यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Sunday, May 30, 2010
खाप की थाप सुन रहे हो मुन्ना? गोत्र के कूप में गिर रहे हैं हम
पुरे गावों जेवार में उनकी नाक उची हो गई। और उनके बेतवा के लिए रिश्ता इक बड़ी ही मालदार घर से आई है। किसी ने आवाज तक नहीं उठाई कि बेटी के हत्यारे हैं। कल को बहु को भी वही हस्र कर सकते हैं जो बेटी को किया। इनको बेटा चाहिए छये कुछ भी हो जाये। आज कल सुनने में आया है बेटी को स्कूल भी जाने से मन कर दिया गया है। गावों के तमाम लड़कियां घर बैठ गई हैं। लेकिन बहु पढ़ी लिखी की मांग करते हैं। मुन्ना ये तो साफ ज्यादती है। तुम कुछ नहीं बोलते क्या? तुम तो ओज्फोर्ड से पढ़ कर आये हो जी। तुम से उम्मीद लगा रखें हैं। मगर सुना है तुम भी उनकी ही हाँ में हाँ मिला रहे हो। लोग तो यह भी कह रहे हैं कि तुम वोट की खातिर यह सब कर रहे हो। का ई सच है ?
जब पढ़े लिखे लोग जवान खून भी पुराणी जर्जर और बुरी रीति की प्रशंसा करेंगे तो फिर गावों तो गावों शहर भी इससे बच नहीं पायेगा। कल्पना चावला, उषा , चाँद कोचर जैसे बेहतरीन महिला समाज को किसे मिल पाएगीं? कभी सोचा था कि अपने भतीजे की शादी मैं अपनी पड़ोस की उस लड़की के करायुन्गा जो बेहद ही शालीन और पढ़ी लिखी है मगर है नीची जाती की। मगर अब यह भी खाब ख्याब ही रह जायेगा। तुम्हारे गावों में तो मुझे घुसने भी नहीं देंगे। शादी किये मुझे तक़रीबन १५ साल हो गए। तब गावों भी पीछे धकेल आया था। मैं तेरी भाभी को किसे भी हाल में नहीं अलग कर सकता था सो हमने साथ रहने का वचन लिया। तुम तब छोटे थे। तेरी माँ ने हमें अपने पीहर में पनाह दी थी। जिसका परिणाम नुको अपनी जान से हाथ धो कर हमारी जान की रक्षा करनी पड़ी।
मैं अपनी भाभी का कर्ज दार हूँ। मैं उनके बेटे का घर यूँ उजड़ने नहीं दूंगा। तुम को जब भी मेरी मदद की जरुरत हो बेहिक आ जाना। गावों में रह कर न तुम बच सकते और न ही तेरे साथ की दोस्त ही। १६ सालों में बेशक दुनिया बदल गई हो। गावों में सड़क , बिजली पानी , टीवी और फोन आगये हों लेकिन लोगों को अभी भी उसी खोह में रहना भाता है। प्यार करना या अपने पसंद की लड़की को जीवन साथी बनाना सबसे संगीन जुर्म लगता है।
मैं अपना प्यारा भतीजा नहीं खोना चाहता। माँ जैसी भाभी नहीं खोना चाहता।
तुम्हारा
चाचू
Thursday, May 27, 2010
आई हेत यू वैरी मच
भाषा इसी को तो कहते हैं कि जिस शब्द के मतलब हमने निश्चित कर लेते हैं वही अर्थ सदियों तक चलते रहते हैं। धीरे धीरे वही अर्थ रुद्ध हो जाते हैं। कमल नाम सुनते ही हमारे दिमाग में इक खास किस्म का फूल आता है यही तो बिम्ब व् प्रतीक कहलाता है। शब्द इसी तरह हमारे आस पास बनते बिगड़ते रहते हैं। मिट्ठे गढ़ते रहते हैं। यही शब्द हमारे संस्कार में शामिल हो जाते हैं।
