Wednesday, September 16, 2015

मंदी में जीवन



कौशलेंद्र प्रपन्न

इतिहास में विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी की शुरुआत और सुगबुगाहट हमें 2008 के जनवरी फरवरी में दिखाई और सुनाई देने लगती है। इससे पहले 1930 के आस पास विश्व इस तरह के उथल पुथल से गुजरा था। शुरू के माह में लगा यह तूफान टल जाएगा। या फिर सरकार इस पर काबू पा लेगी। लेकिन यह आशंका जुलाई अगस्त में भयंकर रूप में हमारे सामने आने लगी। बाजार की हालत खराब होने लगी। इस बाबत विभिन्न अखबारों, टीवी न्यूज चैनलों में छीट पुट खबरें देखने-पढ़ने को मिलने लगीं।
इन दिनों एक बार फिर से मंदी की आहट सुनी जा सकती है। अगस्त का अंतिम सोमवार को कुछ इसी तरह याद किया जाएगा। शंघाई शेयर बाजार के कंपोजिट इडैक्स में आए आठ प्रशित की गिरावट का असर बाजार में चारों ओर देखा गया। शेयर बाजार के गुरुओं की नजर में भारत में ऐसी घटना ऐतिहासिक मानी गई। लुढ़कन की फिसलन इतनी तीखी थी कि निवेशकों के तकरीबन सात लाख करोड़ से भी ज्यादा डूब गए। यह हलचल इतनी गहरी थी कि भारत के नीति नियंताओं को आनन फानन में समीक्षा बैठक बुलानी पड़ी। इतनी ही नहीं बल्कि निवेशकों को दिलासा देने की जरूरत महसूस की गई कि सरकार मुनाफे बढ़ाने वाले आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए तथा देश में आर्थिक गतिविधियों को दुरुस्त करने के लिए सार्वजनिक खर्च में तेजी लाने के लिए कदम उठाएगी। इससे भी एक कदम आगे बढ़कर सरकार ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के साथ घोषणा की कि भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है और निवेशकों को चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।
मैं जिन घटनाओं, वातावरण, चिंता, भय और निराशा आदि से आप सभी को जोड़ने जा रहा हूं उसके लिए काफी सोच विचार करने के बाद एक बिंब उचित लगता है। वह है टाइटेनिक। याद कीजिए जब टाइटेनिक की यात्रा शुरू हुई तो कैप्टन का दावा था कि यह कभी डूब नहीं सकती। गौरतलब हो कि कैप्टन समंदर में जितना प्रतिशत बर्फ का हिस्सा देख पाया उसका एक बड़ा भाग समंदर के नीचे था। इसका अनुमान कैप्टन नहीं लगा पाया। अंततः टाइटेनिक समंदर में समा गया। नियति यही थी। बचने की उम्मींद लगभग खत्म हो चुकी थी। सब के सब अपने अपने इष्ट देव को याद कर रहे थे। अंत क्या हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं।
मंदी की मार न केवल बाजार पर देखी गई, बल्कि इसका असर व्यक्ति के आम जीवन पर भी पड़ा। इन पंक्तियों के लेखक ने 2009 में एक सर्वे किया था कि आम लोगों के स्वास्थ्य पर इस मंदी का क्या असर पड़ा रहा है। इस बाबत मैंने विमहंस के मनोरोग, मनोचिकित्सकों से बातचीत की थी जिसमें पाया कि जिनकी नौकरी चली गई व डर में जाॅब पर जा रहे हैं उनके दांत और सिर दर्द की शिकायतें बढ़ रही थीं। युवाओं की मंगनी टूट रही थी। शादियां टल रही थीं। ब्लड प्रेशर की शिकायतों में बढ़ोतरी हुई थी। समाज और मीडिया अलग नहीं है। इस लिहाज से मीडिया घरानों में यह खबर एक तरह से सूनामी के रूप में भी आने लगी थी। सितंबर-अक्टूबर तक देश के जाने माने आर्थिक अखबार घरानों में पेज कम किए जाने लगे। आर्थिक अखबारों के साथ ही सामान्य अखबारों के पन्ने 30, 32 से घटकर 12, 14 पेज पर सिमट गए। जैसे ही पेज कम होने शुरू हुए लोगों को दूसरे पेज पर शिफ्ट किया गया। जो बच गए उन पर एचआर की नजर पड़ने लगी। नीति बनने लगी कि काॅस्ट कटिंग करनी पड़ेगी। कम लोगों से काम चलाया जाए और जिनके बगैर काम चल सकता है उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए। देखते ही देखते दिल्ली के विभिन्न मीडिया घरानों से पत्रकारों को रातों रात बाहर का रास्ता दिखाने का काम शुरू हो चुका। उस समय कुछ अखबारों ने तो खबरें छापीं लेकिन अधिकांश मीडिया घरानों ने इस मसले पर चुप्पी साध ली।
अक्टूबर 2008 तक कुछ अखबारों में मंदी संबंधी खबरें तो छपीं लेकिन नवंबर तक आते आते अखबारों और न्यूज चैनलों से मंदी और छटनी संबंधी खबरें गायब हो गईं। सरकार की ओर से भी अघोषित तौर पर मीडिया घरानों को निर्देश दिए गए कि मंदी और छटनी की खबरें छापने से बचें। क्योंकि इसका असर सीधे सीधे इन घरानों में काम करने वालों पर नकारात्मक प्रभाव देखे जाने लगे। लेकिन जो लोग न्यूज एजेंसियों से जुड़े थे उन्हें मालूम है कि भाषा, वार्ता, एपी आदि न्यूज वायरों पर वैश्विक मंदी और छटनी संबंधी खबरों तो आ रही थीं लेकिन कहीं छप नहीं रही थीं। इसके पीछे मकसद यही था कि भारत के मीडिया और गैर मीडिया कर्मी पर इसका नकारात्मक असर न पड़े।
एचआर की तरफ से स्पष्टतौर पर निर्देश दिए जाते कि आपके पास दो विकल्प हैं पहला, आप आज ही तीन माह की सैलरी ले लें और रिजाइन करें। कल से आॅफिस आने की आवश्यकता नहीं। दूसरा, आपके एकाॅंट में तीन माह तक सैलरी डाल दी जाएगी और कल से चाहें तो आॅफिस नहीं आ सकते हैं। दूसरा विकल्प लोगों को माकूल लगा करता था क्योंकि बाजार में आप आराम से नौकरी देख सकते हैं। आपको यह नहीं कहना पड़ेगा कि आपके पास जाॅब नहीं है।
जिस चुपके चुपके पत्रकार एचआर के पास से आते। धीरे से अपना डेक्स टाॅप आॅफ करते और अपनी डायरी, कुछ सामान जो उनके डाॅवर में होते बटोर कर नम आंखों से बाहर निकल जाते। वह वक्त ऐसा होता कि साथ बैठा साथी भी सबकुछ समझते हुए भी कुछ बोल नहीं पाता था। यहां तक कि आंखें झुकाए अपने काम में यूं लगा रहता गोया कुछ हुआ ही नहीं।



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