Monday, July 25, 2016

कहां हो भाषा?


मैं तो तुम्हें पूरी दुनिया में देख आया। कहीं नहीं मिली। सब के सब अपनी भाषा तो बोलते हैं मगर अपनी भाषा को भूलते जा रहे हैं। इसे क्या नाम दें।
जिसे देखो वही भाषा की दुकान खोल कर बैठा है। हर कोई भाषा के सामान बेचने में लगा है। कोई कविता बेचता है। कोई कहानी तो कोई उपन्यास बेचता है। सब के सब बेचने में लगे हैं।
कहानी कोई बेचता है तो कोई कविता। जिसके हाथ जो बेचने को लग जाता है वेा वही बेचने में व्यस्त है। भाषा क्या सिर्फ कविता कहानी बेचने से बचाई जा सकती है। क्या सिर्फ सेमिनारों, सम्मेलनों के कंधे पर डाल कर लंबी नींद सोई जा सकती है। 

Thursday, July 21, 2016

स्कूल से बाहर बच्चे और बाल मजदूरी बिल


कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1986 के बाल मजूदरी संरक्षण अधिनियम में संशोधन कर कानून बनाने के रास्ते साफ हो गए हैं। हाल ही में राज्य सभा में ध्वनि मत से इस मसौदे को पास कर दिया गया। यह महज ख़बर नहीं है बल्कि इसके परिणाम घातक होंगे शायद इसका अनुमान नहीं है। न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में लाखों बच्चे स्कूल से बाहर हैं। वे बच्चे स्कूल में नहीं हैं तो कहां हैं? क्या वे बच्चे काम पर जा रहे हैं? क्या वचे बच्चे अंतरिक्ष मंे गायब हो गए? कहां हैं वे बच्चे जो स्कूल में नहीं हैं?
एक ओर सौ वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद पारित शिक्षा अधिकार अधिनियम बना और 2010 में देशभर में लागू हुआ। वहीं दूसरी ओर यदि यह कानून बन जाता है तो बच्चे स्कूल की बजाए काम पर जाते नजर आएंगे। गौर से विमर्श करें तो पाएंगे कि यह एक पूर्व कानून को धत्ता बताते हुए दूसरे कानून को जन्म देना है। पहला कानून बच्चों को 6 से 14 वर्ष के आयुवर्ग, से मजदूरी कराना अपराध है वहीं दूसरी ओर 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को यह बिल काम करने की अनुमति देती है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम जहां 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने की प्रतिबद्धता दुहराता है वही वहीं बाल मजदूरी मसौदा उन्हें काम करने की छूट देता है।
2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 12.5 मिलियन बच्चे मजदूरी में लगे थे। आंकड़ों की मानें तो 2009-10 और 2011 में इस संख्या में गिरावट दर्ज की गई और यह भारी संख्या घट कर 5.4 मिलियिन पर अटक गई। यह एक आंकड़ा है इसकी कितनी सच्चाई है एक सत्यापित करने और खोज खबर लेना एक अलग विमर्श की मांग करता है लेकिन इतना तो तय है कि बच्चे काम पर जा रहे हैं। मौजू है कि 1986 में बाल मजदूरी अधिनियम जहां बच्चों को विभिन्न खतरनाक कामों में लगाने से संरक्षित करने की सिफारिश करती है। वही 1989 में संयुक्त राष्ट में संपन्न बाल अधिकार संरक्षण अधिनियम में विश्व के तमाम बच्चों को मुख्यतौर पर पांच अधिकार दिए गए। इस दस्तावेज पर भारत ने भी दस्तखत किया था। इस ऐतिहासिक दस्तावेज में बच्चे को जीने, सहभागिता,विकास,भूख और शिक्षा का अधिकार देने की बात की गई है। लेकिन अफसोसनाक हकीकत है कि न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर लाखों बच्चे युद्ध में शिकार होते हैं और बतौर हथियार प्रयोग में लाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर लाखों बच्चे खतरनाक कामों में अपना बचपन खत्म कर रहे हैं। प्रो कृष्ण कुमार की किताब चूड़ी बाजार में लड़की बड़ी ही शिद्दत से फरूखाबाद में चूड़ी निर्माण मंे बचपन से हाथ धोने वाली बच्चियों और बच्चों की चर्चा करते हैं। कैसे बच्चे कम उम्र में वृद्ध हो जाते हैं। विभिन्न उद्योगों में बच्चों के कौशलों का इस्तमाल किया जाता है। बनारस हो या