कौशलेंद्र प्रपन्न
बच्चे क्लास में भोजपुरी और बंगाली बोलते हैं। कुछ बच्चे तो अवधी और स्थानीय बोलियों का इस्तमाल करते हैं। ऐसे बच्चों को किस भाषा में पढ़ाया जाए। इन बच्चों की बोलियों को किस तरह से मानक हिन्दी की ओर मोड़ें आदि सवाल एक नहीं बल्कि सौ से भी ज्यादा अध्यापकों की हैं जो दिल्ली के सीमापुरी,गोकुलपुरी, जाफ़राबाद, ओल्ड सीमापुरी आदि के एमसीडी स्कूलों में पढ़ाते हैं। इन स्कूलों में बच्चे उत्तर प्रदेश और बिहार से आने परिवारों के होते हैं। इनकी मातृभाषा भोजपुरी, अवधी या फिर स्थानीय बोलियां हुआ करती हैं। इन बच्चों को पढ़ाने के दौरान भाषायी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वहीं एक और गंभीर सवाल एक अध्यापक ने उठाया कि उनके स्कूल में अधिकांश बच्चे काॅपी में पीछे से लिखना शुरू करते हैं। यानी उर्दू में जिस तरह से हिन्दी के उलट पीछे से लिखे जाते हैं उसी तर्ज पर इन स्कूलों में बच्चे लिखा करते हैं। यहां तक कि बच्चे लेेखन के स्तर पर बच्चे उर्दू के तरीके का पालन करते हैं। ऐसी शैक्षिक पठन-पाठन कक्ष में अध्यापक किस तरह से उन बच्चों को भाषा यानी हिन्दी पढ़ाए। काफी विमर्श के बाद हमने यह रास्ता निकाला कि जिन बच्चों मंे यह आदत पैठ चुकी है उन्हें धीरे धीरे हिन्दी की देवनागरी में लिखने का अभ्यास कराएं। लेकिन अध्यापकों का एक समूह संतुष्ट नहीं था क्योंकि जिस विधि से वे पढ़ा रहे हैं उससे रिमझिम की किताब को पाठ्यक्रम के अनुसार समय पर पूरा नहीं कर पाते। इतनी ही नहीं बल्कि बच्चों को जब गतिविधियों के जरिए हिन्दी शिक्षण कराते हैं तब भी इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में गतिविधियों के जरिए शिक्षण के दौरान सबसे बड़ी अड़चन आती है वह पाठ्यक्रमों को समय पर पूरा कराना होता है। क्योंकि जब भी मूल्यांकन होता है तब कोई भी बच्चों की रोचक शिक्षण को नहीं देखता बल्कि अंतिम रिजल्र्ट देखा करते हैं।
कक्षा में भाषा कैसे पढ़ाई जाए इस पर शिक्षा दर्शन और शैक्षिक विमर्श हमें रास्ते भी दिखाते हैं कि बच्चों को भाषा व अन्य विषयों का शिक्षण मातृभाषा में ही करना चाहिए। इसका एक और बड़ा लाभ यह है कि बच्चों की चिंतन और विमर्श के साथ ही समझ की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है। मनोविज्ञान और प्रयोग इसे साबित कर चुके हैं कि यदि बच्चों को कम से कम प्रारम्भिक स्तर पर शिक्षण उनकी मातृभाषा में की जाए तो वह बच्चों के भविष्य के लिए ज्यादा प्रभावी होता है। बच्चे स्वतंत्र- चिंतन और सृजनात्मक चिंतन में ज्यादा सफल होते हैं। ऐसे बच्चों में यह पाया गया है कि मातृभाषा में बच्चे लेखन, वाचन और पठन के स्तर पर ज्यादा प्रभावशाली तरीके से सीखते हैं। ऐसे बच्चे लिखने और बोलने के स्तर पर काफी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 बड़ी ही शिद्दत से इस तथ्य को रखता है कि प्रारम्भिक स्तर पर बच्चों को मातृभाषा के जरिए शिक्षण करना चाहिए। बच्चे मातृभाषा में सक्षम और कुशलता पूर्वक प्रदर्शन कर पाते हैं। इसी आवश्यकता को गांधी जी ने 1937 में वर्धा शिक्षा सम्मेलन में कहा था। उनका तर्क था कि बच्चों को प्राथमिक कक्षा तक मातृभाषा में शिक्ष दी जानी चाहिए। लेकिन उनकी बात को राजनीतिक घटकों में गंभीरता से नहीं लिया गया। भाषाविद्ों और शिक्षाविद्ों की राय में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।
