Tuesday, August 28, 2018

जॉब, तनाव और हम


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम सब अपनी अपनी जॉब से परेशान रहते हैं। कोई अपने बॉस से तो कोई अपनी जॉब की प्रकृति से। कहीं न कहीं कुछ तो है जिससे हम सब परेशान रहा करते हैं। यदि काम को समझते हुए और रणनीति बनाकर कर्मचारियों को दी जाएं तो संभव है हमारे कर्मचारी काम को बेहतर तरीके से बिना रोए करें। लेकिन बॉस व कहिए ऊपर बैठे लोगों को भी कई बार इतनी हड़बड़ी होती है कि उस बेचैनी को सीधे नीचे सरका दिया करते हैं।
तकनीके के आ जाने से जैसे जैसे काम आसान हुए वैसे वैसे काम उलझते भी चले गए। हाथ में कम्प्यूटर न आ गया गोया समझते हैं कि हर चीज तुरत फुरत में एक क्लीक में हासिल की जा सकती है। जबकि ऐसा है नहीं।
सरकारी दफ्तर हो या निजी कंपनियां हर जगह ऐसे निराश और हताश लोगों कीं संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है जो काम की अपेक्षा और परिणाम की उम्मींद लगातार कर्मचारी को तनाव में डाल रहे हैं। राखी की ही बात है घर पर सरकारी तंत्र में काम करने वाले भी थे और निजी कंपनी में काम करने वाले भी। जब एक बार शिकायतों और असंतुष्टी की बात चली तो सबके दुःख, दर्द,तनाव एक एक कर खुलने लगे। देखते ही देखते सभी के अंदर दबी या सोई भी निराशा फ्लोर पर फैलने लगी।
गोया कोई अपनी जॉब से खुश नहीं है। सरकारी नौकरी करने वालों के तर्क थे कि जब 2002 के बाद पेंशन भी नहीं है फिर क्यों हम सरकारी नौकरी में आएं। वहीं पहले सरकारी नौकरी को थोड़ा ही सही आराम का पर्याय माना जाता था। लेकिन अब तो वह भी जाता रहा। अब तो वाट्सएप पर काम की लिस्ट भेज दी जाती है। न पैसे हैं और न चैन फिर क्योंकर आज भी बच्चे सरकारी नौकरी की ओर भागते हैं आदि।
जॉब की प्रकृति हर जगह बदली ह,ै बल्कि बदल रही है। क्या सरकारी और क्या निजी। काम का दबाव और काम की त्वरित गति में मांग दोनों ही स्तरों पर रफ्तार और दबाव को महसूसा जा सकता है। हालिया एक वाकया बयां करना चाहता हूं कि एक व्यक्ति से साझा किया कि रात में 11 बजे मेल मिलता है कि कल आपको फलां जगह फलां काम के लिए जाना है आदि। वह व्यक्ति सुबह मेल चेक करता है और प्री प्लान्ड काम को पीछे धकेल कर आज मिले आदेश को पूरे करने में जुट जाता है। ऐसे और भी वाकये हैं जिन्हें देखते और सुनते हुए एहसास होता है कि जब हम स्वयं व्यवस्थित नहीं होते तब ऐसी अफरा तफरी का सामना करना पड़ता है। इतना ही बल्कि जब हमारे पास पूर्व योजनाबद्ध काम की सूची नहीं होती तब भी ऐसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं।
फर्ज़ कीजिए जब आपसे अचानक फलां लिस्ट मांगी जाती है जिसे आपने कमतर प्राथमिकता की सूची में रखा था अब उसे रिटी्रव करना हमारे लिए मुश्किल होता है। यानी यदि हम अपने काम को सही तरीके से, सही स्थान पर, सही नाम से आदि सुरक्षित रखें तो कभी भी हमें फाइल डेटा आदि को पुनःपाने में ज़्यादा समय बरबाद नहीं होगा। लेकिन ऐसी ही तो नहीं कर पाते। कहां की फाइल कहां रख देते हैं। कौन सी फाइल किस ड्राइव में सेव कर देते हैं इसका ख़मियाजा हमें तब भुगतना पड़ता है जब हमसे हमारे बॉस या उच्च अधिकारी मांग बैठते हैं। 

Monday, August 27, 2018

तुम्हारी हथेली...




