जो रचेगा वो कैसे बचेगा श्रीकांत वर्मा की इन पंक्ति उधर ले कर कुछ कहना चाहता हूँ। पिछले दिनों न्यू देल्ली के इंडिया habitat सेंटर में इक विचार विमर्श हुवा. विषय था- 'मीडिया में साहित्य की कम होती जगह' कई नामी लोग इस मंच से अपनी मन की भड़ास निकल कर अपने अपने घर को चले गए। सवाल यह है कि क्या वास्तव में साहित्य सेवा से समाज या कि रचनाकार का क्या काय कल्प हुवा है? जवाब है बेहद कम। अगर रचनाकार का भला होता तो क्या कारन है कि अमरकांत को अपनी मेडल या अन्य पुरस्कार बेचने की घोषणा करनी पड़ी। नागार्जुन, त्रिलोचन या निराला को साहित्य रचना के बल पर बेहतर ज़िन्दगी मिल सकी। निराला जिस ने तो सरोज स्मृति लिख कर अपनी मन की भावना रख दी। वहीँ अमरकांत को बुढ़ापे में दवा के लिए अपनी तमाम रचना को नीलाम करने की स्थिति का सामना करना पद रहा है। आखिर इक रचना किसे किसे रूप में साहित्यकार से मूल्य लेती है।
याद करने प्रेमचंद को घर की तमाम बर्तन बासन बेचने की स्थिति का मुह देखना पड़ा। साहित्य वास्तव में रोटी तो दे सकती है मगर दवा पानी सुरक्षा आदि में असमर्थ होती है। कई बार लगता है साहित्य कठोर हकीकत से पलायन का इक रास्ता है। कविता, कहानी लिख कर खुद पढ़े , दोस्तों को पढाये जुगाड़ दुरुस्त है तो कई जगह समीक्षा छपा ली। पुरस्कार मिल जाये इसके पीछे नहा धो कर पिल गए। अगर सफल हुए तो चर्चा होगी वर्ना आपकी किताब कहीं धुल फाक रही होगी।
आज साहित्य की ज़ुरूरत किसे है? इस पर भी सोचना होगा। साहित्य पढने वाले या तो कॉलेज , विश्वविद्यालय के छात्र- अध्यापक रह गए हैं या शोधकर्ता जिनको मजबूरन रूबरू होना पड़ता है। इसके अलावे ज़रा नज़र उठा कर देखें कितने हैं जो अख़बार , पत्रिका के बाद साहित्य पढ़ते हैं। संख्या कम है। आज साहित्य किसी को मानसिक शांति तो दे सकती है मगर दो जून की रोटी मुश्किल है। साहित्य पढने वाले को आज के ज़माने में पिछड़ा हुवा ही मानते हैं। आप माने या नकार दें आपकी मर्जी लेकिन सच है कि साहित्य वही पढता है जिसके पास अराफात समय है।
मीडिया दरअसल आज के ज़माने की मांग और चुनौतयों को कुबूल करता बाज़ार की धरकन सुनता है। इसलिए यहाँ साहित्य से कहीं ज़यादा स्टोरी चलती है। वह स्टोरी जो दर्शक जुटाए, टीआरपी दिलाये। जो साहित्य नहीं दिला सकती। सेक्स , धोखा और सिनेमा वो दम है जो मीडिया को बाज़ार में टिके रहने की ज़मीन मुहैया कराती है। फिर साहित्य कैसे ब्रेअकिंग न्यूज़ बन सकती है। जब कोई विवाद खड़ा होता है या कि किसी नामी साहित्य कार रुक्षत तब कुछ देर के लिए न्यूज़ आइटम बन पाते हैं साहित्यकार। वर्ना पूरी ज़िन्दगी लिखत पढ्त जीवन काट देते हैं आज की मांग है कोर्से या किताब वही सफल जो जॉब दिलायु हो । वर्ना लिब्ररी में किताबें पाठक को देखने को लालायेत रहती हैं। कोई पन्ना पलटने वाला नहीं मिलता। टेक्स्ट बुक तो मज़बूरी में पढ़ी जाती हैं क्योकी यह सीधी सीधी परीक्षा से वास्ता रखता है।
साहित्य को टेक्स्ट बुक की तरह बन्दिय जाये तो इसके भी पाठक मिल जायेंगे। इससे कहीं ज़यादा ज़रूरी यह है कि साहित्य जो ज़िन्दगी से वास्ता रखने का मादा रखता हो तब साहित्य हम से जुड़ जाएगी।
1 comment:
साहित्य किसी को मानसिक शांति तो दे सकती है मगर दो जून की रोटी मुश्किल है....यह हर काल का सत्य है.
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