कौशलेंद्र प्रपन्न
हमलोगों ने कभी न कभी बड़ी बड़ी दुकानों में डमी देखी होगी। उसका कोई चेहरा नहीं होता। एक मिट्टी के लोंदे के मानिंद होता है। जिसकी न नाक होती है, न मुंह होता है। और न ही आंखों। बस एक अंड़ाकार लोंदा होता है। उस डमी पर जो भी कैप लगा दें। जो भी कपड़े डाल दें वह वैसा ही हो जाता है।
कई बार लगता है कि हम भी काफी हद तक वैसे ही मिट्टी के लांदे अपने कंधे पर डालकर डोला करते हैं। अपनी न तो इच्छा रही। न ही पसंद। जो उनको हो पसंद वही बात करते हैं। यदि ऐसा नहीं करते तो पिछड़ जाते हैं। या फिर धकीया दिए जाते हैं।
हर व्यक्ति एक नहीं दो नहीं बल्कि तीन से भी ज़्यादा चेहरे लेकर जी रहा है। उन चेहरों से परेशान हो कर भी नहीं उतारता। बल्कि उसकी भी कुछ मजबूरी होती है जिसकी वजह से वह कई कई चेहरे ओढ़ा होता है। एक चेहरा पहचाने जाने के बाद दूसरा चेहरा झट से पहन लेता है।
बचपन में मां एक कहानी सुनी थी कि वह एक मायावी राक्षस है। उसके कई कई चेहरे होते हैं। एक पहचान लिए जाने पर तुरंत रूपधारण कर लेता है। और ऐसे ही वह जीता है।
आज कल ऐसे ही मंज़र हैं समाज में। एक रूप पकड़ लिए जाने पर हम तुरंत दूसरा रूप ओढ़ लिया करते हैं। यह हर जगर देखे जा सकते हैं। ऐसे चेहरे घर-बाहर, स्कूल, दफ्तर हर जगह हैं। इन्हें देख कर कोफ्त सी होती है। लेकिन कई बार हमारी मजबूरी होती है कि हम जानते हुए भी इन्हें साथ लेकर चला करते हैं।
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