तुम्हारी हथेली ख़ाली नहीं होगी-
रखा करूंगा एक प्यार,
अपना माथा,
माथा याने
तमाम अहम्।
धर दूंगा तुम्हारे आंचल में-
एक उम्मींद,
एक आस,
एक प्यार का पुंज।
रोज़ ही रख दूंगा-
इतना प्यार,
कि कम नहीं होगा कभी,
खरचों जितना भी।
संभालना मेरा प्यार
रोज़ जो बो दूंगा एक प्यार,
तुम्हारी हथेली पर।

चेहरा-विहीन हमजानी



कौशलेंद्र प्रपन्न
हमलोगों ने कभी न कभी बड़ी बड़ी दुकानों में डमी देखी होगी। उसका कोई चेहरा नहीं होता। एक मिट्टी के लोंदे के मानिंद होता है। जिसकी न नाक होती है, न मुंह होता है। और न ही आंखों। बस एक अंड़ाकार लोंदा होता है। उस डमी पर जो भी कैप लगा दें। जो भी कपड़े डाल दें वह वैसा ही हो जाता है।
कई बार लगता है कि हम भी काफी हद तक वैसे ही मिट्टी के लांदे अपने कंधे पर डालकर डोला करते हैं। अपनी न तो इच्छा रही। न ही पसंद। जो उनको हो पसंद वही बात करते हैं। यदि ऐसा नहीं करते तो पिछड़ जाते हैं। या फिर धकीया दिए जाते हैं।
हर व्यक्ति एक नहीं दो नहीं बल्कि तीन से भी ज़्यादा चेहरे लेकर जी रहा है। उन चेहरों से परेशान हो कर भी नहीं उतारता। बल्कि उसकी भी कुछ मजबूरी होती है जिसकी वजह से वह कई कई चेहरे ओढ़ा होता है। एक चेहरा पहचाने जाने के बाद दूसरा चेहरा झट से पहन लेता है।
बचपन में मां एक कहानी सुनी थी कि वह एक मायावी राक्षस है। उसके कई कई चेहरे होते हैं। एक पहचान लिए जाने पर तुरंत रूपधारण कर लेता है। और ऐसे ही वह जीता है।
आज कल ऐसे ही मंज़र हैं समाज में। एक रूप पकड़ लिए जाने पर हम तुरंत दूसरा रूप ओढ़ लिया करते हैं। यह हर जगर देखे जा सकते हैं। ऐसे चेहरे घर-बाहर, स्कूल, दफ्तर हर जगह हैं। इन्हें देख कर कोफ्त सी होती है। लेकिन कई बार हमारी मजबूरी होती है कि हम जानते हुए भी इन्हें साथ लेकर चला करते हैं।

Friday, August 24, 2018

शिक्षा में द्वंद्व और युद्ध प्रभावित क्षेत्र के बच्चे



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पल प्रति पल संघर्ष करने पड़ते हैं। वह किसी भी देश, भूगोल की शिक्षा हो, उसे शैक्षिक-अस्तित्व को जिं़दा रखने के लिए विभिन्न किस्म की चुनौतियों (राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक) से रू ब रू होना पड़ता है। इन्हीं संघर्षों के बीच शिक्षा को अपने रास्ते भी बनाने पड़े हैं। शिक्षा और शिक्षण संस्थानों को हमेशा से ही राजनीतिक और सामाजिक साथ ही युद्ध आदि में एक सशक्त औजार के रूप में इस्तमाल किया जाता रहा है। इतना ही नहीं बल्कि स्कूल से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालयों को शिक्षा-शिक्षण से एत्तर सामाजिक आंदोलन के सूत्रधार के तौर पर देखा और स्वीकारा गया है। विश्व के तमाम देशों में स्कूल और स्कूली बच्चों को कई बार युद्ध में एक सस्ते सैनिक के तौर पर इस्तमाल किया गया। शिक्षा भारत की हो या सोमालिया, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि इन संघर्ष और यृद्ध के कगार पर खड़े देशों में शिक्षा को शिकार बनाया गया है। हमारा पड़ोसी देश नेपाल व पाकिस्तान एवं श्रीलंका आदि को समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि इन देशों में स्कूल और स्कूली बच्चों को हमेशा निशाना बनाया गया। कौन भूल सकता है जब पाकिस्तान पर 2014 में स्कूल पर हमला किया गया और बच्चे समेत शिक्षकों की मौत हो गई। वहीं नेपाल में सत्ता परिवर्तन के दौरान बल्कि कहें राजतंत्र से लोकतंत्र की ख़ूनी यात्रा में लाखों बच्चे शिक्षकों को निशाना बनाया गया। सेव द चिल्ड्रेन से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की तमाम शोध बताते हैं कि इन संघर्षों और युद्ध आशंकित क्षेत्र में बच्चे स्कूल छोड़ युद्ध में जोत दिए गए।
हाल ही में डॉ संजीव राय द्वारा अंग्रेजी में लिखी पुस्तक ‘‘कॉन्फल्क्टि, एजूकेशन एंड द पीपल्स वॉर इन नेपाल’’ आई है। समीक्ष्य पुस्तक बड़ी ही शिद्दत से नेपाल में प्राथमिक शिक्षा, स्कूल, शिक्षक, बच्चे और जनांदोलन की जिं़दा तसवीर प्रस्तुत करती है। संजीव राय ने इस पुस्तक में जिस गहनता से नेपाल से जनांदोलन जिसे हम राजसत्ता से लोकसत्ता की विकास यात्रा कह सकते हैं, इसकी ऐतिहासिक साक्ष्यों के मद्दे नज़र विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। 1992, 1995 से लेकर 2007 और 2009 तक की इस लोकतांत्रिक विकास यात्रा को न केवल शैक्षिक लेंस से देखने, समझने की कोशिश की है बल्कि संजीव इस किताब में शिक्षा की यात्रा को सामाजिक एवं राजनैतिक विकास और इतिहास से भी जोड़ते हुए समझना और उन बारीक तंतुओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं जिन्हें सुलझाए बिना हम नेपाल की बुनियादी शिक्षा यानी प्राथमिक शिक्षा एवं लोकतंत्र की स्थापना को समझने का दावा नहीं कर सकते।

