जय और थरूर दोनों बडबोले यानि मरे बिन सोच के बोलने वाले। कबीर ने कहा था , बोलने से पहले परख कर ही बोले। वही समझदार है। वो क्या जो ठोकर खा कर सीखे। वाणी होती ही है इतनी मारक कि इक शब्द किसी को सुख दिला देती है तो वही इक शब्द जूता भी खिलाती है। इक शब्द ने दशरथ की जीवन लीला ख़त्म कर दी। वहीँ इक शब्द इन्सान को कहाँ से कहाँ बैठा देता है।
जय राम रमेश को क्या ज़रूरत थी दुसरे की मिनिस्ट्री में घुसने की। मगर हम आदतों से लचर होते हैं। अपने घर में झाकने की बजाये दुसरे की काम, घर में तक झक करना अच लगता है। ब्रितिब्रिन्जल मामले में देख लें यही मुख है जिसने पत्रकारों को कहा था , अपने दिमाग का इलाज कराये। और भी इस तरह के शब्द तीर जय राम ने चलाये थे। उधर थरूर साहब भी कभी गोरु डंगर कहा तो कभी नहरू की चाइना निति की आलोचना की। समझने के बाद भी नहीं मने तो आखिर में कमान ने नाप दिया।
राजनीती हो या आम जीवन सोच के बोलने वाले कहीं मात नहीं खाते । जिसने भी शब्द के साथ बद्तामाजी की उसे उसका परिणाम भुगतना पड़ा है।
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...
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