Tuesday, May 28, 2019

बच्चों के सवालः बड़े बेहाल


कौशलेंद्र प्रपन्न
पांच या छह वर्षीय बच्चे सवाल नहीं बल्कि अपने मन की बात किया करते हैं। उनके मन में जो उलझनें हैं उसका समाधान हम वयस्कों की दुनिया से मांगते हैं। हम उनके सवालों के साथ कैसा बरताव करते हैं यह हम पर निर्भर करता है कि हम उन्हें उनके सवालों के साथ एक गुत्थी के साथ छोड़ देते हैं या फिर समाधान की ओर ले जाते हैं। छोटे से छोटा बच्चा भी अपने परिवेश से प्रभावित होता है। इस परिवेश में वे वयस्क भी हैं जो भेदभाव, पूर्वग्रह, जाति-धर्म आदि जैसे वयस्कों की राजनीति भी शामिल है। इन राजनीति से बच्चे कैसे अलग रह सकते हैं। क्योंकि बच्चे किसी आकाश में पल-बढ़ नहीं रहे होते हैं। बल्कि इस क्रूर और कठोर समाज में जीया करते हैं। वह चाहे स्कूल जाते वक़्त बच्चों का समाज हो या फिर पार्क में खेलते हुए अंकल से मिला करता है। हमारा बच्चा समाज में जिन जिन से मिलता है, बातें करता है, वे तमाम लोग हमारे बच्चे की वैचारिक, भौगालिक, सांस्कृतिक समझ को कहीं न कहीं गढ़ने का काम करते हैं। यह सवाल ही लीजिए पुलवामा घटना के बाद मेरे के मित्र के छह वर्षीय बच्चे से बच्चों ने पूछा ‘‘तू मुसलमान है?’’ ’’तूझे तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए।’’ वह बच्चा न तो ऐसे सवालों से कभी पूर्व में रू ब रू हो चुका है और न ही ऐसे सवालों के क्या जवाब देने हैं इसके लिए तैयार होता है। जब हम बड़े ऐसे सवालों के लिए तैयार नहीं होते तो वे तो आख़िर बच्चे हैं। लेकिन जो बड़ां की दुनिया में घट रही होती हैं उसकी छोटी ही सही किन्तु एक छटा व छाया बच्चों की दुनिया पर भी पड़ती है। इससे हमें बड़ी सावधानी से निपटना होता है। उस बच्चे के पिता के लिए यह सवाल से ज्यादा अपने और अपनी कौम के अस्तित्व पर सवाल था। जिसने पूरी जिं़दगी, पूरी पीढ़ी इसी जमीन पर गुजारी। पूरी शिद्दत से जिनकी पीढ़ियों ने लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाई। अचानक उनसे या उनके बच्चों को कोई कहें कि तू पाकिस्तान क्यों नहीं चला जाता तो उस बच्चे या वयस्क के लिए कितनी पीड़ादायक होती होगी इसका महज अनुमान भर लगाया जा सकता है।
पुलवामा की घटना हो या फिर बाबरी मस्जिद की घटना, या फिर जब भी दो देशों के बीच तनाव के माहौल पैदा हुए हैं तब तब ऐसे सवालों बार बार विभिन्न कोनों से उठने लगते हैं। यह सवाल नहीं बल्कि हमारी मनोजगत् और हमारी समाजो-मनोविज्ञान के भूगोल का परिचय देता है। साथ ही हमारी स्कूलिंग और सोशलाइजेशन कहां और किस स्कूल में हुआ है उसका सवाल खड़े करते हैं। हमारी स्वयं की प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलिंग कहां और किस प्रकार हुए हैं यह ख़ासा अहम हैं। यह जीवन भी हमारे विचारों को आकार दिया करते हैं। वापस उस बच्चे के सवाल पर लौटते हैं। पापा हम क्या मुसलमान हैं? हमें पाकिस्तान क्यों जाना चाहिए। हमारी तो दादी, नानी सब यहीं हैं। बच्चे ऐसा क्यों बोलते हैं? आदि आदि। ये कौन लोग हैं या कौन सी विचारधारा है जो कोमल मनों में इस प्रकार की फांक पैदा करन पर आमादा हैं। हमें अपने बच्चों के इन सवालों से काफी संभल कर जवाब देने होंगे। बल्कि यही बच्चे जब बड़े होंगे तो संभव है इस किस्म के सवालों की कड़ी तब भी अटूट इन तक आ जाए। फिर वे अपने बच्चों के सवालों के साथ कैसे न्याय कर पाएं।
ऐसा क्या है इन सवालों में? वो क्या चीज है जो बार बार कुछ अंतराल के बाद अपना सिर उठाया करते हैं? हमें इन सवालों के मनोविज्ञान और समाज विज्ञान को समझना होगा। इन सवालों के पीछे हमारा खु़द का डर झलकता है। हम इन सवालों के ज़रिए कहीं न कहीं अपने मन में गहरे पैठे भय को ही निकाला करते हैं। साथ इस भय के मनोविज्ञान को समझकर दूर करने की बजाए उसे पालने में विश्वास करते हैं। दूसरी बात यह भी सच है कि हम यदि विवेकवान होते तो ऐसे सवालों की प्रकृति को समझते हुए अपने स्तर पर ही इनके समाधान तलाश कर खत्म कर चुके होते। किन्तु होता इससे उलट है। हम अपना विवेक नहीं लगाते बल्कि लगाना नहीं चाहते या फिर जो मंज़र दिखाए गए उसे ही सच मान कर एक पूर्वग्रह बना लेते हैं। बिना इतिहास, मनोविज्ञान का इस्तमाल किए जो भी छवि दिखाई या पेश की गई उसे ही अंतिम सच के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं। बल्कि इससे एक कदम आगे बढ़कर अपनी ही पूर्वग्रहों को आगे सरका दिया करते हैं। और इस तरह से कड़ी टूटने की बजाए और मजबूत होती जाती है। इतिहास तो प्रत्यक्ष है ही कि हमने एक ख़ास कौ़म को आज़ाद के वक़्त जिम्मेदार ठहराया। जो सच्चाई एक दल या पार्टी ने हमारे सामने पेश किया उसे मान कर दूसरे पहलू को देखने और समझने की भी कोशिश नहीं की। जबकि विश्व का मानव विकास इतिहास हमारे सामने है कि कोई भी राष्ट्र किसी ख़ास कौ़म या जाति को किसी भी एक घटना का पूरा दारोमदार नहीं मान सकता।
हमने शुरू की थी उस बच्चे के सवाल से जिसने अपने पापा से पूछा था ‘‘क्या हम मुसलमान हैं? ये मुसलमान क्या होता है?’’
