Wednesday, December 31, 2014

कैसे कह दूं कि इस साल रहा अच्छा


बच्चों का दफना कर
बहिन को रूला कर
प्लेन को गायब कर
कैसे याद करूं इस साल।
क्या क्या हुआ
कहां कहां रोया भारत
कहां हो गई चूक
हमीं ने मारे हैं पांव पर कुल्हाडी।
जिन बच्चों के पांव में बजने थे रूनझुन पायल
वे नन्हें पांव दफन हैं मिट्टी में
निर्भया की और बहनें रो रही हैं
कैसे कह दूं
साल रहा अच्छा।
अबकी बरस न रोये बहन
घर में हो दीया जोरने वाला कोई
चूल्हा न रहे उदास
कलाई पर बंधी हो आस।
नववर्श मंगलमय हो आप सभी का।

Tuesday, December 30, 2014

साहित्य की दुनिया और विभेदीकर


साहित्य शब्द सुनते ही हमारे जेहन में जिस तरह की छवि बनती है वह कविता, कहानी और उपन्यास की ही होती है। क्या साहित्य महज यही है या साहित्य की सीमा में और भी विधाएं शामिल होती हैं। साहित्य का अपना क्या चरित्र है और साहित्य व्यापक स्तर पर क्या करती है? इन सवालों पर विचार करें तो पाएंगे कि साहित्य का मतलब महज पाठ्यपुस्तकों में शामिल कविता और कहानी पढ़ाना भर नहीं हैं, बल्कि पाठकों को जीवन दृष्टि प्रदान करना भी है। जीवन मूल्यों और संवेदनशीलता पैदा करना भी है। साथ समाज में खास वर्गों के प्रति समानता का भाव जागृत हो इसकी भी गुंजाईश साहित्य में हो।
साहित्य का शिक्षा शास्त्रीय विमर्श करें तो पाएंगे कि साहित्य हमारी पूर्वग्रहों को भी अग्रसारित करने का काम करती है। यादि कहानी व कविता विधा को लें तो वहां भी कहानियां कुछ यूं शुरू होती हैं- एक समय की बात है। किसी गांव में एक ब्राम्हण होता था। उनके दो बेटे थे। बड़ा बहुत ज्ञानवान और छोटा नकारा। इन शुरूआती पंक्तियों में देख सकते हैं कि गांव में क्या ब्राम्हण ही होते थे। क्या उनकी बेटियां नहीं थीं। क्या उस गांव में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग नहीं रहते थे। इस तरह से कहानियों में लिंग, जाति, वर्ण आदि को लेकर एक खास विभेद स्पष्ट देखे जा सकते हैं। शिक्षा शास्त्र और शिक्षा दर्शन इस तरह की विभेदी शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं लेकिन पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने इस तरह की कहानी और कविताओं को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया है जिसे पढ़ कर बच्चों में एक खास किस्म के वर्गांे के साथ स्वस्थ धारणा का निर्माण नहीं होता। अपने से कमतर मानने की प्रवृत्ति का जन्म पहले पहल कक्षा में पैदा होता है। एक बुदेलखंड़ी, मालवा, भोजपुरी, डोगरी बोलने वाले बच्चों से सवाल हिन्दी में पूछे जाते हैं तब वे बच्चे जवाब जानते हुए भी भाषायी मुश्किलों की वजह से चुप रहते हैं। यदि उन बच्चों को कक्षा में उनकी भाषा और भाषायी दक्षता को लेकर मजाक बनाया जाता है तब साहित्य कहीं पीछे छूट जाता है। स्थानीय भाषा पर मानक भाषा सवार हो जाती है। यहां बच्चों की मातृभाषायी समझ को धत्ता बताते हुए मानक भाषा को अपनाने की वकालत की जाती है।
यदि राष्टीय पाठ्यचर्या 1977, 1990 व उसके बाद 2000 पर नजर डालें तो पाएंगे कि वहां चित्रों, लिंग, भाषा को लेकर संतुलित छवि नहीं मिलती। यही वजह था कि 1990 में मध्य प्रदेश में एक सर्वे किया गया कि जनजाति और महिलाओं को किस प्रकार पाठ्यपुस्तकों में दिखाया गया है। उस रिपोर्ट में पाया गया कि महज 0.1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की भागिदारी दिखाई गई थी। वहीं महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ 0.2 प्रतिशत थी। एक और सर्वे और शोध पर नजर डालना जरूरी होगा जो 1994-95 में हुई। यह शोध दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षा विभाग में हुई थी। इस शोध में पांच हिन्दी भाषी राज्यों की कक्षा 5 से 8 वीं के पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया गया था। इस शोध का उद्देश्य था कि इन पाठ्यपुस्तकों में महिलाओं और जनजातियों को शामिल किया गया है। रिपोर्ट की मानें तो स्थिति बेहद चिंताजनक है। महज 0.00 और 0.1 फीसदी उपस्थिति दर्ज देखी गई थी।
सन् 1990 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की रोशनी में बने पाठ्यपुस्तकों पर भेदभाव-जाति, वर्ग, लिंग का आरोप लगा था। इन आरोपों से उबरने के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति समिति का गठन किया गया। उन्हें सुझाव देना था कि कहां कहां इस तरह की गलतियां हुईं हैं और उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है। उस सुझाव के बाद बने पाठ्यपुस्तकों पर नजर डालें तो स्थिति और भी हास्यास्पद नजर आती है। महिलाओं की उपस्थिति तो बढ़ी लेकिन उनमें काम और पूर्वाग्रह पूर्ववत् बनी रहीं। महिलाएं बाल बनाती हुईं महिलाएं खाना बनाती हुई पारंपरिक कामों लीन दिखाई गईं।
सच पूछा जाए तो साहित्य की दुनिया इस प्रकार के विभेदीकरण का स्थान नहीं देती। लेकिन न तोसाहित्य और न साहित्यकार अपने पूर्वग्रहों से बच पाता है। कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में निजी मान्यताओं, धारणाओं और मूल्यों को साहित्य तो जीवित रखता है। यदि हमें कहें तो किताबें निर्दोष नहीं होतीं तो गलत नहीं होगा। साहित्य का मकसद पाठकों को एक बेहतर मनुष्य बनाने और अपने अनुभवों को व्यापक करने में मदद करना है।
साहित्य की दुनिया पर एक नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि साहित्य भी कक्षा कक्षा होने वाले विभेद के फांक को बढ़ाने वाला ही होता है। इसमें शिक्षक की भूमिका अहम हो जाती है। यदि शिक्षक इस तरह की स्थिति में स्वविवेक का इस्तमाल नहीं करता तब बच्चों में स्वस्थ विचार नहीं पहुंच पाते।

अच्छा ही हुआ तुम मर गए


अच्छा हुआ
अच्छा ही हुआ तुम मर गए
समय रहते,
तुम वैसे भी जिंदा रह कर जी न पाते।
जब देखना पड़ता हजारों बच्चों की मौत,
इन्हीं आंखों से
जिन आंखों में सपने पीरोए थे,
जिन पांवों में जूते पहनाए थे
जिन पांवों से आंगन,
छत गुलजार थे
अब वे पांव,
कहीं मिट्टी में दफ़न हैं।
अच्छा ही हुआ
तुम मर गए समय रहते
वरना तुम सह नहीं पाते
और मरना पड़ता हर रोज
हर दिन देखना पड़ता महिलाओं की चीख,
आंसू के धार
तार तार
आबरू।
कितना अच्छा होता तुम आज होते
देखते अपने इन्हीं आंखों से
उन्हें जो पल पल
मर रही हैं मौत की डर से
जीने के भय से
मौन रह जाती हैं घरों की दहलीज़ पर
शहर के मुहाने पर।
तुम तो चले गए अच्छा ही हुआ
वरना तुम्हीं पर मढ़ा जाता सारा आरोप,
सारी गलतियां,
कितना अच्छा होता,
कर पाते हम विरोध,
उठा पाते आवाज,
उन के खिलाफ
जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता,
लाश किसकी थी,
कौन था दबा,
स्नेह के भार से
किसकी थी मंगनी,
किसके आंगन में उतरनी थी डोली।

Wednesday, December 24, 2014

दरख़्त


वो जो सामने दरख़्त है
बचपन लपेटे खड़े है
कहते हैं
दो तीन सौ साल से यूं ही आशीष दे रहा है
अब जटाएं भी जमीन दोस्त हो चुकी हैं।
धागों की मोटी चादर में लिपटा यह दरख़्त
उम्मीदों, आशाओं की डोर से बंधा
सदियों से खड़ा
देख रहा है
पीढि़यां कहां की कहां गुजर चुकीं
कहीं जो होंगे
किसी वीतान में।
जब भी गुजता हूं पास से दरख़्त के
मुझे पास बुलाता है
कानों को पास लाने को कहता है
कहता है,
तू अभी बच्चा है
नहीं समझेगा कहां चले गए तेरे बुढ़ पुरनिए,
बस यूं समझ ले,
कहीं तो हैं जो देख रहे हैं।
सुनने की कोशिश में ज़रा और पास आता हूं
उनकी जटाएं छूती हैं गालों को
सहलाती उनकी जटाएं
पुचकारती हैं
कहती हैं
मेरा बच्चा मैं हूं यहीं के यहीं
तुम्हारा दादू हूं
रहूंगा यहीं,
रक्षा करूंगा तुम्हारी
क्योंकि रहूंगा सदियों सदियों तलक।
आज भी आंखें मूंदता हूं
दादू की बलंद आवाज़ कानों में मिसरी के मानिंद घूलती हैं
बच्चों को बताता हूं
कभी चलना
मेरे गांव मिलाउंगा
अपने पुरखे दादू दरख़्त से
बच्चे कुछ मजाकिए अंदाज़ में सुनते
फिर गुम हो जाते हैं आभासीय दुनिया में।

Monday, December 22, 2014

शब्द अगर बोलते


अगर कभी शब्द बोल पाते तो जरूर अपने मन की बात बताते। अपने साथ होने वाले अत्याचार से भी हमें रू ब रू कराते। किस कदर हम सभ्य समाज के लोग इन शब्दों की दुनिया को ख़राब करने में जुटे हैं उसकी भी एक टीस हमारे कानों तक बजती। लकिन बेचारे बेजुबान शब्द कुछ नहीं कह पाते।
दरअसल शब्दों की दुनिया बड़ी निर्दोष और निरपेक्ष होती है। लेकिन जब वो बरतने वालों के हाथों में आती है तब उसकी प्रकृति प्रभावित होती है। शब्दों के जरिए ही हम हजारों हजार श्रोताओं और पाठकों तक पहंुच पाते हैं। पाठकों और श्रोताओं को अपने मुरीद बना पाते हैं। वहीं इन्हीं शब्दों के माध्यम से लाखों लाख श्रोताओं और पाठकों को अपने स्वार्थ के लिए भड़काते भी हैं।
शब्द अगर बोल पाते तो हमें बताते कि उनकी दुनिया कितनी नरम और नसीम की तरह फाहें वाली है।

