यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Thursday, December 31, 2009
हमारे समय की सब से बड़ी चुनौती यही है की हम अपनी कमजोरी कुबूल नहीं करते। जब की स्वीकारने में ही भलमनसत होगी। हम आगे से उन गलतियों को दुहराएंगे नहीं। मगर हम अपनी आदतों से कहाँ बाज आते हैं। लेकिन हमें देश और खुद के लिए करना होगा। यही की अपनी भूल को आने वाले समय में न दुहरायें।
अतीत कितनी भी सुखद या की दुखद क्यों न हो उसके संग चिपक कर रहा नहीं जा सकता। यदि कोई भी समाज या की लोग येसा करते हैं तो सच माने की वह विकास नहीं कर सकता। हम अतीत से सीख ले कर अपने वर्तमान को तो सुधर ही सकते हैं साथ ही भविष को भी बना सकते हैं।
अब यह इस बात पर निर्भर करता है की आपको क्या पसंद है। या तो आप अपने अतीत से चिपक कर लाइफ ख़त्म कर लें यह फिर अपने बेहतर भविष का निर्माण कर सकते हैं। यह बात देश और समाज पर भी लागु होता है। यही समाज विकास कर पता है जो अपने वर्त्तमान के साथ प्रयोग करने के लिए तैयार रहता है। जो भी प्रयोग करने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं। तो सम्झ्यें की वो अपने विकास के रफ़्तार को ब्रेक लगा रहे हैं।
२००९ कई कोण से खास है - कोपन्हागें में वर्ल्ड सुम्मित। भारत का रुख, भारत के सम्मान में अमरीका के प्रेसिडेंट हाउस में आमंत्रण। देश के लिए राजनायक के रूप में देखा गया। १९९२ में अयोध्या में शर्मनाक घटना मस्जीद को गिरा कर जिस तरह की सहिशुनता का मिसाल पेश किया जाया उसपर शर्म तो आती ही है। लिब्राहन आयोग ने १९ साल बाद उस घटना पर आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की।
सरकार रेस्सेशन के दौर के ख़त्म होने का और्र बना चुकी है। लेकिन सरकार के रिपोर्ट पर विश्वास नहीं होता। यही सरकार है जिसने दिसम्बर २००८ के आखरी हप्ते में कुबूल की थी की हाँ , देश में ६८,००० लोगों की नौकरी जा चुकी है। फिनांस मिनिस्टर ने उद्योग से जुड़े लोगों से कहा की लोगों की नौकरी न ख़त्म करें बल्कि वेतन कम कर दें। आज यही सरकार है जो कह रही है की देश मंदी के बुरे दौर से बाहर निकल चुकी है। अब देखना यह होगा की क्या वास्तव में यह है या की सरकारी बयानबाज़ी भर है।
उम्मीद की किरण साथ होने से रात की काली सेः ज़ल्द खत्म होने की उम्मीद जगती है। न हम हार माने न ही उम्मीद का दमन तोड़ें। रहिमन चुप हो बैठ्या देखि दिनन को फेर। नीके दिन जब आयेहं बनत न लागियाह दीर।
अलबिदा २००९ और अतिथि २०१० को सलाम आइय साहब अब आप क्या रंज या के रंग उछालते है।
साल की पहली मुलाकात
हर सुबह इक आशा की किरण,
हर शाम सुकून भरी,
रात विश्राम...
जीवन में काम-
इक मुकाम,
जिस की चाह,
उसे पूरा का सकने का आत्म बल...
शुभ साल करे इन्त्ज्ज़र...