उसके पिता ने बताया कि इस बच्चे का बचपन लुधियाना में बीता जहां यह स्कूल जाया करता था वहां वह अरदास में भी शामिल होता था। स्वर्ण मंदिर में भी मत्था टेका। जहां अब रहा करता है दूसरे माले पर गणेश पूजा में शामिल हेता है। वहीं जब पास में जागरण होता है तो पूरी शिद्दत से पूरी रात जगा रहता है। कभी इसे इसका इल्म तक नहीं हुआ कि हम मुसलमान हैं। मुसलमान कोई अनोखी या अगल कौ़म होती है इसकी जानकारी तक नहीं है। इसे क्या बताएं कि मुसलमान क्या है और कौन होते हैं? कितना कठिन दौर जब तीन चार और इससे भी ज्यादा पीढ़ियां जहां रही हों अचानक रातों रात पाकिस्तान भेजने की ज़िद्द के आगे स्वयं शर्मिदा हो रहे हों। आख़िर क्यों जाएं पाकिस्तान या अपने मुसलमान होने पर उन्हें क्योंकर अफ्सोस या छुपाने की नौबत आए। सोचना तो उन्हें चाहिए जो इस प्रकार के सवालों को पैदा किया करते हैं।

Monday, May 27, 2019

पढ़ने का धैर्य




कौशलेंद्र प्रपन्न
शायद दुनिया में यदि कोई कठिन और श्रमसाध्य कार्य है तो वह पढ़ना ही है। कोई भी पढ़ना नहीं चाहता। हर कोई पढ़ाना चाहता है। हर कोई लिखना चाहता है। और हर कोई कहना भरपूर चाहता है लेकिन पढ़ना नहीं चाहता। वह चाहे किसी भी पेशे में क्यों न हो। उस पर यदि कोई शिक्षण पेशे से आता है तो उसे भी इस बात की ज्यादा होती है कि वह बच्चों को पढ़ाना सीखा दे। बच्चे लिखना शुरू करें। शिक्षकों की बड़ी गंभीर चिंता यह होती है कि उसके बच्चे लिखना और पढ़ना नहीं जानते और न ही चाहते हैं। कभी इन सवालों का चेहरा शिक्षकों की ओर मोड़ दें। क्या देखेंगेघ् देखेंगे कि शिक्षक स्वयं पढ़ने की प्रक्रिया से दूर रहना चाहता है। वह स्वयं पढ़ात हुआ कम ही दिखाई देता है। बच्चे अपने समाज में किसे पढ़ते हुए देखते हैं। हमारे बच्चे अपने दादा जीए कभी कभार पापा या मम्मी को किताबें उलटते पलटते देख पाते हैं। वो भी तब जब उनके घर में मम्मी पापा पढ़ने.पढ़ाने से जुड़े हों। वरना घर में हर आधुनिक सामान होता हैं यदि नहीं होतीं तो किताबें ही हमारे घरां में नहीं होतीं। ऐसे में हमारे बच्चे तो बच्चे बड़ों में भी पढ़ने का धैर्य कम होता है।
किसी से भी यह सवाल पूछ लीजिए क्या आप पढ़ते हैंघ् पढ़ते हैं तो क्या पढ़ते हैंघ् जैसे जैसे इस सवाल की गहराई में उतरेंगे वैसे वैसे ऐसे ऐसे उत्तर मिलेंगे जिसे सुनकर ताज्जुब होना लाजमी है कि हम पढ़ते ही नहीं हैं। अपने पास के स्मार्ट फोन पर सिर्फ सूचनाओं और ख़बरों को सरका कर देख लिया करते हैं। कई बार देखकर आगे खिसका देते हैं। कुछ लोग इसे ही पढ़ना मान लेते हैं। कुछ यह भी कहते हुए मिलेंगे कि मैं तो अपने फोन पर ही पूरा की पूरी किताबए ख़बरेंए डॉक्यूमेंट पढ़ता हूं। हालांकि यह भी पढ़ना ही है। इससे इंकार नहीं कर सकते। क्योंकि जैसे जैसे पेपर लेस सोसायटी की बुनियाद रखी है वैसे वैसे किताबें छप तो रही हैं साथ ही उनका डिजिटल रूप भी वेबकास्ट किया जाता है। यानी जो किताबें कागजों पर छपी हैं वैसे ही उस किताब को सॉफ्ट वेयर के ज़रिए डिजिटल फॉम में छापते हैं। यही कारण है कि आज देश भर में ऐसे पाठकों की संख्या लाखों में है जो डिजिटल कंटेंट यानी अख़बारए पत्रिकाएंए किताबें एवं रिपोर्ट आदि पढ़ते हैं। डिजिटल फॉम में छपने वेबकास्ट होनी वाली किताबें मुद्रित किताबों के लिए चुनौतियां पैदा करती हैं। लेकिन फिर भी डिजिटल फॉम के बरक्स मुद्रित किताबें भी खूब पढ़ी और लिखी जा रही हैं। लिखने के पेशे में आने वाले युवा लेखक दरअसल प्राचीन लेखकीय स्कूलों के एक कदम आगे से सीख कर आ रहे हैं। युवा लेखक कागजों पर नोट्स बनाने की बजाए सीधे सीधे लॉपटॉप पर काम किया करते हैं। अपने लैपटॉप पर ही पूरी किताब लिख दिया करते हैं। वही कॉपी व फाइल जितनी बार एडिट करना चाहे कर सकते हैं। फाइनल कॉपी किसी दूसरे व्यक्ति को समीक्षा के लिए भेज देते हैं। रीव्यू करने वाले के कमेंट को देख कर अपनी फाइल को दुरुस्त कर देते हैं। किताब लिखनेए अख़बार छापने के काम को इस डिजिटल तकनीक ने आसान कर दिया। हालांकि एक सवाल यहां यह उठा सकते हैं कि क्या डिजिटल किताबों ने पढ़ने की संख्या को भी क्या आसान किया। संभव है कि जिस रफ्तार से लिखी जा रही हैं उस रफ्तार से पढ़ने वालों की दिलचस्पी नहीं बढ़ी।