भाव के बिना बोले शब्द निरा ध्वनि मात्र होते हैं। लेकिन जब वही हमारे अनुभव से पग कर निकलते हैं तब मन उन्ही शब्दों को सुन कर मयूर सा नाच उठता है। यही तो शब्दों का जादू कहलाता है। वर्ना कई शब्द तो जैसे कोड़े से लगते हैं। कानों में पीड़ा पहुचाते हैं। वहीँ कुछ शब्द यैसे भी होते है जिन्हें सुन कर आप दिन भर मस्त रहते हैं। यूँ तो शब्द अपने आप में कोई मायने नहीं रखते लेकिन जब हमारी ज़िन्दगी की कोई खास पल को उकरते हैं तो वही शब्द हमारे लिए ख़ुशी के सबब बन जाते हैं।
Wednesday, May 26, 2010
कितने राठोर
कितने राठोर हमारे आस पास घूमते रहते हैं। सीना फुला कर गोया कह रहे हों मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा। मगर आपने जो भी भूत में किया वो आपके पीछे पीछे चली ही आती है। देखिये, राठोर ने कभी सोचा होगा कि १९९० की बात २० साल बाद उनके गले पद जाएगी। आडवानी व् उनके साथ राम मंदिर की तमन्ना लिए बाबरी मस्जीद को ख़ाक में मिलते समय सोचा होगा कि उनपर इतने सालों के बाद केश भी खुल सकता है। लेकिन सच है कि कभी न कभी हमारे अतीत वर्तमान में रोड़े अटकाते हैं तब लगता है हमने क्या गलती की जिसकी सज़ा मिल रही है।
हमारे समाज में कई सारे राठोर हैं खुलम खुल्ला खेल खेलते हैं। उनके मनोबल इतने बढ़ जाते हैं कि कानून को अपने घर की दाई समझने की भूल कर बैठते हैं। इन्द्र गाँधी की हत्या के बाद देल्ली में किस कदर सिखों पर जुल्म किये गए क्या इसे कोई भुलाये भूल सकता है। पूरे देश में सिखों पर जैसे हज़ारों यमराज इक समय में हमला बोल दिया हो। लोगों ने जम कर लूट पात किया। सिखों ने बाल काट डाले। हिन्दू होने का हमने क्या ही लाज़वाब परिचय दिया। सज्जन कुमार या तित्लर तो इक आध चेहरे थे जिनको आज की तारीख में किये का फल मिल रहा है। मगर उन हज़ारों चेहरे को कैसे पहचान किया जाये।
राठोर, कसाब या यैसे ही कई नाम हो सकते हैं, नाम बेशक बदल जायेगे लेकिन उनकी करतूतों में कोई कमी नहीं आ सकती। इस लिए हमने यैसे चेहरे को समाज के सामने बे नकाब करना होगा। उनके हौसले तोड़ने होगें तब संभव है समाज में महिलायों को शायद सुरक्षा दिला सकें।
कर्म हमने किया तो भोगना होगा
हमारे कर्म हमारे साथ चलते हैं। चाहे लोक में इसके उद्धरण देखें या अन्य पर लेकिन कर्म अपना रंग दिखाता है। हमने यदि म्हणत की है तो वह इक न इक दिन अपना रंग लायेगा ही। दो भाई व् बहन इक घर में पल बढ़ कर समाज में अपनी जगह बनाते है। दोनों के कर्म और परिश्रम काम आता है न ही जिस घर में जन्म लिया। पिता कितने भी धनि , ज्ञानी हों लेकिन यदि उनके बच्चे उनसे नहीं सीखते तो पिता के नाम बस तभी तक साथ होते हैं के फलना के बेटे हैं। देखो , पिता इतना पढ़ा लिखा लेकिन बेटे रोड पर हैं।
कर्म की प्रध्नता कोई भी नकार नहीं सकता । कुछ देर के लिए आप कुबूल न करे लेकिन है तो हकीकत की आप जो कर्म के पेड़ बोते है वही फल आप को मिलता है। यह अलग बात है कि कुछ लोगों को बिना बोये ही आम खाने को मिल जाता है। लेकिन यैसे लोगों की संख्या कम होती है। इसलिए कर्म करने में विश्वास करना बेहतर है न कि भाग्य पर हाथ धर कर।
Thursday, May 20, 2010
भाषा की चमक
