Thursday, January 16, 2014

आलोचना उपेक्षिता


आलोचनाएं यदि सार्थक हों तो साहितय व रचना को एक व्यापक विस्तार मिलता है। बल्कि न केवल रचना सर्वजनीन होती है अपितु लेखक को भी दृष्टि मिलती है कि वो आगे इन बातों को ध्यान अपनी रचना रखे। एक पाठक भी रचना का सही समीक्षक होता है किन्तु उसे किन शब्दों और किन कमियों की वजह से रचना कमजोर रह गई उस ओर इशारे करने का व्याकरण और भाषा की कमी होती है। यदि पाठक के पास उसकी बात कहने की भाषा हो तो आलोचक की कमी न महसूस हो।
साहित्य, कला, रंगकर्म, फिल्म आदि ऐसी विधाएं हैं जहां समीक्षा, आलोचना, प्रतिक्रियाएं खास महत्व रखती हैं। यदि आलोचना गंभीरता से हो तो रचना में निखार आने की पूरी संभावना होती है। साहतय मे माना जाता है कि आलोचनाएं मुंह देख कर की जाती हैं। मधुर भी रहे और छप भी जाए। बेशक उस आलोचना से न लेखक को कुछ व्यापता है और न पाठक को। कुछ बड़े आलोचकों व कहें लेखकों का मानना है कि हिन्दी में तो आलोचना नाम की कोई चीज है ही नहीं। यदि आलोचना के नाम पर कुछ हो भी रहा है तो वह महज समीक्षाएं हो रही हैं। मेरा तो मानना है कि वह समीक्षाएं भी नहीं हैं वे महज पुस्तक परिचय तक ही सीमित हैं। फलां किताब में इतने पाठ हैं। इस पाठ में यह है। इतने पात्र हैं। उन पात्रों की भाषा यह है आदि। समीक्षा थोड़ी आगे बढ़ी तो किताब में लेखक व रचनाकार ने भाषा के साथ न्याय किया है। शैली रोचक है। कथानक अच्छी है या किसी और किताब की छाया प्रतीत होती है। इससे आगे निकल कर समीक्षाएं कोई मुकम्मल रोशनी आने वाले लेखकों को नहीं देतीं।
हर साल अंतिम पखवाड़े में अखबारों में पूरे साल की महत्वपूर्ण किताबों की सूची और विन्डो शाॅपिंग सी समीक्षा करने का चलन है। जिसमें किसी भी एक दो किताब पर चार पांच लाइन लिख कर आगे बढ़ जाने की परंपरा है। उस समीक्षा का कोई खास मायने नहीं रह जाता। इस तरह की समीक्षाओं की विश्वसनीयता भी कोई ज्यादा नहीं होतीं क्योंकि समीक्षक की सूची में कमोबेश वही किताब स्थान ले पाती हैं जो या तो बहुत चर्चित रहीं या फिर जाने माने नाम रहे। बाकी पत्रिकाओं, अखबारों में तो समीक्षा के काॅलम में भी किताबें बाहर कर दी जाती हैं। पुस्तकें मिलीं काॅलम में कहीं पड़ी किताबें जरूर यह गुहार लगाती हैं कि हम पर भी नजर इनायत हो सरकार। मगर काॅलम की सीमा और वैचारिक झुकाव के आगे वे किताबें महज प्रकाशन स्थान, वर्ष, पेज, मूल्य की सूचनाओं से आगे नहीं जा पातीं।
साहित्य की पत्रिका हो या गैर साहित्यिक दोनों ही स्थानों पर पुस्तक की आलोचना की जगहें सिमटती गई हैं। आलोचना के स्थान पर समीक्षाएं व कह लें परिचय ही छपती हैं। एक बात और भी है कि लेखक ही जब समीक्षक हो जाता है तब यह काम ज़रा गंभीरता की मांग करता है। एक लेखक के जौर पर उसकी अपनी पूर्वग्रहें भी होंगी। जिससे निजात पाना थोड़ा कठिन होता है। आलोचना कर्म माना गया है कि लेखने से कहीं ज्यादा कठिन और श्रमसाध्य है। उसमें रचनाओं को पढ़ने की समझ, भाषा, कहने की कला और रचनाओं के बीच में छुपी कमियों को पकड़ने का कौशल होना चाहिए तभी एक लेखक आलोचना कर्म में सफल हो सकता है।
अव्वल तो आज अपनी किताब के नाम पर कुछ गिने चुने लेखकों की पढ़ने की आदत सी बन गई है। जब हम दूसरे लेखकों को पढ़ते हैं तब पता चलता है कि कौन क्या लिख रहा है केसा लिख रहा है। लेकिन लेखकों के मध्य भी पढ़ने के अपने पूर्वग्रह देखे जा सकते हैं। यह पूर्वग्रह न केवल पढ़ने के स्तर पर हैं बल्कि रचना की समीक्षाएं और राय बनाने तक दिखाई देती हैं। यदि किसी किताब की खरी खरी आलोचना की जाए तो संभव है संपादक उसे या तो छापेगा ही नहीं या फिर उसके धार को कुंद कर छापेगा। संपादन के नाम पर रचना की हत्या कोई आम बात नहीं है। यह अकसर देखा जाता है कि रचनाओं को संपादन की मार भी खूब सहनी पड़ती हैं। उस संपादन के आगे रचना विवश और असहाय हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो रचनाओं के साथ कई स्तरों पर भेदभाव होता है। लेखन से लेकर संपादन और समीक्षा तक। रचनाएं हाशिए पर धकेल दी जाती हैं। हाशिए पर खड़ी रचनाएं अपने साथ न्याय की आवाज किस अदालत में उठाए। कहां उसकी सुनी जाएगी। यह भी गंभीर मुद्दा है। क्योंकि रचनाकार मानता है कि एक बार रचना का जन्म हो चुका व छप चुकी उसके बाद उससे लेखक की दूरी स्वभाविक हो जाती है। वहीं संपादक रचना को अपनी संपत्ति माने तो उसके साथ समुचित बर्ताव करे लेकिन वह तो फलां लेखक की है। फलां धड़े की है बांटकर रचना को विलगा देता है।
कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य आदि रचनाओं की समीक्षाएं अमुमन अखबारों एवं पत्रिकाओं में देखने-पढ़ने को मिल जाती हैं लेकिन बाल साहित्य, बाल लेखन यानी बच्चों के लिए लिखी गई रचनाओं को तो आलोचक गोया रचना ही नहीं मानते। मानो यह भी कोई साहित्य है इस ओर ध्यान देना जैसे बचकाना कर्म है। आलोचना और समीक्षा के आंगन में वही पुस्तकें व लेखक स्थान ले पाते हैं जो किसी न किसी तरह से पाठक का ध्यान खींच पाने में सुल हुए हैं। ऐसी बहुत सी किताबें हर साल छपती हैं जो किसी की निगाह में भी नहीं आ पातीं और गोदाम में या फिर लेखक के स्वजनांे के घर में शोभा बढ़ाती हैं।
आलोचना उपेक्षिता रचना और रचनाकार की मनःस्थिति को भी समझने की आवश्यकता है। एक रचनाकार अपने आप को ईश्वर मान लेता है। वही भाग्यविधाता है अपनी रचनायी दुनिया का। यह सही है कि वही सृष्टिकर्ता है अपनी रचना संसार कां वही तय करता है अपने पात्रों की नियति और परिणति। वही उत्थान और पतन भी लिख डालता है जिसके आगे रचना नतमस्तक होती है। लेकिन इससे आगे जाकर सोचने की बात यह है कि क्या लेखक लिखने से पूर्व इस बिन्दु पर भी ठहर कर सोचता है कि उसकी रचना की मांग है भी या नहीं? उसकी रचना रचना के उद्देश्य को पूरी करती है या नहीं? क्या पाठक वर्ग उससे कुछ जीवन मूल्य हासिल कर पाएगा या नहीं? आदि सवाल कटू तो हैं पर जरूरी भी हैं। कई बार लेखक मान कर चलता है कि उसका कर्म महज लेखन तक सीमित है। चाहे आलोचक पढ़े या न पढ़ वह उसकी जिम्मेदारी नहीं है। जबकि होना यह चाहिए कि लेखक को इस जोखिम को भी अपने कंधे पर लेना चाहिए।
व्यंग्य की ही बात करें तो परसाई, शरद जोशी, अंजनी चैहान, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेमजनमेजय, लालितय ललित, सुभाष चंदर, हरीश नवल आदि ने क्या लिखा और वो व्यंग्य को कितना सवंर्द्धित करते हैं इसकी भी बिना वैचारिक पूर्वग्रह के समीक्षा की मांग करती है। जो भी व्यंग्य लिख रहा है व अन्य रचनाओं में गति रखता है उसके पास भाषा है इससे तो इंकार नहीं कर सकते। हां विचार करने की बात यह है कि क्या वह लेखक अपनी रचना के साथ पूरा न्याय कर रहा है। क्या उसकी लेखनी रचना आज की चुनौतियों का सामना करने में समर्थ है? क्योंकि महज यह कह देने भर से बात नहीं बनती कि फलां के पास भाषा है, शैली है और कहने को बहुत कुछ है। कहना यह भी पडे़गा कि क्या जो वह कह रहा है वह लेखन की परंपरा को अग्रसारित करने योग्य है भी या नहीं।
समकालीन आलोचकों व समीक्षकों के इशारे भी समझने की आवश्यकता है। समीक्षक किस मानसिक बुनावट के तहत कह रहा है उसे भी समझना होगा। क्या वह रचना के हित में है? क्या वह सिर्फ कलम चलाने और छपने के लिए समीक्षा कर रहा है या उसकी समीक्षा के पीछे उद्देश्य रचना की जांच पड़ताल करना है। वैयक्तिक रूचियां और रूझान भी कई बार रचना को हाशिए पर खड़ी कर देती हैं। इसलिए आलोचना वैसी की जाए जिससे कोई सार्थक दृष्टि न केवल लेखक को मिले बल्कि पाठक को भी पाठ को समझने में मददगार साबित हो। इसलिए ग्रंथों को समझने के लिए भाष्य लिखे जाते हैं, टिकाएं लिखी जाती हैं। लेकिन एक आम किताब को समझने के लिए भाष्य न सही समुचित औजार तो आलोचक दे ही सकता है जिससे आप लेखक की रचना को बेहतर समझ सकें।
कौशलेंद्र प्रपन्न

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