पढ़ने की तालीम हमारी मुख्य शिक्षा से हाशिए पर जा चुकी हैं। यही वज़ह है कि तकरीबन तिरपन फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ को पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। यह आंकड़े मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हालिया रिपोर्ट में दर्ज़ की गई हैं। इस रिपोर्ट के एत्तर भी अन्य अध्ययन की रिपोर्ट भी हमें बताती हैं कि हमारे बच्चे कक्षा पांचवीं या छह में पढ़ने वाले भी अपनी कक्षानुसार हिन्दी नहीं पढ़ पाते। क्यों नहीं पढ़ पाते यह सवाल हमें नहीं कोचते। इसलिए यह स्थिति बनी हुई है। हमारी शिक्षा और सीखने.सिखाने की प्रक्रिया में पढ़ने पर ज्यादा जोर नहीं देते बल्कि बच्चों को लिखना आ जाए यह अपेक्षा ज्यादा मजबूत होती है। बच्चे पढ़ें कैसेघ् क्या पढ़ें और क्यां पढ़ें इन सवालों को चिंता की परिधि में लाना होगा। पढ़ना एक कला है तो इसे सीख और सिखा भी सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे शिक्षक भी पढ़ने की बारीकि से वाकिफ नहीं हैंं। पढ़ा कैसे जाए और पढ़ने के विभिन्न चरण क्या हों आदि। बच्चे क्या और कैसे पढ़ते हैं इस पैटर्न को भी समझना होगा। यदि आयु और कक्षा स्तरानुसार कंटेंट मुहैया नहीं कराएंगे तो शायद बच्चा पढ़ने से दूर जाने लगे। यदि बच्चे को वर्णए शब्द आदि की पहचान है यदि वह वाक्य तक की यात्रा का आनंद ले सकता है तो वह किसी भी किस्म के टेक्स्ट पढ़ सकता है। यहां तक कि बच्चा अपने पाठ्यपुस्तक के अलावा भी मांग और तलाश कर पढ़ने लगता है। यदि अपना बचपन याद करें तो हम आसानी से पढ़ने के धैर्य और उतावलेपन को समझ और महसूस कर सकते हैं। गर्मी की छृट्टियों में चाचा चौधरीए शॉबूए डॉयमंड कॉमिक्स बुक्स आदि छीन झपट कर एक दिन में दो तीन किताबें पढ़ जाया करते थे। शायद यहां पढ़ने पर पाबंदी नहीं थी। बल्कि कई बार घरों में बड़ों से प्रोत्साहन भी मिला करता था कि जो जितनी ज्यादा किताबें पढ़ेगा उसे उतनी चवन्नी मिलेगी। और हम चवन्नियों की लालच में भर भर गरमी पत्रिकाएं पढ़ जाते थे। मुख्य बात यही है कि यदि हम अपने बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक और उत्साह पैदा कर सके तो पढ़ने का धैर्य भी समय के साथ पैदा हो जाएगा।
न शिक्षा में और न पढ़ने में धैर्य जैसी बात रह गई है। हम हमेशा रफ्तार में होते हैं। हमें बहुत जल्द परिणाम चाहिए होता है जिसे लर्निंग आउट कम के नाम से जानते हैं। लर्निंग आउटकम के अनुसार स्तरानुसार बच्चों में भाषाए गणितए विज्ञान आदि विषयों में बच्चे किस कक्षा में किस स्तर की भाषा कौशल सीख ले इसकी मैपिंग और इंडिकेटर एनसीईआरटी की ओर बनाई जा चुकी है। इसके किस चरण में हमारा बच्चा कहां है यह तय करता है कि हमारे बच्चे भाषा के किस कौशल में कहां ठहरते हैं। हम सभी को इस प्रकार के इंडिकेटर हमें ताकीद करती हैं कि हम भाषा के किस कौशल पर और कितना धैर्यपूर्वक काम करने की आवश्यकता है।
पढ़ने की धारणा पर जब गंभीरता से मंथन करते हैं तो पाते हैं कि हम देखने को भी पढ़ना मान बैठते हैं। मसलन देखा नहीं। यहां यह स्पष्ट है कि वो कहना चाह रहे हैं कि जो भी आपने भेजा व किताब थी उसे उन्होंने अभी पढ़ा नहीं है। बल्कि महज देखा भर है। ठीक उसी प्रकार पढ़ना और अध्ययन में भी बुनियादी अंतर है। इस अंतर को समझना होगा। जब हम पढ़ना कहते हैं तो संभव है उसमें अध्ययन की ख़ासियत कम हो। सिर्फ हम लिखने हुए शब्दों, वाक्यों भर का पढ़कर समझने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जब हम कहते हैं अध्ययन कर रहा हूं तब उसमें सिर्फ पढ़ना भर ही शामिल नहीं होता बल्कि पढ़ने से एक कदम आगे बढ़कर चिंतन-मनन और बहुआयामी अर्थों का गहन िंचत शामिल होता है। आज की तारीख में पढ़ने की कला शायद उन तमाम लोगों के पास हैं जिन्होंने दसवीं बारहवीं की है। किन्त यह कहना सरलीकरण होगा कि उन्हें अध्ययन भी करना आता है। सामान्य बोलचाल में भी हम कह देते हैं मैं इनदिनों फलां पुस्तक का अध्ययन कर रहा हूं। यानी वो सामान्य पढ़ भर नहीं रहे हैं।