भाषा की चमक जी आपने सही सुना भाषा की अपनी चमक भी होती है। भाषा को जितना बोला, लिखा , सुना और पढ़ा जाये उतनी ही हमारी भाषा दुरुस्त और चमकीली होती चली जाती है। वैसे तो हीरानंद सचिद्यानंद अजेय ने कहा था कि बासन को ज़यादा मांजने से मुल्लमा छूट जाता है। इसको भाषा पर उतर कर लोगों ने देखा और कहा कि उसी प्रकार शब्द को ज्यादा प्रयोग से उसकी अथ्त्वाता मधिम पद जाती है। लेकिन मेरा मानना है कि भाषा एसी चीज है जिसे जितना मांजा जाये उसकी चमक और दुगनी हो जाती है।
हम गाली अपनी ज़बान में क्या ही फर्र्रते से देते हैं वही अगर कहा जाये कि इंग्लिश में उसी अधिकार से दें तो शायद हम न दे पायें जब गाली देने में मुश्किल होती है तो कोई इंग्लिश बोलने में कितना हिचकेगा इसका अंदाजा लगा सकते हैं। भाषा को तो जितना बोलो उतना ही सुन्दर और निखरता है । अमिताभ ने इक फिल्म में बोला था- "आई वाक् इंग्लिश, आई ईट इंग्लिश, आई स्लीप इंग्लिश" कितनी गंभीर बात है मगर इसे क्या ही सरल तरीके से गाने में अमिताभ ने गाया। भाषा पर इसे घटा कर देखें तो पाते हैं कि जिसने भी भाषा के साथ इस तरह का रिश्ता कायम कर लिया उसकी भाषा के साथ गहरी छनती है। भाषा डरावनी नहीं होती। और न ही भाषा कठिन होती है। वास्तव में भाषा बेहद ही नाज़ुक , कोमल , और कमसीन होती है। इस के साथ ज़रा भी बेवफाई उम्र भर के लिए दुखद होता है।
भाषा के साथ मुहब्बत करने वाले दुनिया में बेहद ही कम लोग हुवे हैं। जिसने भी भाषा के साथ इलू इलू किया है उसको पूरी दुनिया ने पलकों पर बैठ्या है। गोर्की , प्रेमचंद , प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा ही नहीं बल्कि और भी नाम हैं जिनकी प्रसिधी भाषा पर जबरदस्त पकड़ और कमाल की दोस्ती ने रंग दिखा दिया।
इनदिनों स्कूल की छुट्टियाँ हो गई हैं बच्चे विभिन्न कोर्से में सिखने जा रहे हैंइंग्लिश स्पेअकिंग , पेर्सोनालिटी देवेलोप्मेंट आदि। इंग्लिश बोलने की ललक ने इन बच्चों को गर्मी में भी चैन से बैठने नहीं दिया। हर कोई चाहता है बेधरक र्न्ग्लिश बोले। मगर झिझक है कि बोलने नहीं देती। स्कूल बोलने से मना करता है। माँ पिता बोलने के लिए क्लास में भेजते हैं। मगर यहाँ उनकी ज़बान ही नहीं खुलती। वैसे तो चपर चपर बोल लेंगे लेकिन जब बोलने को कहा जाये तो मौन साध लेंगे। पता नहीं सही बोल पायूँगा या नहीं।
भाषा को आज याद कर परीक्षा में सवाल कर आने तब सीमित कर दिया गया है। वही वजह है कि बोलने में कतराते हैं। परीक्षा बोलने की नहीं होती बल्कि लिखने की होती है। इसलिए लिख कर ९० ९७ फीसदी अंक तो आजाते हैं मगर बोलने को कहा जाये तो गला सूखने लगता है।
भाषा व्याकरण से पहले आती है। व्याकरण भाषा का अनुसरण करती है न कि भाषा व्याकरण के पीछे भागती है। बचपन में बिना व्याकरण का ख्याल किये बोलते हैं जब स्कूल जाना शुरू करते हैं तब व्याकरण सीखते हैं। इसका मतलब यह हुवा कि भाषा व्याकरण की मुहताज नहीं है। भाषा को जितना बोल सकें, सुने उतना ही वह भाषा हमारे करीब आती चली जाती है।
शर्माना छोड़ दाल और भाषा से मुहब्बत कर ले यार। फिर देखना लोग कैसे तेरी तरफ खीचे चले आते हैं।
Wednesday, May 19, 2010
