कौशलेंद्र प्रपन्न
हां सुना है ऐसा ही कि हम यही कोई बहत्तर साल पहले तमाम गुलामियों से आज़ाद हुए थे। हम आज़ाद हुए थे पूर्वग्रहों से ऐसा कह सकते हैं? क्या यह मान सकते हैं कि इन सालों में हम सचमुच अपनी कट्टर सोचों से मुक्त हो पाए हैं? क्या ऐसा है कि जो हम आजादी से पूर्व थे उससे कहीं ज़्यादा बेहतर से हो गए हैं। आदि ऐसे सवाल हैं जो आज भी अपनी जगह पर खड़े हैं और हमसे जवाब मांग रहे हैं।
हमने इन बहत्तर सालों में और कुछ किया हो या नहीं लेकिन अपने स्कूली बच्चों, आस-पास की बच्चियों को सुरक्षा तक मुहैया नहीं करा पाए। आए दिन स्कूलों या आस पड़ोस में ऐसी घटनाएं घटती हैं जिन्हें देख सुन कर महसूस हेता है कि यह कैसे आजादी हासिल की कि हम अपने बच्चों को कम से कम एक भय और डर मुक्त घर-बाहर तक नहीं दे पाएं।
न हम ऐसा समाज बना पाए जहां हमारे बच्चे, बड़ी लड़कियां या बुढ़े सुरक्षित महसूस कर सकें। हमने संविधान तो बना ली। हमने सरकारें भी खूब बनाईं। मगर जो नहीं बना पाए वह है एक बेहतर इंसान। हालांकि बेहतर इंसान किसी कारखाने में नहीं बनते। और न ही किसी खेत में उपजा करते हैं। बल्कि स्कूल और घर जैसे जमीन में ही पैदा हुआ करते हैं। हमारा न घर और न स्कूल ही ऐसी जमीन बन पाई जहां अच्छी फसल उगाई जा सके।
इन बहत्तर सालों में विकास बहुत किया। शहर से महानगर में बसना सीख लिया। तमाम आधुनिक संसाधनों में जीना सीख लिया। लेकिन हम यह नहीं सीख सके कि मिलजुल कर कैसे रहा जाता है। आज भी उस तक़्सीम में बिखरे परिवार ज़िंदा हैं जिन्हें आज भी अपनों की तलाश है।
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