पढ़ना और अध्ययन दोनों ही क्रियाएं गंभीरता और धैर्य की मांग की करती हैं। अफ्सोस कि आज हमारे पास धैर्य की कमी है। न हम पढ़ना चाहते हैं और न अध्ययन। यही दो क्रियाएं शिक्षा में इन दिनों कम होती जा रही हैं। पढ़ने और अध्ययन करने वाले कम होते जा रहे हैं। यदि हमारा शिक्षक स्वयं पढ़ता हुआ या अध्ययन से जुड़ा नहीं है तो वह शिक्षा जगत में होने वाले नावचारों और अध्ययनों से परिचित नहीं हो पाएगा। एक बार जब वह अध्ययन से दूर चला जाता है तब वह अपनी पूर्व की पठित सामग्रियों के आधार पर ही शिक्षण करता है। पढ़ाने के लिए पढ़ना भी उतना ही ज़रूरी है जितना खाना पकाने से पूर्व की तैयारी।

Tuesday, May 14, 2019

शिक्षा को गढ़ती राजनीति


कौशलेंद्र प्रपन्न

राजनीति आकाश में न तो निर्मित होती है और न ही समाजेत्तर इसका अनुकरण होता है। राजनीति दरअसल समाज और राष्ट्र का नई दिशा प्रदान करने की ताकत से लबरेज़ होती है। मानव विकास के इतिहास और भूगोल को देखें या फिर अर्थशास्त्र या फिर समाज-संस्कृति को उक्त महत्वपूर्ण आयामों को आकार देने में राजनीति की भूमिका निर्विवादतौर पर अहम रही है। राजनीति ने ही समाज के विकास और विस्थापन की स्थितियां भी पैदा की हैं। क्या इस तथ्य से मुंह मोड़ सकते हैं कि राजनीति ही थी जिसने 1947 के विश्व के इतिहास में दर्ज़ सबसे बड़ी तकसीम का अंजाम दिया। कई बार लगता है राजनीति ने शिक्षा को भी कहीं न कहीं प्रभावित करती रही है। आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद की शिक्षा नीतियों और राजनीति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति और दिशा को तय करने में ख़ासा अहम भूमिका अदा की हैं। वह चाहे माध्यमिक शिक्षा समिति हो, कोठारी कमिशन हो, राष्ट्रीय शिक्षा नीति हो, या फिर 1977, 1985,1988, 2000 या फिर 2005 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा ही क्यों न हो इन तमाम समितियों, नीतियों के निर्धारण में राजनीति ने अपने छाप छोड़े हैं। दूसरे शब्दां कहें तो शिक्षा में राजनीतिक हस्तक्षेप को नजरअंदाज नहीं कर सकते। प्रकारांतर से राजनीति की दिशा तय करने में व्यक्ति की प्रमुखता भी रेखांकित की जाती रही है। जो भी व्यक्ति सत्ता में आया वह अपने राजनीतिक स्थापनाओं, मान्याओं को शिक्षा की काया में समाहित करने की पुरजोर कोशिश है। इसी का परिणाम है कि शिक्षा में जाने अनजाने वैसे कंटेंट भी शामिल किए गए जो अपने आप में विवादां को जन्म देने वाले थे। किन्तु क्योंकि सत्ता चाहती थी इसलिए उन्हें पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनाया गया। मिसाल के तौर पर शंगूर आंदोलन को वर्तमान सरकार पाठ्यपुस्तकों में शामिल कर चुकी है। वहीं दूसरी राजनेता ने अपनी आत्मकथा बच्चों के बस्ते में ठूंस दिया। वह दीगर बात है कि वह आत्मकथा क्या कंटेंट के लिहाज से समीक्षित की गई। किस विद्वत् मंडल ने समीक्षा कर अपनी रिपोर्ट सौंपी की यह आत्मकथा पढ़ने-पढ़ाने योग्य है आदि। इस प्रकार राजनीति व्यक्तियों की आत्मकथाएं पाठ्यपुस्तकों में पहले भी शामिल की जाती रही हैं किन्तु उसका अपना ऐतिहासिक और राजनैतिक विकास यात्रा को समझने के औजार के तौर पर जांचा परखा गया और तब शामिल किया गया। यदि पत्रों की बात बात करें तो नेहरू के ख़तों को बतौर पाठ्य सामग्री में शामिल किया गया है इसे पढ़ते-पढ़ाते हुए कई पीढ़ी बड़ी हुई है। राजनैतिक व्यक्तियों की जीवनियां भी शामिल की गईं जिनमें राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, गांधीजी, नेहरू, अब्दुल कलाम आदि। इनकी जीवनियों, संघर्षां से गुजरते हुए कहीं न कहीं हमारे बच्चों को जीवन-संघर्षों की एक झांकी तो मिलती ही है साथ ही भविष्य की रणनीति बनाने में भी मदद मिलती है।
शिक्षा न केवल समाज, बल्कि समाज से जुड़ी हर चीज को आकार दिया करती है। इसे स्वीकारने में ज़़रा भी गुरेज़ नहीं होनी चाहिए कि इस शिक्षा को गढ़ने, आकार देने में राजनीतिक इच्छा शक्ति और पार्टी की बड़ी भूमिका होती है। बल्कि राजनीति शिक्षा की पूरी कुंडली लिखती है। जब जब जो भी सत्ता में आया उसने अपने तई शिक्षा के वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा लिखने में पीछे नहीं रहा। एक लंबा इतिहास है जब राजनीति ने शिक्षा की दिशा और दशा को ही मोड़ दिया। ज़्यादा पीछे इतिहास में न भी जाएं तो एक बड़ी राजनीतिक इच्छा शक्ति और राजनीतिक हस्तक्षेप को यहां उदाहरण के तौर पर पेश कर सकते हैं। सन् 2014 में सत्ता में आते