जो रचेगा वो कैसे बचेगा
जो रचेगा वो कैसे बचेगा श्रीकांत वर्मा की इन पंक्ति उधर ले कर कुछ कहना चाहता हूँ। पिछले दिनों न्यू देल्ली के इंडिया habitat सेंटर में इक विचार विमर्श हुवा. विषय था- 'मीडिया में साहित्य की कम होती जगह' कई नामी लोग इस मंच से अपनी मन की भड़ास निकल कर अपने अपने घर को चले गए। सवाल यह है कि क्या वास्तव में साहित्य सेवा से समाज या कि रचनाकार का क्या काय कल्प हुवा है? जवाब है बेहद कम। अगर रचनाकार का भला होता तो क्या कारन है कि अमरकांत को अपनी मेडल या अन्य पुरस्कार बेचने की घोषणा करनी पड़ी। नागार्जुन, त्रिलोचन या निराला को साहित्य रचना के बल पर बेहतर ज़िन्दगी मिल सकी। निराला जिस ने तो सरोज स्मृति लिख कर अपनी मन की भावना रख दी। वहीँ अमरकांत को बुढ़ापे में दवा के लिए अपनी तमाम रचना को नीलाम करने की स्थिति का सामना करना पद रहा है। आखिर इक रचना किसे किसे रूप में साहित्यकार से मूल्य लेती है।
याद करने प्रेमचंद को घर की तमाम बर्तन बासन बेचने की स्थिति का मुह देखना पड़ा। साहित्य वास्तव में रोटी तो दे सकती है मगर दवा पानी सुरक्षा आदि में असमर्थ होती है। कई बार लगता है साहित्य कठोर हकीकत से पलायन का इक रास्ता है। कविता, कहानी लिख कर खुद पढ़े , दोस्तों को पढाये जुगाड़ दुरुस्त है तो कई जगह समीक्षा छपा ली। पुरस्कार मिल जाये इसके पीछे नहा धो कर पिल गए। अगर सफल हुए तो चर्चा होगी वर्ना आपकी किताब कहीं धुल फाक रही होगी।
आज साहित्य की ज़ुरूरत किसे है? इस पर भी सोचना होगा। साहित्य पढने वाले या तो कॉलेज , विश्वविद्यालय के छात्र- अध्यापक रह गए हैं या शोधकर्ता जिनको मजबूरन रूबरू होना पड़ता है। इसके अलावे ज़रा नज़र उठा कर देखें कितने हैं जो अख़बार , पत्रिका के बाद साहित्य पढ़ते हैं। संख्या कम है। आज साहित्य किसी को मानसिक शांति तो दे सकती है मगर दो जून की रोटी मुश्किल है। साहित्य पढने वाले को आज के ज़माने में पिछड़ा हुवा ही मानते हैं। आप माने या नकार दें आपकी मर्जी लेकिन सच है कि साहित्य वही पढता है जिसके पास अराफात समय है।
मीडिया दरअसल आज के ज़माने की मांग और चुनौतयों को कुबूल करता बाज़ार की धरकन सुनता है। इसलिए यहाँ साहित्य से कहीं ज़यादा स्टोरी चलती है। वह स्टोरी जो दर्शक जुटाए, टीआरपी दिलाये। जो साहित्य नहीं दिला सकती। सेक्स , धोखा और सिनेमा वो दम है जो मीडिया को बाज़ार में टिके रहने की ज़मीन मुहैया कराती है। फिर साहित्य कैसे ब्रेअकिंग न्यूज़ बन सकती है। जब कोई विवाद खड़ा होता है या कि किसी नामी साहित्य कार रुक्षत तब कुछ देर के लिए न्यूज़ आइटम बन पाते हैं साहित्यकार। वर्ना पूरी ज़िन्दगी लिखत पढ्त जीवन काट देते हैं आज की मांग है कोर्से या किताब वही सफल जो जॉब दिलायु हो । वर्ना लिब्ररी में किताबें पाठक को देखने को लालायेत रहती हैं। कोई पन्ना पलटने वाला नहीं मिलता। टेक्स्ट बुक तो मज़बूरी में पढ़ी जाती हैं क्योकी यह सीधी सीधी परीक्षा से वास्ता रखता है।