Thursday, December 18, 2014

कविता कहानी से क्या होगा हासिल


रोज दिन हर पल नई नई कविताएं लिखी जा रही हैं। विश्व की तमाम भाषाओं में कविता लिखी जा रही है। जिस रफ्तार से कविताएं लिखी जा रही हैं क्या पाठक उसी तेजी से बढ़ रहे हैं। सवाल यह भी है कि क्या पाठकों को रोज लिखी जा रही कविताओं से कोई जीवन दृष्टि मिलती है? क्या कविता पढ़ने से कोई मूल्यपरक बदलाव घटित होता है? आदि ऐसे सवाल हैं जिन पर सोचने की आवश्यकता है।
कुछ भी लिखना कविता नहीं मानी जा सकती। कुछ माने गद्यपरक कविता या तुकमुक्त पंक्तियां कविता की श्रेणी में रखी जाएं। क्या कविता से जीवन-दर्शन प्रभावित होता है? क्या कविता हमें एक संवेदनशील मनुष्य बनने में मदद करती है? यदि ऐसा नहीं करती तो उस कविता का क्या लाभ।
कविता हो या लेख या फिर उपन्याय यदि कोई कलम चलाता है तो उससे पहले लिखने की आवश्यकता या उद्देश्य पर विचार करना चाहिए। वरना लिखे हुए शब्द की सत्ता एवं ताकत कमजोर होती है। अनावश्यक शब्द खरचना दरअसल शब्दों के साथ अन्याय है। अन्याय से कहीं बढ़कर शब्दों को जाया करना है।
लिखने से पहले लेखक को कई बार सोचना चाहिए कि क्रूा उनके लेखन से समाज पर कोई असर पढ़ने वाला है? क्या उस लेखन से किसी की जिंदगी बच सकती है? या उनके लेखन को किसी की अंधकारमय जीवन में थोड़ी सी रोशनी आ सकती है? यदि इन सवालों का उत्तर मिलता है तो जरूर लिखना चाहिए।
आज की तारीख में हजारों लाखों की तदाद में कविता, कहानी उपन्यास आदि साहित्य की तमाम विधाओं में लिखी जा रही हैं। इतनी लिखी जा रही हैं कि जिन्हें देख कर लगता है कि यह कहना कितना गलत है कि आज पाठक नहीं रहे। यदि पाठक नहीं हैं तो इतनी किताबें क्यों और कौन छाप रहा है। उससे बड़ा सवाल यह कि कोई लिख क्यों रहा है।
साइबर स्पेस और आभासीय दुनिया में इतनी सारी चीजें हैं कि उनमें से पढ़ने के लिए वक्त निकालना एक बहुत बड़ी समस्या है। यदि हमने समय निकाल भी लिया तो कैसे तय करें कि कौन सी किताब पढ़ने योग्य है। कविता पढ़ें या कहानी या फिर लंबी काया वाले किसी उपन्यास को हाथ लगाएं।

Wednesday, December 17, 2014

जब हमी नहीं होंगे तो किससे लड़ोगे


जब हमी नहीं होंगे
जब हमी नहीं होंगे तो किससे लड़ोगे,
हर सुबह,
चाय से लेकर नहाने तक,
आॅफिस पहंुच कर
किससे करोगे शिकायत,
कि दुध क्यों नहीं पीया
रोटी क्यों नहीं ले गए।
कल हमी नहीं हांेगे
बोलो किससे मुहब्बत करोगे
कौन तुम्हें सुबह उठाएगा,
करेगा तैयार आज की चुनौतियों से सामना करने के लिए।
जब हूं पास तो करते हो बेइंतहां नफरत
जब कल नहीं रहूंगा
तो बहाओगे न आंसू
ढर ढर,
जब कभी याद आउंगा किसी काम पर या बातों ही बातों में
क्रोगे याद
कित्ता परेशां करता था जब था।
आॅफिस के दोस्त
होंगे खुश चलो कुर्सी खाली हुई
फलां को बैठाएंगे,
अपन की जमेगी,
दो मिनट का मौन रख
फिर लग जाएंगे काम में,
कभी किसी फाईल में मिलूंगा दस्तख़त के मानिंद,
शायद कागजों में जिंदा मिलूंगा।
जब हूं तो
इत्ती नफरत
नजरें नहीं मिलाते
काटने को दौड़ते हो
मुहब्बत के नाम पर फरमान जारी करते हो
कल नहीं हुंगा तो
हिचकी के संग याद करोगे।

Tuesday, December 16, 2014

बहुभाषी कक्षा का चरित्र


कक्षा में विविध भाषा-भाषी समुदाय से बच्चे आते हैं। एक कक्षा में पूरा का पूरा समाज उपस्थिति होता है। भाषा की विविध छटाओं का निदर्शन हमें एक कक्षा मिलता है। यदि एक शिक्षक इस अवसर का लाभ भाषा शिक्षण में बतौर औजार का इस्तमाल करे तो वह कक्षा जीवंत हो सकती है।
अलग अलग भाषायी समुदाय से आने वाले बच्चों को स्थानीय मुहावरों, लोकोक्तियों से कक्षा की शुरुआत की जाए तो भाषा की छटाएं बड़ी सहजता से बच्चों तक पहुंच सकती हैं। भाषा शिक्षण की बुिनयादी चुनौतियों को कक्षा में उन्हीं के जरिए सुलझा सकते हैं।
अगर एक कक्षा में बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, बंगाल आदि राज्यों के बच्चे हैं तो उस कक्षा में भाषा की बहुछटाओं के साथ होते हैं। यदि ऐसी कक्षा में शिक्षक बच्चों की भाषा के जरिए शिक्षण करे तो वह कक्षा बच्चों को लुभाने वाली होंगी।

Friday, December 5, 2014

निर्दोष नहीं होती किताबें


किताबें भावनाओं और विचारों को संप्रेषित करने के लिए औजार के तौर पर इस्तमाल की जाती रही हैं। किताबें खुद में विचारों और वादों को समोकर जीती हैं। क्योंकि किताबों की अपनी कोई पहचान नहीं होती। इसलिए उसकी पहचान लेखक के विचार-संसार से ही हो पाती है। विचार और वादों को संप्रेषित करने में किताबें महज माध्यम का काम करती हैं। लेखक किताब का इस्तमाल अपनी साध्य को हासिल करने के लिए करता है। वह किताब गद्य-पद्य की किसी भी विधा की हो सकती है। वैचारिक संवाद और विवाद भी पैदा करती है किताबें। लेकिन इन तमाम विवादों से किताबें निरपेक्ष होती हैं। क्योंकि किताबें स्वयं कुछ नहीं करातीं बल्कि लेखक के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली होती है। पिछले दिनों दीनानाथ बत्रा के बयान पर विवाद उठा। दीनानाथ बत्रा ने अपनी किताब में जिस तरह से विवेकानंद, गांधी, रामकृष्ण को कोट किया है वे कोट एकबारगी स्वयं के लिखे लगती हैं। क्योंकि कहीं भी स्पष्ट और प्रमाणिक संदर्भ नहीं दिए गए हैं ताकि उसकी जांच की जा सके। किताबें, पाठ्यपुस्तक और पाठ्यक्रम दरअसल लंबे समय से राजनीतिक धड़ों की गलियारों में चहलकदमी मचाती रही हैं। जिस भी वैचारिक प्रतिबद्धता वाली सरकार सत्ता में आई है उसने किताब और पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या के साथ अपनी मनमानी की है। स्कूली पाठ्यपुस्तकों में धर्म, सूर्यनमस्कार, आदि खास वैचारिक कथ्यों को बच्चों के बस्तों तक पहंुचाया गया है। पाठ्यपुस्तकों में लालू प्रसाद, मायावती, वसुंधरा राजे सिंधिया, नरेंद्र मोदी आदि की जीवनियों को शामिल की गई हैं। प्रेमचंद की कहानी को हाशिए पर डाल कर ज्यों मंेहंदी के रंग को स्थान दिया गया था। शिक्षा और शिक्षण से जुड़े व्यक्तियों के लिए इस तरह के बदलाव याद होंगे। यह भी याद होगा कि किस तरह से 1977, 1986, 2000 और 2005 में पाठ्यपुस्तकें तैयार की गईं। जब जब जिस जिस विचारधारा और राजनीतिक दल सत्ता में आए हैं उन्होंने मानव संसाधन मंत्रालय का इस्तमाल अपने वैचारिक हित साधने में किया है। ऐसे में को बड़ कहत छोट अपराधु कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा।

Friday, November 28, 2014

सरकारी स्कूलों को भी गोद लीजिए


कौशलेंद्र प्रपन्न
माहौल बन चुका है। प्रधानमंत्री जी के पहल पर मंत्रियों और सांसदों से अनुरोध है कि जिस तरह से आदर्श गांव निर्माण के लिए गांवों को गोद लिए जा रहे हैं उसी तर्ज पर यदि सरकारी स्कूलों को भी गोद लिया जाए तो हमारे सरकारी स्कूलों की भी कायापलट हो सकती है। यह तथ्य किसी से भी छूपा नहीं है कि हमारे सरकारी स्कूलों को एक सिरे से नकारा साबित करने में तमाम कोशिशें की जा रही हैं। सच यही है कि आज भी गांव देहात में बच्चे सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर हैं। यह अलग बात है कि जो सरकारी स्कूल गांव- कस्बों में चल रही हैं वो किस हालात में जिंदा हैं इस ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है। सिर्फ और सिर्फ सरकारी स्कूलों के हिस्सा घृणा और उपेक्षा ही मिलती है। यह कितना बेहतर हो कि हमारे स्थानीय निकाय के लोग और सिविल सोसायटी के लोग अपने आस-पास के सरकारी प्राथमिक स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए आगे आएं।
दिल्ली के वेस्ट पटेल नगर में 22 ब्लाॅक में टीन और अल्बेस्टर के नीचे नगर निगम प्रतिभा विद्यालय चल रहा है। इस स्कूल में कई बार हादशे हो चुके हैं। यहां की प्रधानाचार्या ने बताया कि कई बार प्रार्थना के वक्त तो कई बार कक्षा में भी पेड़ और भवन की दीवार गिरने जैसी घटना हो चुकी है। प्रधानाचार्या ने बताया कि इस स्कूल के भवन ‘‘झोपड़ी’’ को खतरनाक घोषित किया जा चुका है। लेकिन अभी तक हम इसी में पढ़ाने के लिए विवश हैं। गौरतलब है कि इस स्कूल में दो स्कूलों के बच्चे/बच्चियां भी पढ़ती हैं। वेस्ट पटेल नगर के 28 एस ब्लाॅक के नगर निगम प्रतिभा विद्यालय के बच्चे भी इसी स्कूल में इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि उनके नए बने भवन में दरारें आने की शिकायत आई थी। उसे दुरूस्त करने के नाम पर पिछले दो सालों से उस स्कूल के बच्चे भी इसी स्कूल में सीमित कक्षाओं में बैठते हैं। हालात यह है कि एक कक्षा में दो और तीन कक्षाओं के बच्चे एक साथ बैठते हैं।
वेस्ट पटेल नगर के एस ब्लाॅक की प्रधानाचार्या से बातचीत में पता चला कि इन्होंने जब से भवन में खराबी की शिकायत की है तब से समस्याएं कम होने की बजाए बढ़ी हैं। कई बार शिकायत दर्ज कराने के बावजूद भी कोई देखने वाला नहीं है। नए बने स्कूल भवन में न तो पानी की व्यवस्था है और शौचालय में पानी की भी पूरी आपूर्ति होती है। भवन तो बन गए लेकिन बुनियादी चीजें महज बना दी गईं वो इस्तमाल में नहीं लाई जा सकतीं। स्कूल की दीवार इतनी नीची है कि आस पास के लड़के/ स्थानीय लोग कूद कर अंदर आ जाते हैं और स्कूल की गतिविधियों में व्यवधान पैदा करते हैं। ऐसे में हमारे सरकारी स्कूलों को कौन संभालेगा यह एक गंभीर मसला है।
गंगा को स्वच्छ बनाने के अभियान में जितना पैसा खर्च किया गया और किया जा रहा है काश कि उसका एक अंश भी हमारे सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के लिया मिल पाता तो आज इनकी स्थिति यह नहीं होती। यहां दिल्ली के कुछ स्कूलों की दास्तां बयां की गई है। हम कल्पना कर सकते हैं कि अन्य राज्यों में सरकारी स्कूलों की क्या स्थिति होगी। आरटीई के लागू होने के बाद भी हमारे सरकारी स्कूल तमाम बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। माॅलों के निर्माण में हम पैसे खर्चने से ज़रा भी पीेछे नहीं हटते लेकिन सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बात आती है तब हमारा दम फुलने लगता है। तब हम निजी कंपनियों और बाहरी मदद के लिए मुंह ताकने लगते हैं। यदि गंगा को स्वच्छ बनाने और गांव को आदर्श ग्राम के लिए गोद लिए जा सकते हैं तो सरकारी स्कूलों को गोद लेने में हम क्यों हिचकिचा रहे हैं। क्या हमारी प्राथमिका की सूची में स्कूल और प्राथमिक शिक्षा शामिल नहीं हो सकती?
यूं तो निगमित सामाजिक जिम्मेदारी यानी काॅर्पोरेट सोशल रिस्पांसब्लिटी जिसे सीएसआर के नाम से जानते हैं इसके तहत कई सीएसआर गतिविधियां चलाई जा रही हैं। उनमें से टेक महिन्द्रा फाउंडेशन की पहलकदमी को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। टीएमएफ ने पूर्वी दिल्ली नगर निगम के स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बहाल हो सके इसके लिए अप्रैल 2013 में इडीएमसी के साथ एक समझौता पत्र पर दस्तखत किया था। इस बाबत दिलशाद गार्डेन के ए ब्लाॅक में अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई। तब से यह संस्थान शिक्षकों की दक्षता विकास को लेकर प्रतिबद्ध है। अब तक इस संस्थान में तकरीबन 1000 शिक्षक और 250 प्रधानाचार्यों की विभिन्न विषयों पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जा चुका है। उसी प्रकार अन्य निजी प्रयास भी सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए चल रही हैं। एक बारगी सरकार के माथे पर ठिकरा फोड़ना तो आसान है लेकिन हमें हमारे निजी और सार्वजनिक प्रयासों पर भी नजर डालना होगा। हमारे माननीय सांसादों, विधायकों की कार्य सूची में सरकारी स्कूलों को कैसे बेहतर बनाया जाए और वो अपने स्तर पर स्कूल को सुचारू बनाने में क्या योगदान कर सकते हैं इसकी योजना बनानी होगी।
स्रकारी स्कूलों में हालात यह हैं कि एक तरफ आरटीई के वकालत और सिफारिशों के बावजूद स्कूलों में पीने का पानी, शौचालय, कक्षा में ब्लैक बोर्ड, खेल के मैदान मयस्सर नहीं हैं। उस तुर्रा यह कि जिसे देखो बिना जमीनी हकीकत को जाने सीधे सीधे सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है इस घडि़याली आंसू बहाने में लगे हैं। कितना बेहतर हो कि स्थानीय नागर समाज अपने पड़ोस के स्कूल को अपनी दक्षता का लाभ मुहैया कराने के लिए आगे आएं। मसलन यदि कोई व्यक्ति एकाउंट, गणित, भाषा, आर्ट एंड का्रफ्ट आदि विषय में अच्छी गति रखता है तो वह सप्ताह या माह में जिस भी दिन उसके पास वक्त हो वह सरकारी स्कूल में बच्चों के साथ अपने अनुभव साझा करंे। स्थानीय नागर समाज अपने सरकारी स्कूलों को गोद लें। सरकार की ओर से जिस तरह की कोशिशें की जा रही हैं उससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं कर सकते।

