नहीं है तो क्या घर-परिवार के सदस्यों ने कभी राष्ट्र गान को शुद्ध उच्चारण के साथ बच्चों को सुनाया या अभ्यास करने की कोशिश की है।
स्कूलों में बच्चे जो सुनते, पढ़ते,लिखते और बोलते हैं वो उनके साथ ताउम्र रहती है। यदि राष्ट्र गान व प्रार्थना ग़लत शैली व तर्ज़ पर बच्चों को मिली है तो उन्हें अतिरिक्त अभ्यास और प्रयास से ठीक करना पड़ता है।

प्रेस की आज़ादी संग जिम्मेदारी भी



कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेस की आज़ादी से हमारा क्या मतलब है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शायद यही अर्थ बेहद करीब बैठता है। सवाल यह उठ सकता है कि प्रेस को किससे, किस स्तर पर किस मकसद के लिए आज़ादी चाहिए आदि। प्रेस स्वत्रंत हो इसमें किसी को भी कोई गुरेज नहीं हो सकता। लेकिन प्रेस जब स्वयं निरंकुश हो जाए तो? प्रेस को भी नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है?
प्रेस की आज़ादी और जिम्मेदारी दोनों को एक साथ एक मंच पर रखकर विचार करने की आवश्यकता है। प्रेस अपनी आज़ादी को क्या जिम्मेदारीपूर्वक निभा रहा है या नहीं इसकी भी जांच करने की प्रक्रिया और तंत्र हो तो बेहतर है। हालांकि समितियां और आयोगों का गठन किया जा चुका है। लेकिन दंतविहीन से क्या उम्मीद रखी जा सकती है।
किस ख़बर व किस घटना के साथ प्रेस को कैसे बरताव करना चाहिए यह प्रेस के लोकतांत्रिक विवेक पर ख़ासा निर्भर करता है। प्रेस का स्वविवेक क्या कहता है? किसी भी घटना व ख़बर में किसी की निजता का ख़्याल नहीं रखा जाना चाहिए। किसी ख़ास घटना पर कई बार प्रेस निर्णायक की भूमिका में होता है। यह शायद लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के लिए नहीं है। यह कार्यक्षेत्र किसी और का है। यह जिम्मेदारी किसी पहले,दूसरे या तीसे खंभे की है तो यह काम उसे ही क्यों न करने दिया जाए।
अतिउत्साह के शिकार प्रेसकर्मी कभी कभी बल्कि अब तो कोई भी ख़बर मिल जाए उसकी मार्केटिंग में पूरी रिसर्च विंग्स झोंक देती है। बजाए उस घटना के दूरगामी मारक क्षमता का ख़्याल किए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर व्यक्ति, समाज और लोकतंत्र के चारों स्तम्भों को चाहिए। यह अनुचित भी नहीं लेकिन हमें विचार करना होगा कि क्या हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तमाल जिम्मेदारी के साथ कर पा रहे हैं।
हाल के तीन चार सालों में नागर समाज के लेखक,साहित्यकारों और पत्रकारों को उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी को जिस बेरहमी से कुचला गया जिसे देखते हुए लगता है कि पहला स्तम्भ इतना मजबूत हो गया है कि तमाम अभिव्यक्ति के मायने को अपने तरीके से व्याख्यायित करने पर आमादा है। ऐसे में प्रेस को आगे आना ही होगा किन्तु जिम्मेदारी को नज़रअंदाज़ करते हुए नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए।
कलमुर्गी, दाभोलकर, पंसारे, गौरी लंकेश आदि की हत्या बताती है कि सत्ता को विरोध, आलोचना कत्तई पसंद नहीं। जो भी सत्ता के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करेगा उसे मौन कर दिया जाएगा।