Monday, August 20, 2018

अस्पताल का बिस्तर



कौशलेंद्र प्रपन्न
जो भी अस्पताल में प्रवेश करता है वही जीवन-दर्शन का भाष्यकार हो जाता है। जीवन ही बीमारी, कराह, टीस का पर्याय सा लगने लगता है। जहां भी नज़रें जाती हैं वही एक पीड़ा, वहीं एक दर्द सुनाई, दिखाई देती है। ख़ुद जाएं या किसी प्रिय को अस्पताल लेकर जाएं एक बार के लिए ही सही कई सारे वायदे ख़ुद से कर लेते हैं। अब ऐसा नहीं खाउंगा। रोज़ टहलने जाउंगा। खाने का ख़्याल रखूंगा आदि आदि। और जैसे ही अस्पताल पीछे छुटता है वैसे ही सारे वायदे पीछे वहीं अस्पताल में बेंच पर छूट जाते हैं।
हम अपने जीवन में कभी न कभी अस्पताल जाते ही हैं या गए ही हैं। कभी ख़ुद तो कभी प्रिय जन को लेकर। अस्पताल के बिस्तर पर लेटा व्यक्ति अचानक दाशर्निक की मुद्रा में दिखाई देता है या फिर निःसहाय। वह व्यक्ति हर सांस ऐसे लेता है गोया यह उसकी अंतिम सांस है। वह हर रिश्तेदार, बच्चों को देख-सुन लेना चाहता है। उन सब से मिल लेना चाहता है जो भी उसकी ज़िंदगी में कभी न कभी आए हों। न जाने किसकी बात से, किसकी घटना से उसे उत्साह मिल जाए। किसी बातचीत में उसे जीने की ऊर्जा मिले इसलिए तीमारदार बिना भूले सब से बातें कराया करते हैं। लेकिन हमें किसी की बात और किसी की प्रवृति से यदि बहुत परिचय नहीं है तो वह बीमार व्यक्ति को और भी घोर निराशा में डाल सकता है। जीने ललक देने की बजाए कभी जीवन के प्रति निराशा और नकारात्मक सोच को तो नहीं बढ़ा रहा है। इसपर हमारा नियंत्रण नहीं होता। और बिस्तर पर लेटा व्यक्ति गहरे निराशा में डूबने लगता है। कहां तो तय था कि फलां से बात कर रोगी को सुखद एहसास होगा। अच्छा लगेगा लेकिन हुआ उलट। रोगी की मनोदशा और भी टूटन से भर गई। रोने लगा। देखने वाले को लगता है कि शारीरिक कष्ट की वजह से रो रहा है। लेकिन होता अलग है। बिस्तर पर लेटे हुए व्यक्ति ने अभी अभी जिससे बात की है उसने ऐसी बात बोल दी जिससे मरीज़ के अंदर निराशा और असहाय होने के भाव प्रबल हो गए। देखने वाले को समझने में समय लग जाता है। लेकिन जो डैमेज होना था वह उस व्यक्ति ने कर दिया।
अस्पताल के दृश्य भी अजीब होते हैं। वहां के कर्मचारियों के व्यवहार भी कई बार हैरान करते हैं। हमें लगता है, सुन नहीं रहा है। हमें यह भी महसूस होता है कि कितना असंवेदनशील है आदि। जबकि ऐसा होता नहीं है। वह संवेदनशील भी है और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग भी। समय पर दवा देना। रोगी का देख भाल सब कुछ करता है। बस हमें लगता है कि एक पांव पर क्यों नहीं खड़ा है। क्यों नहीं एक आवाज़ में सुन लेता। आप देखिए अस्पताल के कर्मचारियों के लिए वह रोज़दिन की घटना है। रोज़ ही जहां नए नए और पुराने रोगी आया करते हैं। हर किसी का चेहरा उतरा हुआ। ग़मज़दा और दुख में डूबा हुआ। वह सुबह से रात सोने से पहले तक ऐसे हज़ारों चेहरे देखा करता है। भला अस्पताल में कोई खुश होकर जाता है? हां जब घर में नए मेहमान का आगमन होता है तब खुशी लहर दौड़ जाती है उस वार्ड में। बलून, रंग, किलकारी आदि। इस तरह से देखें तो अस्पताल के लिए कई रंग-रूप हैं। एक हिस्सा ऐसा है जहां मरीज बीमार जाता है और ऑपरेशन के बाद बिस्तर पर लौटता है। जब होश आता है तो पाता है कि फलां अंग में दर्द है। वहीं एक कोना ऐसा होता है जहां तीमारदार, देखने वाले बेंच पर बैठे बैठे अपने सीएल, छुट्टियों के हिसाब में लगे होते हैं। और कितना दिन आना होगा। ऑफिस कब जा पाएंगे। इस कोने की अपनी निराली कहानी होती है। इस कहानी में बीमार तो मुख्य भूमिका में होता है। बाकी अवांतर कहानियां चल रही होती हैं। घर-परिवार। परिवार के सदस्यों की बातें। कौन आया, कौन नहीं आया। कौन रात में रूकेगा किसकी आज रात रूकने की बारी है। इस उधेड़ बुन में कई के चेहरे उतरे होते हैं तो कुछ के चेहरे यथावत् बने रहते हैं।
जो भी हो बुद्ध के जीवन में तीन ही तो घटनाएं आई थीं जिसने सिद्धार्थ को बुद्ध बनाया। बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु। हम जब भी इनमें से किसी भी अवस्था का चस्मदीद बनते हैं हमारे अंदर भी कहीं न कहीं एक बुद्धत्व जगने लगता है। हम वायदे करने लगते हैं और जब बाहर आते हैं अपनी तमाम घोषणाएं, वहीं पीछे छोड़ आते हैं। और ऐसे ही हम बुद्ध बनने से वंचित रह जाते हैं।