Wednesday, November 26, 2014

स्कूली शिक्षा में गुणवत्त की बुनियाद



कौशलेंद्र प्रपन्न
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की मांग और अपेक्षा समाज के हर तबकों को है। सामाजिक मंचों और अकादमिक बहसों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को केंद्र में रख कर राष्टीय स्तर पर विमर्श जारी है। यह मंथन इसलिए भी जरूरी है , क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सब के लिए शिक्षा का लक्ष्य वर्ष 31 मार्च 2015 अब ज्यादा दूर नहीं है। गौरतलब है कि इएफए और मिलेनियम डेवलप्मेंट लक्ष्य में भी प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता की बात गंभीरता से रखी गई थी। यदि जमीनी हकीकत का जायजा लें तो जिस किस्म की तस्वीरें उभरती हैं वह चिंता बढ़ाने वाली हैं। निश्चित ही हमारे सरकारी स्कूलों में जिस स्तर की शिक्षा बच्चों को दी जा रही है वह मकूल नहीं है। वह शिक्षा नहीं, बल्कि साक्षरता दर में बढ़ोत्तरी ही करने वाला है। यहां दो तरह की स्थितियों पर ध्यान दिया जाएगा जिसे नजरअंदाज कर स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता की प्रकृति का नहीं समझा जा सकता। पहला, पूरे देश में एक उस किस्म के सरकारी स्कूल हैं जिनके पास बच्चे, शिक्षक, लैब, लाइब्रेरी आदि सुविधाएं उपलब्ध हैं। हर साल इनके परीक्षा परिणाम भी बेहतर होते हैं। स्कूल की चाहरदीवारी से लेकर पीने का पानी, शौचालय आदि बुनियादी ढांचा हासिल है। दूसरा, वैसे सरकारी स्कूल हैं जहां न तो पर्याप्त कमरे, पीने का पानी, शौचालय, खेल के मैदान, खिड़कियों में शीशी, दरवाजों में किवाड़ हैं और न बच्चों के अनुपात में शिक्षक। ऐसे माहौल में यदि कहीं किसी स्कूल में कुछ अच्छा हो रहा है तो उसे समाज में लाने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि सकारात्मक सोच को बढ़ावा दिया जाए। उनकी कोशिशों को सराहा जाए। बजाए कि सिर्फ उनकी बुराई ही समाज के सामने रखें।
स्कूल की शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार सिर्फ शिक्षक के कंधे पर ही नहीं होता बल्कि हमें इसके लिए शिक्षक से हट कर उन संस्थानों की ओर भी देखना होगा जहां शिक्षकों को शिक्षण-प्रशिक्षण की तालीम दी जाती है। डाईट, एससीइआरटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों में चलने वाली सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी विमर्श करने की आवश्यकता है। अमूमन शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में जिस किस्म की प्रतिबद्धता और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही है उसे भी दुरुस्त करने की आवश्यकता है। एक किस्म से इन संस्थानों में अकादमिक तालीम तो दी जाती है। लेकिन उन ज्ञान के संक्रमण की प्रक्रिया को कैसे रूचिकर बनाया जाए इस ओर भी गंभीरता से योजना बनाने और अमल में लाने की आवश्यकता है।
दिल्ली में ही नगर निगम और राज्य सरकार की ओर से चलने वाले स्कूलों में झांक कर देखें तो दो छवियां एक साथ दिखाई देती हैं। एक ओर वे स्कूल हैं जिसमें बड़ी ही शिद्दत से शिक्षक/शिक्षिकाएं अपने बच्चों को पढ़ाती हैं। उन स्कूलों में नामांकन के लिए लंबी लाइन लगती है। सिफारिशें आती हैं। हर साल बच्चे विभिन्न प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतते हैं। ऐसा ही एक स्कूल है शालीमार बाग का बी बी ब्लाॅक का नगर निगम प्रतिभा विद्यालय यहां पर जिस तरह से स्कूल को संवारा गया है और बच्चों की शैक्षणिक गति है उसे देखते हुए लगता है कि इन स्कूलों मंे रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम क्यों नहीं जाती। जहां कुछ तो अच्छा हो रहा है लेकिन रिपोर्ट में एकबारगी सरकारी स्कूलों को नकारा साबित करने के लिए ऐसे ही साधनविहीन और खस्ताहाल स्कूलों को चुना जाता है। दूसरे स्कूल वैसे हैं जैसे वजीरपुर जे जे काॅलानी में नगर निगम प्रतिभा विद्यालय जहां स्थानीय असामाजिक तत्वों की आवजाही है। खिड़कियां हैं पर उनमें शीशे नहीं। कक्षों में दरवाजे तक नहीं हैं। पलस्तर न जाने कब हुए होंगे। कक्षाओं में गड्ढ़े हैं। लेकिन उन हालात में भी शिक्षिकाएं पढ़ा रही हैं।
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अंतर्गत आने वाले स्कूलों में भी अमूमन एक सी कहानी है। एक ओर ए ब्लाॅक दिलशाद गार्डेन में जहां अच्छे भवन हैं। शिक्षक हैं लेकिन बच्चे कम हैं। वहीं ओल्ड सीमापुरा के उर्दू स्कूल में बच्चों के पास बैठने के लिए टाट पट्टी तक मयस्सर नहीं है। एक एक कमरे में दो तीन सेक्शन के बच्चे बैठते हैं। जहां न रोशनी है और न धूप। यदि कुछ है तो महज अंधेरा। सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर यानी गुणवत्ता को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता एक ओर शिक्षकों के कंधों पर है तो वहीं दूसरी ओर प्रशासन को भी अपने गिरेबां में झांकने की आवश्यकता है।
बेहतर प्रशिक्षक के शिक्षकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर मोड़ना मुश्किल है। प्रशिक्षक का काम शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया से जोड़ना है। यदि सिर्फ शैक्षिक पौडागोगी यानी प्रविधि पर जोर दिया जाएगा तो वह प्रशिक्षण कार्यशाला भी ज्यादा कारगार नहीं हो सकती। शिक्षक कार्यशालाओं में प्रशिक्षक का चुनाव भी बेहद चुनौतिपूर्ण काम है। यदि एक ही कार्यशाला में दो अलग अलग विचारों और शिक्षण तकनीक बताया जा रहा है तो वह शिक्षकों के लिए भ्रम पैदा कर सकता है। इसलिए इस बात को भी ध्यान में रखन की आवश्यकता है।
कौशलेंद्र प्रपन्न
भाषा विशेष एवं शिक्षा सलाहकार
अंतः सेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान, टेक महिन्द्रा फाउंडेशन
दिल्ली