Wednesday, November 15, 2017

चिड़ियों की बैठक






कौशलेंद्र प्रपन्न

शहर में ऐसी घटना पहली बार घट रही थी। चारों दिशाओं से तरह तरह की चिडियों की झुंड़ आ चुकी थीं। उसमें गिलहरी, बाज़, गिद्ध, सोनजूही, गरवैया,कौआ सब आज साथ थे। किसी ने भी उड़ान भरने से मना नहीं किया।
सोनजूही ने कहा ‘‘ आज तक, आज तक ऐसा नहीं हुआ।’’
‘‘इन लोगों ने पेड़ काटे हमने चूं तक नहीं किया।’’ हमारा बैठने का ठिकाना काट डाला।’’
गिद्ध और बाज़ चुपचाप सब सुन रहे थे। बीच में गिलहरी बोल पड़ी,
‘‘ इनकी चले तो हमें शहर से निकाल बाहर करें।’’
‘‘ख़ुद तो छोटे छोटे कोठरों में सिफ्ट हो गए।’’
‘‘हमारे लिए छोड़ा ही क्या है?’’
‘‘बिजली के खंभों पर बैठना भी महफूज़ न रहा अब तो। वहां भी कंटीले तार बिछा दिए इन इनसानों ने।’’
बाज़ कुछ बोलने को अपनी चोंच बाहर निकाली और कहा,
‘‘शुक्र है, तुम तो अभी भी शहरों में उड़ान भर पाते हो। बच्चे तुम्हें देख कर खुश हो लेते हैं। और गिलहरी तुम्हें क्या चिंता है पार्क में बच्चे, बड़े कुछ न कुछ खाने को डाल देते हैं।’’ ‘‘हम तो अब दूर की कौड़ी हो गए। एक दो हमारे परिवार के बचे हैं जिन्हें इनसानों को दिखाने के लिए चिड़ियाघरों में कैद कर रखा है।’’
‘‘लेकिन आज समय आ गया है अपनी भी आवाज़ बुलंद करने की। आख़िर ये इनसान हमें क्या समझते हैं?’’
बहुत ही बौखलाहट में कौआ बोले जा रहा था। उसके परिवार के चचा मेटो्र की चपेट में आ गए थे। शहर भर में धुआं ही धुआं। दो हाथ की दूरी तक कुछ भी लौका नहीं रहा था।
‘‘तार के ऊपर बैठे थे कि तभी मेटो्र दंदनाती हुई गुज़री और चचा उड नहीं पाए बेचारे।’’
हमसब पहले दो मिनट का मौन रखते हैं और फिर अपना आंदोलन शुरू करेंगे। 
देखते ही देखते कॉव कॉव करते हुए भारी संख्या में कौए आ गए। किसी ने इत्तला कर दी कि आज ट्रैक पर हजारों की संख्या में चिड़ियों ने धावा बोल दिया है। यात्री परेशान थे। दफ्तर के लिए देरी हो रही थी। सब के सब चिल्लाने लगे। चीखने लगे। उधर चिड़ियों ने ठांन रखी थी जब तब ऊंचे अधिकारी बात करने नहीं आएंगे कोई भी यहां से उड़ान नहीं भरेगा।
इस ट्रैक पर प्रवासी प़क्षियों की झुड़ भी उतर चुकी थी। आख़िर उन्हीं की प्रजाति के उड़ान भरने, जीने मरने का सवाल जो था।
वैसे एक प्रवासी कलगी वाली चिड़िया ने कहा,
‘‘ ठीक है कि हम साल में कुछ दिन यहां गुजारते हैं, लेकिन हैं तो हम ग्लोबल सिटिजन ही। ये लोग प्रवासी सम्मेलन करते हैं। उन्हें सम्मानित करते हैं। वहीं दूसरी ओर हमारे उ़ड़ान भरने, बैठने तक की मौलिक अधिकारों का तार तार करते हैं। ऐसा अब नहीं चलेगा।’’
लंबी पूंछ को हिलाती, लहराती हुई दूसरी चिड़िया ने कहा,
‘‘ हम इस मामले को यूएन और अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में उठाएंगे।’’
सब ने हां हां, हम एक हैं। खुले गगन के हम वासी एक ईंट से ईंट बजा के रहेंगे।


Tuesday, November 14, 2017

बाल दिवस पर हांकें बच्चे




कौशलेंद्र प्रपन्न
खिलखिलाते फूल हैं हम इस जहां में, कौन जाने शाम तक कैसे रहेंगे...
मसला जितना आसान और सहज दिखाई देता है दरअसल है उतना ही कठिन। बच्चे बच्चे नहीं रहे। अपनी उम्र से दस कदम आगे बढ़ कर व्यस्क हो चुके हैं। उम्र से पहले पक से गए हैं। कोई भी रियाल्टी शो देख लें जो बच्चों के लिए, बच्चो के द्वारा बनाए जाते हैं उनमें बच्चे नहीं बड़े बचपन वाले होते हैं।
वह शो गायकी का हो, हंसी ठिठोली का या फिर डांस का। इन तमाम कार्यक्रमों में बच्चे नहीं बल्कि बड़े हिस्सा ले रहे होते हैं। बच्चियां व्यस्क महिला की तरह दिखने के तमाम संसाधन, पहनावा,साज-सज्जा आदि करती है। वहीं लड़के भी बड़ो के बोनसाई लगते हैं। यदि उनके चेहरे और कद ढक दिए जाएं तो अंतर कर पाना मुश्किल हो।
यह प्रतियागिता किनके लिए किनके द्वारा, किस उद्देश्य से निर्मित होती हैं इसे समझने की आवश्यकता है। बाजार के द्वारा बाजार को बढ़ाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों को बच्चों के सर्वांगीण विकास के तर्कां के पीछे खेल रचा जाता है।
जो जीता वे भी रोता है और जो हारा उसके आंसू तो दिखाने ही हैं। एक पल में बच्चों को आसमान में उड़ान भरने के पंख लगाए जाते हैं तो दूसरे ही पल अन्य हजारों बच्चों में कुंठा ठूंस दिए जाते हैं। निर्णायक मंडल ठहाके मार कर अपने पैसे बनाते हैं। बीच बीच में अपने अनुभवों के छौंक मारते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। इतना ही समय उनके पास है तो अपने काम पर ध्यान क्यों नहीं देते।
अधिकांश निर्णायक चूके हुए, छूटे हुए, फुरसतीए किस्म के नजर आते हैं। जिनके पास अपनी कहानी सुनाने और प्रतिक्रिया देने के नाम पर बेहद सतही शब्द होते हैं।
बचाना है हमें अपने बच्चों को। बचाना उस भीड़ और मेले से भी है जहां हमारे बच्चे बचपन में ही खो जाते हैं। फैशन और मीडिया का भूत कुछ ऐसा सिर चढ़ता है कि पढ़ाई -लिखाई पीछे कसमसा रही होती है। मां-बाप कचोटते, गरियाते मन मार कर शाम के शो में बिजी बच्चों को देख रहे होते हैं। कुछ कंप्रोमाइज करते हैं तो कुछ मोगैंम्बो की भूमिका में आ जाते हैं।

