Thursday, September 17, 2015

पीएचडी और एमए वाले बनेंगे चपरासी




कौशलेंद प्रपन्न
यह कौन सा देश है महाराज जहां कहावत प्रसिद्ध है ‘पढ़े फारसी बेचे तेल’ कुछ चरितार्थ होता सा लग रहा है। यह अनुमान नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश के सचिवालय में 368 चपरासी पद के लिए आवेदन मांगे गए थे जिसमें पाया गया 255 निवेदकों ने पीएमडी कर रखी है। इतना ही नहीं बल्कि एम ए, एम एस सी वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं है 25 लाख ऐसे आवेदकों की संख्या है जो पोस्टग्रेजुएट हैं। वहीं डेढ़ लाख ऐसे आवेदक हैं जिन्होंने स्नातक किया हुआ है। गौरतलब है कि इस पद के लिए निम्न अहर्ता पांचवीं कक्षा तक की शिक्षा रखी गई है। यह एक बड़े विघटन और शिक्षा की असफलता की कहानी भी कहती है। कहानी सिर्फ शिक्षा की दयनीय स्थिति को ही बयान नहीं करती बल्कि हमारी नीति और दिशा को भी रेखांकित करती है। यह तो उत्तर प्रदेश की हालत है अमूमन राज्यों में बेरोजगारी की स्थिति यह है कि एमए, बीएड आदि किए हुए भी नौकरी से बाहर हैं। दूसरे शब्दों में वे नौकरी से बाहर हैं व इस योग्य ही नहीं हैं कि वे नौकरी पा सकें। दूसरा सवाल यह भी उठता है कि सरकार की नीतियों में ऐसे लाखों युवाओं के लिए घोषणाएं तो हैं किन्तु उन्हें अमली जामा पहनाने की प्रतिबद्धता नहीं है। यह एक गंभीर परिघटना है कि हमारे पढ़े-लिखे तथाकथित युवा नौकरी से बाहर हैं। विकल्पहीनता की स्थिति में अपनी शैक्षिक स्तर से नीचे उतर कर नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। यहां सवाल यह भी उठना लाजमी है कि क्या हमारी शिक्षा युवाओं को दक्षता व कौशल प्रदान करने में विफल रही है कि स्नातक और परास्नातक अपनी शैक्षिक योग्यता के अनुरूप नौकरी नहीं कर पा रहे हैं। क्या हमारी शिक्षा में ही कहीं कमी है जो इस तरह की घटनाओं केा जन्म दे रही है। यदि हमारे स्नातक और परास्नातक चपरासी की नौकरी करने पर विवश हैं तो हमारे नीति नियंताओं को नींद से जल्द जाग जाना चाहिए।
यहां यह न मान लिया जाए कि चपरासी के काम व किसी भी काम को कमतर आंकने व हेय दृष्टि से देखने की कोशिश की गई है। काम कोई भी खराब व निम्न नहीं होता। इससे किसी को गुरेज नहीं है। लेकिन सवाल उठता है कि यदि पीएचडी, एम ए, एमएस सी डिग्रीधारी चपरासी के पद पर काम करेगा तो क्या उसकी क्षमता और योग्यता का भरपूर इस्तमाल बेहतर के लिए किया जा सकता है। अंततः चपरासी का काम वैज्ञानिक शोध, अकादमिक विमर्श के साथ तालमेल नहीं बैठा सकता। दोनों ही कामों की दक्षता, पात्रता और शैक्षिक समझ अपने काम की प्रकृति के अनुरूप होती हैं। पहले स्तर पर अत्यधिक पढ़े लिखे होने की आवश्यकता ही नहीं है। वहीं दूसरे स्तर पर बिना शैक्षिक गुणवत्ता और पात्रता के अकादमिक काम नहीं हो सकता। एक सवाल यह भी पैदा होता है कि आज की तारीख में हम अपने युवाओं को क्या शिक्षा दे रहे हैं और किस स्तर की शैक्षिक दक्षता प्रदान कर रहे हैं? क्या हम उन्हें महज डिग्री बेच रहे हैं व डिग्री के साथ उन्हें जीवन कौशल और दक्षता भी मुहैया करा रहे हैं ताकि अपना जीवन भी चला सकें। सामान्यतः देखा यह भी गया है कि फलां के पास बी ए, एम ए व प्रोफेशनल डिग्रियंा तो होती हैं लेकिन डिग्री के अनुरूप उनके पास समझ और कौशल नहीं होता। हाल ही में इन पंक्तियों के लेखक को पूर्वी दिल्ली नगर निगम की ओर नए टीचर की नियुक्ति प्रपत्र के दौरान