Friday, September 11, 2015

अपने अतीत से टकराती हिन्दी


कौशलेंद्र प्रपन्न
आधुनिक समय में हमारी भाषा, संस्कृति और शिक्षा एक गहरे संकट के तौर से गुजर रही है। संभव है पाठाकों को लग सकता है कि आलेया की शुरुआत ही नकारात्मक वाक्य और स्थापनाओं से हो रही है। कम से कम सकारात्मक सोच के साथ बात कही जाती। भारतीय भाषाओं उसमें भी हिन्दी की यदि जमीनी तल्ख हकीकत यही है तो क्या हम इस सच्चाई को देखते हुए भी आंखें मूंदे रह सकते हैं? क्या हम उस कठोर सच को नकार सकते हैं जिससे ख़ासकर हमारी तमाम भारतीय भाषाएं भोग रही हैं। हमारी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को सबसे बड़ी चुनौती बाहर से नहीं मिली, बल्कि हमारे भारतीय शासकों और नीति नियंताओं की ओर से ही मिली। यदि भारतीय भाषाओं के लिए मील का पत्थर कोई निर्णय व नीति बनी तो वह राजभाषा अधिनियम 1963 है। इस राजभाषा अधिनियम ने भारतीय भाषाओं की चैहद्दी तय कर दी। इतनी ही नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के साथ अंग्रेजी को अटैच्मेंट फाईल की तरह नत्थी की दी गई। जो आज तक अलग नहीं हो पाई। यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि शुरू में तो पंद्रह साल का समय सीमा तय किया गया था लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि आज भी हमारी हिन्दी उसी राह पर चल रही है जो 1963 में रास्ते बनाए गए थे। भारतीय भाषा और हिन्दी के जानकार एवं भाषाविद्ों की दृष्टि में यह 1963 का राजभाषा अधिनियम काफी हद तक हमारे नीति नियांताओं की नियति की ओर स्पष्ट संकेत करता है। दरअसल इस टर्निंग प्वाइंट से हिन्दी की भूमिका और स्थिति एक नई दिशा में मुड़ती है। इस पर व्यापक और विस्तृत विमर्श यहां अपेक्षित है जो आगे किया जाएगा। लेकिन क्या नागर समाज भाषा की हमारी जिंदगी से हाशिए पर सिमटते जाने की सच्चाई से विचलित नहीं होना चाहिए? क्या भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए हमें आगे आने की आवश्यकता नहीं है आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जो हमारे कंधे पर सवार हैं उन्हें उतार कर फेंका नहीं जा सकता।
भाषा की मरने की ख़बरें दुनिया के तमाम कोनों से आती ही रही हैं। जो भी भाषा से जुड़े हैं उन्हें भाषा के मरने की आहट सुनाई देती होगी। लेकिन उन्हें बिल्कुल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता होगा जो महज भाषा की रोटी खाते होंगे। भाषा जिंदा रहे या मरे उन्हें हर साल विदेश भ्रमण का मौका मिलता रहे। हिन्दी भी भारतीय भाषायी परिवार एक सदस्या है। इसकी स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती। यदि हम भाषा के वृहत्तर परिवार की बात करें तो आज की तारीख में विश्व की कई भाषाएं या तो मर चुकी हैं या मरने की कगार पर खड़ी हैं। अफसोस की बात तो यही है कि उसे बचाने की चिंता सरकारी प्रयासों पर छोड़ दिया गया है। ताज्जुब तो तब और ज्याद होता है जब हम सरकारी दस्तावेजों और आयोगों में भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को एक ख़ास किस्म की नीति के तहत होते बर्ताव को देखते हैं। इस दृष्टि से विमर्श करें तो 1963 की राजभाषा अधिनियम भाषा के साथ होने वाले दोयम दर्जंे के व्यवहार की परते खोलती हैं। आजादी से पहले और उसके बाद भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उपेक्षापूर्ण