साहित्य को टेक्स्ट बुक की तरह बन्दिय जाये तो इसके भी पाठक मिल जायेंगे। इससे कहीं ज़यादा ज़रूरी यह है कि साहित्य जो ज़िन्दगी से वास्ता रखने का मादा रखता हो तब साहित्य हम से जुड़ जाएगी।
Sunday, May 16, 2010
मकानमालिक की जलन
मकानमालिक की जलन या यूँ कहें कि अगर आप कुछ खरीद कर ला रहे हैं और आपका मकान मालिक देख ले तो आपनी खैर नहीं। वो सोचते हैं किरायेदार को कंजर होते हैं उन्हें फ्रिज, टीवी के इस्तमाल का हुक ही नहीं। किरायेदार हैं तो वो भिखमंगे हैं। उन्हें कभी भी घर से खदेर जा सकता है। इतना ही नहीं मकान मालिक के नखरे और घर खली करने की कई नायब तरीके होते हैं -
घर रेनोवेत करना है, घर में शादी है, बला बला। दरअसल उन्हें ज़यादा किराया चाहिए होता है लेखिन मुह खोल कर नहीं मांगते। मांगते किसे कहेंगे ? लेकिन साहिब किरायेदार तो खानाबदोश होता है। हर समय डेरा डंडा सर पर लेकर चलना होता है।
घर नहीं तो सामान खरीदने का हक़ नहीं। घर नहीं तो कुछ भी नहीं। पहले इन्सान को घर बनाना चाहिए। तब कुछ और काम करे। दिल्ली में गेम होना है मगर हर्जाना स्टुडेंट्स, कम कमाने वाले को भरना होगा। हर चीज महँगी। घर किराये पर लेने चलें तो सर चक्र जाता है। जिस कोठरी का दम १००० रूपये होगें उसकी कीमत ३००० मांगी जाती है। कोई सवाल करने वाला नहीं। उस पर आप को कई सवाल के जबाब देने होंगे - बिहार , पत्रकार , वकील , फॅमिली को जिस हम घर नहीं देते। यानि किराये पर रहना है तो न शादी करें और न सामान रखें। तब मकान मिल सकता है।
जगजीत सिंह का ग़ज़ल है -
हम तो हैं परदेश में देश में निकला होगा चाँद .....
इक अकेला इस शहर में आशियाना धुन्धता है आबुदाना धेन्द्ता है.....
गुलाम अली को याद करने का मन हुवा -
हम तेरे शहर में आये हैं मुसाफिर की तरह....
ग़ज़ल या गीत तो बोहोत हैं मगर इनमे रह नहीं सकते। इक मकान ही चहिये। जो आपके शहर में मुश्किल है। चलो ग़ालिब अब तेरे शहर में जी नहीं लगता। सब के सब सलीब है॥
Saturday, May 15, 2010
रास्ते कहीं नहीं जाते
आज अधिसंख्य के साथ यही त्रासदी है कि उसे चलना तो मालुम है मगर किसे राह जाये यह नहीं पता। इसलिए वह कई बार गलत राह पर, गलत दिशा में अपनी तमाम ऊर्जा जाया करदेता है। ज़रूरी है कि आज के युवा को सफल, कुशल और मंजे हुवे लोगों के द्वारा मार्ग दर्शन मिले। ताकि इक युवा अपनी उर्जा को सही दिशा में अपनी प्रकृति रुझान के अनुसार लक्ष्य निर्धारित कर आगे बढ़ सके।
कई बार माँ बाप या भाई बहन की अदुरी खवाइश को बच्चों के कंधे पर लड़ दिया जाता है जिसे वह पूरी ज़िन्दगी लिए लिए फिरता है। आधे अधूरे मन से मिली मंजिल को पाने में इक युवा अपनी पूरी उर्जा झोक देता है। बेमन , गलत फिल्ड और कई बार तो अपनी चुनी मंजिल को तिलांजलि दे माँ बाप की अधूरी इक्षा को पूरा करता रहता है।
हम राह दिखाने, लक्ष्य निर्धारित करने और विधि चुनने में मदद कर सकते हैं। लेकिन चलने वाला वही राही लक्ष्य तक पहुच पता है जिसने उचित समय पर, अपनी उर्जा की पहचान कर राह पकड़ कर चला करते हैं।
Thursday, May 13, 2010
पहले गली फिर अफ़सोस