प्रमाण पत्र सत्यापन में बैठने का मौका मिला। जब यह जानने की कोशिश की कि आप बतौर उर्दू के अध्यापक बनने वाले हैं, आप आने वाले दिनों में उर्दू पढ़ाएंगे, एक वाक्य लिखें कि आप उर्दू पढ़ाते पढ़ते हैं। सच यह है कि नब्बे फीसद अध्यापकों की उर्दू में यह वाक्य लिखना नहीं आया। जब डिग्री पर नजर गई तो उनकी डिग्री दिल्ली के प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों की थीं। मगर यह स्थिति केवल उर्दू की ही नहीं है बल्कि तमाम डिग्रीधारी इस तरह के मिल जाएंगे।
शैक्षिक स्थिति ऐसी है तो यह एक बड़ा गंभीर मामला है। क्या हम प्रशिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों में ऐसी शिक्षा प्रदान कर रहे हैं? यदि वे अपने विषय में इतने कमजोर हैं तो इसमें जितना दोष पढ़ने वालों का है उससे ज़रा भी कम संस्थानों में पढ़ाने वालों का नहीं मान सकते। विश्वविद्यालयों से भी निकलने वाले डिग्रीधारी अपनी डिग्री के अनुरूप ज्ञान और समझ नहीं रखते। यह किसी से भी छुपा नहीं है कि कई संस्थाएं महज डिग्री दिया करती हैं जहां न कक्षा में उपस्थिति होती है और न पढ़ने पढ़ाने के प्रति गंभीरता। इसमें बीएड से लेकर एमएड और अन्य डिग्रियां भी शामिल हैं। वर्तमान सरकार कई जोर शोर से कौशल विकास योजना पर काम कर रही है। इसे इस संदर्भ में देखने-समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि यदि यह येाजना सही तरीके से काम करती है तो बच्चे दसवीं, बारहवीं के बाद अपना काम शुरू कर सकते हैं। उन्हें बोर्ड पास करने के बाद किसी के पास जाॅब मांगने जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। वे बच्चे अपना काम स्वयं शुरू कर सकते हैं। इस बाबत उन्हें कुछ आर्थिक सहायता की जरूरत पड़ेगी तो सरकार अपनी योजनानुसार उन्हें आर्थिक मदद भी कर सकती है।
दरअसल कौशल विकास योजना अपने आप में नया कन्सेप्ट नहीं है क्योंकि गांधी जी ने 1937 के वर्धा शिक्षा सम्मेलन में ही इस बात पर जोर दिया था। उन्होंने वकालत की थी कि हर बच्चे को शिक्षा और हर बच्चे को हाथ का काम देना चाहिए। यहां पर हाथ का काम से अर्थ जीवन कौशल ही था। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे को कोई ऐसा काम ऐसी दक्षता प्रदान की जाए जिससे वो अपना जीवन यापन कर सके। इस काम में बिजली,लकड़ी, मैकेनिक आदि के काम शामिल थे। वर्तमान सरकार भी इसपर गंभीरता से विचार काम कर रही है। लेकिन गौरतलब है कि यह विकल्प कहीं न कहीं शिक्षा की परत को छिछला ही करना है। क्योंकि हम एक ओर उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और संख्या कम होने का रोना रोते हैं वहीं हम उच्चा शिक्षा में संख्या और गुणवत्ता बढ़े इसके लिए हम गंभीर नजर नहीं आते। जैसे ही हम बच्चों को शिक्षा का विकल्प यानी कौशल विकास योजना का डारे हाथों में पकड़ाते हैं वैसे ही वे बच्चे व उनके अभिभावक उन्हें उच्चा शिक्षा में भेजने की बजाए अपनी आर्थिक स्थिति ठीक करने में इस्तमाल करने लगते हैं। यदि वजह है कि आज उच्च शिक्षा व शोध पाठ्यक्रमों में जाने वालों की संख्या तेजी से घटी है। सवाल यह भी उठता है कि शोध की गुणवत्ता में गिरावट के लिए भी हमारी शिक्षा-नीति और अन्य कारक भी जिम्मेदार हैं। इसमें सरकारी नीति, योजनाएं और शैक्षिक आयोगों की सिफारिशों को नजरअंदाज करना एक तरह से हमारे युवाओं के भविष्य से खेलना ही है।

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