Thursday, August 16, 2018

प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर प्रयासरत सरकार



कौशलेंद्र प्रपन्न
देश के विभिन्न राज्यों में सरकारें प्राथमिक शिक्षा में कई स्तरों पर गुणवत्ता के मसले को लेकर न केवल िंचंतित है, बल्कि प्रयास कर रही हैं। मुख्यतौर पर बच्चों में भाषायी कौशलों मसलन सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना आदि को लेकर दिक्कतें आती हैं। इन कौशलों में भी पढ़ना और लिखना ऐसे कौशल हैं जिनमें बच्चें ने केवल बिहार बल्कि अन्य राज्यों में भी पिछड़ रहे हैं। इसका प्रमाण समय समय पर असर और सरकारी दस्तावेज भी देती रही हैं। हालिया एनसीईआरटी की ओर किए गए अध्ययन में पाया गया कि बच्चों में पढ़ने-लिखने और गणित की दक्षता में ख़ासा परेशानी आती है। यह स्थिति आज से नहीं बल्कि पिछले एक दशक में ज़्यादा संज्ञान में आया है। विभिन्न रिपोर्ट इस मसले पर अपनी चिंता प्रकट कर चुकी हैं। बिहार सरकार इन्हें गंभीरता से लेते हुए राज्य में प्राथमिक स्कूलों में बच्चे गणित और भाषायी दक्षता ख़ासकर पढ़ने और लिखने को कक्षा तीसरी और पांचवीं में सुधारने के लिए प्रयास कर रही है।
बिहार में प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है। हालांकि न केवल बिहार बल्कि अन्य राज्यों में भी प्राथमिक स्तर पर बुनियादी कौशलों में बच्चे तय स्तर से नीचे पाए गए हैं। इन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए इसके लिए बिहार सरकार ने एक योजना का एलान किया है। इस योजना के तहत तमाम प्राथमिक स्कूलों में कक्षा तीसरी और पांचवीं के बच्चों में गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल पर काम किया जाएगा। साथ ही भाषायी कौशल विकास को लेकर समय समय पर सवाल उठते रहे हैं। इन्हें संज्ञान में लेते हुए बिहार सरकार ने घोषणा की है कि प्राथमिक स्कूलों में इन्हीं कक्षाओं के बच्चों में पढ़ने और लिखने के कौशल विकास पर भी सघन कोशिश की जाएगी।
बच्चों में भाषायी कौशल और गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल प्रदान करने का प्रयास तो ठीक है किन्तु यह एक अन्य चिंता भी जगाती है क्या हमारे शिक्षक और अन्य संसाधन इन योजना और पूरा करने में सक्षम और समर्थ हैं? क्या हमारे पर इस योजना को सफल बनाने के लिए पूरी कार्य योजना और रणनीति तैयार है आदि। क्योंकि इससे पूर्व भी देश भर में इन बुनियादी कौशलों के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं की शुरूआत की गई। इसका परिणाम अभी तक पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इससे पूर्व देश भर में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, सर्व शिक्षा अभियान आदि की भी शुरूआत की गई। इन तमाम अभियानों में जो कमी देखी गई वह इनके कार्यान्वयन स्तर पर थी। ये योजनाएं अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों में तो स्पष्ट थे किन्तु इन्हें सही तरीके से रणनीति बनाकर एक्जीक्यूट नहीं किया गया। अब तक का सबसे बड़ा