हम बच्चों की नहीं सुनते. उनकी बात को बच्चों की बात मान कर दरकिनार कर देते हैं. जबकि सुनने की आदत बच्चे हमीं से सीखते हैं सुनने की आदत. लेकिन जब वो खुद देखते हैं की हमीं सुनना नहीं बल्किन केवल बोलना चाहते हैं तो बच्चे वाही सीखते हैं.
बोलना भी कला है तो सुनना भी कोई कम धैर्य की और कला नहीं है. सुनना दरअसल बोलने की लिए अछि पाठशाला है. जो सुनने में बैचैनियत महसूस करते हैं वो बेहतर बोलने वाले नहीं हो सकते.
बोलने की लिए पठन और मनन बेहद जरुरी है. जो भी बेहतरीन वक्ता हुवे हैं उनसे बोलने की कला सीखी जा सकती है. किस तरह से रोचक और सारगर्भित बनाएं यह पढने और सुनने से सीखी जा सकती है.
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