Monday, November 13, 2017

शिक्षा और परीक्षा पाटन के बीच



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा और परीक्षा दो पाटन के बीच में बच्चे साबूत नहीं बचे। यह सिलसिला जमाने से बतौर जारी है। लेकिन हालिया घटनाएं बताती हैं कि शिक्षा अब डराने लगी है। परीक्षा तो उससे भी एक कदम आगे बढ़ चुकी है।
शिक्षा के बारे में माना जाता है कि यह इनसान को बेहतर बनाती है। लेकिन हक़कीतन ऐसा नहीं है। बच्चे आत्महत्या करते हैं तो इसमें शिक्षा भी कहीं बदनाम होती है। क्योंकि शिक्षा मृत्यु नहीं बल्कि जीना सीखाती है। बेहतर जीने की कला देती है ऐसा माना गया है।
परीक्षा का भय हमारे बच्चों में इस कदर धंस बैठ चुकी है कि निकाले नहीं निकलती। परीक्षा के भय को दूर करने के लिए कभी परीक्षा को ही खत्म किया गया। कभी बहुवैकल्पिक सवालों का युग आया। बच्चों को फेल न करने की पहलकदमी की गई। लेकिन परिणाम वहीं ढाक के तीन पात। बच्चे मरते रहे और मारते भी रहे।
इन घटनाओं में कहीं न कहीं हमारे शिक्षा के नीति निर्माता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकते। समय समय पर शिक्षा की बेहतरी के लिए कई कदम उठाए गए। लेकिन क्या वजह है कि परीक्षा और शिक्षा का भय बच्चों से दूर नहीं हुआ।
परीक्षा जब शिक्षा पर भारी पड़ने लगती है तब शिक्षा के उद्देश्य पीछे रह जाते हैं। हमें यह तय करना होगा कि हम बच्चों को शिक्षित करना चाह रहे हैं या परीक्षा में पास करने के कौशल प्रदान कर रहे हैं। यदि महज परीक्षा पास करना और अंक हासिल करना मकसद है तो वह कई अन्य तरीकों से भी यह पूरा किया जा सकता है। लेकिन शिक्षा से मुहब्बत करना हमारा उद्देश्य है तो हमें अपने तरीकों पर ठहर पर सोचना होगा।
परीक्षा के मौसम आने वाले हैं। बच्चों पर इसका दबाव अभी से महसूसा जा सकता है।बल्कि अभिभावकों के तनाव स्तर को भी सहज ही देखा-सुना जा सकता है।कई अभिभावक अपनी गहरी कमाई ट्यूशन, कोचिंग आदि में दे रहे हैं।उम्मीद तो उनकी यही हैकि उनका बच्चा मेडिकल आदि में निकल ही जाएगा। लेकिन बच्चे से भी पूछने की जरूरत है।