Wednesday, November 19, 2014

कक्षा और शिक्षा में संवाद


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा दर्शन और शिक्षा का शिक्षण शास्त्र हमेशा इस बात की गुंजाइश छोडता है कि हम अपनी जिज्ञासा और सवाल कर सकें। शिक्षा दरअसल हमारी जिज्ञासाओं और उत्कंठाओं को उद्दीप्त करने काम करती है। यदि हमारे अंदर सवाल करने और जिज्ञासाओं को शांत करने की छटपटाहट नहीं होगी तो समझना चाहिए हमारे अंदर सीखने की ललक खत्म हो चुकी है। यहीं पर शिक्षा बीच में टूटती नजर आती है। यदि शिक्षा छात्र के मन से सवाल करने की बेचैनीयत ही खत्म कर दे तो वह शिक्षा नहीं हो सकती। यदि उपनिषद् पर नजर डालें तो को अहम्? को नामासि? सवाल से ही जुझता हुआ विद्यार्थी मिलता है। इसी को अहम के जवाब में उपनिषद् की रचना हुई। गुरु जवाब देता है- तत् तत्वं असि। तब विद्यार्थी को महसूस होता है कि अहं ब्राम्हास्मि।
यहां शिक्षा जीवन के बुनियादी सवालों से शुरू होते हैं। उसपर भी संवाद शैली में। यहां किसी भी किस्म का उपदेश, प्रवचन या कोई और माध्यम नहीं अपनाया गया है बल्कि संवाद शैली में यह पूरा का पूरा शैक्षिक प्रक्रिया संपन्न हो रही है। यदि आज की शैक्षिक प्रक्रिया को देखें तो वह उपदेशात्मक ज्यादा बजाए कि वह संवाद शैली में हो। समस्या यही है कि जब हम बातचीत की शैली में किसी को कुछ समझाते हैं तब सुनने वाला जल्द समझ लेता है। लेकिन जैसे ही भाषण के रूप में कोई बात रखते हैं तब की हमारी भाषा भी बदल जाती है।
प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति कक्षा और शिक्षा में संवाद स्थापित करने पर जोर देते थे। इसका अर्थ लेकिन आज की कक्षा का अवलोकन करें तो संवाद की बजाए आदेश और निर्देश दिए जाते हैं। बच्चे उसे मानने पर मजबूर होते हैं। यदि बच्चा इंकार करता तो वह शिक्षक की सत्ता का प्रश्न बन जाता है। यही वजह है कि शिक्षक बच्चे के सवाल व स्वतंत्रता को अपनी सत्तायी चुनौती मान लेता है।
नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 शिक्षा में संवाद पर खासतौर पर विमर्श करता है। एनसीएफ के आधार बने पाठ्य पुस्तकों पर नजर डालें तो पाएंगे कि इन स्कूली किताबों के संवाद स्थापित करने की पूरी छूट और जगह मुहैया कराई गई है। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि शिक्षक कक्षा में कितना अमल में लाता है। अमूूमन कक्षाओं में शिक्षक महज पाठों के वाचक की भूमिका निभाते पाए जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा पाठों को याद करने और उनका अभ्यास कर परीक्षा में उगलने के लिए तैयार करते हैं। यदि यहां शिक्षक अपनी भूमिका को थोड़ी भी छूट दें तो संवाद करने की उम्मीद जग सकती है।


Tuesday, November 11, 2014

शिक्षा दिवस पर एक सवाल


शिक्षा जीवन को कैसे संवारती है? क्या शिक्षा महज तालीमी समझ विकसित करती है? क्या शिक्षा का लक्ष्य रोजगार मुहैया कराना है या शिक्षा इससे कहीं अधिक है? इस किस्म के सवाल कई बार हमारे सामने आते हैं। लेकिन हम उनका जवाब देने की बजाए महज अपनी बौद्धिक खुजलाहट को मिटाते हैं। यदि नेशनल एजूकेशन नीति को देखें तो पाएंगे कि शिक्षा रोजगार के साथ ही जीवन कौशल भी सीखाती है। शिक्षा से उम्मींद की जाती है कि वो हमें बेहतर जीवन जीने के लिए जीवन दर्शन भी प्रदान करे। लेकिन रोजगार का लक्ष्य इतना बड़ा होता है कि हमें शिक्षा के दूसरे महत्वपूर्ण आयाम पीछे छूट जाते हैं। हम सिर्फ रोजगार के प़क्ष को सुदृढ करने में पूरी शक्ति और प्रयास जाया करते जाते हैं।
सच ही है कि अंततः शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात हमें नौकरी करनी पड़ती हैं। बगैर नौकरी के जीवन यापन संभव नहंीं है। यही वजह है कि मां-बाप अपने बच्चों को किसी भी कीमत पर रोजगार परक शिक्षा दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। लेकिन सोचने की बात है कि क्या वह बच्च जिसके लिए मां-बाप अपनी सारी शक्ति और उर्जा लगा देते हैं वह नौकरी पाने के बाद उन्हें याद रख पाता है? क्या अपने साथ उन्हें रखने में दिलचस्पी रखता है? यदि नहीं रखता तो हमने उसे किस प्रकार की शिक्षा प्रदान की है इस पर ठहर कर विचार करना होगा।

Friday, November 7, 2014

हम भी हैं कतार में


जिसे देखो वही कतार में खड़ा
अपनी पारी का करता इंतज़ार रहा,
उम्र गुज़र गई,
आस वहीं की वहीं लटकी रही।
हवा भी इतज़ार में
मकान कुछ नीचे हों तो बहे,
नदी भी खड़ी,
कि जगह मिले तो बहे।
एक हुकारी की प्रतीक्षा में
लड़की खड़ी देहारी पर
बाबू कहें तो सपने पाले
बाबू इंतज़ार में कि बेटे की गर्दन हिले तो जेवार में मान बढ़े।
खेत बेजान पड़ें
कर रहे हैं हल का इंतज़ार,
बैल विश्राम में हाॅफ रहे हैं
दराती घास की लंबाई काटने की प्रतीक्षा में बढ़ रही हैं।
रेड लाईट पर खड़ी कार,
शीशे के पीछे झांकती दो सजल नयन,
एक रुपए के इंतज़ार में बाल खुजलाती खड़ी बुधिया,
मां का स्तन निचोड़ता बच्चा,
आंखों में टंगी उम्मींद,
सब के सब जोह रहे हैं बाट अपनी पारी का।

Thursday, November 6, 2014

गांवों को निगलते शहर


कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेमचंद, निराला, श्रीलाल शुक्ल, रेणू के गांव अब वही नहीं रहे। गांव खत्म होते जा रहे हैं। इसे आधुनिकीकरण का नाम दें या एक परंपरा, रीति रिवाजों वाले गांवों के खत्म होने पर आंसू बहाएं। शहर की भीड़ और औद्योगिकरण ने गांव का रंग रूप बदल दिया है। वह गांव देश के किसी भी राज्य का क्यों न हो गांव की बुनियादी पहचान लुप्त होता दिखाई दे रहा है। शहर की तमाम चाक चिक्य, फैशन, दिखावा, व्यवहार, चालाकियां, धुर्तता सब कुछ गांव में प्रवेश कर चुका है। गांव के तालाब, नदियां, पोखर खेतों को पाट कर माॅल, दुकान, नए नए उद्योग लगाए जा रहे हैं। वहां का भूगोल भी बहुत तेजी से बदल रहा है। हमारी स्मृतियों में बसे गांव और गांव की छवि भी बदल चुकी है। हम स्वयं महानगर में रहना पसंद करते हैं। लेकिन जब गांव में जाते हैं तो अपने गांव को वही पुराने रंग, चाल ढाल में क्यों देखना चाहते हैं। क्या गांव में रहने वालों को माॅल में ठंढ़ी हवा खाते हुए शाॅपिंगे करने का अधिकार नहीं है? क्या गांववासियों को शहर की सुख सुविधाएं में जीने का हक नहीं है? क्योंकर वो गांव में बजबजाती गलियों में रहने पर विवश हों?
जिस भी गांव के पास से कोई एक्सप्रेस वे दंदनाती सड़क निकलने वाली है या निकल चुकी है उस गांव की किस्मत कहें या चेहरा बड़ी ही तेजी से बदल रहा है। गांव में पक्के मकान बन रहे हैं। खेत काट कर दुकान और माॅल का निर्माण रफ्तार पकड़ चुका है। गाय भैंसे बेची जा चुकी हैं। गली गली मुहल्ले मुहल्ले प्रोपर्टी डिलर बन कर हमारे नवनिहाल बैठ चुके हैं। जिनके पास एकड़ों जमीन हुआ करती थीं। जो गांव के जमींदार हुआ करते थे आज वो जमीनें बड़े बड़े भवन निर्माण कंपनियों को दे कर स्वयं एक छोटे मोटे प्रोपर्टी डिलर बनना स्वीकार किया है। गांवों में भी पक्की सड़कें फैलें इससे किसी को क्या गुरेज होगा। लेकिन इन सड़कों और माॅलों की वजह से यदि हमारी जीवन पद्धति प्रभावित हो रही हो तो हमें गंभीरता से विचार करना होगा।
जब जब शहर या महानगर का विस्तार गांवों तक हुआ है उसमें गांवों को कई स्तरों पर मूल्य चुकाने पड़े हैं। उसमें हमारी जीवन शैली, जीने की शर्तें और खेत खलिहानों को गला घोटा गया है। गांव के स्थानीय लोगों का विस्थापन और दूसरे गांव, शहर से लोगों आगमन यह एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है। गांव से शहर और महानगर में बसने के लोभ से बहुत कम लोग बच पाए हैं। जिसके पास भी थोड़ी भी संभावना और सुविधा है वो गांव में नहीं रहना चाहता। गांव उसके फैलाव के लिए सीमित आकाश सा लगता है। संभव है यह कुछ हद तक ठीक भी हो। क्योंकि इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जो सुविधाएं, अवसर हमें शहरों और महानगरों में लिती हैं वह गांव की सीमा से बाहर है। यही कारण रहा है कि गांवों, कस्बों से लोगों का शहर की ओर पलायन जारी रहा है। हर मां-बाप चाहते हैं कि उनकी औलादें अच्छी तालीम और सुख सुविधाओं वाली जिंदगी हासिल करे। मेरे पिताजी ने खुद अपना गांव छोड़ और शहर में जा बसे ताकि बच्चों को शहर की सुविधाएं मिल सकें। हमें अच्छी तालीम मुहैया कराने के लिए स्वयं फटी धोती पहनना स्वीकार किया। अकेले कस्बे में रहना भी चुना। दरअसल गांवों की सीमित संसाधनों और माध्यमों के बीच उड़ान के पंख खुलने मुश्किल से जान पड़ते हैं। इसलिए गांव में रहने और वहां पलायन करने के बीच बहुत बारीक का अंतर होता है।
पिछले दिनों हरिद्वार, डेहरी आॅन सोन, हनुमान गढ़ जाना हुआ। जिन जिन गांवों व शहरों के पास से चैड़ी एक्सप्रेस वे गुजर रही हैं वहां की बुनियादी स्थानीय पहचान खत्म हो रही हैं। उसमें नदी, तालाब, पोखर, खेत आदि शामिल हैं। इसके साथ ही जिस तेजी से गांवों में शहर के संचार माध्यम पांव पसार रहे हैं उस अनुपात में शिक्षा संस्थान नहीं ख्ुाल रहे हैं। शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता उनकी प्राथमिकता की सूची में नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता के बजाए महज गांव कस्बों, छोटे शहरों में शिक्षा की दुकानें खुल रही हैं। ऐसे में कौन गांव में रहना चाहेगा? कौन अपने बच्चों के भविष्य दांव पर लगाएगा। शायद यही वजह है कि शहर के विस्तार ने गांवों को निगलना शुरू कर चुका है। वह दिन दूर नहीं जब गांव हमारी स्मृतियों का हिस्सा भर हुआ करेंगी। किताबों और फिल्मों में गांव देखा और पढ़ा करेंगे।

Friday, October 31, 2014

31 अक्टूबर 1984 की शाम


मैं उन दिनों हरिद्वार में था। शाम होते ही हरिद्वार में चारों ओर अफरा तफरी मच गई। बगल के गुरूद्वारे से बर्तन-भांड़ गंगा में फेंके जा रहे थे। सिक्ख कहीं भी नजर नहीं आ रहे थे। जो दिखाई देता वो मारा जाता। सिक्खों की दुकानों, होटलों को लूट कर भागने वाले भीड़ का कोई चेहरा न था। जिसके हाथ में जो लगा वो उसे ही लेकर भाग रहा था। किसी के सिर पर टीवी थी तो किसी के सिर पर फ्रीज। पूरी जिंदगी जिसने जमीन पर देह सीधा किया अब उसके पास सोने के लिए पलंग और सोफे हो गए थे।
अपनी इन्हीं नन्हीं आंखों के सामने देखा कि हरिद्वार के देवपूरा के पास सड़क पर एक सिक्ख युवक के गले में टायर डाल कर जिंदा जला दिया गया। समझ उतनी पक्की नहीं थी लेकिन वह दृश्य देखकर दिल दहल गया।
रेल गाडि़यों में सिक्खों की लशें भर कर हरिद्वार आ रही थीं। गंगा में सिक्खों की दुकानों, घर, गुरूद्वारों की सामनें बह रही थीं। समझ नहीं आ रहा था कि इंदिरा जी को जिसने भी मारा इसमें इन बेगुनाह सिक्खों का क्या दोष था? क्या किया था उस युवक ने जिसकी गर्दन में टायर डाल कर जला दिया गया। उस दुकान वाले सुखबीर ने ही क्या किया था जिसकी छोटी सी चूड़ी कंघे की दुकान उस दंगे में बरबाद हो गई।
चारों तरफ सन्नाटा और शोर दोनों ही था। जिनके घर,परिवार और दुकानें बर्बाद हो रही थीं उनके आंसू नहीं रूक रहे थे। और जिनकी आंखों के सामने बेटा ज लाया जा रहा था उनने पूछिए उन पर क्या बीत रही थी?
जो भी हो बचपन में ही देखने को मिला कि गरीब, गैर सिक्ख परिवारों के पास टीवी, पलंग, फ्रीज, और भी वे चीजें जो दुकान से लूटी गई थीं वो साफ नंगी आंखों से देखी जा सकती थीं।
ओफ! वे भी क्या काले दिन थे और काली रात थी जब अपना ही पड़ोसी दहशत में रात गुजार रहा था।  जिन्ने अपनी जान गंवाई उन उन आत्माओं को सादर नमन

Tuesday, October 28, 2014

ख़तरनाक !

