जी हाँ, जाना वाले साल की उपलब्धि और खोने का परताल तो करना ही चाहिए। क्या हमने खोया और क्या पाया। दरअसल हम अपनी कमजोरी को छुपा कर ही रखना चाहते हैं। समस्या यहीं पीड़ा देती है। पाकिस्तान में इस साल लगभग हर दिन आतंकियों के कहर बरपे हैं। क्या लाहोर, क्या इस्लामाबाद , हर शहर बम की आवाज़ और लोगों की चीख से गूंज उठी है। हर शहर में बम और कुचे में आतंकी रह रहे हैं। मदर्द्से में तालीम तो दहशत , खून , चीख और निर्दोष को मारने की दी जाती है। तो इस माहौल में क्या हम उस देश से शांति की उम्मीद कर सकते हैं ?
पाकिस्तान से क्या हमारे रिश्ते यैसे ही रहा करेंगे। या दोनों देशों की जनता बस खाबों में ही पुनर्मिलन के सपने देखा करेंगे या हकीकत में भी येसा घाट सकता है। पाकिस्तान में हुक्मरान बाद के दिनों में केवल अपनी कुर्सी बचाने के प्रयास में लगे नज़र आते हैं। वो बेहतर जानते हैं की अगर शासन करना है तो लोगों को बुनियादी ज़रूरतों से विचलित करना होगा। वर्ना वो लोग रोज़गार, शिक्षा , सुरक्षा , देश की प्रगति के बारे में सोचने लगेगे। इस लिए उन्हें मूल मुद्द्ये से बहकाना होगा। और यह खेल १९४७ से आस पास से खेली जा रही है।
भारत और पाकिस्तान के बीच सद्भावना पूर्ण रिश्ते तब तक नहीं कायम हो सकते जब तब दोनों देशों के राज्नेतावों को अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचना शुरू नहीं करते।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...
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