शैक्षिक संघर्ष शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को बनने में तकरीबन सौ साल का वक़्त लगा। इसे 2010 में अप्रैल देश भर में लागू किया गया। लेकिन इसमें भी ख़ामियां देखी और निकाली गईं। क्या इस आरटीई में कोई कमी थी या फिर इसे जिस शिद्दत से स्वीकारा जाना चाहिए था या फिर एक्जीक्यूट करने में हमसे कोई चूक रह गई इसे भी समझना होगा। इस संदर्भ में हमें बिहार के इस प्रयास को देखने और समझने की आवश्यकता है।
स्कूली स्तर पर जो लोग जुड़े हुए हैं। बल्कि कहना चाहिए जो परिवर्तन की मुख्य कड़ियां हैं जिन्हें हम शिक्षक व प्रधानाचार्य आदि के नाम से जानते हैं? क्या यह कड़ी मजबूत है इसे पूरे करने में? क्या उन्हें इस अभियान की बारीकियों और चुनौतियों से रू ब रू कराया गया है? क्या उन्हें इसके लिए कोई विशेष प्रशिक्षण दी गई है कि कैसे इसे कक्षायी स्तर पर उतारा जाना है। क्योंकि बिना प्रशिक्षित शिक्षकों के यह पढ़ने और गणित की बुनियादी दक्षता को हासिल करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। जैसा कि सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट बताती हैं कि न केवल बिहार में बल्कि देश भर के विभिन्न राज्यों में हमारे प्राथमिक स्कूली शिक्षा शिक्षकों की कमी से जूझ रही है। बिहार उनमें से एक है। इस राज्य में भी लाख से ज्यादा प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों के पोस्ट ख़ाली हैं। बिना शिक्षकों के क्या यह अभियान सफल हो पाएगा? 2009 के पूर्व बिहार में भी प्रशिक्षित, अर्द्ध प्रशिक्षित शिक्षकों, शिक्षा मित्रों आदि के सहारे प्राथमिक शिक्षा को आगे बढ़ाया जा रहा था। लेकिन 2010के बाद वर्तमान सरकार ने तब पटना के गांधी मैदान में हज़ारों की संख्या में बीए एम ए पास प्रतिभागियों को स्कूलों में ज्वाइन कराया था। और क्योंकि आरटीई एक्ट 2009 की मुख्य स्थापना है कि गैर प्रशिक्षित शिक्षकों को सरकार तीन वर्ष में सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रदान करेगी।
हमें प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी और रिक्त पदों को भरने की ओर भी योजनाबद्ध तरीके से कार्ययोजना तैयार करने की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बगैर यह योजना भी अन्य योजनाओं के तर्ज़ पर विफल हो सकती हैं। पढ़ना-लिखना और गणित की बुनियादी कौशल विकास को न केवल सहस्राब्दी विकास लक्ष्य में शामिल किया है बल्कि सतत् विकास लक्ष्य 2030 के लिए भी प्रमुख माना गया है। यदि बिहार सरकार इस लक्ष्य को हासिल कर पाती है तो यह राज्य अन्य प्रदेश सरकार के लिए भी मिसाल कायम करेगी। हमें इसे सफल बनाने के लिए सिर्फ और सिर्फ राज्य सरकार की जिम्मेदारी मान कर नागर समाज ख़ामोश नहीं बैठ सकता। बल्कि नागर समाज को सरकार के इस अभियान में आगे आना होगा। प्रथम संस्था बिहार के इस अभियान में नालंद में कुछ समूहों का निर्माण कर चुकी है। जिनके साथ पढ़ने-लिखने और गणित की बुनियादी दक्षता विकास में सहयोग कर रही है।