भदोही जहां भी बारीक काम होते हैं चाहे वो कालीन बनाना हो, च्ूाड़ी बनानी हो वहां बच्चों को लगाया जाता है। आज की तारीख मंे बच्चे बेहद सस्ते और सुलभ मानव संसाधन हैं जिन्हें काम मंे जोत दिया जाता है। लेकिन 1986 के कानून और बाल मजदूरी संरक्षण अधिनियम के अनुसार यदि कोई व्यक्ति बच्चे को काम पर लगाता है तो पहली बार में 20,000 रुपए का जुर्माना भरना पड़ेगा। साथ ही जेल का प्रावधान भी है। हकीकत इससे काफी दूर है। कभी कभार मीडिया में ऐसी ख़बरें आती हैं बाकी तो बच्चे अपने काम में तल्लीन ही रहते हैं। अपनी आंखें फोड़ते, कमर तोड़ते काम में लगे रहते हैं। क्या बच्चे दोषी हैं या उनके अभिभावक भी जिम्मेदारी के घेरे में आते हैं जो बच्चों को स्कूल भेजने की बजाए अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारते रहते हैं।
हाल ही में यूनेस्को द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि विश्व भर मंे 26.30 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते। वहीं भारत पर नजर दौड़ाएं तो यह संख्या 1.1 करोड़ है जो स्कूल से बाहर हैं। हालांकि भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय मानता है कि 80 लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। यदि बच्चे स्कूल से हैं तो उन्हें तो उन्हें स्कूल तक लाने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं व क्या योजना बनाई गई है। सरकार तो अब उन बच्चों को स्कूल की बजाए काम पर भेजने की कानूनन तैयार कर चुकी है। कहने को तमाम कौशल विकास योजनाएं चलाई जा रही हैं। उसका मूल लक्ष्य क्या है? क्या हम बच्चों को शिक्षित करना चाहते हैं या काम में दक्ष बनाना चाहते हैं। कौशल विकास योजना में जिन कौशलों को शामिल किया गया है उसे देखकर यही लगता है कि बच्चे लकड़ी का काम, बिजली के काम, यानी आइटीआई की दक्षताएं पा कर बाजार में अपनी रेाटी का इंतजाम करने वाले हैं। हालांकि रोटी व रोजगार पाने का लक्ष्य कोई गलत नहीं है क्योंकि अंत मंे तो हम शिक्षा से रोजगार ही पाना चाहते हैं। अब सवाल यहां उठता है कि आठवीं, पास व नौवीं फेल बच्चा किस प्रकार के काम में लगेगा। हाल की एक रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली में नौंवी में पढ़ने वाले बच्चों मंे से एक लाख बच्चे फेल हो गए। क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे उच्च शिक्षा में जाएंगे या काम के कौशल की ओर मुडेंगे। यूनेस्को की ही रिपोर्ट में बताई गई है कि भारत में उच्च माघ्यमिक स्तर पर 4.7 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते।
भारत में स्कूल से बाहर बच्चों की स्थिति की तुलना पाकिस्तान में स्कूल न जाने वाले बच्चों से करें तो यह संख्या दोगुनी है वहीं बांग्ला देश से पांच गुणी है। सवाल उठना स्वभाविक है कि इस तदाद में बच्चे स्कूल से बाहर हैं फिर भी हमारी नींद नहीं खुलती। तुर्रा यह कि हम 17 साल तक के बच्चों को मजदूरी व कमा करने की इजाजत दे रहे हैं। हम प्रकारांतर से सस्ते मजदूर पैदा करने की योजना बना रहे हैं जिसकी एक झांकी कौशल विकास योजना में मिलती है। पूछने वाले यहां पूछ सकते हैं कि भूखे पेट कौन पढ़ना चाहेगा? कौन अपने बच्चे को खाली पेट पढ़ने के लिए स्कूल भेजने को तैयार होगा। हर केाई पहले अपनी आर्थिक स्थिति ठीक करना चाहेगा। इसलिए बच्चे काम पर जा रहे हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है। प्रश्न यह नहीं है कि बच्चे काम पर जा रहे हैं प्रश्न है हमारी मनसा क्या है। क्या हम बच्चों को स्कूल से बाहर रखकर सस्ते मजदूर पैदा करना चाह रहे हैं या फिर उन्हें अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने के लिए प्रेरित और प्रयास कर रहे हैं।