बर्ताव ही किया गया है। आश्चर्य हो सकता है कि आजादी के बाद कई सारे आयोग और समितियों का गठन किया गया। शिक्षा की बेहतरी के लिए भी आजादी पूर्व से लेकर आजादी के पश्चात भी आयोग और नीतियां बनाई गईं। उन आयोगों और नीतियों में भाषा के नाम पर त्रिभाषा सूत्र तो पकड़ा दिया गया। यह एक कैसी विचित्र बात है कि देश के समग्र विकास की डफली बजाने वालों को कभी भी भाषा -नीति बनाने की चिंता ही नहीं सताई। यदि सरकारी पहलकदमी पर नजर डालें तो हमारे पास 1963 की राजभाषा अधिनियम ही है जिसमें सच पूछा जाए तो न केवल हिन्दी के साथ बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी गंदा मजाक सा ही किया गया है। लेकिन इस सच और अतीतीय यथार्थ को हम नहीं बदल सकते। हां हम जो कर सकते हैं वह यही हो सकता है कि अभी भी हमारे पास समय है यदि हम चाहते हैं कि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को बचा लें तो उसके लिए सरकारी के साथ ही हमारी सांस्थानिक और व्यक्तिगत प्रयास भी अपेक्षित है।
किसी भी देश की सरकारी कामकाज की भाषा कौन सी हो यह उस देश की भाषायी अस्मिता की ओर इशारा करता है। जिस भाषा में देश की सरकारी महकमा कर करती है उस भाषा की सत्तायी ताकत और मान का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में 14 सितंबर 1949 को स्वीकार किया गया। यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा कि इसके बाद संविधान में राजभाषा के संबंध में धारा 343 से 352 तक की व्यवस्था की गई। धारा 343 ‘1’ के अनुसार भारतीय संघ कह राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी होगी। साथ ही यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्टीय स्वरूप यानी 1,2,3 आदि होगा। यहां यह भी जानते ही चलें कि संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। इस सकता है को विशेष संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। परन्तु राज्यसभा के सभापति महोदय या लोकसभा के अध्यक्ष महोदय विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। किन प्रयोजनों के लिए हिन्दी का प्रयोग किया जाना है, किन के हिन्दी हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग आवश्यक है और किन कार्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाना है? यह राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा नियम 1976 और उनके अंतर्गत समय समय पर राजभाषा विभाग, गृहमंत्रालय की ओर जारी किए गए निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 343 में जिसका प्रावधान किया गया है उसके पीछे की मनःस्थिति को समझने की अवश्यकता है। खंड़ 1 में कहा गया है कि इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।
राजभाषा अधिनियम 1963 पर राजनीतिक धड़ों में काफी हंगामा हुआ। विद्वानों और सांसदों के विरोध को देखे हुए इस अधिनियम में संशोधन किया गया जो 1967 में हमारे सामने आया। वास्तव में यह अधिनियम हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के पक्ष को झिझला करने वाला था। इसमें कई धाराएं और उपधाराओं में एक खास मानसिकता को बहाया गया। एक धारा 3 की उपधारा 5 के क्या मायने है वो आपके सामने नजीर पेश करना चाहता हूं- ‘‘अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिण् जते और जब तक पूर्वाेक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के प्श्चात् ऐसी समाप्ति के लिए संसद हर सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं किया जाता।’’ यदि हमें इन पंक्तियों और शब्दों के बीच के पर्दं करे उठाया जाए तो वह छवि कुछ इस तरह की उभर सकती है कि अधिनियम अंग्रेजी को सदा के लिए राजकाज की भाषा बनाए रखने का निर्णय प्रस्तुत करता है। यहां जिस तरह से कहा गया है उससे एक बात तो स्पष्ट होती है कि अंग्रेजी केवल तभी छोड़ी जाएगी जब हरेक राज्य की विधान सभ्ज्ञा उसे छोड़ने का संकल्प ले लेगी। इस बात का कोई महत्व नहीं है कि हिन्दी के पक्ष में कितने राज्य हैं। यहां अहम यह हो जाता है कि अंग्रेजी के पक्ष में एक भी राज्य हो तो अंग्रेजी चलती ही रहेगी। ख़ास बात यह भी है कि बेशक हिन्दी चले या अन्य भारतीय भाषाएं हाशिए पर बिलबिलाती रहें। ध्यान देने की बात यह भी है कि लोकतंत्र में यह उम्मीद रखना ही व्यर्थ है कि समाज और देश में किसी मुद्दे को लेकर पूर्ण मतैक्य हो। यह कल्पना ही अजीब लगती है कि हम यह आशा लगाए बैठे हैं कि हरेक राज्य अंग्रेजी के उपर हिन्छी को वरीयता मुहैया करा देंगे। जबकि सूक्ष्मता से देखा जाए तो त्रिभाषा सूत्र जो कि केंद्रीय सरकार की समिति की स्थापना और सिफारिफ थी, को ही कुछ राज्यों ने अपनाने से इंकार कर दिया। दुखद बात है कि आज भी उन राज्यों का बर्ताव हिन्दी के प्रति वही है। ऐसी स्थिति मेें कैसे सोचा जा सकता है कि सभी राज्य अंग्रेजी छोड़ने को तैयार होंगे। 

संसदीय समिति की रिपोर्ट पर संसद में बहस हुइ।फ तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा आश्वासन किया गया कि अंग्रेजी को सह-भाषा के रूप में प्रयोग में लाए जाने हेतु व्यावधान उत्पन्न नहीं किया जाएगा और न ही इसके लिए कोई समय-सीमा ही निर्धारित की जाएगी। भारत की सभी भाषाएं एमान रूप से आदरणीय हैं और ये हमारी राष्टभाषाएं हैं। गौरतलब है कि अनुच्छेद 343 ‘3’ के प्रावधान व श्री जवाहर लाल नेहरू के आश्वासन को ध्यान में रखते हुए राजभाषा अधिनियम बनाया गया। इसके अनुसार हिन्दी संघ की राजभाषा व अंग्रेजी सह-राजभाषा के रूप में प्रयोग में लाई गई। यदि हम इनकी भाषा और शब्दों में गौर करें तो एक बात स्पष्ट नजर आती है कि हिन्दी की स्वतंत्र सत्ता को बड़ी ही होशियारी कमतर की गई। अंग्रेजी को साथ साथ साझा सत्ता प्रदान करने की कोशिश की गई। माना जाता है कि राजभाषा अधिनियम एक तरह से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ एक छल था। क्योंकि इस अधिनियम को शब्द दर शब्द पढ़ें तो सरकार की मनसा साफ क्या थी वह नजर आती है। लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों की राजकाज की भाषा हिन्दी के साथ ही साथ अंग्रेजी को भी रखी गई। हिन्दी को अनुवाद का दर्जा दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायपालिका, कार्यपालिका की भाषा मूलतः हिन्दी नहीं रखी गई। बल्कि मूल आदेश, निर्देश अंग्रेजी में लिखे गए और उनका आवश्यकतानुसार हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने का प्रावधान किया गया।