ख़तरनाक !

डांट नहीं,
प्यार भी नहीं,
मनुहार भी नहीं,
वार भी नहीं।
ख़तरनाक-
लटका हुआ लोर,
अटकी हुई बहस,
टंगी हुई सांस
टूटता विश्वास।
ख़तरनाक-
मां का रोना,
बहन की सुबकी,
पत्नी के आंसू,
पिता का रूदन।
ख़तरनाक-
मंा-बाप के सामने,
बच्चों का बिखराव,
घर में दरार,
आवाज में अपरिचय।

Wednesday, October 22, 2014

देवता घर

दीपावली की शुभकामनाएं। परिवार में समृद्धि और खुशियां बनी रहे इसी कामना के साथ एक छोटी सी अभिव्यक्ति प्रस्तुत है।

इस बरस
देवता घर नहीं खुला,
नहीं जोरा दीया,
जालों में लिपटे मिले,
कृष्ण, राम और तमाम देवता।
सुबह सुबह नहाना भी भूल गए बाल गोपाल
धूल में सने रहे सब के सब,
तुलसी के चारों ओर,
घासों का भरमार।
बेटे की आस में
दुआर रहा उदास,
दीवार में अटकी तस्वीर में हंसता रहा बेटा,
सियालदह से उतर गया राहगीर,
नहीं पहंुचा घर।
चीनी की जगह डालने लगी है नमक खीर में
मतारी की लोर भरी आंख,
तकती रहती,
गली से मुड़ते हर रिक्शे से उतरने वाले,
कोई उतरे इसके दुआर।
इस बरस देवता घर उदास
जालों में लिपटे,
करते रहे इंतज़ार,
रोशनी की राह तकते रहे देवता।

Thursday, October 16, 2014

वर्तनी की गलतियों को ऐसे करो कम


कौशलेंद्र प्रपन्न

हिन्दी में हम लोग अकसर शब्दों को लिखने और बोलने में गलतियां करते हैं। ऐसी गलती सिर्फ तुम लोग ही नहीं करते, बल्कि बड़े-बड़े, पढ़े लिखे लोग भी करते हैं। कई बार इसके पीछे हमारी असावधानी दिखाई देती है, तो कई बार अज्ञानता।
आओ देखते हैं हिन्दी लिखते वक्त किस तरह की सामान्य गलतियां करते हैं हम सब और उनसे कैसे बचा जाए, क्योंकि जब हम परीक्षा में उत्तर पुस्तिका में गलत लिखते हैं तो कई बार मैडम अंक काट लेती हैं या लाल पैन से गोल घेर देती हैं कि आगे से सही लिखो। जैसे ‘मै’ लिखोगे तो गलत होगा, क्योंकि ‘मैं’ में एक अनुस्वार होता है। ‘है’ लिखो एक हो तो, जब बहुवचन में इस्तेमाल होता है तब ‘हैं’ आएगा। यानी है पर अनुस्वार का प्रयोग होता है। दवाई लेकिन जब बहुवचन होता है तब दवाइयां होना चाहिए, लेकिन अकसर तुम लोगों ने दवाई की दुकान पर लगे बोर्ड पर देखा होगा-दवाइयां, यह गलत है।
हम लोग और भी छोटी-छोटी गलतियां हिन्दी लिखते वक्त करते हैं। अगर तुम ध्यान से पेपर पढ़ोगे या टीवी पर लिखे शब्दों को देखोगे तो सही शब्द लिखे दिखाई देंगे। और कई बार इन जगहों पर भी गलत लिखे मिलते हैं। ऐसे में तुम्हें अपने टीचर से सही रूप के बारे में पूछना चाहिए।
कुछ और शब्द देखो, जिन्हें हम कहां लिखते वक्त गलती करते हैं- श्रीमति, गलत है। होना चाहिए श्रीमती। उसी तरह हिन्दी में हम अनुस्वार, हरस्व और दीर्घ यानी छोटा उ और बड़ा ऊ, छोटी इ और ई की भी गलतियां खूब करते हैं।
हिन्दी की विशेषता यही है कि हिन्दी में जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते हैं। यदि बोला ही गलत गया है तो सुनने वाले गलत लिख देते हैं। अक्‍सर क्लास में बच्चे इसलिए भी गलत लिखते और बोलते हैं, क्योंकि वो मैडम की बात ध्यान से नहीं सुनते। इसलिए उनकी हर बात ध्यान से सुनो और अगर कभी वर्तनी में कोई गलती हुई है तो उसे तुरंत सुधार लो और ध्यान रखो कि भविष्य में फिर से वह ना दोहराई जाए।

Monday, October 13, 2014

रिपोर्टो को झुठलाती स्कूली हकीकत


हां तमाम रिपोर्ट गैर सरकारी और सरकारी दोनों ही को झुठलाती सरकारी स्कूलों को लेकर जारी हकीकत को आज पानी पीते हुए मैंने देखा। जिन संस्थानों ने सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता के बारे में अपनी रिपोर्ट जारी की है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे कमतर होते हैं। कक्षा 5 वीं व छठी में पढ़ने वालों को कक्षा 1 व 2 के स्तर की भाषा नहीं आती। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि रिपोर्ट गलत और झूठा है। आज मैंने पूर्वी दिल्ली के तकरीबन पांच स्कूलों में कक्षाओं में गया। कहीं समाज विज्ञान, कहीं हिन्दी में दिपावली पर लेख, कहीं गिनतियां और कहीं अंगरेजी कराई जा रही थीं। कक्षा 3,4,और 5 वीं में जाने का मौका मिला। बच्चे न केवल बोर्ड से उतारने में दक्ष थे बल्कि वो अगल से पढ़ने और लिखने में भी सक्षम थे।
बोर्ड पर लिखे वाक्यों के अलावे वाक्य और तीन वर्णाें वाले शब्द लिखकर पढ़ने को बोला और बच्चों ने पढ़ा। इन कक्षाओं से निकल कर लगा रिपोर्ट कितनी झूठी तस्वीर पेश करती हैं। पता नहीं किस स्कूल और किस कक्षा में जाकर ये लोग देख आते हैं।

Saturday, October 11, 2014

छायावाद में वृहत्त्रयी: एक अनुशीलन


कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं

कौशलेंद्र प्रपन्न
‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्वदेश’, ‘उपन्यासः समय और संवेदना’, ‘शब्द जिन्हें भूल गई भाषा’ आदि पुस्तकों के रचयिता विजय बहादुर सिंह की किताब ‘‘छायावाद के कवि प्रसाद,निराला और पंत’’ में प्रसाद,निराला और पंत की काव्य संसार और संवेदना का पूरी बारीकि से भौगोलिक चित्रण पेश किया गया है। इस किताब में भाषायी संरचना के एक एक रेशों को तार तार कर पहचानने की कोशिश की गई। जिसकी झलक हमें पाठ 8 में काव्य भाषा शीर्षक के अंतर्गत पढ़ने को मिलता है। इस पाठ में सिंह बड़ी ही गंभीरता से वृहत्रयी पंत,निराला और प्रसाद के काव्यगत भाषायी संरचनाओं और भाषायी बुनावट का विश्लेषण करते हैं। प्रसाद की काव्य भाषा के तहत प्रसाद के समग्र काव्य दुनिया में इस्तमाल भाषा की छटाओं का विवेचन मिलता है। राम स्वरूप चतुर्वेेदी के अनुसार ‘चित्राधारा’ की कविताओं में प्रसाद ने ‘खड़ी बोली का ब्रजभाषाकरण’ किया है पेज 234। प्रसाद की काव्य दुनिया में किस तरह की भाषायी आवजाही हुई है इस पाठ में उदाहरण सहित देखा-पढ़ा जा सकता है। वहीं निराला और पंत की काव्यगत भाषा की छवियों पर भी सिंह ने विमर्श किया है।
हिन्दी साहित्य में छायावाद का ख़ासा महत्व है। हिन्दी काव्य यात्रा कई वादों, विवादों और संवादों से गुजर कर ही निखरी है। बल्कि कहना चाहिए हिन्दी काव्य की यष्टि इन्हीं वादों और दर्शनों से सौंदर्य प्राप्त करती रही है। वह चाहे प्रगतिवाद हो,प्रयोगवाद हो या फिर गीत, नवगीत आदि। इन्हीं तमाम मोड़ों, मुंहानों से गुजरती हुई हिन्दी काव्य की भाषायी छटाएं भी बिखरती रही है। छायावाद की चर्चा जब भी चलेगी तब तब प्रसाद,निराला और पंत को नजरअंदाज कर के नहीं चला जा सकता। साथ ही यह विमर्श अधूरा माना जाएगा जब तक की हम महादेवी जी को इस विमर्श में न शामिल करें।
विजय बहादुर सिंह हिन्दी साहित्य, कविता, समीक्षा और भाषायी अनुशीलन के क्षेत्र में स्थापित और परिचित कलम हैं। इन्हीं की लेखनी से जन्मी ‘‘छायावाद के कवि प्रसाद,निराला और पंत’’ पुस्तक इन तीन कवियों के समग्र स्थापनाओं, मान्यताओं और वैचारिक प्रतिबद्धताओं की समीक्षा करती हैै। यह पुस्तक महज पठनीय ही नहीं हैं बल्कि इनकी जरूरत लंबे समय तक बनी रहेगी। जब भी जहां भी तीन कवियों के कर्म, भाव, भाषा पर शोध का प्रश्न उठेगा तब तब यह किताब संदर्भ ग्रंथ के तौर पर इस्तमाल होगा।
पहले पाठ परंपरा की खोज में संस्कृत नाटकों, साहित्यों और साहित्यकारों के बरक्स सिंह ने स्थापित किया है कि क्यों वृहत्त्री संज्ञा का इस्तमाल इन्होंने किया है। 1932 में पहली बार नंददुलारे वाजपेयी ने प्रसाद,निराला और पंत पर एक लेख माला लिखी थी जो तत्कालीन साप्ताहिक ‘भारत’ में क्रमशः 10 जुलाई,1932 में प्रकाशित हुई थी। उस लेख माला में सर्वप्रथम वृहत्त्रयी शब्द का प्रयोग किया गया था, पेज 13। इस पाठ में भवभूति, भारवि, कालिदास जैसे संस्कृत के प्रकांड़ विद्वानों के हवाले से सिंह ने साबित किया है कि किस प्रकार संस्कृत साहित्य में त्रयी के नाम से साहित्यकारों को पहचाना गया वैसे ही वाजपेयी ने वृहत्त्री के अंतर्गत पंत,निराला और प्रसाद को शामिल किया। इस पाठ में प्रचुरता से संदर्भ ग्रंथों का प्रयेाग किया गया है। बतौर उदाहरण, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रसिद्ध कवि और समीक्षक पं. जानकी वल्लभ शास्त्री ने इन तीनों महाकवियों को अपने विवेचन का आधार बनाते हुए एक समीक्षा पुस्तक ‘त्रयी’ के नाम से प्रस्तुत की।
पूरी पुस्तक में जिस तरह से पाठों में संदर्भ और पाद टिप्पणियों का प्रयोग किया गया है उससे स्पष्ट होता है कि लेखक ने एक एक बात को कहने से पूर्व उसकी बहुत बारीकि से पड़ताल किया है। साथ ही बात को पूर्व स्थापित और सिद्ध साबित करने के लिए पूर्व लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों की किताबों, विचारों को सप्रमाण रखा है। यह किताब महज लेखों का संग्रह नहीं है। यह किताब छायावाद की व्याख्या भी नहीं है। बल्कि यह किताब छायावाद को समझने और छायावादी कवियों त्रयी की दार्शनिक बुनावट के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक प्रकृति की भी समग्रता से व्याख्या करती है।
काव्य का विषय, काव्य का वस्तु आदि कविता की बुनियादी ढांचे पर भी विमर्श के अवसर मुहैया कराती है। किस कवि की क्या काव्य विषय रहे हैं उनमें संस्कृति, समाज, दर्शन, आत्म जीवन दर्शन किस हद तक काव्य को प्रभावित करते हैं आदि की चर्चा हमें तीनों ही कवियों को लेकर अलग अलग शीर्षकों में मिलती हैं। मसलन वृहत्त्रयी के कवियों का काव्य विषय व्यक्ति की आशाओं,आकांक्षाओं से लेकर विश्व मानव के सुख-दुख और सौन्दर्यपूर्ण जीवन तक फैला हुआ है, पेज 61। इस तरह से तीनों ही कवियों के काव्य विषय पर विस्तार से विमर्श मिलता है।
यह पुस्तक निःसंदेह एक शोध छात्र के लिए लाभदायक तो है ही साथ ही हिन्दी के सुधी पाठकों के लिए जिन्हें इन कवियों से विशेष स्नेह है उनके लिए यह खासे महत्व की है। पुस्तक के पाठों की योजना बड़ी सोच समझ कर की गई है। एक एक पाठ बेशक आकार में लंबे हो गए हों लेकिन विषय और कथ्य के लिहाज से प्रासंगिक हैं। परिशिष्ट 1 और 2 विशेषतौर पर महादेवी वर्मा पर केंद्रीत है। यह परिशिष्ट अपने आप में काफी लंबा है लेकिन पाठकों को यह एक नए अनुभवों से गुजरने जैसा होगा। क्योंकि यह परिशिष्ट श्रमसाध्य है। लेखक ने इस पुस्तक को सिर्फ विचार के स्तर पर भी स्थापित करने की कोशिश नहीं की है बल्कि एक एक वाक्य कहने के पीेछे तर्क और प्रमाणों का भरपूर सहारा लिया है।
 