Tuesday, August 14, 2018

बहत्तर साल हो गए आज़ाद हुए



कौशलेंद्र प्रपन्न

हां सुना है ऐसा ही कि हम यही कोई बहत्तर साल पहले तमाम गुलामियों से आज़ाद हुए थे। हम आज़ाद हुए थे पूर्वग्रहों से ऐसा कह सकते हैं? क्या यह मान सकते हैं कि इन सालों में हम सचमुच अपनी कट्टर सोचों से मुक्त हो पाए हैं? क्या ऐसा है कि जो हम आजादी से पूर्व थे उससे कहीं ज़्यादा बेहतर से हो गए हैं। आदि ऐसे सवाल हैं जो आज भी अपनी जगह पर खड़े हैं और हमसे जवाब मांग रहे हैं।
हमने इन बहत्तर सालों में और कुछ किया हो या नहीं लेकिन अपने स्कूली बच्चों, आस-पास की बच्चियों को सुरक्षा तक मुहैया नहीं करा पाए। आए दिन स्कूलों या आस पड़ोस में ऐसी घटनाएं घटती हैं जिन्हें देख सुन कर महसूस हेता है कि यह कैसे आजादी हासिल की कि हम अपने बच्चों को कम से कम एक भय और डर मुक्त घर-बाहर तक नहीं दे पाएं।
न हम ऐसा समाज बना पाए जहां हमारे बच्चे, बड़ी लड़कियां या बुढ़े सुरक्षित महसूस कर सकें। हमने संविधान तो बना ली। हमने सरकारें भी खूब बनाईं। मगर जो नहीं बना पाए वह है एक बेहतर इंसान। हालांकि बेहतर इंसान किसी कारखाने में नहीं बनते। और न ही किसी खेत में उपजा करते हैं। बल्कि स्कूल और घर जैसे जमीन में ही पैदा हुआ करते हैं। हमारा न घर और न स्कूल ही ऐसी जमीन बन पाई जहां अच्छी फसल उगाई जा सके।
इन बहत्तर सालों में विकास बहुत किया। शहर से महानगर में बसना सीख लिया। तमाम आधुनिक संसाधनों में जीना सीख लिया। लेकिन हम यह नहीं सीख सके कि मिलजुल कर कैसे रहा जाता है। आज भी उस तक़्सीम में बिखरे परिवार ज़िंदा हैं जिन्हें आज भी अपनों की तलाश है। 

कुछ शब्द


कुछ शब्द हमेशा उगलता हूं-
तेरे लिए लिखता हूं,
रोज़ ही कुछ प्रेम भरे शब्द भेजता हूं,
ख़ाली शब्द नहीं मैं नहीं हूं।
हूं पूरा अर्थ तुम्हारे लिए-
नहीं जानता हूं कितना ज़रूरी तुम्हारे लिए,
मगर लिखता भी हूं सिर्फ तुम्हारे लिए,
गाता भी हूं तुम्हें ही।
मालूम नहीं हूं कितना तेरे पास-
मगर आस रही हमेशा,
तेरे प्यार को महसूसता,
बस इस उम्मीद में,
हूं कहीं न कहीं तुम्में,
शायद तुम मान न पाओ,
कहने ये भी डरो,
मगर सच ही है न,
कहीं तो हूं तुम्में।

