कलाकार का अन्तिम काल बड़ा ही दर्दीला होता है। जीवन भर गा , बजा कर , लोख पढ़ कर समाज का मनोरंजन किया करता है लेकिन उमर जब परवान पर होती है तब कोई तीमारदार नही होता। बेटा या बहु संभालती है। मगर जब जेब खालो हो तो बेटा भी क्या करलेगा। कलाकार का अन्तिम अरण्य बड़ा ही दर्दीला होता है। सरकार भी खामोश , लोग भी पल्ला झाड़ लेते हैं। उसके पास हस्पताल के खर्चे तक नही होते की इलाज करा सके। यैसे में कला क्या दे पति है अपने कलाकार को ?
मेह्न्दिहासन को किसने नही सुना है क्या पाकिस्तान क्या ही हिंदुस्तान हर जगह उनको बेंतेहन मुहब्बत करने वाले मिल जायेगें मगर वो भी इनदिनों बीमार पड़े है , उनके बेटे के पास इतना सामर्थ्ये नही की वो हॉस्पिटल का खर्च उठा सके। बेचारे ने अपनी असमता जाहिर की है। वहीं हमारे देश में भूपेन हजारिका को भी इनदिनों कुछ इसे तरह के दौर से गुजरना पड़ रहा है। उनके खर्च को कोई उठाने वाला नही न तो सरकार न ही कोई घराना। दरसल कलाकार जब तक अपनी कला का प्रदर्शन किया करता है तब तक लोगों की भीड़ जमा हुवा करती है लेकिन जब वो असक्त हो जाता है तब कोई पूछता भी नही। यैसे में वो वनवास की ज़िन्दगी बसर करने को विवास होता है।
केवल गायक या कलाकार ही नही बल्कि लेखक , कवि भी इसे भीड़ में शामिल है। साहित्य का इतिहास पलट कर देख लें चाहे प्रेमचंद हों , निराला हों या फिर प्रवोग वादी चर्व्हित कवि नागार्जुन ही क्यो न हो बल्कि त्रिलोचन सब की वही गति हुई अंत काल में पैसे की किल्लत में दिन गुजरना हुआ। कथाकार अमरकांत ने तो यहाँ तक की अपनी रचनाये तक नीलम की, उन्होंने तो जीवन के पुरस्कार तब बेचने के पस्कास कर डाली।
साहब मामला बस इतना सा है की ये लोग अपनी लेखनी से वो लिखा जो इनके जी में आया वो नही लिखा जिसके पाठक की मांग है , बाज़ार किस तरह के लेखन की है इस को ध्यान में नही रखा।
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