ही वर्तमान केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि आगामी एक या दो साल भी अंदर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाएगी। हालांकि यह भी राजनैतिक सच है कि हम हर पांच साल बाद लोकसभा चुनाव में व्यस्त होते हैं। इस व्यस्तता में हम भूल जाते हैं कि हमने पिछली बार क्या क्या घोषणाएं की थीं। उन घोषणाओं के साथ क्या किया यह किसी से भी छूपी नहीं है। सरकार आई और अब नई सरकार गठन का वक़्त भी सिर पर है, लेकिन शिक्षा नीति मालूम नहीं कहां है। जो भी नई सरकार आएगी वह फिर शुरू से इस नीति पर काम करेगी। इस पांच वर्ष में जितने लाभ हासिल करने वाले बच्चे थे वे पांचवीं पास कर छठी कक्षा में और बारहवीं पास कर कॉलेज में चले जाएंगे। कॉलेज से निकल कर जॉब की तलाश में जुट जाएंगे। सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ा कि जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति आनी थी उसके न आने से किन किन को किस प्रकार की क्षति हुई होगी। यह तो एक ताजा तरीन राजनीतिक घटना है। इसके अलावा समय समय पर इससे भी बड़ी घटनाएं शिक्षा जगत में घटती रहती हैं। इस ओर न तो सरकार, न राजनीतिक दलों और न नागर समाज के पेशानी पर बल पड़ता है। अपने अपने कार्यकाल संपन्न कर वे तो चले जाते हैं किन्तु पीछे एक बड़ा सवाल ज़रूर छोड़ जाते हैं कि शिक्षा की दशा और दिशा तय करने वाले किस कदर अगंभीर हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति निर्माण का मसला हो या फिर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या निर्माण, पाठ्यपुस्तक निर्माण आदि के साथ भी जिस प्रकार की गंभीरता की मांग होती है उसके साथ राजनीतिक शक्तियां अपना दल बल इस्तमाल किया करतीं हैं। वह चाहे 2000 से पूर्व की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा हो या फिर उसके बाद की इस दस्तावेजों में भी सत्तारूढ़ पार्टियों ने अपनी दूरगामी वैचारिक पूर्वग्रहों को पीरोने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। यही हालत पाठ्यपुस्तक निर्माण में भी देख सकते हैं। समय समय पर वर्तमान राजनीतिक व्यक्ति को पाठ्यपुस्तकों को शामिल करना, पूर्व के पाठों को हटाने का खेल भी खूब खेला गया है। गौरतलब है कि 2000-2002 में  फलां पृष्ठ को हटाया गया ढिमका पृष्ठ को न पढ़ाने के फरमान जारी किए गए। इन विवादों में कई बार उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने पड़े यह दौर है 2002 का। वर्तमान सरकारें चाहे वो केंद्र की हो या फिर राज्य की अपनी अपनी राजनीति उपलब्धि को बच्चों की पाठ्यपुस्तकों ठूंस दिया गया। इसमें बंगाल, राजस्थान, बिहार आदि राज्य सरकारें शामिल हैं। सरकारें कैसे भूल जाती हैं कि सरकारें आती जाती हैं किन्तु पाठ्यपुस्तकें कम से कम पांच दस और पंद्रह साल तक चला करती हैं। इन्हें पढ़कर लाखों बच्चे युवा और प्रौढ़ बन कर समाज में विभिन्न सेवाओं में आते हैं। वे उन्हीं वैचारिक पूर्वग्रहों को अग्रसारित करने में जुट जाते हैं। जबकि शिक्षा वैज्ञानिक सोच और विवेक निर्माण की वकालत करती है। बच्चों में वैचारिक और बौद्धिक विकास में शिक्षा की अहम भूमिका को कदापि नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
आज़ादी पूर्व के इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि शिक्षा और शिक्षकों की भूमिका और ताकत को हमेशा ही राजनीतिक धड़ों ने अपने हाथों में रखा और उसे अपने स्वार्थ साधक के तौर पर इस्तमाल किया। शिक्षकों की अस्मिता को कमतर करने में भी तत्कालीन सत्ताधारियों ने कोई उठा नहीं रखी। शिक्षकों को नौकरी और वेतनभोगी बनाने के लेकर उन्हें समाज के उस वर्ग में शामिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जहां शिक्षक वेतनभोगी होते ही समाज के अन्य वर्गां के विश्वास खोता रहा। विभिन्न शैक्षणिक समितियों ने शिक्षा की दिशा तय की हो या न की हो लेकिन यदि उनकी सिफारिशों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि नीति, मूल्य, आदर्श की जमीन पर बहुत पुख्ता थीं। यह दीगर बात है कि उन्हें कभी भी अमल में नहीं लाया गया। कोठारी कमिटी की सिफारिशों को ही ले लें। हम आज भी कोठारी आयोग की सिफारिशों की दुहाई दिया करते हैं। वह