Friday, January 17, 2014

किताब का आधार नंबर


कौशलेंद्र प्रपन्न
हर किताब की अपनी अलग पहचान और छवि होती है। कोई कहानी, उपन्यास, आलोचना, निबंध, लघु कहानी, होती हैं तो कुछ महाकाव्य, खंड़ काव्य तो कुछ वृहद ग्रंथ। हर किताब अपनी निजी बुनावट की वजह से अलग ही दिखाई देती हैं। इन किताबों को जन्म देने वाला लेखक तय करता है कि कौन सी किताब की क्या रूपरेखा होगी और किस किताब की रचनात्मक गति क्या होगी। एक बार जब किताब का बीज किसी सृजक के मन में पड़ता है बस वहीं से किताब का जन्म होता है। किताब के गर्भाधान से लेकर उसके सोलहों संस्कार तक उसका जन्मदाता यानी लेखक जुड़ा होता है कि जैसे पिता अपनी संतान से जुड़ा होता है। हां यह कहना ज़रा मुश्किल है कि किताब का अंतिम संस्कार होता भी है या नहीं। जब जर्जर अवस्था में किताब पहुंच जाती है तब उसे लाइब्रेरी से तो विड आउट कर दिया जाता है। लेकिन वह पाठकों के मन से आउट नहीं हो पाती। कई किताबें बड़ी सौभाग्यशाली होती हैं जिनका पुनप्र्रकाशन भी होता है। इस बात से इंकार करना कठिन है कि किताबें भी मानव जीवन में ख़ास स्थान रखती हैं। किताबों  बगैर जीवन की कल्पना करना एक खाली कमरे से कम नहीं है। निर्मल वर्मा ने कभी कहा था कि वे शहर बड़े दुर्भागे हैं जिनके पास अतीत के खंड़हर नहीं हैं। उसी तरह कह सकते हैं कि जिस घर में किताबें नहीं हैं वे घर बड़े दुर्भागे होते हैं। जिस घर में किताबें होती हैं वहां एक शब्दों की दुनिया सांस लेती है। किताबों से हमारा वास्ता गोया कई सदियों का है। हर किताब की अपनी पर्सनालिटी होती है। कुछ किताबें अंतर्मुखी होती हैं और तो कुछ बहिर्मुखी।
एक बार लेखक जब किताबों का आकार, देह देता है उसी वक्त वह किताब गर्भवत् शिशु की तरह अपनी आयु भी लेकर आता है। एक लेखक किताब की विधा खुद तय करता है। बल्कि कहना चाहिए रचना की विधा कौन सी हो यह लेखक पर निर्भर करता है। वह गद्य,पद्य की किस विधा में किताब को जन्म देना चाहता है यह पूरी तरह से लेखक के विवेक, कौशल और गति पर निर्भर करता है। क्योंकि लेखक को ही आगे किताब को पूरी यष्टि प्रदान करनी है इसलिए लेखक से बेहतर कोई दूसरा यह तय नहीं कर सकता कि रचना किन पाठकों के लिए है। लेखक अपनी रचना का सृजक अवश्य होता है लेकिन उसे समाज में लाने वाला प्रकाशक होता है। ठीक उसी तरह जैसे बच्चा अस्पताल में जन्म लेता है। प्रकाशक किताब के नैन नक्श, आकार प्रकार, रूपसज्जा आदि करता है। एक मुकम्मल पहनावे के साथ यानी बुक जैकेट जिसे कवर पेज करते हैं, के बाद छापता है। याद करें कि यदि किताब भी एक पर्सनालिटी है तो उसकी भी कोई पहचान होनी चाहिए। जैसे हर इंसान को सरकारी पहचान के लिए पहचान पत्र, आधार नंबर, पासपोर्ट मिलता है व बनाना पड़ता है उसी तरह किताबें भी भीड़ में खो न जाएं इसलिए उन्हें भी प्रकाशक एक आधार नंबर यानी आइ एस बी एन नंबर प्रदान करता है। यह हर किताब को मिलना आवश्यक है।
लेखक अपनी ओर से कहानी, उपन्यास आदि में पात्रों, घटनाओं, चरित्र चित्रण आदि को तय कर देता है। तब किताब का जन्म हो जाता है। उसके बाद वह किताब पाठकों, आलोचकों के हाथ में आ जाती है। किताब कैसी है, उसकी भाषा, शैली, कथानक आदि की आलोचना, तुलना एवं समीक्षा का दौर शुरू होता है। दूसरे शब्दों मंे कहें तो बच्चा जन्म लेने के बाद मां की गोद से निकल कर जब समाज में आता है तब उसका मूल्यांकन समाज करता है। बच्चे के संस्कार, मूल्य, परवरिश आदि की जांच पड़ताल समाज के हिस्से होता है। साथ ही समाज का जिम्मा न केवल जांच-पड़ताल करना है, बल्कि किताब का सही मूल्यांकन हो इसकी भी जिम्मेदारी