आप का कौशल
Wednesday, December 30, 2009
जाने वाले साल की मार
पाकिस्तान से क्या हमारे रिश्ते यैसे ही रहा करेंगे। या दोनों देशों की जनता बस खाबों में ही पुनर्मिलन के सपने देखा करेंगे या हकीकत में भी येसा घाट सकता है। पाकिस्तान में हुक्मरान बाद के दिनों में केवल अपनी कुर्सी बचाने के प्रयास में लगे नज़र आते हैं। वो बेहतर जानते हैं की अगर शासन करना है तो लोगों को बुनियादी ज़रूरतों से विचलित करना होगा। वर्ना वो लोग रोज़गार, शिक्षा , सुरक्षा , देश की प्रगति के बारे में सोचने लगेगे। इस लिए उन्हें मूल मुद्द्ये से बहकाना होगा। और यह खेल १९४७ से आस पास से खेली जा रही है।
भारत और पाकिस्तान के बीच सद्भावना पूर्ण रिश्ते तब तक नहीं कायम हो सकते जब तब दोनों देशों के राज्नेतावों को अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचना शुरू नहीं करते।
Monday, December 28, 2009
इस साल देश में आम चुनाव हुवा जिसमे कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई। कांग्रेस के खाते में ज्यादा तो वोट नहीं गिरे लेकिन राज्य में सरकार बनाने की बारी को हाथ से जाने नहीं दी।
सरकार तो बनी। लेकिन संसद में सांसदों की हाज़री बेहद चिंता वाली रही। लोक सभा और राज्य सभा दोनों ही सदनों में सांसदों की गैर हाज़री को स्पीकर ने ले कर सभी दलों के प्रमुख से चिंता प्रगट की। जिस पर कांग्रेस की आला कमान ने नेतावों जो हाज़िर नहीं थे उनसे कारन बताने को कहा। गौर तलब है की संसद में इक दिन करवाई पर ७०, ८० लाख रुपया खर्च आता है। ज़रा सोच कर देखे इक दिन में अगर तीन बार भी संसद अवरुद्ध होती है तो देश को कितना नुकशान होता है। आम जनता की खून पसीने की कमाई को यूँ जाया कैसे कर सकते हैं।
अब हम बात करते हैं अपने प्रधान मंत्री मनमोहन जी को अमरीका में ओबामा सरकार ने खासकर अपने पद ग्रहण के बाद किसी राजनायक को भोज पर आमंत्रित कर देश की शान यानि पहले देश को न्योता मिलना वाकई महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
Friday, December 25, 2009
२००९ की अंतिम साँस
देश दुनिया की राजनीती हो या भूगोल हर जगह कुछ बड़ा घटा है इस साल वह जगह है कोपेन्हागें जहाँ दुनिया की तमाम लीडर्स मिले। आवास तो वर्ल्ड इन्वोर्न्मेंट को बचाने के लिए कुछ खास दस्तावेज़ पर सहमती होनी थी। मगर यह मीटिंग बेनातिज़ रहे। खुद ओबामा मानते है कि देशों के बीच सही तालमेल की कमी की वजह से यह मीटिंग अपने उधेश्य में सफल नहीं हुई।
साहित्य एंड कला की बात करें तो हिंदी की लब्ध नाम कैलाश वाजपई के २००९ का साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा जायेगा। कुछ वरिष्ठ पत्रकार ,लेखक हमारे बीच से रुख्शत हुए। प्रभाष जोशी जी भी आखिर कागद कारे करने अब उस लोक चले गए। बातें और भी हैं _ रफ्ता रफ्ता हम इक इक कर बात करेंगे.....
Wednesday, December 23, 2009
मीडिया के न्यू पौध
मीडिया की इस पौध को दरअसल सही खाद पानी ही नहीं मिल पाते। जिसका परिणाम यह होता है की वो जब जौर्नालिस्म के कोर्से करने के बाद जब जॉब शुरू करते हैं तब किताबी और वास्तविक खबर में अंतर दिखाई देता है।
Sunday, December 13, 2009
तकनीक से डरता मन