Friday, July 15, 2016

साहित्य की शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न

साहित्य से हमारा वास्ता प्राथमिक कक्षाओं से ही शुरू हो जाता हैं। बल्कि कहना चाहिए नानी-दादी की बचपन की कहानियों से ही साहित्य से हमारा जुड़ाव हो जाता है। जब हम कक्षायी व पाठ्यपुस्तकीय साहित्य और पाठ््यपुस्तकेत्तर साहित्य के बीच के संबंध को देखने की कोशिश करते हैं तब एक बड़ा अंतर हमें दिखाई देता है। वह साहित्य जो पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा नहीं हैं व नहीं बने हैं वे ज्यादा लुभाते हैं। लेकिन जब वही कविता, कहानी पाठ्यपुस्तकों मंे पढ़ाई जाती हैं तब हमारी पढ़ने की दृष्टि भी बदल जाती है। यही कारण है कि पाठ्यक्रमीय साहित्य और पाठ्यक्रम से बाहर के साहित्य के पाठकों में भी अंतर दिखाई देता है। प्राथमिक कक्षाओं मंे पढ़ाई जाने वाली कहानियां, कविताएं एवं साहित्य की अन्य विधाएं महज परीक्षा में सवालों के जवाब तक ही महदूद रहती हैं। कक्षायी कविता व कहानी के अंत में पूछे जाने वाले सवाल कई बार उस विधा के रसास्वादन में बाधा बनती हैं। बच्चे कविता, कहानी को महज परीक्षा में अंक हासिल करने के मकसद से पढ़ते हैं, आनंद कहीं पीछे छूटता जाता है।
अगर यह कहें कि साहित्य की शिक्षा अभी पूरी तरह से स्थापित नहीं हुई है। साहित्य तो खूब लिखी जा रही हैं। पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल की जा रही हैं, लेकिन क्या उसके शिक्षण और शिक्षा शास्त्र पर भी ध्यान दिए जा रहे हैं? साथ ही साहित्य का शिक्षा-शिक्षण शास्त्र को समृद्ध करने की कोशिश की जा रही है? आदि सवालों पर हमें विस्तार से और ठहर कर विमर्श करने की आवश्यकता है। साहित्य की विधाओं को पाठ्यक्रमों में शामिल कर देना और उनके शिक्षण शास्त्र को मजबूत करना दो अलग कार्य हैं। एक लेखक व कवि लिखने के बाद आगे बढ़ जाता है। उसकी कविता व रचना को कैसे पढ़ाई जाए, यह कार्य उसके हिस्से नहीं आता। वह यह नहीं बताता कि उसकी रचना को कैसे और किस उद्देश्य से पढ़ाई जाए। यह जिम्मेदारी शिक्षकों पर आती है कि साहित्यिक रचनाओं को किस तरह पढ़ाएं। अभी तक हमारा साहित्य शिक्षा-शिक्षण शास्त्र कोई ख़ास मदद नहीं करता। सिर्फ पाठ के अंत में कुछ मशीनीकृत सवालों की शृंखला बनाने की। हमें कविता, कहानी, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण, डायरी आदि को कैसे रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ाएं इस ओर बहुत कम काम हुए हैं। हालांकि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 भाषा शिक्षण पर तो विमर्श पेश करती है किन्तु साहित्य के शिक्षा-शिक्षण शास्त्र पर कोई खास मदद नहीं करती।
जब प्राथमिक कक्षाओं मंे साहित्य के विभिन्न विधाओं को बतौर पाठ के तौर पर शामिल करते हैं तो यहां यह भी जरूरत है कि उस विधा को कैसे पढ़ाएं इस पर भी रोशनी डाली जाए। मसलन कविता, कहानी,नाटक आदि का वाचन,उच्चारण, सस्वर वाचन कैसे करें, बच्चे कैसे उसे पढ़ें इस पर भी लिखा जाना चाहिए। देश के विभिन्न राज्यों के हिन्दी शिक्षकों के साथ कार्यशालाओं में अनुभव साझा करते सुनते महसूस हुआ कि उन्हें साहित्य शिक्षण के तौर तरीकों और साहित्य शिक्षण शास्त्र में हाथ थामने की आवश्यकता है। कक्षा 5 वीं की हिन्दी की किताब रिमझिम में श्री कुंवर नारायण एक कविता है ‘एक मां की बेबसी’ इस कविता को कैसे पढ़ाएं इसको लेकर शिक्षकों की शिकायत होती है कि इसे कैसे रोचक तरीके से पढ़ाएं। इस कविता को गाकर नहीं पढ़ाई जा सकती। न ही इसका लयबद्ध वाचन ही कर सकते हैं। इसी