चाहे बजट को लेकर हो, निकट स्कूल व्यवस्था की हो या फिर शिक्षकःबच्चे अनुपात से संबंधित। हमारी सरकारें सिर्फ इन सिफारिशों के साथ मजाक ही करती रहीं। वहीं 1985-88 पुनरीक्षित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा बड़ी ही शिद्दत से पूर्व प्राथमिक से लेकर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक, माध्यमिक आदि शिक्षा में कला शिक्षा को शामिल करती है। यह दस्तावेज़ मानती है और सिफारिश करती है कि कला की शिक्षा के द्वारा अन्य विषयों को पढ़ाया जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो कला की शिक्षा को अन्य विषयों में पीरोया जाए ताकि कला अलग से पढ़ाने की आवश्यकता ही न पड़े। किन्तु हमने इसे कभी तवज्जो ही नहीं दिया। इसके पीछे के कारणों की परतें खोलें तो पाएंगे कि वह कहीं न कहीं राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी रही है।
तब की वर्तमान सरकार ही हैं जिसने वैश्विक उदारीकरण और वैश्विक बाजार के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले गए थे। तब के शिक्षाविदों, शिक्षाकर्मियों ने कोई ख़ास और सशक्त विरोध नहीं किए। पूरा का पूरा विश्वविद्यालय, शिक्षायी नागर समाज मौन था। यही वो प्रस्थान बिंदु हैं जहां से 1986-88 के आस-पास भारतीय शिक्षा में बाजार और वैश्विक बैंकों के लिए ख़ासकर शिक्षा की दहलीज़ सौंपी गई थी। इस ऐतिहासिक घटना पर तत्कालीन अकादमिक महकमा, कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि मौन साधे बैठे थे। तब क्या अनुमान लगा सकते थे कि हमारी सरकारी शिक्षा के समक्ष एक समानांतर शिक्षा संस्थानों की दुकानें खुल जाएंगी जहां आम परिवार का बच्चा प्रवेश करने की सोच भी नहीं सकता। जहां एक ओर बी एड सरकारी संस्थानों में बामुश्किलन 5 से दस हजार में हो किए जा सकते हैं वहीं निजी संस्थानों में छात्रों को अस्सी से नब्बे हजार खर्च करने पड़ते हैं। यह तो एक कोर्स का उदाहरण है पूरे भारतवर्ष के विभिन्न शैक्षणिक कोर्स की फीस पर नजर डालें तो स्थितियां एक के बाद बदत्तर ही मिलेंगी। जहां सामान्य बीए करने के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हजारों में फीस है वहीं निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में लाख के पार फीस चली जाती है। ऐसे में जो समर्थ अभिभावक हैं वो तो अपने बच्चों को तथाकथित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर पाते हैं बाकी सब इत्यादि में शामिल हो जाते हैं।
नब्बे के आस- पास ही तदर्थ और अतिथि शिक्षकों के द्वारा प्राथमिक उच्च प्राथमिक आदि स्कूलों में सेवाएं लेने की शुरुआत हुई। यह एक तय समय सीम के लिए विकल्प सुझाए गए थे। लेकिन हमने तो विकल्प को ही प्रमुख मान लिया। आज की तारीख में कोई राज्य छूटा नहीं है जहां तदर्थ और अतिथि शिक्षक नहीं हैं। इन अतिथियों शिक्षकों को हर साल नौ या दस माह के लिए अनुबंध में रखा जाता है और अगले साल इनकी सेवाएं जारी रहेंगी या नहीं इसके प्रति कोई तय नियम या आश्वासन नहीं होता। इस प्रकार अतिथि एवं तदर्थ शिक्षक सालों साल यानी दस पंद्रह साल तक खट रहे हैं। वह प्राथमिक स्कूलों से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय आदि सब जगह हैं। अकेले दिल्ली में तकरीबन 22,000 अतिथि शिक्षक हैं। इन अतिथि और तदर्थ शिक्षकों की दशा और दिशा सुधारने के प्रति कोई गंभीर और सार्थक कदम उठाने से बचती रही है। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि चुनावी माहौल में इन्हें वोट बैंक ज़रूर दिखाई देते हैं इसलिए इन्हें स्थाई करने का चबेना ज़रूर बांटे जाते हैं।