बीजेपी प्रेसिडेंट नितिन गर्कारी ने लालू और मुलायम जिस को कांग्रेस और सोनिया गाँधी के तलवे चाटने वाला बताया। मगर जब बात बदती नज़र आई तो कह दिया कि वह तो मुहावरा था। मेरा मकसद किसी को चोट पहुचाना नहीं था। यह तो चलता ही रहता है। खास कर चुनाव के दिनों में इक दुसरे पर कीचड़ उछालना बेहद ही आम बात है। यद् कर सकते हैं मनमोहन जिस को आडवानी जिस ने क्या कहा था और पलट वर में मनमोहन जिस भी कम नहीं कहा। मगर सर्कार बनजाने के बाद दोनों नेता संसद में दोस्त की तरह मिले। दोनों ने ही कहा चुनाव के दौरान जो कुछ भी कहा सुना गया उसे भूल जाया जय।
राजनीती में कहा सुनी तो चलती ही रहती है। कोई इन पर कान देने लगे तो उसका तो हो गया दिमाग ख़राब। इस लिए तोर मोर चोर तो चलता ही रहता है।
Tuesday, May 11, 2010
बिन सोच के बोलने वाले
जय राम रमेश को क्या ज़रूरत थी दुसरे की मिनिस्ट्री में घुसने की। मगर हम आदतों से लचर होते हैं। अपने घर में झाकने की बजाये दुसरे की काम, घर में तक झक करना अच लगता है। ब्रितिब्रिन्जल मामले में देख लें यही मुख है जिसने पत्रकारों को कहा था , अपने दिमाग का इलाज कराये। और भी इस तरह के शब्द तीर जय राम ने चलाये थे। उधर थरूर साहब भी कभी गोरु डंगर कहा तो कभी नहरू की चाइना निति की आलोचना की। समझने के बाद भी नहीं मने तो आखिर में कमान ने नाप दिया।
राजनीती हो या आम जीवन सोच के बोलने वाले कहीं मात नहीं खाते । जिसने भी शब्द के साथ बद्तामाजी की उसे उसका परिणाम भुगतना पड़ा है।
Sunday, May 9, 2010
राधा को भी मरना पड़ता
पत्रकार उस पर लड़की और तो और सुन्दर यानि इक के बाद इक बेहतर का मुलम्मा। उस पर दिल्ली में पढ़ी लाधे से प्यार न हो जाये क्या यह संभव है ? हुवा नम्रता को भी प्यार हुवा। प्यार में क्या कौम और क्या कास्ट। कुछ भी मायने नहीं रखता। अगर कुछ महत्वपूर्ण होता है तो वह है लड़का प्यार करने वाला, सच्चा, नेक दिल इन्सान हो। और निरुपमा का प्यार भी निकल पड़ा। लड़का नीची कास्ट का। लड़की ब्रह्मिन। न तो घर को पसंद न रिश्तदार को। यैसे में माँ बाप पशो पेश में। लड़की जो थी, भावना का इस्तमाल किया गया। निरुपमा को माँ की बीमारी की खबर के बहाने घर बुलाया गया। वहां जो कुछ हुवा सभी जानते हैं।
पिछले दो इक दिनों में मुजफ्फर नगरसे भी येसी ही घटना घटी.
आज राधा कृष्ण होते तो ज़रा कल्पना कर सकते हैं राधा का क्या हस्र होता। या तो राधा पंखे से लटकी मिलती या कहीं खेत में पड़ी रहतीं शिनाख्त के लिए। दूसरी ओर कृष्ण या तो जेल में होते। वैसे भी जेल से यतो उनका गर्भनाल रिश्ता है या ननिहाल फिर उनको ज्यादा परेशनी नहीं होती। लेकिन राधा के बारे में सोच कर दिल भर आता है बेचारी राधा का क्या हाल होता।
आज के माँ बाप प्रेम विवाह के विरोध में यूँ तन गए हैं गोया प्रेम न हुवा किसी का क़त्ल कर दिया हो। दिल इतना कठोर कैसे हो सकता है की अपनी औलाद को अपने ही हाथों मार सकते हैं। रिश्तेदार क्या अपनी औलाद से ज्यादा प्यारी हो जाती है की नाक के लिए क़त्ल कर सकती हैं वाही हाथ जिसने दूध मिलाया हो?
