कौशलेंद्र प्रपन्न
राजनीति आकाश में न तो निर्मित होती है और न ही समाजेत्तर इसका अनुकरण होता है। राजनीति दरअसल समाज और राष्ट्र का नई दिशा प्रदान करने की ताकत से लबरेज़ होती है। मानव विकास के इतिहास और भूगोल को देखें या फिर अर्थशास्त्र या फिर समाज-संस्कृति को उक्त महत्वपूर्ण आयामों को आकार देने में राजनीति की भूमिका निर्विवादतौर पर अहम रही है। राजनीति ने ही समाज के विकास और विस्थापन की स्थितियां भी पैदा की हैं। क्या इस तथ्य से मुंह मोड़ सकते हैं कि राजनीति ही थी जिसने 1947 के विश्व के इतिहास में दर्ज़ सबसे बड़ी तकसीम का अंजाम दिया। कई बार लगता है राजनीति ने शिक्षा को भी कहीं न कहीं प्रभावित करती रही है। आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद की शिक्षा नीतियों और राजनीति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति और दिशा को तय करने में ख़ासा अहम भूमिका अदा की हैं। वह चाहे माध्यमिक शिक्षा समिति हो, कोठारी कमिशन हो, राष्ट्रीय शिक्षा नीति हो, या फिर 1977, 1985,1988, 2000 या फिर 2005 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा ही क्यों न हो इन तमाम समितियों, नीतियों के निर्धारण में राजनीति ने अपने छाप छोड़े हैं। दूसरे शब्दां कहें तो शिक्षा में राजनीतिक हस्तक्षेप को नजरअंदाज नहीं कर सकते। प्रकारांतर से राजनीति की दिशा तय करने में व्यक्ति की प्रमुखता भी रेखांकित की जाती रही है। जो भी व्यक्ति सत्ता में आया वह अपने राजनीतिक स्थापनाओं, मान्याओं को शिक्षा की काया में समाहित करने की पुरजोर कोशिश है। इसी का परिणाम है कि शिक्षा में जाने अनजाने वैसे कंटेंट भी शामिल किए गए जो अपने आप में विवादां को जन्म देने वाले थे। किन्तु क्योंकि सत्ता चाहती थी इसलिए उन्हें पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनाया गया। मिसाल के तौर पर शंगूर आंदोलन को वर्तमान सरकार पाठ्यपुस्तकों में शामिल कर चुकी है। वहीं दूसरी राजनेता ने अपनी आत्मकथा बच्चों के बस्ते में ठूंस दिया। वह दीगर बात है कि वह आत्मकथा क्या कंटेंट के लिहाज से समीक्षित की गई। किस विद्वत् मंडल ने समीक्षा कर अपनी रिपोर्ट सौंपी की यह आत्मकथा पढ़ने-पढ़ाने योग्य है आदि। इस प्रकार राजनीति व्यक्तियों की आत्मकथाएं पाठ्यपुस्तकों में पहले भी शामिल की जाती रही हैं किन्तु उसका अपना ऐतिहासिक और राजनैतिक विकास यात्रा को समझने के औजार के तौर पर जांचा परखा गया और तब शामिल किया गया। यदि पत्रों की बात बात करें तो नेहरू के ख़तों को बतौर पाठ्य सामग्री में शामिल किया गया है इसे पढ़ते-पढ़ाते हुए कई पीढ़ी बड़ी हुई है। राजनैतिक व्यक्तियों की जीवनियां भी शामिल की गईं जिनमें राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, गांधीजी, नेहरू, अब्दुल कलाम आदि। इनकी जीवनियों, संघर्षां से गुजरते हुए कहीं न कहीं हमारे बच्चों को जीवन-संघर्षों की एक झांकी तो मिलती ही है साथ ही भविष्य की रणनीति बनाने में भी मदद मिलती है।
शिक्षा न केवल समाज, बल्कि समाज से जुड़ी हर चीज को आकार दिया करती है। इसे स्वीकारने में ज़़रा भी गुरेज़ नहीं होनी चाहिए कि इस शिक्षा को गढ़ने, आकार देने में राजनीतिक इच्छा शक्ति और पार्टी की बड़ी भूमिका होती है। बल्कि राजनीति शिक्षा की पूरी कुंडली लिखती है। जब जब जो भी सत्ता में आया उसने अपने तई शिक्षा के वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा लिखने में पीछे नहीं रहा। एक लंबा इतिहास है जब राजनीति ने शिक्षा की दिशा और दशा को ही मोड़ दिया। ज़्यादा पीछे इतिहास में न भी जाएं तो एक बड़ी राजनीतिक इच्छा शक्ति और राजनीतिक हस्तक्षेप को यहां उदाहरण के तौर पर पेश कर सकते हैं। सन् 2014 में सत्ता में आते ही वर्तमान केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि आगामी एक या दो साल भी