शिक्षा और भाषा शिक्षण के तौर तरीका समय के अनुसार बदले हैं। निजी और सरकारी स्कूलों में शिक्षण और भाषायी शिक्षण में स्थानीय बोलियों और मातृभाषा को हाशिए पर धकेला गया है। इसके पीछे बाजार और मांग की भूमिका अहम है। बाजार और अभिभावकों की मांग हिन्दी व बच्चों की मातृभाषा शिक्षण की बजाए उस भाषा की होती है जिसकी मांग बाजार और रोजगार की दृष्टि से ज्यादा है। यही वजह है कि कई निजी स्कूलों में कक्षा आठवीं से हिन्दी को वैकल्पिक विषय में डाल दिया जाता है। बच्चों के पास हिन्दी के समानांतर जर्मन, मंदारियन, फ्रेंच, इटेलियन, अंग्रेजी आदि भाषा का विकल्प होता है। बच्चे अपने पूर्व मित्रों और अभिभावकों की इच्छा और उम्मीदों को ही आगे बढ़ाते हैं बच्चे उसी भाषा को आठवीं चुनते हैं जिसमें नंबर ज्यादा मिलते हों, रोजगार की संभावनाएं अधिक खुलती हों, समाज में प्रतिष्ठा सर्वाधिक हो आदि। इस स्तर पर हिन्दी पीछे धकेली जाती है। स्कूल स्तर पर मातृभाषा व हिन्दी के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव होता है। ऐसा नहीं है कि काॅलेज व विश्वविद्यालय स्तर पर कुछ बेहतर स्थिति मिलती है। उच्च शिक्षा के स्तर पर देखें तो यहां भी मातृभाषा, गैर हिन्दी भारतीय भाषाओं को स्थिति भी संतोषजनक नहीं है। उच्च शिक्षा में उसी भाषा का वर्चस्व है जिसका बाजार और समाज में सिक्का चलता है। यही वजह है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों और राज्यस्तीय विश्वविद्यालयों में तो भाषा व मानविकी विभाग वजूद में हैं लेकिन निजी व पीपीपी तर्ज पर खुले नए शिक्षण संस्थानों में भाषा व मानविकी विभाग या तो खोले ही नहीं गए हैं या फिर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को बाहर का रास्ता दिखाया गया है। नए खुल रहे विश्वविद्यालयों में मानविकी की बजाए मैनेजमेंट, प्रौद्योगिकी आदि विषयों को खिलने का भरपूर मौका दिया जा रहा है।
भाषा और मातृभाषा और शिक्षण की चुनौतियों के मद्देनजर विमर्श की परिधि में हमें यह गुंजाइश भी रखनी पड़ेगी कि शिक्षा और भाषा शिक्षण की शैली क्या हो। किस तरीके से भाषा शिक्षण में मातृभाषा को रेखांकित किया जाए। मातृभाषा के शिक्षण में बच्चे की मूल भाषा को बिना तवज्जो दिए हमउ से मातृभाषा व अन्य भाषा का शिक्षण नहीं कर सकते। प्रथमतः हमें बच्चे की मातृभाषा को माध्यम बना कर ही दूसरी भाषा का शिक्षण करना चाहिए। मातृभाषा कहीं न कहीं दूसरी भाषा सीखाते वक्त सहायक होती हैं। क्योंकि बच्चे अपनी जबान से दूसरी जबान में सहजता से संक्रमित होते हैं। हालांकि यह सिद्धांत बड़ों पर भी लागू होता है। लेकिन प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा शिक्षण को जब तक गंभीरता से नहीं लेंगे तब तक बच्चे भाषा चाहे वह मातृभाषा हो या अन्य भाषा उसकी भाषा के कौशलों में दक्ष नहीं हो पाएगा।
यदि समग्रता में विमर्श करें तो पाएंगे कि प्राथमिक स्तर पर भाषा शिक्षण पर समुचित जोर नहीं दिया जाता जिसका परिणाम हमें काॅलेज और विश्वविद्यालय के स्तर पर दिखाई देते हैं। बच्चे बीए एम ए कर लेते हैं लेकिन उन्हें तो अपनी मातृभाषा पर मजबूत पकड़ बन पाता है और न दूसरी भाषा के कौशल में दक्ष हो पाते हैं। हिन्दी तो कहीं पीछे छूट ही जाती है साथ ही दूसरी भाषा भी कोई ख़ास मददगार साबित नहीं होती। इस तरह से बच्चे की भाषायी गति हमेशा ही दोयमदर्जे की रह जाती है।
No comments:
Post a Comment