कुछ दिनों से आनर किल्लिंग के नाम पर देश के विभिन्न राज्यों से ख़बरें मिल रही हैं। पहले हरयाणा के खाप समुदाय के लोगों ने प्यार कर के घर बसने की चाह रखने वालों को सरे आम कतला कर दिया गया। या फिर सरपंच ने दोनों को भाई बहन के रूम में रहने के लिए विवश किया। गोया हरयाणा भारत का हिस्सा ही नहीं। वहां संविधान लागु ही नहीं होता। साफ तौर से कार्ट का आदेश है की प्रेम विवाह गलत नहीं है। प्रशासन यैसे जोड़ों को पूरी सुरक्षा देगी। लेकिन जो हुवा वो किसी से छुपा नहीं है।
Friday, May 7, 2010
कितने कसाब
कितने कसाब यह सवाल अपने आप में बड़ा मौजू है। यूँ तो कसाब इक नाम है। हिंदी याकरण के नियम से देखें तो यह व्यक्ति वाचक संजिया है। लेकिन वास्तव में आज कसाब समूह वाचक संजय बन चूका है। बहुवचन कसाब किसी भी देश के लिए घोर खतरा पैदा कर सकते हैं। इक कसाक को सजा य मौत देने से मसला हल नहीं हो सकता। हमें कसाब को पैदा करने वाले उस जमीन को बंजर बनाना होगा। कसाब के मौत की खबर पर पाकिस्तान के अखबार जंग ने लिखा, ' कसाब स्कूल बीच में थप करने वाला लड़का है। वो तो घरसे काम की तलाश में निकला था मगर वो आतंकी संगठन के हाथ में पद गया। जहाँ उसे गन थमा दिया गया। प्रशिशन दिया गया। आज पाकिस्तान की युवा पीढ़ी रोजगार, रोटी दी तलाश में गलत संघटन आतंकी लोगो के हाथ लग जाते हैं। हमें इस तरफ गंभीरता से सोचना होगा।
जंग की शब्दों से पाकिस्तान की युवा पीढ़ी की दर्द और किश्मत, और भविष्य की झलक मिलती है। सच ही है पिछले साल इस बाबत कुछ रिपोर्ट भी आये थे जिसमे कहा गया था कि पाकिस्तान में युवा पीढ़ी के मदर्शे में नै वर्णमाला रटाये जा रहे हैं। जिस में अलिफ़ की जगह आतंक, बे का मायेने बम आदि की तालीम दी जा रही है। ज़रा कल्पना कर के देखें कि जहाँ के युवा इस तरह की तालीम हासिल कर रहे हो वहां किसे तरह की भविष निर्माण हो रहा है। पाकिस्तान की आम जनता को मूल जरूरतों से भटक कर कश्मीर पाने के सपने दिखाना इक तरह से वहां की सियासत और सेना की गहरी चाल है। ताकि आम जनता रोजगार, घर, तालीम जैसे बुनियादी हक़ की मांग को भूल कर कश्मीर पाने के सपने में सोये रहें।
पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों को बखूबी मालूम हो चूका है कि तमाम पुराने मुद्दे बातचीत से ही सुलझी जा सकती है। थिम्पू में दोनों देशों के प्रधनमंत्री मिल कर इक नै पहल की कि रुके हुवो संवाद को आगे बाध्य जाये। गिलानी ने वचन दिया कि हम अपने देश की जमीन का इस्तमाल भारत के खिलाफ आतंक फ़ैलाने के लिए नहीं होने देंगे। और इस बात पर एतबार कर संवाद की रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखा दी गई। अब दोनों देशों के विदेश मंत्री के बीच बातचीत होगी।
आतंक ने दोनों देशों के रिश्ते को लम्बे समय से नुकसान ही पहुच्या है। जब तब वार्ता की गाड़ी डेरेल हुई तो इसके पीछे आतंकी बर्दातें रही हैं। लेकिन इस का खामियाजा तो आम जनता को भुगतना पड़ा है। व्यापारी कामगार और आम जनता अपने दिल को किसी तरह समझाते रहे हैं कि इक दिन दोनों देशों के बीच के फासले मिट जायेंगे ये लोग अपने रिश्तेदारों से मिल सकेंगें। देखिया विभाजन ने किसे तरह दो दिलों, रिश्तों के बीच इक गहरी खाई बना दी। जो ६५ साल बाद भी बार्कर है।
Thursday, May 6, 2010
शास्त्र का मलमूत्र
शास्त्र का मलमूत्र , धो रहे रहे हम, कहा हिंदी के इक वरिष्ट लेखक, कथाकार और हंस के संपादक ने । अवसर था इक बुक के लोकार्पण का। यादव ने कहा, ' शारीरिक और भौतिक मलमूत्र से कहीं ज़यादा हम शास्त्रों का मलमूत्र धो रहे हैं। ' ज़रा विचार करने की बात है कि आधुनिक और प्रयोगवादी, प्रगतिशील विचार के कहलाने के लिए और समय समय पर अपनी पहचान बांये रखने के लिए क्या इस तरह के बयां दिन ज़रूरी होता है? यूँ तो साहित्य को गलियाने में किसी का क्या जाता है। यह किसी कि न तो जोरू है न ज़मीन, फिर कोण सर दर्द ले। जिसे जो मन करता है साहित्य को कह देता है। जब कि लोग उसी की रोटी खा रहे होते हैं।
यहाँ मामला साहित्य से निकल कर शास्त्र तक पंहुचा है। यानि हमारे तमाम शास्त्र आज तक मलमूत्र ही विसर्जित करते रहे हैं। और हम हैं कि उसी के तहर पर बैठ कर शादी, मरनी, वचन आदि खाते आये हैं। हमारा न्याय मंदिर टट्टी के ढूह पर हाथ रख कर कसम खिलाता है -
'जो कुछ भी कहूँगा सच कहूँगा......' क्या यह संविधान का मजाक उड़ना नहीं है ?