न केवल एक राज्य में बल्कि हर राज्य से सूचनाएं आ रही हैं कि कितने सरकारी स्कूल या तो बंद कर दिए गए या फिर वर्तमान स्कूलों के दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया गया। दिल्ली की ही बात करें तो अप्रैल में पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तकरीबन पंद्रह स्कूलों को विलयन से गुजरना पड़ा। वहीं पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली में दस सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए। सरकारी स्कूलों को बचाने एवं मर्ज करने से बचाने के लिए किसी भी राजनीतिक दलों व सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए। मर्जिंग और बंद होते सरकारी स्कूलों को कैसे बचाई जाए इस बाबत कोई योजना न तो लाई गई और न नीति निर्माता धड़ों में इसके प्रति को सुगबुगाहट नहीं नजर आती है। विभिन्न नागर समाज बंद होते सरकारी स्कूलों को बचाने और मर्ज होते स्कूलों को कैसे अस्तित्व में रख सकें इसके लिए आवाज उठा रही हैं। एक अलग विमर्श का मुद्दा है कि सरकारें इसे जिस हल्के तरीके से ले रही हैं इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी इच्छा शक्ति इन स्कूलों को बचाने से ज्यादा बंद करने की है। उसपर तर्रा तर्क यह दिया जाता है कि बच्चे नहीं हैं। शिक्षकों की कमी है आदि आदि। वर्तमान स्कूलों को गिरा या बंद कर वहां पर पार्किंग की व्यवस्था की जा रही है। इन तर्कां पर नागर समाज सचेत है।
राजनीतिक दलों को कायदे से शिक्षा की व्यवस्था और दिशा निर्माण के लिए ठोस योजना बनाने और उन्हें लागू करने की रणनीति की आवश्यकता है। वरना सरकारें चुनी जाएंगी सत्ता में रहेंगी भी और पांच वर्ष पूरा कर चली भी जाएंगी। शिक्षा ही है जो सरकारों के बनने और जाने से न तो आती है और न जाती है बल्कि शिक्षा हमेशा रहती है। यदि हमने शिक्षा को अपनी चिंता के केंद्र में नहीं रखा तो शायद हमें नहीं मालूम कि हम अपने भविष्य के साथ कैसे बरताव कर रहे हैं।
राजनैतिक -ऐतिहासिक शैक्षिक घोषणाओं की यात्राएं कई बार हमारी समझ और काल-बोध को स्पष्ट करती हैं। शैक्षणिक ऐतिहासिक घोषणाओं में 1990 का जोमेटियन का एजूकेशल फोर ऑल, ईएफए, 2000 का डकार घोषणा पत्र, 2000 का सहस्राब्दि विकास लक्ष्य, 2009 का शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2015 जब हमने सहस्राब्दि विकास लक्ष्य पूरा नहीं कर पाए और नागर समाज ने तय किया कि सतत् विकास लक्ष्य 2030 तक हम शिक्षा में गुणवत्ता, समानता और लैंगिक समतामूलक परिवेश मुहैया करा पाएंगे। उक्त घोषणाएं राजनैतिक ज्यादा थीं शैक्षिक कम। क्योंकि शिक्षा में जो लक्ष्य हासिल करने के लिए समय सीमा तक की गई थी वह हर बार अधूरी और अछूती रह गई। इसके पीछे राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी और रणनीति एवं योजना के स्तर पर कमियों देखी जा सकती हैं। वरना वैश्विक स्तर पर स्वीकृत घोषणाएं क्यों विफल हो गईं। क्यों आज भी भारत में करोड़ें बच्चे बुनियादी शिक्षा से महरूम हैं? क्यों भारत के बच्चे स्कूलों से बाहर हैं? कहां तो हम शिक्षा में समानता, समतामूलक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की बातें करते हैं किन्तु वहीं हक़ीकत यह है कि हमारे लाखों बच्चे अभी भी स्कूलों तक पहुंच नहीं पाए हैं। जो बच्चे स्कूलों में हैं उन्हें ऐसी शिक्षा क्यों नहीं दे पा रहे हैं कि वे भाषा, गणित आदि विषय की बुनियादी दक्षता ग्रहण कर पाएं। तमाम सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट हमें लगातार आईना दिखाती हैं कि बच्चे अपनी कक्षा के अनुरूप पढ़ने-लिखने आदि में पीछे हैं। यदि हमें सतत् विकास लक्ष्य 2030 के लक्ष्य को हासिल करने हैं तो राजनैतिक और नागर समाज की प्रतिबद्धता की आवश्यकता पड़ेगी। हमें पूरी इच्छा शक्ति और कार्ययोजना के साथ प्रबंधन की समझ का इस्तमाल करना होगा।


Monday, May 13, 2019

शिक्षक के कंधे पर लोकतंत्र का महापर्व संपन्न



कौशलेंद्र प्रपन्न
लेकतंत्र का महापर्व व कहें त्यौहार (निर्वाचन आयोग से द्वारा प्रदत्त विज्ञापनों के अनुसार) त्योहार संपन्न हुआ। तकरीबन दो माह चले इस त्योहार में विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों ने न जाने किसको क्या नहीं कहा। इतिहास के मरे मुर्दें उखाड़े। तोर मोर छोर किया। किसी ने चड्ढी के रंग तक देखकर बता दिए। वहीं कई तो राजनेता ऐसे भी रहे जिन्हें शायद चुनाव खत्म होने के बाद अपने बयानों पर शर्म आए। किन्तु शर्म मगर उन्हें नहीं आती। हर पांच साल का तजर्बा है उनके पास। चुनाव खत्म, सारी रंजीशें खत्म। वही राजनेता शाम में किसी होटल या पार्टी में गलबहियां करते भी मिलेंगे। शायद अनुमान लगा सकते हैं वे आपस में शाम में क्या बात करते होंगे।
‘‘छोड़ यार वो मंच था। मंच पर बहुत सारी बातें बोली जाती हैं। और बता बेटा क्या कर रहा हैं आज कल?’’