तरह प्राथमिक कक्षाओं की हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में कुछ और भी पाठ हैं जिन्हें पढ़ाने में दिक्कतें आती हैं। किताब व किताब का लेखक कैसे पढ़ाएं यानी शिक्षण शास्त्रीय मसले पर मौन हो जाता है। यहां शिक्षक पढ़ाने के दौरान असहाय हो जाता है। साहित्य शिक्षण की दिक्कतें नप केवल प्राथमिक स्तर पर बल्कि उच्च स्तर पर भी महसूस की जाती हैं। लेकिन उच्च स्तर पर इसकी छूट मिल सी जाती है। ख़ासकर बी ए व एम ए की कक्षाओं में तो सूर तुलसी, मुक्तिबोध की कविताओं की व्याख्याएं की जाती हैं लेकिन अफ्सोस की कविता की परतें कैसे और किस औजार से खोली जाए इसकी तालीम नहीं मिल पाती।
साहित्य के शिक्षण शास्त्र पर शिक्षा के विद्वानों को रोशनी डालनी चाहिए। क्योंकि बतौर साहित्यकार जो लिखना था वो तो लिखा जा चुका लेकिन जब कक्षाओं में उन्हें पढ़ाएं तो क्या और किस तरह से पढ़ाएं इसकी समझ हमें अपने शिक्षकों को देनी होगी। यह शिक्षा शास्त्र के हिस्से आता है कि विविध विधाओं की रचनाओं को पढ़ाते वक्त किस प्रकार की तकनीक व विधि अपनाई जाए। मसलन झांसी की रानी, पुष्प की अभिलाषा, बसंती हवा, सतपुड़ा के घने जंगल, ईदगाह, खिलौनेवाला, राख की रस्सी आदि कविता, कहानी या फिर डाकिए की कहानी कंवर सिंह की जबानी को कैसे रोचक तरीके से पढ़ाई जाए इसके शिक्षण शास्त्र पर भी काम करने की आवश्यकता है।
शिक्षकों की मानें तो हम कोई अभिनेता नहीं हैं कि हर कहानी कविता को अभिनय के माध्यम से पढ़ाएं। हमें यह बताया जाए कि कक्षा में कहानी व कविता को कैसे गतिविधियों के द्वारा पढ़ाई जाए। हालांकि कविता के जानकार मानते हैं कि हर कविता के भाव और अर्थ प्राथमिक कक्षाओं में बच्चे समझें ही। उन्हें बस कविता आनंद के लिए पढ़ाई जाए। आगे चल कर बच्चे स्वयं कविता का अर्थ समझ लेंगे। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या आठवीं के बाद उन्हें हिन्दी व अन्य भाषायी कविताओं से रू बरू होने का मौका मिलता है? क्या उनके अंदर कविता को समझने व आनंद लेने की चाह बची रहती है। क्योंकि अमूमन कक्षा आठवीं तक आते आते बच्चों के सामने विषयों के चुनाव और छोड़ने की छूट होती है। बच्चे हिन्दी की जगह पर अन्य भाषाओं को चुन लेते हैं। तब क्या संभव है कि वे दुबारा पुष्य की अभिलाषा कविता को पढ़ें।
साहित्य शिक्षण के पीछे जो तर्क दिए जाते हैं उनमें वो ताकत नहीं होती जिसके आधार पर माना जाए कि साहित्य से संवेदना, मानवीय मूल्य बची रहती हैं। क्योंकि आज की तारीख में साहित्य के विद्यार्थियों में खासे कमी दर्ज की जा रही है। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में बी ए, एम ए ;साहित्यद्ध के विभागों में पर्याप्त विद्यार्थी नहीं हैं। हिन्दी, संस्कृत, उर्दू विभागों में बच्चे दाखिला नहीं लेना चाहते। शायद इस कमी के पीछे साहित्य का बाजार और रोजगार बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। सोशल मीडिया पर बेशक घूम घूम कर शार मचा लिया जाए कि हिन्दी व अन्य भाषाएं फल फूल रही हैं। रोजगार के अवसर बढ़ें हैं आदि नारों से ज्यादा नहीं लगते। हकीकत यह है कि संस्कृत, उर्दू, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं केे विद्यार्थिकों को रोजगार पाने के लिए अन्य कोर्स करने पड़ते हैं। तब जाकर इन भाषाओं से रोटी मिलती है। दूसरा मसला यह भी है कि बाजार ने काफी हद तक भाषा शिक्षण की हदें तय करनी शुरू की दी हैं। कौन सी भाषा कितनी महंगी है और कौन सी भाषा चलन से कट चुकी है इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।