पिछले दिनों अपने पिता जी को मोबाइल उसे करना सिखा रहा था तब मैंने महसूस किया की उन्हें मोबाइल के बटन प्रेस करने में कठिनाई हो रही है। कई बार इक बात समझा कर थक गया। मुझे लगा शायद मैं सिखने में सफल न हो सकूँ। मगर इक बार मुझे बचपन में पढ़ते समय पिताजी के चहरे पर उदासी दिखी। पिताजी निराश से लग रहे थे। पास की चाची ने कहा पंडी जी पूरे शहर के लड़कों को पढ़ाते हैं मगर अपना बेटा ही नही पढ़ा पाते। पिताजी को बात लग गई। उन्होंने कहा अगर मैं सही में कुशल मास्टर हूँ तो इसे को पढ़ा कर ही दम लूँगा। और देखते ही देखते वह दिन भी आया की वह लड़का इक दिन पढ़ लिख गया। यह ज़वाब था मेरे पिताजी का चाची के लिए। पिताजी ने उस टाइम तो कुछ नही कहा था मगर मन में बैठा लिया की इस को पढ़ा कर ही रहूँगा। वह लड़का कोई और नही बल्कि मैं ही हूँ।
अब मेरे आखों के सामने २० २२ साल पहले की घटना घूम गई । मैंने सोचा जब पिताजी मुझे पढ़ा कर ही चैन लिए तो मैं भी उनको मोबाइल का इस्तमाल करना सिखा दूंगा। तीन ऋण में इक ऋण पित्री ऋण भी है, सो मोबाइल के इस्तमाल के सिख दे कर ऋण में मुक्त होना चाह थी। और देखा की उन को मोबाइल के कमांड और बटन के इस्तमाल में परेशानी हो रही है। सो कई तरह के उद्धरण से मोबाइल का प्रयोग सिखा दिया। मुझे उस टाइम गुस्सा, खीज भी होती की क्या है पढ़े लिखे हैं फिर क्यों समझने में बाधा क्या चीज है। मैंने देखा की दरअसल जो लोग जीवन में तकनीक के इस्तमाल से भागते हैं उन के लिए नये नए तकनीक इक डर से कम नही है।
अपने डर के ऊपर ख़ुद को काबू पाना होता है।
Wednesday, December 9, 2009
अथातो म्रत्यु दर्शनं
भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा का पुनर्जन्म नही होता। कुछ दर्शन मानते हैं की आत्मा अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेती है। मगर संख्या , योग , न्याय और चार्वाक दर्शन न तो पुनर्जन्म को मानती है और न आत्मा की कोई सत्ता ही स्वीकारती है। बलिक दर्शन का तो यह भी कहना है के अनु परमाणु आदि ही नही बल्कि हमारे शरीर में पाए जाने वाले सेल जब काम करना बंद कर देते हैं तब हमारा शरीर मृत मान लिया जाता है। आप इसे मोक्ष, निर्वान, मुक्ति जो भी नाम दे लें दरअसल शरीर को त्याग कर हमारी सासें यानि हवा, पानी , मिटटी, आकाश और आग इन पञ्च तत्वा में विलीन हो जाती है।
मौत जब की कितनी करीब होवा करती है इसका अंदाज़ा नही लगा सकते।
Tuesday, December 8, 2009
तेरे मन्दिर मेरे राम
सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक स्थल नही होना चाहिए। जो पहले से बन चुके हैं उसे गिरना यदि संभव नही तो कम से कम राज्य और केन्द्र सरकार कोर्ट को विश्वास दिलाये के सरकार किसी भी कीमत पर सार्वजनिक स्थल पर मन्दिर , मस्जीद, गुरुद्वारा आदि का निर्माण नही होने देगी। सरकार को इससे पहले भी कोर्ट ने इस बाबत आदेश दिया था मगर सरकार के और से बरती जा रही लापरवाही को कोर्ट ने गंभीरता से लिया है। कोर्ट ने कड़े शब्द में कहा है सार्वजनिक स्थल पर धार्मिक प्रतिक यानी मन्दिर , मस्जीद आदि का निर्माण नही होगा। अगर एसा नही हुवा तो भुगता नही जाएगा।
सुप्प्रेम कोर्ट ने सेंट्रल और स्टेट गवर्नमेंट को आगाह किया है। किसी को भी पब्लिक प्लेस पर धार्मिक स्थल निर्माण की इज़ाज़त नही होगी। अक्सर देखा गया है की मन्दिर या मस्जीद आदि के बहाने सरकारी जमीन पर कब्ज़ा कर लिया जाता है। शुरू शुरू में तो यह छोटे छोटे स्थर पर किया जाता है मगर जब लगता है की अब यहाँ मन्दिर बनाई जा सकती है तब सांसदों , अन्य अधिकारी के बल पर निर्माण कार्य शुरू हो जाता है । सरकार देखती ही रह जाती है उसके सामने पब्लिक प्लेस पर कुछ खास लोगों का कब्ज़ा हो जाता