समाज की है। लेखक ने तो जो लिखना था वह उसने लिख दिया। अब यह उत्तरदायित्व समाज यानी किताब का समाज ‘पाठक, आलोचक सेे बनता है’, का बन जाता है कि किताब में बनाई गई दुनिया में क्या कमी रह गई। किस स्तर पर किताब कमजोर रह गई। लेखक से कहां चूक हो गई आदि कमजोर पहलुओं की ओर लेखक का ध्यान दिलाना आलोचक का मकसद होता है। इसके साथ ही दूसरे लेखकों को रास्ता दिखाना भी उद्देश्य होता है जो लेखन कर्म से जुड़े हैं। यदि कोई किताब लिख रहा है तो पूर्व के लेखकों की कमियों से कैसे बचा जाए इस ओर भी इंशारा करने का दायित्व आलोचक एवं पाठक का होता है। प्रतिक्रिया वह सूराख है जहां से पाठकों की बात लेखक तक पहुंचती है। पाठक जिस किताब को पढ़ते हुए बोर होने लगे तो समझना चाहिए कि कहीं न कहीं लेखक से कोताही बरती गई है। वरना किताब का जादू तो पाठक को अपनी ओर खींचने के लिए काफी होना चाहिए।
हर किताब की अपनी मैग्नेटिक शक्तियां होती है। मैग्नेटिक शक्तियां ही तो होती हैं जिसकी वजह से हजारों, लाखों पाठक अमुक किताब को पढ़ने के लिए मूल पाठ से लेकर अनूदित भाषा तक में किताब को तलाशते हैं। देवकी नंदन खत्री की किताब चंद्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए पाठकों ने हिन्दी सीखी। यह प्रेमचंद को पढ़ने के लिए गैरहिन्दी भाषा पाठको ने या हिन्दी सीखी या फिर अनुवाद का इंतजार किया। किताब की जादुई शक्तियां ही थीं कि उसे भाषायी चैहद्दी से बाहर भी पाठकों का एक बड़ वर्ग मिला। विश्व की कई क्लासिक साहित्य हैं जिनके अनुवाद कई भाषाओं में इसलिए हुए कि पाठकों की मांग समुद्र की सीमा को भी पार कर गए। हालिया किताब हैरी पाॅटर के साथ जुड़े पाठकों की घटना के साथ किताब की मैग्नेटिक ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यदि किताब में कंटेंट ताकतवर नहीं होगा तो वह हजारों लाखों की किताबों की भीड़ में खो जाएगी। आज दुनिया में रोजदिन हजारों लाखों किताबें जन्म लेती हैं और कहीं अंधेरे में खो जाती हैं। काफी हद तक लेखक पर निर्भर करता है कि उसकी रचना व किताब भीड़ में खो जाए या भीड़ में भी अपनी पहचान बनाए रखे।
जो लोग इस डर व आशंका से ग्रस्त हैं कि किताबों की मौत हो चुकी है। इंटरनेट के आ जाने से किताबें मर रही हैं, पाठक वर्ग सिमटते जा रहे हैं आदि सवाल सच पूछा जाए तो सही नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा ही होता तो हर साल प्रकाशक किताबें न छापता और न लेखक लिखता। इसके बरक्स किताबें लिखी भी जा रही हैं और छप भी रही हैं। यह अलग विमर्श का मुद ्द हो सकता है कि छपने वाली तमाम किताबें अपनी पहचान बनाने सफल हो पाती हैं या नहीं। क्या वे अपनी पूरी उम्र जी पाती हैं या अकाल मृत्यु को प्राप्त होती हैं।
विश्व पुस्तक मेला का समय पास आ रहा है। हर प्रकाशक लेखक चाहता है कि उसकी किताब इस विश्व पुस्तक मेले में आ जाए। हर स्तर पर कोशिशें तेज हो गई हैं। प्रकाशक रात दिन एक कर बेहतर कलेवर में किताबें छापने में लगा है। किताब के कलेवर, साज सज्जा भी उतना ही जरूरी है जितना की कंटेट। इसलिए कवर पेज डिजाइनर की भी भूमिका से मंुह नहीं मोड़ सकते। एक किताब की सफलता के पीछे कई लोगों का हाथ होता है। यही पर्याप्त नहीं है कि लेखक ने अच्छी व बुरा किताब लिखी। बल्कि उसे प्रकाशक, डिजाइनर, वितरक दुकानदार ने क्या अपनी पूरी जिम्मेदारी का निर्वहन किया। क्योंकि यह पूरी कड़ी है। कहीं भी कोई कड़ी कमजोर रह गई तो किताब लिखे जाने और छपे जाने के बाद भी अंधेरे की जिंदगी बसर करने पर मजबूर हो सकती है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...