Thursday, July 14, 2016

जब तुम्हारे पर कतर दिए जाएंगे


कहे जाएंगे
उड़
और
उड़।
कहे जाएंगे
उड़ना ही नहीं आता
नए नए पांख मिले हैं
उड़ने की ख़्वाहिश पाले हैं।
जब हर पल पांख
कतरे जाते हों
कहे जाते हों
उड़ तो ज़रा।
पंख कतर कर
कहते हैं
उड़ तो ज़रा
दिखा अपनी उड़ान।
जब तुम्हारे पर कतर दिए जाएंगे
और कहा जाएगा
उड़ान तो भर
असफल होकर
गिरेंगे जमीं पर
हंसेंगे
नाचेंगे
उड़ना नहीं आता।

Wednesday, July 13, 2016

एक मुहल्ला हुआ करता था


कहानी थोड़ी लंबी है आशा है पढ़ने का जोखिम उठाएंगे
उस मुहल्ले में कई व्यवसाय के लोग गांव से आकर बसने लगे। औरतें धीरे धीरे मांए बनीं। घर घर में बच्चों की किलकारियां उभरीं। एक कमरे से दो कमरे और मकान बने। सुबह काम पर पति के चले जाने के बाद औरतें आपस में बतकही किया करतीं। जब मुहल्ले में लोग बसने शुरू हुए तो एक परिवार से होते चले गए। किसी साथ सास होतीं तो किसी के साथ ननदें। बिन ब्याही बहनें भी साथ होंती। हर किसी को हर किसी के बारे में जानकारी होती। कौन किस गांव का है। किसके घर में कौन कौन हैं। सब मतलब सब कुछ सब को पता होता।
धीरे धीरे बच्चे गलियों में खेलने लगे। पांडे जी का बच्चा, बेचन का लड़का, बेचुवा की बेटी, गुप्ता जी का इकलौता लड़का ओम, शिवजग बाबू का अरूण सब साथ ही बड़े हो रहे थे। स्कूल भी साथ जाते। कई कई बार तो पता ही नहीं चलता किस घर का बच्चा किस घर मंे खाना खा रहा है और कहां दुपहरी में खेलते खेलते सो गया। इस कदर का विश्वास था। स्कूल पास किए किसी के हिस्से में बनारस तो किसी के हिस्से में हजारीबाग आया। कुछ बच्चे ऐसे भी थे जिन्हें उस शहर से बाहर निकलने का मौका नहीं मिला। यो वे वहीं के हो कर रह गए।
बच्चे बड़े हो ही रहे थे। अब काॅलेज भी पास कर गए। शादियां का दौर शुरू हुआ। शादी किसी भी घर में हो न्योता पूरे मुहल्ले को मिलता। बच्चे तो बिन न्योते के ही आमंत्रित होते। सुबह से लेकर रात तक शादी के घर के चक्कर काटा करते। रजाई, गद्दे, चैकी सब घरों में आवा जाही किया करतीं। बरतन तो जाहिरानातौर पर घरों में घुमा करते थे।
अब इस मुहल्ले को वह दौर भी देखना था जब बरतन बजने शुरू हुए। अब वह अपनापा कम सा होने लगा। बातें छुपाई जाने लगीं। बहु खुल्ले बाल में घूमती है। फलां का बेटा वापस घर देर से आता है। काम भी छूट गया है। जैसी बातें मिर्च मसाले के साथ मुहल्ले की गलियों मंे तैरने लगीं।
जिस मुहल्ले से जवानी देखी थी। जच्चगी से गुजरा था अब उसे बुढ़ापे की ओर भी जाना था। वही मुहल्ला है जहां अब या तो घर बिक गए। कोई और रहने लगा। बेटा दूसरे शहर में बस गया। शरीर साथ नहीं देता। घर ढन्नढना रहा है। ऐसे में ताले लगने शुरू हुए। साल मंे एक दो बाद कुछ हप्तों के लिए लोग लौटते। जवान सखियां बुढ़ी हो चुली थीं। सालों गुजरने लगे एक दूसरे से न मिले। जब दिल्ली जैसे महानगर में बेटों के घर सखियां रहने लगीं तो मिलने की चाह होने के बावजूद भी मिल नहीं पातीं। बेटों के अपने दरकार थे।
...और इस तरह से गुलजार मुहल्ला वृद्ध ग्राम,गली में तब्दील होता गया। वह मुहल्ला अब भी याद आता है।