यदि हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं जितनी हानि राजभाषा अधिनियम से हुई उतनी शायद हिन्दी साहित्य के इतिहास में कहीं नहीं मिलता। दरअसल हिन्दी को अनुवाद और अंग्रेजी के कंधे पर बैठाकर सब्जबाग दिखाने की कोशिश राजनीतिज्ञों की ओर हुई। इसी का परिणाम है कि इस अधिनियम में वर्णित हिन्दी के विकास और संवर्धन के लिए सरकारी प्रयास जारी रहेंगे। साथ ही हिन्दी में सरकारी स्तर पर काम हो इसके लिए हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशाला और प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना भी की गई। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि उन संस्थानों में किस प्रतिबद्धता और उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रशिक्षण दिए जाते हैं। दूसरी बात यह कि उन सरकारी हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशालाओं में किस किस्म के और कितनी शिद्दत से सीखने की लालसा प्रतिभागी आ पाते हैं। यह विचारणीय सवाल है कि उन प्रशिक्षण कार्यशालाओं की कार्य योजना और उद्देश्यों की डिजाइनिंग पर काम होता है। क्या प्रशिक्षण के लिए पाठ्यक्रम बनाते वक्त प्रतिभागियों की आवश्यकताओं का विश्लेषणादि भी होता है या एकतरफा पाठ्यक्रम निर्माण कर सीधे सीधे प्रशिक्षण कक्ष में उतार दिया जाता है। अमूमन यह देखा गया है कि इस तरह के कार्यशालाओं में विषय विशेषज्ञों के चयन भी बहुत गंभीरता से नहीं किया जाता। दोनों ही पक्ष इस मनोदशा से आते हैं कि इन्हें आने के पैसे मिल रहे हैं और हमें यहां आकर सुन लेने भर के। उनका ध्यान और उद्देश्य इस बात की ओर अव्वल तो जाता ही नहीं है कि कार्यशाला का उद्देश्य क्या है और किस तरह से पाठ्यक्रम को बनाया गया है। क्योंकि सरकारी आदेश पालक होते हैं इस तरह के कार्यशालाओं में तो वे उसी मानसिकता से आते हैं। एक और मुख्य मुद्दा यह भी है कि जिन्हें कार्यशाला में प्रशिक्षण दिया गया क्या कोई ऐसी प्रक्रिया होती है जिससे यह जांचा जा सके कि जो इन्हें दिया गया उसका कितना भाग उन तक पहुंच पाया? दूसरा जिन्हें हमने प्रशिक्षण कार्यशाला में बुलाया क्या उन्हें दुबारा बुला कर यह देखने की कोशिश व योजना बनाते हैं कि उन्हें व्यवहारिक स्तर पर अमल में लाने में परेशानी हो रही है तो किस स्तर की। किसी भी प्रशिक्षण कार्यशाला की सफलता की बुनियाद दो बातों पर खासे निर्भर होती है। पहला, क्या हमने प्रतिभागियों की आवश्यकता विश्लेषण किया कि उन्हें किस चीज की और किस स्तर की ज्ञान व समझ देना है। दूसरा जो हिन्दी की समझ व ज्ञान देने का प्रयास कार्यशाला में किया गया उसका फाॅलोअप करने की रणनीति व योजना है या नहीं? इन दोनों ही स्तरों पर सरकारी हिन्दी प्रशिक्षण कार्यशालाएं अमूमन असफल साबित होती हैं।
हिन्दी की राह में तकनीक रोड़े
आज की तारीख में हिन्दी को सबसे बड़ी और धारदार चुनौती किसी से मिल रही है तो वह है तकनीक। हिन्दी और हिन्दी को बरतने वालों के आगे तकनीक कई बार ऐसी स्थिति पैदा कर देती है कि हम समय के साथ चल पाने में खुद को पीछे पाते हैं। दूसरे शब्दों में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में 2000 और 2005 के आस पास हिन्दी विभाग से लेकर तमाम विभागों में सूचना तकनीक से लैस करने के लिए डेस्क टाॅप मुहैया कराए गए थे। लेकिन अफसोस की बात है कि कई विश्वविद्यालयों के विभागों मंे वे ज्यों के त्यों रखे रहे, क्योंकि उसका इस्तमाल कैसे किया जाए इसकी कमी थी। दूसरी स्थिति यह रही कि जो पुरानी