है। इतना ही नही जब इक बार मजार बन जाता है या की मन्दिर बन कर पूजा होने लगती है तब उस जगह को खली करना बोहोत मुश्किल काम होता है। समाज में मन्दिर, मस्जीद , गुरुद्वारा को ले कर आम जनता में खासे लगाव होता है। यदि कोई सरकार भी तोडना चाहे तो समाज में लोग विरोध करने उतर जाते हैं। इसे मुद्दा बना कर विपक्ष सरकार को घेर लेती है। मामला धर्म से जुड़ने के कारण कोई भी सरकार धार्मिक स्थल को तोडना नही चाहती। यही वो जमीन है जिस पर आम लोगो के पीछे चुप कर कुछ खास लोग जमीन पर कब्ज़ा करते रहते हैं। इसी प्रवृति को काबू में करने के लिए कोर्ट ने राज्य और केन्द्र सरकार को आदेश दिया है।
Sunday, December 6, 2009
सरयू में बह गए हजारों खोयाहिशों
आज ही के दिन भारत के धर्निर्पेचता के धज्जी उडी थी। जी सही समझ रहे हैं। अगर नही पल्ले पड़ा तो ज़रा मेमोरी पर सर्च बटन प्रेस कीजिये। हाँ अब आपके मेमोरी के सेर्फस पर दिसम्बर ६ १९९२ उभरा होगा। साथ ही खून से लाल सरयू नदी भी खामोश दिख रही होगी। सरयू का पानी लाल होगा। इस के साथ ही सरिया, तोड़ फोड़ के आवाज़ भी सुनाये दे रही होगी।
बस अब आप देख सकते हैं, अजी साहिब ज़रा कानो को साफ करे तो वह आवाज़ भी सुन सकते हैं, जय श्रीराम मन्दिर वहीं बनायेंगे.... जो राम का नाम नही लेगा वो हिन्दुस्ता का काफ़िर है। अब मथुरा की बारी है। और लोग नारे लगा कर अपनी पौरुश्ता का प्रमाण दे रहे थे। साथ ही हिंदू होने के निकष भी दुनिया के सामने रख रहे थे। मीडिया की नज़रें उत्तर प्रदेश के सस्र्यु के तट पर टिके थे।
देखते ही देखते गुम्बद सदियों से धुप , पानी , धुल फाक रहा था। आज उसे सचे हिंदू भीड़ ने ज़मिन्दोस्त कर दिया। चलिए साहिब गुम्बद को अब रहत मिली या नही पर कुछ लोगों के आत्मा ज़रूर शांत हुई। मगर अभी उनकी मुराद पुरी नही हुई है। उन्होंने तो देश के हिंदू समाज को वचन दे रखा है की जब तक राम लाला का मन्दिर नही बन जाता तब तक हम कैसे कह सकते हैं गर्व से कहो हम हिंदू हैं। अभी आगे की लड़ाई बाकि है।
इन्ही दिनों लिब्राहन कमिटी की रोपोर्ट संसद में रख दी गई , लेकिन उस पर चर्चा होना बाकि था। मगर अगले दिन मीडिया में आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हो गई। बीजेपी के नेतायों को इक मुद्दा मिल गया की यह कांग्रेस की चाल है। कुछ स्टेट में इलेक्शन होने हैं इसी को ध्यान में रख कर रिपोर्ट लीक की गई।
बहरहाल, बहस तो संसद में होगी ही। मगर ध्यान देने की बात यह है की जब यह घटना को अंजाम दिया जा रहा था उस टाइम सेण्टर में कांग्रेस की सरकार थी। नर्शिन्घा राव प्रध्यान्मंत्री थे। उन्होंने लापरवाही की। इस को कोई झुठला नही सकता। मग राव sahib के समिति बा इज्ज़त बरी कर देती है। समिति की रिपोर्ट जो भी हो। इक बात साफ है, सरकारें बदलती हैं, पार्टी के चहरे बदल सकते हैं। मगर राम लाला की ज़मी पर लाखों लोगों की खून से सनी ६ दिसम्बर १९९२ नही बदल सकती। सरयू में जल मग्न तमाम चहरे आज भी अपने गावों की तरफ़ आस लगाये टुकुर टुकुर देख रही हैं.
Tuesday, December 1, 2009
संसद से अनुपस्थित रहे संसद
इस तरह आज यानि मंगलवार को तमाम अख़बारों के प्रथम पेज पर बड़ी महत्तया के साथ ख़बर छापी गई । कुछ हेडिंग पर नज़र डालते हैं ' और संसद में सवाल तो पूछे मगर ज़वाब सुनने के लिए संसद ही नही', ' सवाल पूछने में दिखाई बे रुखी संसद से नदारत रहे सदस्य', आदि।
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...