Monday, November 6, 2017

विश्वविद्यालयः कहां गए वे दिनः शुक्रिया रवीश जी



कौशलेंद्र प्रपन्न
रवीश कुमार पिछले एक माह से विश्वविद्यालयी हक़ीक़तों से आम जन को झकझोरने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में उनका यह उन्नीसवी कड़ी थी जिसमें झारखंड़ के महाविद्यालय की जर्जर हालत से रू ब रू कराया। पूरे माह विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की पड़ताल की गई। उन स्टोरिज को देखते हुए महसूस हुआ कि हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था किस स्थिति से गुजर रही है।
ये कैसे विश्वगुरु बनने का सपना पूरा होगा यह पंच लाइन नहीं बल्कि नागर समाज के चेहरे पर जोरदार तमाचा से कम नहीं है। रवीश जी का मानना है कि इस एक माह में किसी भी शिक्षा मंत्री, मंत्री, समाज चेत्त्ता की ओर संज्ञान नहीं लिया गया। यही कोई और मसला होता तो बोलने वाले हजारों आ जाते। मगर क्योंकि यह मुद्दा शिक्षा का है इसलिए खामोशी सी छा गई।
इन कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चों के भविष्य के साथ हम किस प्रकार का मजाक कर रहे हैं इसका अंदाजा अभी शायद नहीं है। आने वाले बीस सालों में इसके परिणाम दिखेंगे।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में तकरीबन पांच साल गुजारा। वह स्मृतियां आज भी ताज़ा हैं। ताज़ा इसलिए क्यांकि वहां की शैक्षिक व्यवस्था और शिक्षकों ने शिद्दत से पढ़ाया। न केवल विषय पढ़ाए बल्कि कई बार विषयेत्तर भी जाकर जीवन के मूल्य सीखाएं। जिनमें मैं बहुत सम्मान के साथ प्रो. सेंगर जो कि प्राचीन इतिहास के विद्वान थे, प्रो. एस एस भगत इंग्लिश के विद्वान थे जिन्होंने बच्चन जी से अंग्रेजी सीखी थीं। वहीं मनोविज्ञान में प्रो. ओ पी मिश्रा, प्रख्यात मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक, हिन्दी में प्रो. विष्णुदत्त राकेश, प्रो. कमल कांत बुद्धकर आदि के साथ ही वेद के जानकार प्रो. राम प्रकाश वेदालंकार, प्रो. महावीर अग्रवाल आदि थे। इन सब ने अपने विषय को पढ़ाने में ज़रा भी कंजूसी नहीं की।

Wednesday, November 1, 2017

इतिहास क्यों पढ़ें


कौशलेंद्र प्रपन्न
सुबह की मुलकात में एक सज्जन ने पूछा कि क्या आपको इतिहास पढ़ना अच्छा लगता है? क्यों इतिहास पढ़ना ही चाहिए? आदि।
सवाल जैसा भी था। लेकिन इसमें उत्तर से पहले मुझे स्वयं में झांकने की जरूरत पड़ी। यह एक आम धारणा और कहने का चलन है कि बाबर, गजनी, शिवाजी गांधी ने जो भी किया हमें उन तारीखों, उनके कामों को रटना क्यां पड़ता है। क्यां हम उनकी भाषा-बोली, समाज व्यवस्था आदि को याद करें। कि हड़प्पा की संस्कृति क्यों ख़त्म हो गई? आदि।
मेरा भी जवाब यही था कि बचपन से बीए तक की पढ़ाई के दौरान मैंने भी इतिहास को इसी नजर से पढ़ी जैसे और बच्चे पढ़ते हैं। यानी नंबर हासिल करना और परीक्षा पास करना।
लेकिन अब जब विचार करता हूं तो इतिहास का दर्शन बेहद लुभावना और दिलचस्प लगता है।इतिहास अपनी ओर खींचता है।दरअसल जैसे इतिहास को पढ़ाया जाता हैवह तरीका खराब है।परीक्षाओं में पूछने जाने वाले सवालों की प्रकृति से अनुमान लगाना कठिन नहीं होता कि इतिहास को शुष्क बनाने में सवालकर्ता की भी बडी भूमिका होती है।वरना यह जानना कितना दिलचस्प होता हैकि फलां राजा या फलां राज्य में कितनी अच्छी नागर व्यवस्था थी। भवन निर्माण से लेकर स्थापत्य कला कितनी विकसित थी।
इतिहास की यात्रा निश्चित ही जोखि़म भरा है।इतिहास में प्रवेश तो आसान हैलेकिन वहां से लौटना चुनौती भरा है।जब हम पूर्वग्रहों के साथ इतिहास को पढ़ते हैंतब का इतिहास वही नहीं रहजाता जैसा वास्तव में रहा होगा। दरअसल हमें इतिहास को अपनी नजर से पढ़ते और समझने की कोशिश करते हैं।
इतिहास यानी अतीत में अटकने की ज्यादा संभावनाएं होती हैं। इसलिए इतिहास को पठन-पाठन ज़रा कठिन है।अतीतीय यात्रा को समझ के लिए इस्तमाल करना हमेशा ही बेहतर रहा है।जब हम इतिहास को पढ़ते हैंतो एक बार पुनः उस कालखंड़, संस्कृति को जी रहे होते हैं।
अतीत में अटकी हुई चेतना श्रेष्ठ नहीं मानी जाती। बल्कि अतीत से वर्तमान को सुधारने की समझ लेकर कर लौटना गोया किसी लंबी यात्रा के बाद थकन उतारने जैसा है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...