पीढ़ी के हिन्दी के विद्वान हैं उन्हें आज की आधुनिक तकनीक इस्तमाल करने में खासे परेशानी होती है। हिन्दी की इसी दुनिया में एक बड़ा वर्ग अभी है जो कागज-कलम से आगे नहीं निकल पाया है। वेब मैग्जीन, जर्नल्स, पत्रिकाओं ई-पत्रिकाओं की दुनिया में भी हम आज मुद्रित दुनिया में ही सांस लेना चाहते हैं। ऐसे में हिन्दी और हमारी पहंुच सीमित पाठकों तक होगी। जबकि हिन्दी को वैश्विक पटल पर लाना है तो एक माध्यम तकनीक भी है जिसके मार्फत हिन्दी को पलक झपकते ही एक कोने से दूसरे कोने तक प्रसारित कर सकते हैं। यदि ठहर कर विमर्श करेें तो तकनीक ने एक ओर प्रकाशकों की एकछत्र राज्य को तोड़ा है। प्रकाशन की दुनिया में सत्ता का विकें्रदीकरण हुआ है। यह अलग बात है कि इससे कहीं न कहीं प्रकाशित सामग्री की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। क्योंकि समुचित संपादन हीनता की स्थिति में प्रकाशित रचनाओं में संपादन से लेकर कई स्तरों पर खामियां रह जाती हैं। हिन्दी को वैश्विक बनाने में कई युवा पीढ़ी तो तकनीक में विधा में दक्ष हैं वे हिन्दी को सूचना प्रौद्योगिकी के साथ तालमेल बैठाने कीे कोशिश कर रहे हैं। यू ट्यूब से लेकर अन्स वेब साइट्स हैं जो हिन्दी में पर्याप्त गुणवत्तापूर्ण सामग्रियों को न केवल पाठकों के सामने परोस रहे हैं बल्कि पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों की रचनाओं को एक स्थान पर संरक्षित कर रहे हैं। इस दृष्टि से देखें तो
ीजजचरूध्धंअपजंावेीण्वतहध् ीजजचरूध्ध्ेूंतहअपइींण्पदध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्ीपदकपेंउंलण्बवउध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्ीपदकपेंीपजलंण्वतहध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्रंदातपजपचंजतपांण्बवउध्ीजजचरूध्ध्ूूूण्हंतइींदंसण्बवउध् ीजजचरूध्ध्ूूूण्रंदापचनसण्बवउध्
यहां न तो सूची उपलब्ध कराना मक्सद और न ही किसी साइट का प्रचार करनाहै। बल्कि एक झलक प्रस्तुत करना है कि इन साइटों पर काफी अच्छी और रोचक सामग्री जो मिलती हैं वो कहीं न कहीं हिन्दी को बढ़ाने और संरक्षित करने में जुटी हुई हैं। इन साइटों के अलावे कई प्रसिद्ध ब्लाॅग हैं जो प्रकारांतर से हिन्दी और भाषा के संवर्धन में अपना सकारात्मक सहयोग दे रही हैं। इन ब्लाॅग्र्स में न केवल पत्रकार, कवि, लेखक, कलाकार शामिल हैं बल्कि एक आम सचेत पाठक भी काफी अच्छी सामग्री हिन्दी में हिन्दी के विकास में प्रदान कर रही हैं। आज कई रोज़ाना अख़बार किसी ने किसी के ब्लाॅग से सामग्री चुन कर अपने अख़बार में छापते हैं जिसके लिए वे लेखक को भुगतान भी करते हैं। यानी कहीं न कहीं तकनीक ने लिखी हुई सामग्री को वैश्विक बनाने में अपना योगदान दे रही है। अब आवश्यकता इस बात की है कि हमें तकनीक के साथ मिल कर हिन्दी को आगे लेकर जाना है।
मीडिया के आंगन में हिन्दी