Friday, July 8, 2016

रचना का भूगोल


कौशलेंद्र प्रपन्न
जब भी कोई कवि कविता व कहानी लिखता है तब उसकी रचना में भूगोल साफ नजर आती हैं। यदि कवि अपनी रचना का भूगोल नहीं बना पाया तो एक अर्थ में वह कविता शायद पाठकों को अपनी ओर न लुभा पाए। बड़े से बड़े कवियों की रचनाओं में एक ख़ास भूगोल तो हुआ ही करता है। यदि राजेश जोशी जी की कविता पढ़ें या मंगलेश डबराल या फिर विष्णु नागर की इन कवियों की खासियत ही यही है कि जब ये कविता लिख रहे होते हैं तब उसमें एक भूगोल भी रचा जा रहा होता है। कहीं किसी की कविता मंे पहाड़,जंगल, जमीन,परती जमीन वंचितों की आवाज केा जगह मिलती है तो कहीं दंगे के बाद के मंजर को भूगोल में जगह मिलती है। इतना ही नहीं, बल्कि इनकी कविताएं भूगोल के साथ ही वर्तमान चुनौतियों और राजनीतिक चैहद्दी भी बनाया करती हैं। यही वजह है कि जब हम राजेश जोशी की कविता दंगे के बाद को पढ़ते हैं तो लगता है यह आज की ही किसी दंगे के बाद की बात की जा रही है। ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ पढ़ते वक्त लगता है कि यह बात भी इसी सदी, इसी समाज की तो की जा रही हैं। वहीं जब हम अज्ञेय की कविता संाप को पढ़ते हैं तो आज का समाज और नागर समाज के दोमुंहेपन से भी हम रू ब रू होते हैं। सच्चे अर्थाें में कवि अपनी रचनाओं में वत्र्तमान को तो जिंदा रखता ही है साथ ही आने वाले उजले दिनों के लिए एक रोशनदान भी छोड़ जाता है। आज की कविताएं और कविताओं का भूगोल बहुत तेजी से बदला है, बल्कि बदल रहा है। जिस तेजी से कविताओं के परिदृश्य बदले हैं उसी रफ्तार से कविताओं के सरोकार भी बदले हैं। हालांकि हर काल मंे रस रंग, प्रेम, शृंगार की कविताएं लिखी गईं हैं। तो साथ ही जायसी,कबीर जैसे विरोध के स्वर को बुलंद करने वाले गैर चारणीय कवियों ने बड़ी ही मजबूती से कविता के सार्वकालिक और सार्वदेशिक दरकारों को आगे बढ़ाया है। एक ओर चांद का मुंह टेढ़ा है, असाध्य वीणा, राम की शक्ति पूजा आदि लिखी जा रही थी तो उसी के समानांतर सरोकारी कविताओं की सृजना भी हो रही थी।
जैसे जैसे तकनीक का विकास हुआ है वैसे वैसे हमारी कविता भी सोशल मीडिया पर रची जाने लगीं। गैर जमीनी यानी वर्चुवल स्पेस में लिखी जाने वाली कविताएं व रचनाएं संभव है आज लिखी गईं, उन्हें पसंद करने वालों ने पंसद के बटन भी दबाए और आगे बढ़ गए। लेकिन अगले दिन उसे भूल जाते हैं। यहां पाठकों की भी कोई ख़ास गलती इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्हें हर पल, हर घड़ी दसियों पंक्तियां पढ़ने को मिल रही हैं। पिंट रिच वातावरण तो बना ही है जहां हजारों की संख्या में हिन्दी व गैर हिन्दी भाषा में साहित्य लिखे जा रहे हैं। यह एक सुखद बात है कि कम से कम लोग चुप नहीं बैठ गए हैं। बल्कि जिसके पास जो साधन है उसी के मार्फत लिखने और प्रसारित करने से परहेज नहीं करते। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि क्या हम देखने को पढ़ना मानें? क्या हथेलियों पर स्क्रीन को सरकाते हम वास्तव में पढ़ते हैं या बस कंटेंट देखकर लाइक बटन दबा कर आगे निकल जाते हैं। विभिन्न तरह के सोशल स्पेस में लिखी जाने वाली कविताएं और कहानियों की बात करें तो कविताओं की बढ़त साफ दिखाई देती है। इन सोशल स्पेस में रची जाने वाली कविताओं की दुनिया भी बड़ी ही एक रेखीय ही है। जिन्हें उस स्पेस के बारे में जानकारी है वो तो देख-पढ़ पाते हैं बाकी सब शून्य।
