शास्त्र का मलमूत्र , धो रहे रहे हम, कहा हिंदी के इक वरिष्ट लेखक, कथाकार और हंस के संपादक ने । अवसर था इक बुक के लोकार्पण का। यादव ने कहा, ' शारीरिक और भौतिक मलमूत्र से कहीं ज़यादा हम शास्त्रों का मलमूत्र धो रहे हैं। ' ज़रा विचार करने की बात है कि आधुनिक और प्रयोगवादी, प्रगतिशील विचार के कहलाने के लिए और समय समय पर अपनी पहचान बांये रखने के लिए क्या इस तरह के बयां दिन ज़रूरी होता है? यूँ तो साहित्य को गलियाने में किसी का क्या जाता है। यह किसी कि न तो जोरू है न ज़मीन, फिर कोण सर दर्द ले। जिसे जो मन करता है साहित्य को कह देता है। जब कि लोग उसी की रोटी खा रहे होते हैं।
यहाँ मामला साहित्य से निकल कर शास्त्र तक पंहुचा है। यानि हमारे तमाम शास्त्र आज तक मलमूत्र ही विसर्जित करते रहे हैं। और हम हैं कि उसी के तहर पर बैठ कर शादी, मरनी, वचन आदि खाते आये हैं। हमारा न्याय मंदिर टट्टी के ढूह पर हाथ रख कर कसम खिलाता है -
'जो कुछ भी कहूँगा सच कहूँगा......' क्या यह संविधान का मजाक उड़ना नहीं है ?
रामायण, महाभारत , गीता आदि आप्त ग्रंथों को कुछ दीर के लिए महज साहित्य मानकर चलें तो भी यह साहित्य के साथ न्याय नहीं कहा जायेगा। यह तो मीमांशा उचित नहीं कह सकते। इससे पहले पन्त के साहित्य को कूड़ा कहा गया था। तब कोई और मुह था। आज कोई और। मुह बदल सकते हैं लेकिन अपमान जिस हुवा उसे तो वापस नहीं किया जा सकता।
लिखे हुवे शब्द की सत्ता हमारे पहले से चली आ रही है... शायद हमारे बाद भी शब्द रह जाएँ, शब्द मरते नहीं। शब्द से पहले हम अक्षर पर विचार करें तो पाते हैं - 'न क्ष्रम टी अक्षरम' जिसका नाश नहीं होता वही अक्षरम होता है। ईश्वरवादी इसीलिए उस ब्रम्हा, तत्वा के लिए अक्षर नाम भी दिया है। शब्द शास्वत होते हैं। उस शास्वत शब्द से रची कृति मलमूत्र तो नहीं हो सकती हाँ कम महत्वा कि हो सकती है।
'शब्द इवा ब्रम्ह:' इसका अर्थ किसी सर्वशक्तिमान सत्ता से न ले कर यदि लौकिक अर्थ ही लें तो होगा- शब्द के उचित प्रयोग से हमें धन, समृधि, मान , सब कुछ तो मिलता है। फिर शब्द मलमूत्र को धोने वाले कैसे हो सकते हैं।
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