मीडिया की हिन्दी व मीडिया में किस तरह की हिन्दी बरती जा रही है इस पर विचार अपेक्षित है क्योंकि इसके आंगन में जैसी हिन्दी उठती बैठती है उसका असर आस-पड़ोस में भी दिखाई देता है। यानी वह हिन्दी न केवल अकादमिक बहसों में जगह लेने लगती हैं बल्कि बोलचाल में तो अपनाई जा चुकी होती है। मीडिया यानी श्रव्य-दृश्य दोनों ही माध्यमों की हिन्दी को देखना रखना होगा। किन्तु यहां विस्तार में जाना विषयांतर होगा इसलिए हम यहां रेडियो, न्यूज चैनल, अखबार और पत्रिकाओं पर चलते चलते विमर्श करेंगे। एक ओर हमारे पास मिडियम वेब पर प्रसारित होने वाले समाचार हुआ करते थे जिसे सुनने के लिए गांव-घर में लोग पौने आठ का इंतजार किया करते थे। समाचार वाचक की भाषा और उसका उच्चारण मानक माना जाता था। युवा पीढ़ी को कहा जाता था कि हिन्दी सीखनी हो तो समाचार चुना करों काफी हद तक अभी भी आकाशवाणी के समाचार प्रभाग इस स्तर को बनाए हुए हैं। वहीं बीबीसी, में कभी आंेकारेश्वर पांडे से समाचार सुनिए आवाज को आंख बंद कर भी पहचान लिया करते थे। लेकिन रेडियो की भाषा और हिन्दी के स्तर में गिरावट तब दर्ज की जाने लगी जब निजी चैनलों की बाढ़ सी आ गई। उनके यहां हिन्दी को छौंक के तौर पर इस्तमाल किया जाता है। हर वाक्य में दो तीन शब्द हिन्दी के और बाकी अंग्रेजी के शब्द हुआ करते हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी यदि हिन्दी सुननी भी चाहे तो कहां सुने। क्योंकि रेडियो माने एफएम हो चुका है। आज की तारीख में अमूमन आकाशवाणी के कार्यक्रम शहरों में बहुत कम ही सुने जाते हैं। इस अवसर का लाभ उठाते हुए निजी रेडियो चैनल पर खुलआम हिन्दी की परते उतारी जा रही हैं। जिस तरह के हिन्दी के व स्थानीय बोलियों का इस्तमाल किया जाता है उसे सुन कर महसूस होता है यह किस रूप में ढली हिन्दी का संकेत है। यही स्थिति दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले समाचार के बारे में कही जा सकती है। दूरदर्शन के समाचार प्रस्तोता की भाषा और हिन्दी की समझ के साथ ही भाषायी मानकता को भी तवज्जो दिया जाता था। ठीक यही हाल निजी न्यूज चैनलों में कुछ समाचार प्रस्तोता की छोड़ दें तो बाकी न्यूज चैनज की हिन्दी बड़ी ही झिझली हो चुकी है। समाचार प्रस्तोता या संवाददाता जब ग्रहमंत्री बोलता है, प्रस्तोता बोलता और टीकर पर स्त्रोत स्रोत के स्थान पर लिखता और बोलता है तो माथा डनक जाता है। यह तो न्यूज चैनल की बात हुई। जब हम अखबारों की बात करते हैं तो यहां तो कूप में ही भंग पड़ौं हैं। हिन्दी का एक ऐसा अखबार है जिसे राजेंद्र माथुर, एम पी सिंह, दीनानाथ मिश्र, राजकिशोर विद्या निवास मिश्र जैसे संपादकों और लेखकों का संसर्ग मिला लेकिन आज उसकी हिन्दी देख कर रोना ही आता है। क्योंकि जिसका मासहेड तक अंग्रेजी हो चुकी है। इस अखबार की कोई भी खबर की हेडिंग में दो तीन शब्द हिन्दी की होती वह भी सहायक क्रिया व कर्म के रूप में बाकी अंग्रेजी के शीर्षक होते हैं। कहा जाता है कि जितनी हानि अखबारों में हिन्दी की हुई है उसका एक बड़ा हिस्सा इस अखबार का है। यह एक अलग अखबार नहीं है बल्कि आज की तारीख में सहज और सरल हिन्दी आम फहम की हिन्दी का तर्क देकर और भी अखबार इसी राह पर चल रहे हैं। हालांकि शुद्धतावादी दृष्टिकोण एक जगह है और मिश्रित भाषा का विकास दूसरी बात है। लेकिन शुद्धता के नाम पर कहीं हम ऐसी हिन्दी का निजात तो नहीं करना चाहते जो सिर्फ किताबों और विद्वानों की भाषा हुआ करती है। यदि वैसी हिन्दी विकसित करना चाहते हैं तो वह एक सीमित वर्ग की पसंदीदा तो हो सकती है वह एक बड़े जनसमूह की भाषा नहीं हो सकती।
स्कूल में हिन्दी की टकराहट