कई बार यह सवाल उठाया जा चुका है कि कविता और कहानी के पाठक कम हो रहे हैं। दूसरे शब्दांे मंे कहें तो पाठकों की कमी का रूदन अक्सर सुनने मंे आता है। लेकिन फिर एक सवाल बड़ा ही दिलचस्प उठता है कि जब पाठक ही नहीं हैं तो कवि या लेखक किसके लिए लिख रहे हैं। कौन है जो किताबें खरीद रहा है? कोई है समाज में जिसे किताबों से आज भी मुहब्बत है। वरना प्रकाशक हजारों की संख्या में किताबें क्यों छाप रहे हैं। इस ओर जब नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि लेखक,कवि, कथाकार लगातार विभिन्न विधाओं में लिख पढ़ रहे हैं और उनके पाठक भी हैं। यह एक उत्साह का विषय होना चाहिए। पिछले दिनों जिन प्रमुख किताबों पर देश भर में विमर्शकारों ने चर्चाएं कीं और उनकी नजर से किताबें पढ़ने योग्य लगीं उनपर नजर दौड़ाएं तो उनमें कथा, कविता एवं गैर कथा विधायी किताबें अपनी कथानक की वजह से पाठकों को लुभाने मंे सफल रहीं।
कहानी कविता लेखन की कार्यशालाएं देश भर में विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं समय समय पर आयोजित करती हैं जिसमें युवा कथाकारों व कवियों को दो या तीन दिन तक विभिन्न सत्रों में इस विधा में कैसे लिखी जाए इसकी बारीक प्रकृति से रू ब रू कराया जाता है। इस तर्ज पर यदि आलोचना व समीक्षा की बात करें तो आलोचना व समीक्षा विधा को लेकर बेहद कम कार्यशालाएं होती हैं। जबकि कायदे से इस विधा को बचाए रखने के लिए अकादमी, साहित्यिक संस्थाओं को योजना बनानी चाहिए।यदि रणनीति व योजना नहीं बनाई तो वह दिन दूर नहीं जब समीक्षा व आलोचना का भूगोल लगभग खाली हो जाएगा या फिर बेहद दलदली जमीन हो जाएगी। हमें तथाकथित समीक्षकों आलोचकों से वर्तमान समीक्षा को बचाने की भी आवश्यकता है। कथा- कहानी और कविता की भूमि बेहद सक्रिय है। जिस तदाद में कविताएं, कहानियां लिखी और छप रही हैं उसके अनुपात में गद्य की अन्य विधाओं मंे गति थोड़ी धीमी है। जब हम रिपोतार्ज, यात्रा वृत्तांत, रेखाचित्र आदि किताबें तलाशते हैं तब हमें निराशा होती है। संभव है इस विधा में लेखकों की रूचि कम हो गई हो। हालांकि प्रताप सहगल की लेखनी कम से कम यात्रा वृत्तांत में सक्रिय है। यदि रेखाचित्र और रिपोतार्ज के भूगोल पर नजर डालें तो सूखा नजर आता है। जबकि गद्य की हर विधा का अपना आस्वाद है। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जो किताबें छप रही हैं उसका सामाजिक सरोकार कितना है? उस किताब की पठनीयता और उपादेयता कितनी है आदि भी परखना होगा। किताबें भी जिस आनन फानन में छपती और बाजार से नदारत हो जाती हैं यह एक अलग अंधेरे की ओर इशारा करता है। सौ, पचास प्रति छपने वाली किताबें अमूमन लेखक की प्रति भर ही होती हैं जिसे लेखक अपने दोस्तों, परिचितों और कुछ परिचित अखबारी,पत्रिकाओं के संपादकों को भेज दिया करते हैं। यदि कहीं छोटी सी भी परिचयात्मक समीक्षा छप गई तो लेखक अपने आपको धन्य मानता है। यहां तो रातों रात लेखक बनाए और बेचे जाते हैं। लेखकीय बाजार बनाने में कई बार प्रकाशकों की भी अहम भूमिका होती है। प्रकाशक अपनी किताब यानी उत्पाद को खपाने के लिए कई तरह के रास्ते अपनाता है। यदि हम आलोचना की बात करते हैं तो यह अतिश्योक्ति ही कही जाएगी। क्योंकि आलोचना व समीक्षा की परंपरा काफी हद तक परिचय में सिमट गई है। इन दिनों जिस तरह की आलोचना,समीक्षा, समालोचना आदि दिखाई दे रही हैं उसे देख कर लगता है कि समीक्षा कम बस खानापूर्ति ही हो रही है। हम जानते हैं कि अंतोत्गत्वा पुस्तकीय सामग्री समालोचना कर्म से गहरे संबंध रखती है। आज की तारीख में पुस्तकीय आलोचना व समीक्षा अख़बारों मंे परिचयनुमा ही छपा करती हैं।