अंदर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाएगी। हालांकि यह भी राजनैतिक सच है कि हम हर पांच साल बाद लोकसभा चुनाव में व्यस्त होते हैं। इस व्यस्तता में हम भूल जाते हैं कि हमने पिछली बार क्या क्या घोषणाएं की थीं। उन घोषणाओं के साथ क्या किया यह किसी से भी छूपी नहीं है। सरकार आई और अब नई सरकार गठन का वक़्त भी सिर पर है, लेकिन शिक्षा नीति मालूम नहीं कहां है। जो भी नई सरकार आएगी वह फिर शुरू से इस नीति पर काम करेगी। इस पांच वर्ष में जितने लाभ हासिल करने वाले बच्चे थे वे पांचवीं पास कर छठी कक्षा में और बारहवीं पास कर कॉलेज में चले जाएंगे। कॉलेज से निकल कर जॉब की तलाश में जुट जाएंगे। सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ा कि जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति आनी थी उसके न आने से किन किन को किस प्रकार की क्षति हुई होगी। यह तो एक ताजा तरीन राजनीतिक घटना है। इसके अलावा समय समय पर इससे भी बड़ी घटनाएं शिक्षा जगत में घटती रहती हैं। इस ओर न तो सरकार, न राजनीतिक दलों और न नागर समाज के पेशानी पर बल पड़ता है। अपने अपने कार्यकाल संपन्न कर वे तो चले जाते हैं किन्तु पीछे एक बड़ा सवाल ज़रूर छोड़ जाते हैं कि शिक्षा की दशा और दिशा तय करने वाले किस कदर अगंभीर हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति निर्माण का मसला हो या फिर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या निर्माण, पाठ्यपुस्तक निर्माण आदि के साथ भी जिस प्रकार की गंभीरता की मांग होती है उसके साथ राजनीतिक शक्तियां अपना दल बल इस्तमाल किया करतीं हैं। वह चाहे 2000 से पूर्व की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा हो या फिर उसके बाद की इस दस्तावेजों में भी सत्तारूढ़ पार्टियों ने अपनी दूरगामी वैचारिक पूर्वग्रहों को पीरोने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। यही हालत पाठ्यपुस्तक निर्माण में भी देख सकते हैं। समय समय पर वर्तमान राजनीतिक व्यक्ति को पाठ्यपुस्तकों को शामिल करना, पूर्व के पाठों को हटाने का खेल भी खूब खेला गया है। गौरतलब है कि 2000-2002 में फलां पृष्ठ को हटाया गया ढिमका पृष्ठ को न पढ़ाने के फरमान जारी किए गए। इन विवादों में कई बार उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने पड़े यह दौर है 2002 का। वर्तमान सरकारें चाहे वो केंद्र की हो या फिर राज्य की अपनी अपनी राजनीति उपलब्धि को बच्चों की पाठ्यपुस्तकों ठूंस दिया गया। इसमें बंगाल, राजस्थान, बिहार आदि राज्य सरकारें शामिल हैं। सरकारें कैसे भूल जाती हैं कि सरकारें आती जाती हैं किन्तु पाठ्यपुस्तकें कम से कम पांच दस और पंद्रह साल तक चला करती हैं। इन्हें पढ़कर लाखों बच्चे युवा और प्रौढ़ बन कर समाज में विभिन्न सेवाओं में आते हैं। वे उन्हीं वैचारिक पूर्वग्रहों को अग्रसारित करने में जुट जाते हैं। जबकि शिक्षा वैज्ञानिक सोच और विवेक निर्माण की वकालत करती है। बच्चों में वैचारिक और बौद्धिक विकास में शिक्षा की अहम भूमिका को कदापि नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
आज़ादी पूर्व के इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि शिक्षा और शिक्षकों की भूमिका और ताकत को हमेशा ही राजनीतिक धड़ों ने अपने हाथों में रखा और उसे अपने स्वार्थ साधक के तौर पर इस्तमाल किया। शिक्षकों की अस्मिता को कमतर करने में भी तत्कालीन सत्ताधारियों ने कोई उठा नहीं रखी। शिक्षकों को नौकरी और वेतनभोगी बनाने के लेकर उन्हें समाज के उस वर्ग में शामिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जहां शिक्षक वेतनभोगी होते ही समाज के अन्य वर्गां के विश्वास खोता रहा। विभिन्न शैक्षणिक समितियों ने शिक्षा की दिशा तय की हो या न की हो लेकिन यदि उनकी सिफारिशों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि नीति, मूल्य, आदर्श की जमीन पर बहुत पुख्ता थीं। यह दीगर बात है कि उन्हें कभी भी अमल में नहीं लाया गया। कोठारी कमिटी की सिफारिशों को ही ले लें। हम आज भी कोठारी आयोग की सिफारिशों की दुहाई दिया करते हैं। वह चाहे बजट को लेकर हो, निकट स्कूल व्यवस्था की हो या फिर शिक्षकःबच्चे अनुपात से संबंधित। हमारी सरकारें सिर्फ इन सिफारिशों के साथ मजाक ही करती रहीं। वहीं 1985-88 पुनरीक्षित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा बड़ी ही शिद्दत से पूर्व प्राथमिक से लेकर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक, माध्यमिक आदि शिक्षा में कला शिक्षा को शामिल करती है। यह दस्तावेज़ मानती है और सिफारिश करती है कि कला की शिक्षा के द्वारा अन्य विषयों को पढ़ाया जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो कला की शिक्षा को अन्य विषयों में पीरोया जाए ताकि कला अलग से पढ़ाने की आवश्यकता ही न पड़े। किन्तु हमने इसे कभी तवज्जो ही नहीं दिया। इसके पीछे के कारणों की परतें खोलें तो पाएंगे कि वह कहीं न कहीं राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी रही है।
तब की वर्तमान सरकार ही हैं जिसने वैश्विक उदारीकरण और वैश्विक बाजार के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले गए थे। तब के शिक्षाविदों, शिक्षाकर्मियों ने कोई ख़ास और सशक्त विरोध नहीं किए। पूरा का पूरा विश्वविद्यालय, शिक्षायी नागर समाज मौन था। यही वो प्रस्थान बिंदु हैं जहां से 1986-88 के आस-पास भारतीय शिक्षा में बाजार और वैश्विक बैंकों के लिए ख़ासकर शिक्षा की दहलीज़ सौंपी गई थी। इस ऐतिहासिक घटना पर तत्कालीन अकादमिक महकमा, कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि मौन साधे बैठे थे। तब क्या अनुमान लगा सकते थे कि हमारी सरकारी शिक्षा के समक्ष एक समानांतर शिक्षा संस्थानों की दुकानें खुल जाएंगी जहां आम परिवार का बच्चा प्रवेश करने की सोच भी नहीं सकता। जहां एक ओर बी एड सरकारी संस्थानों में बामुश्किलन 5 से दस हजार में हो किए जा सकते हैं वहीं निजी संस्थानों में छात्रों को अस्सी से नब्बे हजार खर्च करने पड़ते हैं। यह तो एक कोर्स का उदाहरण है पूरे भारतवर्ष के विभिन्न शैक्षणिक कोर्स की फीस पर नजर डालें तो स्थितियां एक के बाद बदत्तर ही मिलेंगी। जहां सामान्य बीए करने के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हजारों में फीस है वहीं निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में लाख के पार फीस चली जाती है। ऐसे में जो समर्थ अभिभावक हैं वो तो अपने बच्चों को तथाकथित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर पाते हैं बाकी सब इत्यादि में शामिल हो जाते हैं।
नब्बे के आस- पास ही तदर्थ और अतिथि शिक्षकों के द्वारा प्राथमिक उच्च प्राथमिक आदि स्कूलों में सेवाएं लेने की शुरुआत हुई। यह एक तय समय सीम के लिए विकल्प सुझाए गए थे। लेकिन हमने तो विकल्प को ही प्रमुख मान लिया। आज की तारीख में कोई राज्य छूटा नहीं है जहां तदर्थ और अतिथि शिक्षक नहीं हैं। इन अतिथियों शिक्षकों को हर साल नौ या दस माह के लिए अनुबंध में रखा जाता है और अगले साल इनकी सेवाएं जारी रहेंगी या नहीं इसके प्रति कोई तय नियम या आश्वासन नहीं होता। इस प्रकार अतिथि एवं तदर्थ शिक्षक सालों साल यानी दस पंद्रह साल तक खट रहे हैं। वह प्राथमिक स्कूलों से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय आदि सब जगह हैं। अकेले दिल्ली में तकरीबन 22,000 अतिथि शिक्षक हैं। इन अतिथि और तदर्थ शिक्षकों की दशा और दिशा सुधारने के प्रति कोई गंभीर और सार्थक कदम उठाने से बचती रही है। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि चुनावी माहौल में इन्हें वोट बैंक ज़रूर दिखाई देते हैं इसलिए इन्हें स्थाई करने का चबेना ज़रूर बांटे जाते हैं।