रामायण, महाभारत , गीता आदि आप्त ग्रंथों को कुछ दीर के लिए महज साहित्य मानकर चलें तो भी यह साहित्य के साथ न्याय नहीं कहा जायेगा। यह तो मीमांशा उचित नहीं कह सकते। इससे पहले पन्त के साहित्य को कूड़ा कहा गया था। तब कोई और मुह था। आज कोई और। मुह बदल सकते हैं लेकिन अपमान जिस हुवा उसे तो वापस नहीं किया जा सकता।
लिखे हुवे शब्द की सत्ता हमारे पहले से चली आ रही है... शायद हमारे बाद भी शब्द रह जाएँ, शब्द मरते नहीं। शब्द से पहले हम अक्षर पर विचार करें तो पाते हैं - 'न क्ष्रम टी अक्षरम' जिसका नाश नहीं होता वही अक्षरम होता है। ईश्वरवादी इसीलिए उस ब्रम्हा, तत्वा के लिए अक्षर नाम भी दिया है। शब्द शास्वत होते हैं। उस शास्वत शब्द से रची कृति मलमूत्र तो नहीं हो सकती हाँ कम महत्वा कि हो सकती है।
'शब्द इवा ब्रम्ह:' इसका अर्थ किसी सर्वशक्तिमान सत्ता से न ले कर यदि लौकिक अर्थ ही लें तो होगा- शब्द के उचित प्रयोग से हमें धन, समृधि, मान , सब कुछ तो मिलता है। फिर शब्द मलमूत्र को धोने वाले कैसे हो सकते हैं।
Wednesday, May 5, 2010
शहर नहीं मरता
शहर तो आप और हम लोगों से बना करता है। बियाबान में न लोग रहते हैं और न शहर ही बस्ता है। लोगो के आकर घर बनाने से मोहल्ला, कालोनी, अप्पर्त्मेंट में तब्दील हो जाते हैं। यही वजह है कि किसी खास शहर से हमें राग हो जाता है। चाहे वो जन्मभूमि हो या जहाँ आपने उम्र के लम्बे काल बिताये हों। या फिर जहाँ प्यार हुआ हो।
इसीलिए शहर हर किसी के ज़ेहन में ताउम्र घर बना लेता है। कभी जिस शहर में बचपन बिता हो। साथ के दोस्त बड़े हुए। बालबच्चे दार हो गए। जहाँ बचपन की चची , साथ खेलती वो लड़की अब ब्याह कर घर चली गई। यैसे में वही शहर काटने को दौरते हैं।
शहर की खासबात यही होती है कि वो आपको पुराणी यादों में ले जाता है। वो शहर इसीलिए हमारी जिन्दगी में अहम् होते हैं। जिस शहर में माँ- भाई , बचपन , खोया हो उस शहर से नफ़रत हो जाता है। शहर तो शहर होता है इस से क्या राग और क्या नफरत। जन्म से पहले वो शहर था और हमारे बाद भी वो शहर रहता है।
रुका हुवा फैसला और कसाब
कितने आशु , कितने सपने का खून किया है इस का शयद उसे इल्म नहीं। लेकिन जिस बच्ची के सर से बाप का शाया उठ गया उस से कोई पूछे कि बाप का मरना क्या होता है। उस औरत से कोई जा कर पूछे कि पति के बिना ज़िन्दगी क्या मायने रखती है? लेकिन सवालों से कसाब को क्या लेना। उसे तो आकयों ने सिखाया है आशुयों पर मत जाना, उदास चहरे मत देखना। वर्ना मनन करने लगोगे कि कहीं गलत तो नहीं कर रहा। हमारा धर्म दहशत, खून बहाना, चीखें पैदा करना है। हमारी न तो कोई बहन, माँ , बाप , भाई बेटी, हैं नहीं हम किसी के पिता ही हैं।
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...