कौशलेंद्र प्रपन्न
अभी हाल ही में मैंने उदयपुर से शर्ट के लिए कपड़े खरीदे थे। सोचा अपनी मर्जी से सिलवाकर पहनूंगा। लेकिन दर्जी मास्टर जी ने चाइनिज काॅलर की बजाए सामान्य शर्ट बना दी। कुछ देर गुस्सा भी आया कि कपड़ा खराब कर दिया। इतनी शिद्दत से इंतजार था कि सिलवाकर शर्ट पहनूंगा। लेकिन कुछ देर जब दुकान में खड़ा बहस कर रहा था तभी गुस्सा शांत होता चला गया। मैंने पूछा आज कल लोग कपड़े नहीं सिलवाते क्या जो इस तरह की लापरवाही हो गई। मास्टर जी ने जो जवाब दिया फिर तो गुस्सा क्या आना था मैं सोचने पर मजबूर ही हो गया। उन्होंने कहा सर आज कल कपड़े कौन सिलवा कर पहनता है। सभी तो माॅल में जाकर बने बनाए कपड़ी ही पहनते हैं। पता नहीं आपने क्या सोचा और कपड़े सिलवाकर पहनना चाह रहे थे। पिछले पंद्रह साल से बामुश्किलन कोई पैंट व शर्ट सिलवाकर ले गया होगा। मेरा सवाल फिर मास्टर जी की ओर था कि तो फिर आपकी दुकान कैसे चलती है? पेट कैसे पालते हैं?
जैसे जैसे कपड़े सिलवाने कम हो गए अब या तो दुकान में चैकीदारी करते हैं या फिर बड़ी बड़ी दुकानों के बाहर आॅल्टर करने का काम किया करता हूं। उसमें क्या ही बचता है और क्या घर चला पाता हूं। रात में चैकीदारी करना भी मजबूरी है। मास्टर जी की बातों से सोचने का सिलसिला चल पड़ा। खुद याद आता है तकरीबन बीस साल तो हो ही गए होंगे जब मैंने भी दर्जी के सिले कपड़े पहने हों। आज चारों ओर स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया की गुहार सुनी जा रही है। हमें यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि इस डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी में हमारे मास्टर जी कहां अपनी दुकान खोलेंगे। वो भी ऐसे में जहां एक ही छत के नीचे तमाम जरूरतों की चीजों उपलब्ध हांेगी। क्या सब्जी और क्या तेल। क्या कपड़े और क्या जूते रोजदिन की जरूरतों के सारे सामान एक स्थान पर मिलना एक किस्म से समय की बचत तो हो सकती है लेकिन इन एक छतीय हाट में सामान की कीमतों में खासे अंतर दिखा जा सकता है। यदि कपड़े की ही बात करें तों तमाम राष्टीय अंतरराष्टीय ब्रांड के कपड़े जिनकी कीमतों की शुरुआत ही हजार से होती है। जिस शर्ट व पैंट की कीमत दो सौ ढाई सौ की लागत में तैयार होती है उसकी कीमत हम सभ्य नागर समाज के लोग सत्तर प्रतिशत प्लस बीस प्रतिशत की छूट के टैग पर हजार, पंद्रह सौ देकर खरीदकर चैड़े हो रहे होते हैं। यह बाजार का एक छत में सिमटना है या बाजार का विकेंद्रीकरण यह तो समाजशास्त्री व बाजार के गुरु बेहतर जानते हैं। लेकिन इन एक छतीय बाजार में खुदरा व्यापारी रो रहा है।
बचपन में अपने शहर डेहरी आॅन सोन में मुहल्ले में ही एक मास्टर सलून हुआ करता था। हालांकि अब भी है लेकिन नैन नक्श बदल गए हैं। लकड़ी के तख्ते पर बैठकर कर बाल कटाना और लगातार रोते रहना भी याद है। शायद बचपन में तब के बच्चे बाल कटाते वक्त रोया ही करते थे। पिछले दस सालों में उनके भी रेट बढ़े हैं लेकिन एक छतीय बाजार की तुलना में काफी कम है। मास्टर जी अभी भी पंद्रह रुपए में और बीस रुपए में बाल दाढ़ी काटा करते हैं। लेकिन इन एक छतीय दुकानों में सौ रुपए तो शुरुआता हुआ करता है। यह अंतर साफतौर पर दर्जी पेशे में भी देखा जा सकता है। आज भी कस्बों और छोटे शहरों में दर्जी की दुकानें हैं लोग कपड़े खरीद कर सिलवाने में विश्वास रखते हैं। लेकिन रेडिमेट का चस्का जिस भी शहर व गांव देहात को लग चुका है वहां टेलर मास्टर अब खास अवसरों पर ही व्यस्त रहा करते हैं।
ईदगाह में हामिद दौड़कर दर्जी के पास जाता है और वहां से अपना नया कुर्ता और नाड़े वाला पाज़ामा पहन कर पूरे मेले में रोशन होता है। ठीक उसी तरह हम लोग भी बचपन में शर्ट व पैंट सिलवाने के लिए मास्टर जी के पास जाते थे तब नाप लेने के बाद जब तक तैयार नहीं हो जाते थे रोज दुकान का चक्कर काटा करते थे। जब तक हमारी शर्ट दुकान में टंगी हुई नहीं दिखाई देती थी तब तक मास्टर जी का जान आफत में होता था। पिछले साल उन्हीं बचपन के मास्टर जी से मुलाकात हुई बताने लगे अब तो हमारी द ुकान पर भीड़ ही नहीं होती। जिसे देखो वही बने बनाए कपड़े पहनने लगा है। किसी के पास इतना वक्त कहां है जो सिलने का इंतजार करे। जब जी चाहा तभी बनी बनाई शर्ट और पैंट खरीद कर पहन लेते हैं। इन्हें देख कर लगता है पुराने कपड़े छोड़कर वे नई कमीज पहन कर निकल गए विचार की तरह।
हमारा समाज और बाजार बहुत तेजी से बदलाव के चक्र से गुजर रहा है। जहां मूल्य और कपड़े का ब्रांड अहम हो चुका है। हालांकि ब्रांड की पहचान और प्रतिष्ठा का मसला बड़े शहरों में ज्यादा है तबकि छोटे शहरों में आज भी स्थानीय कपड़ा मील के कपड़े सिलवा कर पहनते हैं। लेकिन चिंता की बात यह भी है कि जिस रफ्तार से बाजार हमारे घरों में खड़ा हो चुका है उसे देखते हुए लगने लगा है कि हम बाजार में हैं या बाजार हम में। दजी की दुकानों में कपड़ों के थान और डंड़ों में लिपटे विभिन्न ब्रांडों के कपड़ों पर जाले लग रहे हैं। यदि जेंडर की दृष्टि से इन मसलों पर नजर डालें तो थोड़ी उम्मीद की किरण दिखाई देती है। लड़कियां फिर भी सलवार कमीज़ अभी भी लड़कों की तुलना में दर्जी से सिलवाती हैं। यूं तो फैशन और सिले सिलाए कपड़ों की ललक उनमें भी पनप चुकी है। काश की हम अपने आस पास के दर्जी को बचा पाएं।
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