Wednesday, July 6, 2016

स्कूल खुल गए, पर बच्चे नदारत


कौशलेंद्र प्रपन्न
स्कूल खुल गए। शिक्षक स्कूलों को लौट गए। मगर बच्चे! बच्चे अभी भी घरों में हैं। उनके लिए शायद छुट्टियां खत्म नहीं हुईं। शायद स्कूल उन्हें नहीं लुभा रहे हैं। शायद बच्चों को स्कूलों में ऐसी कोई चीज नहीं दिखाई दे रही हैं जिसके लिए वे स्कूलों की ओर भागंे। इन दिनों सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से बातचीत हुई। उनका कहना था कि दो तीन बच्चे उनकी क्लास मंे हैं। पूरे स्कूल में मुश्किल से पंद्रह और बीस बच्चे ही आए हैं। अब सवाल यह उठना स्वभाविक है कि क्या यही स्थिति निजी स्कूलों मंे भी है? क्या वहां भी बच्चे स्कूल से नदारत हैं। क्या अभिभावक बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे हैं आदि। मगर हकीकत यह है कि निजी स्कूलों में स्कूल खुलने से पहले ही बच्चों ने तैयारियां कर लीं। स्कूल खुले नहीं कि बच्चों को उनके अभिभावकों ने भेजना शुरू कर दिया। इसके पीछे कारण कई हैं। पहला तो यही कि वहां ली जाने वाली फीस,प्रबंधन,अनुशासन ऐसा है कि क्या बच्चे और क्या अभिभावक सभी तत्परता से बच्चों को स्कूल भेजते हैं। यदि इस नजर से सरकारी स्कूलों और अभिभावकों को देखें तो एक आलस्य,गैर जिम्मेदाराना बरताव नजर आएगा। अभिभावकों को अपने काम से समय नहीं मिलता दूसरा उन्हें मालूम है स्कूल में पहले दूसरे तीसरे दिन पढ़ाई नहीं होगी। बच्चे गांव गए हांेगे आदि। और काफी हद तक यह सच्चाई भी है कि बच्चों गर्मी की छुट्टियों मंे अपने गांव चले जाते हैं। कुछ बच्चे अपने मां-बाप के साथ खेतों मंे काम पर लग जाते हैं।
शिक्षा की हालत को सुधारने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कई सारे कदम उठाए जा रहे हैं। सरकारी स्तर पर बात की जाए तो तमाम योजनाएं, नीतियां, आयोगों का गठन किया गया। मकसद यही रहा कि शिक्षा में गुणवत्ता और बच्चे स्कूली शिक्षा हासिल कर सकें। लेकिन फिर क्या वजह है कि बच्चे स्कूल से बाहर हैं? क्या कारण है कि जो बच्चे स्कूल आते हैं उन्हें अपनी आयु और कक्षानुरूप भाषा एवं अन्य विषयों की दक्षता नहीं मिल पाती। कारणों की तह में जाएं तो कुछ शैक्षिक चुनौतियां हैं तो कुछ प्रशासनिक। शैक्षिक स्तर पर हम पाते हैं कि नीतियां तो बना ली जाती हैं लेकिन उसके क्रियान्वयन में अड़चनें आती हैं। मसलन आरटीई 2009 के अनुसार किसी भी बच्चे को फेल नहीं किया जाना। हर बच्चे को अगली कक्षा में धकेल दिया जाना। शिक्षकों के अनुभव बताते हैं कि इस वजह से बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक और गंभीरता कम हो गई। बच्चे स्पष्ट कहते हैं मास्टर जी फेल नहीं कर सकते। यह डर क्या शिक्षा का था या फिर फेल होने का? हमें तो शिक्षा तमाम किस्म के डर से मुक्त करने वाली होती है। वह जीवन के किसी भी हिस्से का डर क्यों न हो। मगर गौर से विमर्श करें तो शिक्षा अपनी उस प्रकृति को छोड़ चुकी है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि शिक्षा की प्रकृति को किस किस स्तर पर खरोचों का सामना करना पड़ा है। शैक्षिक इतिहास पर नजर डालें तो हर आयोग, समितियों ने अपने अपने तरीके से शिक्षा को गढ़ने और ढाहने के प्रयास किए हैं।
नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार है। इससे पूर्व राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000 पर भगवाकरण का आरोप मुखर था। वह बिलावजह भी नहीं था। उसको 2005 में ठीक करने की कोशिश की गई। अब सवाल यह उठने लगा कि 1986 में बनी शिक्षा नीति को पुनर्निर्मित करने की आवश्यकता है। राजनीति और रणनीतिकारों ने हमेशा ही शिक्षा नीति, पाठ्यचर्या,पाठ्यपुस्तकों में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को शामिल करते रहे हैं। यही वजह है कि पाठ्यपुस्तकें वैचारिक डोली को ढोनी वाली बना दी गई। वह राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो या फिर उत्तर प्रदेश आदि इन राज्यों के पाठ्यपुस्तकों में वैचारिक सेंधमारी देखी जा सकती है।
शिक्षा दरअसल किसके लिए है? इसे पाने वाला कौन है? इसपर विचार करने की आवश्यकता है। यदि बच्चों तक शिक्षा नहीं पहुंच पा रही है तो इसका अर्थ यह भी निकलता है कि हम या तो पहुंचाना नहीं चाहते या फिर समिति वर्ग को ही शिक्षा के घेरे में खड़ा करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षा सार्वजनिक मूल अधिकार न होकर ख़ास के लिए है। ख़ास लोगों, वर्गों तक यदि शिक्षा सिमट जाएगी तब समाज का विकास भी एकरेखीए ही माना जाएगा।
जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं क्या उन्हें उनके स्तर के अनुसार सीखने का प्रतिशत भी बढ़ा है या वह फिसलन भर है इसपर भी विचार करने की आवश्यकता है। सरकारी और गैर सरकारी शोध रिपोर्ट मसलन डाईस फ्लैस रिपोर्ट, नूपा और प्रथम की रिपोर्ट कई सालों ने आगाह कर रही हैं कि बच्चों में भाषा, गणित, विज्ञान आदि की समझ और कौशल उनके कक्षा के स्तर के अनुरूप नहीं है। कक्षा पांचवीं व छह में पढ़ने वाले बच्चे सामान्य वाक्य नहीं पढ़ पाते। पढ़कर समझने वाले बच्चों का प्रतिशत तो और भी कम है। यहां सवाल उठता है कि क्या हम सिर्फ दाखलों के आंकड़ों में उछाल दिखाना चाहते हैं या फिर बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा भी देना चाहते हैं। हाल में शिक्षकों की शैक्षिक समझ और कौशलों को विकसित करने के लिए केंद्र और दिल्ली राज्य शिक्षा मंत्रालय ने प्रयास किए हैं ताकि शैक्षिक स्तर को सुधारा जा सके। कंद्र सरकार की ओर शुरू की गई मंडलीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों के शिक्षकों की स्कील विकास किया जाए। ठीक उसी तरह शिक्षकों की शैक्षिक दक्षता विकास के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है। इस योजना के तहत दिल्ली के टीजीटी और प्रधानाचार्यों का चयन किया गया है जिन्हें अन्य शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान करना है। उन्हें कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड आदि विश्वविद्यालयों मंे भेजा जाएगा ताकि वे अपनी दक्षता को मांज सकें। आरटीई भी इस ओर हमारा ध्यान खींचती है कि स्कूलों मंे शिक्षक प्रशिक्षित हों। लेकिन अफसोनाक हकीकत यह है कि आज भी देश के विभिन्न राज्यों मंे शिक्षा जैसे अहम प्रोफेशन में गैर शिक्षित स्नातकों से काम चलाया जा रहा है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...