न केवल एक राज्य में बल्कि हर राज्य से सूचनाएं आ रही हैं कि कितने सरकारी स्कूल या तो बंद कर दिए गए या फिर वर्तमान स्कूलों के दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया गया। दिल्ली की ही बात करें तो अप्रैल में पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तकरीबन पंद्रह स्कूलों को विलयन से गुजरना पड़ा। वहीं पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली में दस सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए। सरकारी स्कूलों को बचाने एवं मर्ज करने से बचाने के लिए किसी भी राजनीतिक दलों व सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए। मर्जिंग और बंद होते सरकारी स्कूलों को कैसे बचाई जाए इस बाबत कोई योजना न तो लाई गई और न नीति निर्माता धड़ों में इसके प्रति को सुगबुगाहट नहीं नजर आती है। विभिन्न नागर समाज बंद होते सरकारी स्कूलों को बचाने और मर्ज होते स्कूलों को कैसे अस्तित्व में रख सकें इसके लिए आवाज उठा रही हैं। एक अलग विमर्श का मुद्दा है कि सरकारें इसे जिस हल्के तरीके से ले रही हैं इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी इच्छा शक्ति इन स्कूलों को बचाने से ज्यादा बंद करने की है। उसपर तर्रा तर्क यह दिया जाता है कि बच्चे नहीं हैं। शिक्षकों की कमी है आदि आदि। वर्तमान स्कूलों को गिरा या बंद कर वहां पर पार्किंग की व्यवस्था की जा रही है। इन तर्कां पर नागर समाज सचेत है।
राजनीतिक दलों को कायदे से शिक्षा की व्यवस्था और दिशा निर्माण के लिए ठोस योजना बनाने और उन्हें लागू करने की रणनीति की आवश्यकता है। वरना सरकारें चुनी जाएंगी सत्ता में रहेंगी भी और पांच वर्ष पूरा कर चली भी जाएंगी। शिक्षा ही है जो सरकारों के बनने और जाने से न तो आती है और न जाती है बल्कि शिक्षा हमेशा रहती है। यदि हमने शिक्षा को अपनी चिंता के केंद्र में नहीं रखा तो शायद हमें नहीं मालूम कि हम अपने भविष्य के साथ कैसे बरताव कर रहे हैं।
राजनैतिक -ऐतिहासिक शैक्षिक घोषणाओं की यात्राएं कई बार हमारी समझ और काल-बोध को स्पष्ट करती हैं। शैक्षणिक ऐतिहासिक घोषणाओं में 1990 का जोमेटियन का एजूकेशल फोर ऑल, ईएफए, 2000 का डकार घोषणा पत्र, 2000 का सहस्राब्दि विकास लक्ष्य, 2009 का शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2015 जब हमने सहस्राब्दि विकास लक्ष्य पूरा नहीं कर पाए और नागर समाज ने तय किया कि सतत् विकास लक्ष्य 2030 तक हम शिक्षा में गुणवत्ता, समानता और लैंगिक समतामूलक परिवेश मुहैया करा पाएंगे। उक्त घोषणाएं राजनैतिक ज्यादा थीं शैक्षिक कम। क्योंकि शिक्षा में जो लक्ष्य हासिल करने के लिए समय सीमा तक की गई थी वह हर बार अधूरी और अछूती रह गई। इसके पीछे राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी और रणनीति एवं योजना के स्तर पर कमियों देखी जा सकती हैं। वरना वैश्विक स्तर पर स्वीकृत घोषणाएं क्यों विफल हो गईं। क्यों आज भी भारत में करोड़ें बच्चे बुनियादी शिक्षा से महरूम हैं? क्यों भारत के बच्चे स्कूलों से बाहर हैं? कहां तो हम शिक्षा में समानता, समतामूलक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की बातें करते हैं किन्तु वहीं हक़ीकत यह है कि हमारे लाखों बच्चे अभी भी स्कूलों तक पहुंच नहीं पाए हैं। जो बच्चे स्कूलों में हैं उन्हें ऐसी शिक्षा क्यों नहीं दे पा रहे हैं कि वे भाषा, गणित आदि विषय की बुनियादी दक्षता ग्रहण कर पाएं। तमाम सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट हमें लगातार आईना दिखाती हैं कि बच्चे अपनी कक्षा के अनुरूप पढ़ने-लिखने आदि में पीछे हैं। यदि हमें सतत् विकास लक्ष्य 2030 के लक्ष्य को हासिल करने हैं तो राजनैतिक और नागर समाज की प्रतिबद्धता की आवश्यकता पड़ेगी। हमें पूरी इच्छा शक्ति और कार्ययोजना के साथ प्रबंधन की समझ का इस्तमाल करना होगा।