Friday, August 10, 2018

कुछ जो रह गया



कौशलेंद्र प्रपन्न
कुछ क्यों रह जाते हैं। कुछ क्यों छूट जाता है, कभी हमने इसपर ठहर कर नहीं सोचा। अक्सर हम अपनी बातें बिना सोचे समझे और समय का ध्यान रखे कहने में लग जाते हैं। हम कहते बहुत हैं। मगर फिर भी कुछ शिकायतें रह ही जाती हैं। काश और वक़्त मिला होता तो अपनी पूरी बात रख पाता। जैसे परीक्षा देने बैठा बच्चा कहता है, आता तो सब था लेकिन कापी छीन ली। वक़्त ही नहीं बचा। थोड़ा और समय मिल जाता तो सारे सवाल कर लेता। लेकिन जिं़दगी में परीक्षा लेने वाला भी कभी ज़्यादा समय नहीं देता। जितना समय तय है उसमें ही अपनी बात कहनी होती है।
दरअसल कल मेट्रो में कुछ लड़कियों को अपने दोस्तों से बातचीत करते सुना वैसे किसी की बात को सुनना ठीक नहीं है लेकिन कानों पर पड़े तो सुन लिया। लड़की कह रही थी यार टाइम ही नहीं मिलता। घर पर आने के बाद पढ़ ही नहीं पाती। आदि उसकी बातों को बाकी के दोस्त समर्थन कर रहे थे। मैं सोचने लगा यदि छात्र के पास पढ़ने के लिए समय नहीं है तो किस चीज के लिए समय है। क्या केवल सोशल मीडिया पर छाने, सेल्फी पोस्ट करने आदि का समय है।
सच में हम अकसर बातचीत में शिकायत करते हैं कि यार समय नहीं है। समय नहीं मिलता आदि। दरअसल यह एक बहाना है। यदि हम अपने टाइम को मैनेज करें तो सब कुछ संभव है। दिक्कत यही आती है कि हम अपने समय और धन दोनों को ही समयोचित मैनेज नहीं कर पाते। यही लापरवाही हमें परीक्षा में पेपर लिखते हुए भी महसूस होती है। हम लिखते चले जाते हैं। इसे रफ्तार में कई सवाल अधूरे रह जाते हैं या फिर छूट ही जाते हैं। जीवन में भी हम अपने समय को ठीक से मैनेज नहीं कर पाते इसलिए हमारे सपने और काम दोनों ही अधूरे रह जाते हैं।

Thursday, August 9, 2018

सपने जो देखे वही मिले




कौशलेंद्र प्रपन्न
सपना देखने और पालने में किसी का कोई दबाव नहीं होता। हम सपने अपने लिए कई बार समाज के लिए और घर परिवार के लिए भी देखा करते हैं।
हम सब ने सपने देखे। बल्कि देखा करते हैं। हमारी लाइफ ऐसी हो जाए। यह हो जाए वह हो जाए आदि आदि। लेकिन सपनों को पूरा करने के लिए शायद प्रयास नहीं करते और सपने यूं ही बिखरा जाया करते हैं।
मैंने बचपन में या कॉलेज में सपने देखे थे कि एक लेखक,पत्रकार बनूं। यह सपना भी काफी हद तक पूरा हुआ। लिखने लगा। छपने भी लगा। दो किताबें भी लिखने की कोशिश कीं और सफल रहा।
दूसरा सपना यह भी था कि स्कूल कॉलेज में पढ़ाउं। स्कूल का सपना तो पूरा हुआ। कॉलेज हाथ से छूट गया।
मेरे भाई ने सपने देखे थे कि दिल्ली विश्वविद्यालय के आवासीय परिसर में वो रहें। यहीं पढ़ाएं। उनका सपना भी पूरा हुआ। आज वो इसी विश्वविद्यालय में पढ़ा भी रहे हैं और इसी परिसर में उनका घर भी है। आपने सपने पूरे करने के लिए उन्होंने मेहनत तो की ही साथ ही जिस प्रकार की तैयारी चाहिए उसे भी निभाया।
हमारे सपने पूरे होते हैं। हो सकते हैं। ज़रूरत बस इतनी सी है कि जो सपने हमने देखे हैं उन्हें कैसे पूरा करें इसकी रणनीति बनानी पड़ती है। और रणनीति को कैसे अमल में लाकर अंजाम तक पहुंचाएं इसके लिए संघर्ष और चुनौतियों को स्वीकारना पड़ता है।
दरअसल सपने सिर्फ हमारी वजहों से ही नहीं टूटा करतीं। बल्कि कई बार हमारे आस-पास के लोगों जिनसे हम प्रभावित हुआ करते हैं उनकी वजह से भी बिखरती हैं।
जिन आंखों में सपने नहीं हैं उन आंखों को क्या नाम देना चाहेंगे? शायद वह मरी हुई आंखें हैं। शायद उन आंखों में जीवन के प्रति लालसा नहीं रही।