छायावाद के कवि
प्रसाद निराला और पंत
लेखक- विजय बहादुर सिंह
प्रकाशन-सामसिक बुक्स,नई दिल्ली
वर्ष-2014
मूल्य-595

Thursday, October 9, 2014

अंतिम बिस्तर



मेरी जब लगेगी बिस्तर
सिलवटें हटाने तुम न आ पाओगी,
दहलीज़ के उस पार,
खड़ी बिलखती रह जाओगी।
साथ होंगे वो जो कभी साथ थे
साथ होंगे जो कभी झांकने नहीं आए,
जिनके बगैर खुशियां बिखरे थे
बस पास वहां तुम न होगे।
मां तुम न होगी
बहन तुम न होगी
संगिनी तुम न होगी
वह नींद कैसी होगी।
आंखें खोल देख न पाउंगा,
पलकें अश्रुगलित होंगी,
तुम्हें न पा उठ न पाउंगा
ऐसे में तुम कहां होगी।
मां तुम बिन कभी नींद न आई
रात बिरात बड़बड़ाते उठ जाता हूं
प्रिये तुम बिन नींद न आई
रात बिरात तुम्हीं को टटोलता हूं।
उदास होना कभी मेरे बगैर
कमी खली कभी मेरी
झांक लेना खिड़की के पार
चिरईं बन आ जाउंगा।

Monday, October 6, 2014

अच्छे दिन- 17000 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फरमान


  
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कौशलेंद्र प्रपन्न
तकरीबन 5 लाख प्राथमिक स्कूली शिक्षकों की कमी से हमारा प्राथमिक स्कूल जूझ रहा है। स्कूलों में शिक्षकों की रिक्त पदों को भरने के लिए अनुबंधित, शिक्षा मित्रों, पैरा टीचर आदि की मदद ली जा रही है ताकि शिक्षकों की कमी का असर हमारे बच्चों पर न पड़े। अफसोस की बात है कि सबसे खस्ता हाल हमारे प्राथमिक स्कूलों का ही है। क्योंकि इन स्कूलों में न तो पर्याप्त शौचालय, पीने का पानी, खेल का मैदान, शिक्षक आदि हैं और न शिक्षा की गुणवत्ता। ऐसे में हमारे बच्चों को साथ स्कूल छीन कर यह कैसा भद्दा मजाक किया जा रहा है। गौरतलब है कि पूरे देश में कम से कम 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से बेदख़ल हैं। उन्हें किस प्रकार बुनियादी तालीम मुहैया कराई जाए इस ओर चिंता करने की बजाए राजस्थान से ख़बर आई है कि वहां तकरीबन 17 हजार स्कूलों को बंद कर दिया जाएगा। तर्क यह दिया जा रहा है कि इन स्कूलों को चलाने में राज्य सरकार सक्षम नहीं है। जिन 17 हजार स्कूलों में ताला लगाया जा रहा है उन स्कूलों के बच्चों को स्थानीय अन्य स्कूलों में समायोजित किया जाएगा। ज़रा कल्पना कीजिए जिन स्कूलों में पहले से ही क्षमता से ज्यादा बच्चे हैं उस पर और अतिरिक्त बच्चों को किस प्रकार कक्षा में स्थान उपलब्ध कराया जाएगा। ध्यान रहे कि पहले से ही शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के प्रावधानों की अवहेलना की जा रही है उस पर तुर्रा यह कि अब उन्हीं कक्षाओं में 30 से ज्यादा बच्चे बैठेंगे। गौरतलब है कि आरटीइ एक कक्षा में तीस एक अनुपात में शिक्षक/बच्चों की वकालत करती है। लेकिन देश के किसी भी सरकारी स्कूलों में झांक लें वहां एक कक्षा में 50 और 70 बच्चे तो आम देखे जा सकते हैं। क्या एक शिक्षक से यह उम्मीद करना कि वह तमाम बच्चों पर समुचित ध्यान दे पाएया? क्या वह शिक्षण कार्य में गुणवत्ता ला पाएगा।
यह महज सवाल नहीं है, बल्कि उससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि जिन बच्चों को दूसरे स्कूल में भेजा जाएगा क्या वह स्कूल उन बच्चों के घर के करीब होंगे? क्या बच्चों की बढ़ी संख्या के हिसाब से कक्षा में परिवर्तन किए जाएंगे? क्या अतिरिक्त शिक्षकों की भर्ती की जाएगी? आदि। एक तो पहले से ही राज्य में शिक्षकों की कमी है उस पर स्कूलों को बंद किया जाना सीधे-सीधे आरटीइ की अवहेलना तो है ही साथ बाल अधिकारों की भी अनदेखी है। स्कूल के बंद होने से स्थानीय लोगों की ओर से क्या कोई मांग या आवाज उठी है? यदि नहीं तो यह एक गंभीर मसला है। वह इसलिए भी कि जो थोड़ी सी भी अच्छी स्थिति में हैं जो निजी स्कूलों की फीस वहन कर सकते हैं उनके लिए यह घटना कोई खास मायने नहीं रखती। लेकिन हमारे समाज में एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो सरकारी स्कूलों पर ही टिका है। अपनी रोजी रोटी से अपने बच्चे की महंगी शिक्षा का बोझ नहीं उठा सकते। उनकी भी इच्छा होती है कि उनका बच्चा पढ़-लिख जाए। लेकिन कल्पना कर सकते हैं कि जब उनके स्थानीय सरकारी स्कूल घर से दूर हो जाएंगे तब क्या वे अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के अतिरिक्त खर्चे को उठा पाएंगे।
राजस्थान से लेकर देश के अन्य राज्यों में भी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तर्ज पर स्कूल चल रही हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि उन स्कूलों में आम जनता की कितनी शैक्षिक चिंता है। क्या उन स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के साथ बरताव में कोई फांक है? यदि गहराई से पड़ताल करें तो यह अंतर स्पष्ट दिखाई देगा। विभिन्न राज्यों से इस तरह के भेदभाव की खबरें भी आती रही हैं जहां ऐसे बच्चों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। किसी के बाल काट दिए जाते हैं तो किन्हीं बच्चों को गृहकार्य नहीं दिया जाता। उन बच्चों को कक्षा में पीछे बैठाया जाता है ताकि इन बच्चों की पहचान की जा सके।
सरकारी स्कूलों को बंद किया जाना निश्चित ही दुखद घटना है। बजाए कि हम अपने सरकारी स्कूलों की हैड होल्डिंग करें उन्हें नकारा साबित कर बंद करने पर आमादा हैं। गौरतलब है कि सब के लिए शिक्षा यानी एजूकेशन फॉर ऑल के लक्ष्य का हासिल करने की अंतिम तारीख 2015 है। हम जिस रफ्तार से चल रहे हैं उसे देखते हुए उम्मीद की रोशनी भी बुझती नजर आ रही है। एक ओर विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे देश में मॉल, फ्लाइओवर, मेटो रेल आदि का निर्माण किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर शिक्षा की बुनियादी जमीन को दलदल बनाना कहां की सभ्य समाज की पहचान है। सरकारी स्कूलों को दुरूस्त करने और उसे मजबूत करने की बजाए बंद करना किसी भी सूरत में उचित कदम नहीं माना जा सकता। केंद्र सरकार जहां एक ओर बच्चों से संवाद कर उन्हें बेहतर कल के सपने दिखा रही हैं वहीं दूसरी ओर उनसे स्कूल बंद कर किस तरह के हकीकत से रू-ब-रू करा रही है।

