Friday, January 24, 2014

फेल कर के दिखाओ
‘बच्चों में डर खत्म हो गया है। वो पास के गुजरते हैं और गुटका थूक कर चले जाते हैं। पढ़ने में उनका मन नहीं लगता। मैडम पास तो कर ही दोगो। फेल नहीं नहीं कर सकते। यह बात बच्चों और उनके पेरेंट्स दोनों को मालूम है। इसलिए बच्चों में पढ़ने की लालसा खत्म हो गई है। हमारे हाथ बंधे हैं। हम किसी को भी कक्षा में रोक नहीं सकते। हर किसी को चाहे उसे आता हो या नहीं हमें उसे दूसरी कक्षा में धकेलना ही पड़ता है।’
जिस डर और विचारों को लिखा गया यह लेखक की पंक्तियां नहीं हैं बल्कि ये विचार कई अध्यापकों के हैं। वो कहते हैं कि पेपर में कई बार हमें गाने लिखे मिलते हैं। कुछ बच्चों ने स्पष्ट लिखा कि फेल कर के दिखाओ। उन्हें मालूम है कि शिक्षक के बस में फेल करना नहीं है।
आरटीई की बुनियाद में यह भी है कि कक्षा 8 वीं तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं कर सकते। सभी बच्चों को आठवीं तक मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा देना सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन विचार करने की बात है कि क्या यह शिक्षा है या साक्षरता। क्या शिक्षा डर सिखाती है या मुक्ति?
शिक्षा क्या मूल्य देती है या हमें पूर्वाग्रही बनाने में मदद करती है। विचार तो करना ही होगा यदि बच्चों में जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है तो कहां और कौन इसके लिए जिम्मेदार है इसकी पहचान कर उसे दुरूस्त करना ही होगा।
अध्यापिकाओं एवं अध्यापकों को जेंडर सेंसेटाइजेशन, मूल्यपरक शिक्षा और आरटीई पर बातचीत करते हुए दिल्ली के सरकारी स्कूलों के टीचर्स के साथ




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