Tuesday, August 7, 2018

जानता हूं ग़लत है मगर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
महाभारत का सशक्त पात्र दुर्योधन की पंक्ति याद कीजिए जानामि च धर्मं न च मे प्रवृतिः। जानामि न अधर्मम् न च मे निवृतिः।
धर्म क्या है मैं जानता हूं। लेकिन उसमें मेरी कोई गति नहीं है। अधर्म क्या है मैं यह भी जानता हूं लेकिन उससे मेरी निवृति नहीं है। यानी दूर नहीं हो सकता।
यही स्थिति आज सोशल मीडिया के लत की है। हम सभी जानते हैं और मान भी रहे हैं कि सोशल मीडिया हमारा कितना बहुमूल्य समय यूं ही खा जाता है और हम उफ्््!!! तक नहीं करते। हम जानते हैं कि सोशल मीडिया के कारण ही कई सारे लोगों के रिश्तों में दरारें भी आ गईं।
पति-पत्नी, दोस्तों के बीच के रिश्ते भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। यदि आपने दूसरों की पोस्ट, स्टेटस लाइक नहीं की। आपके कमेंट नहीं किया। तो समझिए आपका दोस्त मुंह फुला लेगा। फलां को तो इतने लाइक मिलते हैं। फल्नी के पोस्ट पर तो आपने ऐसा लिखा, वैसे लिखा आदि।
कई सारी जटाएं हैं इस सोशल मीडिया के। वह ट्वीटर, वॉट्स एप, लिंगडेन, इस्टाग्राम, फेसबुक आदि। इन्हीं चंगूलों में सोशल मीडिया हमें फांसा करती है। और हम धीरे धीरे इसके गिरफ्त में आते जाते हैं। हम कई बार मालूम ही नहीं होता। शौकीया इन मंचों पर आते हैं और जाने का नाम तक नहीं लेते।
बच्चे, प्रौढ़, वयस्क, छात्र, प्रोफेशनल सब इस हमाम में नंगे हैं। ऐसा कहूं तो बुरा न मान जाइएगा। क्योंकि यहां बेटा और बेटी, पत्नी और प्रेमिका सब अपने अपने छद्म नामों और चित्रों के ज़रिए मौजूद हैं। एक रूप पकड़े जाने पर तत्काल दूसरा रूप धारण कर लेते हैं।
दिक्कत तब ज़्यादा हो जाती है जब आपका आफिस व घर की बॉस आपकी तमामा सोशल मीडिया की गतिविधियों पर नज़र रखे और अचानक पूछ बैठे। तुम तो कह रहे थे घर में किसी की तबीयत ख़राब है। और आप तो फेसबुक, वाट्सएप, ट्वीटर पर उस वक़्त लाइव थे। कैसे कैसे... बोलिए। आप तो कह रहे थे मेरी मींटंग है मैं फोन नहीं उठा पाउंगा। लेकिन आप तो लगातार वाट्सएप पर सक्रिए थे। कैसे कैसे!!!!
इन्हीं सोशल मीडिया के चक्कर में कितने ही छात्रों की परीक्षा रसातल में चली गई। उन्हें अच्छे नंबर आने थे। उन्हें अच्छे कॉलेज में दाखिला लेना था। मगर किन्हीं सोशल मीडिया पर सक्रियता ने उनसे उनके सपने छीन लिए। कोई इन्हीं सोशल मीडिया की वजह से आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो जाते हैं। इन्हें कैसे और किस रूप में बेहतर मानें। हालांकि विज्ञान को दोधारी तलवार किसी प्रसिद्दध कवि ने कहा है। ठीक वैसे ही सोशल मीडिया जहां एक ओर पलक झपकते आपको दूर देश तक में प्रसिद्धी के मचान पर चढ़ा देता है वही दूसरी ओर आपकी विश्वसनीयता को खतरे में डाल देता है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...