कौशलेंद्र प्रपन्न, शिक्षा सलाहकार एवं भाषा विशेषज्ञ टेक महिन्द्रा फाउंडेशन

Monday, September 29, 2014

कमरे की दुनिया



कौशलेंद्र प्रपन्न
हर कमरे की अपनी दुनिया होती है। कमरे भी इंसान की तरह ही अपनी कहानी कहते हैं। हम इस तरह से देख सकते हैं कि एक कमरा जहां हमारा बचपन,किशोरावस्था गुजरा होता है उस कमरे में हमारी यादें, भाई-बहनों के साथ की लड़ाइयां और दुलार भी ज़ब्ज होती हैं। जब हम बड़े हो जाते हैं तब वही घर के कमरे एकबारगी उदास और अकेले हो जाते हैं कि जैसे हम अचानक किसी नए शहर में अकेले और उदास हो जाते हैं। कभी अपने पुराने कमरों में लौटना हुआ हो तो एक अजीब सा अनुभव घेर लेता है। ऐसे ही अनुभव पिछले दिनों हुए। मैं तकरीबन दस साल के बाद उस कमरे में गया जिसमें होश संभाला था और जहां 8 वीं और 10 वीं की परीक्षाओं के लिए बैठकर पढ़ा करता था। अब उस कमरे की दीवारों पर पुरानी तस्वीरें, कैलेंडर और बहनों की बनाई पेंटिंग्स भर हैं। उन पंेटिंग्स और कैलेंडरों पर धूल का साम्राज्य है। अब मां पिताजी से उन्हें झाड़ना पोछना नहीं बनता। जिन आलमारियों पर किताब और अपने सामान रखने के लिए हम भाई- बहन लड़ा करते थे वही आलमारियां अब उदास और धूल से सनी हैं। जाले और पन्नी में लिपटे खड़े हैं। हम लोग बैठक घर को देवता घर कहा करते थे। उस देवता घर को देख कर लगा कई सालों से उसमें पूजा-पाठ नहीं हुआ है। इतना ही नहीं सोफे पर घड़ा, प्लास्टि की बाल्टी, टीन टप्पर रखे हैं। शायद रखना शब्द गलत होगा क्यांेकि सामान रखे हुए नहीं थे वे ठूंसे गए थे। सोफा और टेबल की भी अपनी कहानी है। इसे खरीदने के पीछे मां ने कितना जद्दो जहद किया था और आज उसकी यह स्थिति देख कर मन उचट रहा था। लेकिन शायद समय के साथ सामानों, स्थानों, व्यक्तियों आदि सभी की भूमिकाएं और मायने भी बदल जाती हैं। बड़े भाई ने 9 वीं कक्षा में एक संतोष रेडिया बड़ी शौक से खरीदा था। आज वह रेडियो भी एक कोने में उदास और मौन था। आडियो कैसेट्स भी यूं ही उपेक्षित लुढके हुए मिले।
कमरे की जीवंतता इंसानों के रहने से होती है। कमरा अपने आप में न तो जीवंत होता है और न उदास। यह इस पर निर्भर करता है कि कमरे में रहने वाला व्यक्ति कैसा है। किस तरह से इन कमरों में स्वयं को रख रहा है। ये वहीं कमरे होते हैं जहां हम जीवन के कई सारे निर्णय, जिद्द, बहस,प्यार के बीज बोते हैं। उन्हीं कमरों में हमारे वंशबेल की बुनियाद होती है। लेकिन जब हम कमरों से बाहर चल जाते हैं तब वही घटनाएं, बातें और स्मृतियों के हिस्सा हो जाया करती हैं। वैसे यह बात भी सच है कि हम पूरी जिंदगी एक कमरे में नहंी काट सकते। इस नाते हर कमरे की अपनी सीमा भी होती है। लेकिन क्या इस तथ्य से मुंह मोड़ सकते हैं कि कमरों में जिंदा दुनिया को हम कभी अपनी जिंदगी से अलगा सकते हैं?
जो कमरा अपने आगोश में मां-बाप भाई बहन को पनाह दिया करते थे वही कमरे अब इन्हीं सदस्यों की अनुपस्थिति में भंाए भाएं करते नजर आते हैं। इन कमरों में घुसना कई बार बड़ा भयानक और डरावना लगता है। वहीं दूसरी ओर एक बार फिर से पुरानी बातों और घटनाओं को याद करने का जरिया बन जाता है। अतीत में जाना और यादों को टटोलना हर किसी को अच्छा लगता है लेकिन उस अतीत से सही सलामत लौट आना एक चुनौती होती है।
जब हम किसी पुराने महलों किलों या स्मारकों के कमरों में घूम रहे होते हैं तब उस समय की सारी चीजें हमारी आंखों के सामने घूमने लगती हैं। अकथ्यतौर पर कमरा अपने जमाने की बातें सुनता है। वह सुनता है कि कैसे,किन हालातों में कोई इतना लंबा समय यहां पर गुजारा है। शांति निकेतन हो या गांधी आश्रम। इन कमरों को देखते घूमते हुए पूरा इतिहास आंखों के सामने जीवंत हो उठता है।
होस्टल के कमरे की अपनी अलग संस्कृति होती है। इन कमरों का अपना कोई निजी चरित्र नहीं होता। रात गुजार कर सुबह किसी और ठिकाने की ओर चल पड़ने वाले इन कमरों को यूं ही अकेला छोड़ जाते हैं। कमरा एक बार फिर से सज धज कर नए कस्टमर के लिए तैयार हो जाता है। यहां की हर चीज अपना रूप रंग बदल लेती है। आईना भी नए मेहमान के लिए तैयार हो जाता है। इन आईनों में कोई भी तस्वीर स्थान नहीं बन पातीं। यही इसकी त्रासदी भी है और नियति भी। जहां हर दिन नए चेहरे आते हैं वहां किसी खास चेहरे को बसाना संभव भी नहीं।
कमरे की अपनी निजी जिंदगी नहीं होती। उसकी जिंदगी तो कमरे में रहने वालों से तय हुआ करती हैं। जिस तरह का रहने वाला आया उसी रंग रूप में कमरे को ढलना होता है। कमरे की हर दीवार और रंग अपनी कहानी बयां करते हैं। बस हम ही हैं कि कमरों से कई बार बेआबरू हो कर निकलते हैं।

Saturday, September 27, 2014

टीम में मजे से पढ़ो


कौशलेंद्र प्रपन्न
First Published:24-09-14 11:33 AM
Last Updated:24-09-14 11:33 AM
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तुम अलग-अलग चुपचाप पढ़ते हो। इससे तुम जो पढ़ते हो, वह सिर्फ तुम ही पढ़ते और समझते हो। लेकिन जब तुम टीम में मिलकर पढ़ोगे तो ज्यादा आनंद आएगा। वह इस तरह कि यदि तुम्हें कोई चीज समझने में परेशानी हो रही है तो वह तुम दूसरे दोस्त से बातचीत कर पूछ सकते हो। जिस भी दोस्त को टीम में कोई सवाल आता होगा या समझ में आ गया होगा, वह तुम्हें समझा सकता है।
टीम में मिलकर पढ़ने का एक लाभ यह भी है कि एक बच्चे की तैयारी से दूसरे बच्चों को भी फायदा होता है। मान लो, तुम्हें गणित पढ़ने में कठिनाई आ रही है, वहीं दूसरे दोस्त की मैथ अच्छी है, तो वह बिना टीचर का इंतजार किए तुम्हें मैथ के प्रॉब्लम्स का हल बता सकता है। उसी तरह यदि कविता को समझने व पढ़ने के तरीके ठीक से नहीं आ रहे हैं, मगर दूसरे बच्चे को आते हैं तो वह तुम्हारी मदद कर सकता है।
कई बार अकेले पढ़ते वक्त नींद और निराशा भी होने लगती है, लेकिन जब हम टीम में बैठकर एक साथ पढ़ते हैं तब एक प्रतियोगिता की भावना भी हममें भर जाती है कि वह तो पढ़ रहा है, यदि मैंने ठीक से पाठ नहीं पढ़ा तो मैं तो पीछे रह जाऊंगा। दूसरी स्थिति यह भी पैदा होती है कि हम जैसे ही समूह में बैठते हैं, बस वैसी ही बातचीत शुरू कर देते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम पढ़ने के लिए एक साथ बैठ रहे हैं, न कि बातचीत करने के लिए।
समूह में बैठकर पढ़ने से कई सारी बातें स्पष्ट भी होती जाती हैं। इसलिए अब तुम लोग अपनी क्लास में एक ऐसी ही टीम बना सकते हो, जो एक साथ बैठकर पढ़े। तुम इस टीम में हर सदस्य को पहले से ही टॉपिक दे सकते हो, ताकि वह सदस्य उस खास विषय को तैयार करके आए। इससे एक बच्चे के पास एक से ज्यादा विषयों की तैयारी एक ही समय में हो जाएगी और साथ ही तुम्हारे भीतर टीम भावना का भी विकास होगा।

Thursday, September 18, 2014

पढ़ने की तैयारी तो करो


कौशलेंद्र प्रपन्न
First Published:17-09-14 09:59 AM
Last Updated:17-09-14 10:00 AM
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पढ़ने की तैयारी, यह नई चीज क्या है? क्या पढ़ने की भी तैयारी करनी पड़ती है? क्या पढ़ें और कितना पढ़ें? इसको भी तय करना होता है। जब तुम यह निश्चित कर लोगे, फिर पढ़ना आनंददायक हो जाएगा।
तुम्हारे आस-पास क्या और कौन सी चीजें लिखी हैं, उस पर एक नजर डालो। स्कूल की दीवारों, नोटिस बोर्ड, क्लास रूम की दीवारों पर अकसर कुछ न कुछ लिखा होता है।
क्या लिखा होता है? कभी पढ़ने की कोशिश की है? लिखा होता है- ‘बड़ों का आदर करना चाहिए’, ‘समय बहुत बलवान होता है’, ‘स्वास्थ्य ही जीवन की कुंजी है’ आदि।
सिर्फ अपने आस-पास लिखे वाक्यों को पढ़ लेना ही हमारा मकसद नहीं होना चाहिए, बल्कि उन पढ़े हुए वाक्यों के मतलब भी समझ में आने चाहिए। इसके लिए हमें किस प्रकार की तैयारी करनी चाहिए, इसको भी समझते हैं। हमें ज्यादा से ज्यादा लिखे हुए मैटर को पढ़ना और उन्हें समझने के लिए बड़ों की मदद लेनी पड़ती है। इसमें शर्माने की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई तुम्हारी परेशानी को सुन नहीं रहा है तो ऐसे में तुम्हारे पास शब्दकोश होता है। एक बार शब्दकोश देखने का चस्का लग जाएगा, फिर तुम्हें कोई भी शब्द डराएगा नहीं, बल्कि शब्दों की चमकीली दुनिया तुम्हें अपनी ओर लुभाने लगेगी।
तुम्हारे क्लास-रूम में अधिक से अधिक लिखे हुए शब्द और वाक्य होने चाहिए। क्लास में चार्ट पेपर, चित्रावली, स्टोरी चार्ट आदि हों तो तुम्हें पढ़ने के लिए बहुत सारी सामग्री मिल जाएगी। कक्षा की दीवार ही नहीं, बल्कि कक्षा का कोना भी बच्चों का अपना आनंद का कोना बन सकता है। रंग-बिरंगे चित्रों से सजी किताबों को जितना पढ़ोगे, उतनी ही तुम्हारी भाषा मजबूत होगी। अगर भाषा मजबूत हो जाएगी तो हर तरह का टॉपिक आसान लगने लगेगा तुम्हें।