स्कूलों में बच्चों की हिन्दी जिस तरह से सीखाई जा रही है उसे देख-पढ़कर घोर निराशा ही होती है क्योंकि यहां पर सिर्फ पाठ्यपुस्तकों को पूरा कराने पर ज्यादा जोर होता है। जैसे तैसे आठवीं तक बच्चे हिन्दी पढ़ते हैं लेकिन आंठवीं में उन्हें विकल्प दे दिया जाता है कि चाहे तो विदेशी भाषा ले सकते हैं। बस यहीं पर एक भूल करते हैं। बच्चे अभिभावकों की चाह को पूरा करने के पीछे विदेशी भाषा चुनते हैं और हिन्दी पीेछे रह जाती हैं। स्कूल की हिन्दी बस खानापूर्ति से ज्यादा नहीं लगती। इन पंक्तियों के लेख को कम से कम 200 स्कूलों में भाषा-शिक्षण निरीक्षण और मूल्यांकन के साथ ही जहां हिन्दी शिक्षण की स्थिति को करीब सो देखने समझने का अवसर मिला। स्वयं हिन्दी के शिक्षकों/शिक्षिकाओं की लेखन, वाचन के स्तर पर वर्तनी के लेकर उच्चारण तक की खामियां देखने को मिलीं। हिन्दी की बारीक बुनावट को लेकर खुद शिक्षकों की भ्रांतियां बरकरार थीं। यदि तटस्थ हो कर देखें तो उसमें उन शिक्षकों की कमी ज्यादा नहीं थी। बल्कि वे संस्थाएं, शिक्षक ज्यादा दोषी हैं जिनके कंधों पर हिन्दी शिक्षण का कार्य सौंपा गया था। एक बच्चा प्राथमिक कक्षा में जिस तरह की भाषायी कमजोरियों को लेकर आगे की कक्षाओं में जाता है वह उसकी जिंदगी भर की कामई होती है। लेकिन इन कमियों को दूर भी किया जा सकता है यदि हमारी इच्छा और आवश्यकता हो। जब हिन्दी को आठवीं कक्षा में ही विकल्प के तौर पर पेश किया जाता है तो काॅलेज के स्तर तक आते आते वे बच्चे हिन्दी की पूरी तरह से कट चुके होते हैं। यही वजह है कि काॅलेज और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में खासे गिरावट दर्ज की गई है। ख़बर तो पटना विश्वविद्यालय से यह भी आई कि हिन्दी विभाग में महज पांच बच्चों को दाखिला हुआ। यह स्थिति केवल पटना विश्वविद्यालय की ही नहीं है बल्कि अन्य विश्वविद्यालयों में भी इसी के आस पास ठहरता है। सवाल यह है कि हम बच्चों और अभिभावकों को संतुष्ट नहीं कर पाते कि बच्चा हिन्दी आॅनर्स पढ़ने व एम ए करने के बाद किस क्षेत्र व व्यवसाय को चुनेगा। प्राथमिक स्तर पर जिस शिद्दत से हिन्दी पढ़ाई जानी चाहिए वह अभी नहीं हो पा रही है। हिन्दी शिक्षण और प्रशिक्षण को नजदअंदाज नहीं किया जा सकता। क्यांेकि कक्षा-कक्षा तक वही हिन्दी उसी रूप में तभी पहुंच सकती है जब शिक्षक स्वयं इस कला में दक्ष हो।
लब्बोलुआब
हिन्दी को सबसे ज्यादा जिससे से टकराना है वह स्वयं हिन्दी जगत है। हिन्दी की टकराहट हिन्दी वालों और हिन्दी की अपनी प्रकृति है। अतीत से टकराती हिन्दी को एक और बड़े पहाड़ से भी टकराना पड़ रहा है वह है तकनीक। आज की तारीख में तकनीक का सहारा लेकर यदि हिन्दी आगे बढ़ती है तो आगामी यात्रा सहज और सरल हो सकती है। लेकिन यह भी बड़ा मौजू है कि क्या हिन्दी वाले इसे कितनी उदारता से इसे स्वीकार करते हैं। हिन्दी का जो अतीत है वह तो है ही उसे बदलना जरा मुश्किल है लेकिन राजभाषा अधिनियम 1963 के बरक्स जब हम हिन्दी के विकास को देखने की कोशिश करते हैं तब यह अधिनियम एक बड़ो रोड़े की तरह नजर आता है। यदि वास्तव में हिन्दी को सवंर्धित करना चाहते हैं तो हमें जमीनी हकीकत को समझते हुए मुकम्मल रणनीति बनानी पड़ेगी तभी हिन्दी का विकास संभव है। इसके साथ ही हिन्दी को बाजार की मांग के अनुसार अपनी प्रकृति और बुनावट में भी बदलाव करने पड़ेंगे तभी आज की युवा पीढ़ी इसे पढ़ने-पढ़ाने के प्रति उत्साही होगी।



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