Tuesday, September 9, 2014

कौशलेंद्र प्रपन्न » चांद परेशां क्यों

कौशलेंद्र प्रपन्न » चांद परेशां क्यों

चांद परेशां क्यों
क्यों हो चांद परेशां,
तन्हा भी हो क्यों,
रात रात भर अकेले
आंसू बहते हो।
सुबह दिखती हैं ओसों में,
निशा बुलाती है
बड़ी दीदी सुनाती है
तेरी धरती की बातें जो,
वही हमें याद आती है।
कल रात तुम अकेले थे-
सोचा तुम से बातें हों
मगर तुम तो खुदी में थे
क्या बातें भला होती।
सेाचा तुम को लिखूं ख़त
पता मुझको नहीं मालूम,
डाकिया ख़़्ात कहां देता,
लिखा ख़त मैं आज दे आया,
गांव के उस बुढ़े को,
जो आता ही होगा,
आज या कल में,
वही बांचेगा मेरा ख़त,
ज़रा ध्यान से सुनना।

स्कूल में शौचालय


स्कूल में शौचालय


ाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के सभी सरकारी स्कूलों में जुलाई 2015 तक लड़कियों के लिए अलग से शौचालय का निर्माण कराने का निर्णय लिया है। गौरतलब है कि अभी देश के 20 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से कोई शौचलय नहीं है। वर्ष 2012-13 में देश के 69 फीसदी और 2013-14 में तकरीबन 80 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था थी। जबकि 2009-10 में 59 फीसदी थी। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 स्कूल के बुनियादी ढांचे में जिन दस चीजों को शामिल किया है उनमें शौचालय, पीने का पानी,खेल का मैदान आदि हैं। कई गैर सरकारी और सरकारी रिपोर्टों जिनमें डाइस की फ्लैश रिपोर्ट भी शामिल है, पर नजर डालें तो पाते हैं कि अधिकांश राज्यों में सरकारी स्कूलों में शौचालय, पीना पानी, खेलने के मैदान आदि नहीं हैं। गांव और कस्बों में चलने वाले स्कूलों में शौचालय नहीं होने की वजह से बच्चियां स्कूल नहीं जा पातीं। एमएचआरडी की रिपोर्ट की मानें तो बच्चियों का बीच में स्कूल छोड़ जाने के पीछे एक बड़ा कारण स्कूल में लड़कियों के लिए शौचालय का न होना है।
मानव संसाधन मंत्रालय ने शौचालय बनाने का जिम्मा काॅपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी यानी सीएसआर को सौंपा है। इसके तहत स्कूलों में शौचालय का निर्माण किया जाएगा। आज देश के अधिकांश स्कूलों में या तो शौचालय हैं ही नहीं। और यदि हैं तो वो इस्तमाल में नहीं हैं। राजस्थान, बिहार, पंजाब, उत्त्तर प्रदेश आदि राज्यों के गांवों में चलने वाले स्कूलों में देखें तो वहां टीन से ढक कर शौचालय का रूप तो दिया है, लेकिन उसके दरवाजे पर पुराना जंग लगा ताला मिलेगा। उसमें न पानी है और न बैठने की व्यवस्था। ऐसे में बच्चों को खेत या खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। लड़कों के लिए थोड़ी सुविधा हो सकती है, लेकिन लड़कियों के लिए यह महफुज नहीं माना जा सकता। पंजाब एवं राजस्थान में माता पिता अपनी बच्चियों को इसलिए स्कूल नहीं भेजते क्योंकि स्कूल में लड़कियों के लिए अगल से शौचालय नहीं है।
निजी स्कूलों को छोड़ दें तो सरकारी स्कूलों की स्थिति अमूमन एक सी है। जबकि आरटीई एक्ट 2009 में स्पष्ट लिखा हुआ है कि स्कूल में कम से कम दस बुनियादी सुविधाएं होनी ही चाहिए जिसमें कक्षा-कक्ष, चाहरदीवारी, पीना का पानी, शौचालय, भाषा शिक्षक, शिक्षक के लिए कक्ष आदि। लेकिन जब इन बिंदुओं पर नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश स्कूल इस पैमाने पर खरे नहीं उतरते।
आरटीई के लक्ष्यों को पाने का अंतिम समय सीमा भी खत्म हो चुका है। वहीं सबके लिए शिक्षा यानी इएफए का लक्ष्य सीमा भी 2015 में खत्म होने वाला है। लेकिन जब हम वस्तुस्थिति का जायजा लेते हैं तो हमें हमारी दूरी नजर आती है। इसमें कमी कहां रह गई इसकी जांच करनी पड़ेगी और यह देखना होगा कि जिन वायदों और घोषणाओं को हमने अंतरराष्टीय स्तर पर किया था उन्हें पाने के लिए हमें किन रणनीतियों को अपनाना चाहिए। क्या जिन रास्तों को हमने अब तक मकूल समझा था वह पर्याप्त हैं या उनमें रद्दो बदल करने की जरूरत है। हमने सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, शिक्षा का अधिकार अधिनियम आदि तो चलाए किन्तु हमसे कहां चूक हो गई कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजुद भी हमारे तकरीबन 80 लाख बच्चे/बच्चियां स्कूली तालीम से महरूम हैं। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हम आने वाले भविष्य को किस प्रकार की तालीम दे रहे हैं और ऐसी बुनियाद पर कैसी इमारत बनेगी।
देश की सरकारी स्कूलों में बुनियादी जरूरतों का बेहद टोटा है। टीचर हैं तो कक्षा नहीं। कक्षा है तो बच्चे उससे भी कहीं ज्यादा हैं। अभी भी देश भर में 5 लाख से भी ज्यादा प्रशिक्षित शिक्षकों के पद रिक्त हैं। अध्यापकों की कमी को दूर करने का जो तरीका अनुंबध पर रखने का अपनाया गया वह आरटीई के अनुसार उचित नहीं है। क्योंकि आरटीई कहती है कि अप्रशिक्षित शिक्षकों को तीन माह के भीतर प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगा। लेकिन दिल्ली, बिहार, उत्त्र प्रदेश आदि राज्यों में अनुबंधित शिक्षकों की भर्ती पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। उनको प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी कौन वहन करेगा यह हकीकतन दिखाई नहीं देता। बच्चों को बैठने के लिए समुचित व्यवस्था नहंीं है। एक एक शिक्षक को 100 से भी ज्यादा बच्चों को कक्षा में पढ़ाना ही नहीं पड़ता बल्कि उनकी देखभाल भी करनी पड़ती है। एक शिक्षक चाह कर भी शिक्षण नहीं कर पाता। कई ऐसे शिक्षक/शिक्षिकाएं हैं जिन्हें पढ़ाना अच्छा लगता है। वे पढ़ाना भी चाहते हैं लेकिन वे मजबूरन पढ़ा नहीं पाते जिसका उन्हें कहीं न कहीं मलाल है। क्या हम यह कह सकते हैं कि अभी भी हमारे समाज में ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो सचमुच पढ़ाना चाहते हैं लेकिन व्यवस्थागत और प्रबंधकीय कार्यों की वजह से अपने कार्य से वंचित हो जाते हैं।
यह अलग बात है कि आज हजारों स्कूल शिक्षकों की कमी के शिकार हैं। जहां दो तीन या छह शिक्षक हैं जो पूरे स्कूल को संभाल रहे हैं। शिक्षण से लेकर प्रशासकीय तमाम कार्यांे को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन उनके इस कार्य भार को कोई भी नहीं सराहता। बल्कि उल्टे उनकी अक्षमता को ही उजागर किया जाता है। सिर्फ लानत मलानते ही दी जाती हैं। ऐसे में शिक्षक को प्रेरित करने वाला कौन होगा। कौन होगा जो जिनके कामों को पहचान सके। समाज में हर तरफ इनकी आलोचना और उपेक्षा ही होती है कि शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते। इन्हें मुफ्त में आधे दिन की नौकरी करनी होती है आदि। जबकि गंभीरता से देखें तो इनकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा गंभीर और जिम्मेदारी वाली होती है। जरा कल्पना करें यदि एक बच्चा गलत तालीम पाता है तो वह समाज के लिए कितना बड़ा खतरा साबित हो सकता है। हर बच्चा शिक्षक की नजर में समान होता है।
सरकारी स्तर पर स्कूलों को सुधारने और बेहतर शिक्षा हर बच्चे को मिले इसके लिए प्रयास होते रहे हैं। लेकिन अब आवश्यकता और समय आ चुका है कि समाज के अन्य वर्गों को भी स्कूल की स्थिति सुधारने के लिए हिस्सेदार बनाना होगा। सरकार की अपनी कुछ सीमाएं और वह उसी सीम में रहते हुए कार्य करती है। सरकार नियम और बजट तो दे सकती लेकिन व्यक्ति में कार्य के प्रति समर्पण और निष्ठा पैदा नहीं कर सकती। स्कूल में कार्य सुचारू चल रहे हैं या नहीं इसकी निगरानी प्रशासनिक स्तर पर तो होता ही है यदि स्थानीय निकायों को भी इसमें शामिल किया जाए तो शिक्षकों की गैर शैक्षणिक  कार्यों से निजात दिलाई जा सकती है।


Friday, September 5, 2014

गानों से भी सीख सकते हो हिन्दी


कौशलेंद्र प्रपन्न
First Published:03-09-14 09:55 AM
Last Updated:03-09-14 09:55 AM
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आज गाने कौन नहीं सुनता? छोटे से लेकर बड़ों तक और गांव से लेकर शहर तक। चाय की दुकान पर, रिक्शेवाले, कार वाले, स्कूल वाले, कॉलेज वाले सभी गानों को सुनने में मगन दिखाई देते हैं। गाने सुनने के भी कई फायदे हैं। जो चीजें किताबों में पढ़ने में रुचिकर नहीं लगतीं, वही गाने सुनने के दौरान उन चीजों को भी दुहराने लगते हैं जिसे कभी किताबों में पढ़ा था। हर गाने में कोई न कोई स्टोरी भी होती है। वैसे हर गाने में न केवल बोल होते हैं, बल्कि शब्द होते हैं और उस गाने को गुनगुनाने लायक बनाने के लिए उसे संगीतबद्ध भी करना पड़ता है।
हिन्दी की किताबों में छोटे -छोटे शब्द, वाक्य, पूरा का पूरा एक पैराग्राफ लिखा जाता है। उसे याद करना और सही तरीके से लिखना भी बड़ी समस्या है। तुम्हें व्याकरण की नजर में हिन्दी के वाक्य कठिन लगते होंगे। कौन सी पंक्ति स्त्रीलिंग होगी? कौन सा शब्द पुल्लिंग है और कौन सा शब्द स्त्रीलिंग, इसके चक्कर में कई बार फंसे होगे। जैसे बस आती है या आता है? दुकान खुली है या खुला है? दही खट्टा है या खट्टी है? ऐसे कई सारे शब्द हैं, जिनमें अमूमन कठिनाई होती है।
अगर तुम हिन्दी के गानों को ध्यान से सुनोगे और उन गानों में इस्तेमाल किए गए शब्दों, वाक्यों को गौर से सुनोगे तो व्याकरण की इस तरह की कठिनाइयों का समाधान मिलेगा। यूं तो कई गाने महज पार्टी, डांस आदि को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते हैं। उसमें बोल से ज्यादा धुन, म्यूजिक आदि प्रमुख होते हैं। लेकिन कुछ गानों में बोल यानी शब्द बहुत सोच-समझकर प्रयोग किए जाते हैं।
गानों में शब्द, वाक्य, भाव को बड़ी सावधानी से पिरोया जाता है। यही वजह है कि ‘डोले रे डोले डोले डोले रे। अगर मगर डोले नैया भंवर भंवर जाए रे पानी..डूबे न डूबे न मेरा जहाजी..’ गाना बच्चों को खूब पसंद है। अब से गानों को सुनो तो उसकी हिन्दी व्याकरण पर भी ध्यान देना। सुनते-सुनते हिन्दी भी ठीक हो जाएगी।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...