‘‘लेकिन आपने तो इस बार मुझे क्या क्या नहीं कह दिया।’’
शायद इसी किस्म की बातें होती होंगी। या फिर जो कमजोर राजनेता होंगे वे मुंह सुजा लेते होंगे। मुझे ऐसा बोला वैसा बोला। ऐसे में मंजे हुए कलाकार कहते होंगे यार तुम्हें अभी और सीखने की ज़रूरत है। देखा नहीं फलां राजनेता ने कैसे अपनी जिंदगी बचाने का पूरा माला उन्हें पहना दिया। क्या उन लोगों ने कभी मंच पर किसी को सुनाने से छोड़ा या पीछे रहे। तुम हो कि मुंह फुला कर बैठे हो। ऐसे तो हो गई राजनीति।
 इस त्योहार में कई सारे हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों के श्रम शामिल हैं। उनमें भी हमारे प्राथमिक स्कूली शिक्षक/शिक्षिकाएं। इन्हें तो मार्च से ही चुनावी ड्यूटी में स्कूलों से बाहर निकाल दिया गया था। कुछ अप्रैल से चुनावी प्रक्रिया से जुड़ गए थे। तीन चार कार्यशालाएं कराई गईं। कैसे मतदान कराएं। क्या तरीका अपनाएं। किस प्रकार की दक्षता आपमें हो आदि आदि। आपने सोचा न होगा कि जब एक स्कूल से कोई दो चार शिक्षक चुनावी ड्यूटी पर काम कर रहे थे तब उनकी कक्षाओं के बच्चे क्या करते होंगे? यह भी कोई सवाल है? बच्चे तो बच्चे हैं। कोई भी हांक सकता है। अंजु, मंजु, राकेश महेश, आरिफ कोई भी। लेकिन यह कोई भी बस बच्चों को बांध कर रख सकता है। उन्हें पढ़ाना ज़रा कठिन है। एक तो उनकी खुद की कक्षा उस पर दूसरे शिक्षक की कक्षा अनुमान लगाएं एक कमरे में कम से कम साठ सत्तर बच्चे हो गए। उन्हें पढ़ाएंगे या फिर घेर कर रखेंगे। इन बच्चों को कम से कम डेढ़ माह तक अपने शिक्षक नियमित नहीं मिल पाए। और दस मई से स्कूल की छुट्टियां हो गईं। अब बच्चे इन्हें जुलाई में मिलेंगे। जुलाई के दूसरे हप्ते से बच्चों की परीक्षा यूनिट टेस्ट शुरू हो जाएंगी। उन यूनिट टेस्ट में बच्चों का प्रदर्शन कैसा होगा इसका अनुमान आप लगाएं। सब हमीं नहीं बताएंगे।
हर पांच साल पर या फिर बीच बीच में भी चुनावी ड्यूटी में शिक्षकों को लगा दिया जाता है। इन्हें सम्मानित करते हुए कि आप शिक्षक हैं। पढ़े-लिखे हैं। समझदार किस्म के इंसान हैं। आप ही इस काम के लिए उपयुक्त हैं। चलिए चढ़ जाएं शूली पर। आप मना नहीं कर सकते। यह राष्ट्रीय पर्व है। आएं मिल कर उत्सव मनाएं। हर पर बीमार मां हो या पिता। बच्चा दूधमुंहा हो तो हो। आपको छुट्टी नहीं मिल सकती। अवकाश की तो सोचना भी मत।
हमारे शिक्षक हाल में संपन्न चुनाव के दौरान एक दिन पहले आधी रात तड़के उठकर सुबह चार या पांच बजे वोटिंग सेंटर पर पहुंच गए। उफ्! कहानी थोड़ी पीछे लेकर चलते हैं। एक दिन पूर्व इन शिक्षकों को मुख्य केंद्र पर मशीन, कागजात आदि लेने थे। जहां लंबी लंबी कतारें थीं। कतारों में खड़े खड़े पैर दुखने भी लगे थे। लेकिन बिना उफ् तक किए चुनाव के त्योहार के लिए पंक्ति में लगे थे। किसी तरह सारा समान ढोकर देर रात लौटे। सुबह वोट डालने जहां आप जाते हैं। इस बार में दिल्ली सोती रही। तकरीबन साठ फीसदी वोट ही डाले गए। बाकी के वोट कहां गए? हालांकि सरकार ने बड़े बड़े विज्ञापन लगाए थे ‘‘ वोट डालना है जरूरी, फिर शिमला मसूरी’’ लेकिन बिना शिमला मसूरी गए लोग घरों में बीस डिग्री एसी कर सोते रहे। रंगीन अख़बारी पन्ने पलटते सोशल मीडिया पर रूझान चाटते, खिसकाते रहे। लेकिन वोट डालने नहीं गए। वहीं हमारे शिक्षक अह्ले सुबह उठ कर तड़के वोट मशीन आदि चेक कर बैठ गए।
बदइंतज़ामी की जहां तक बात है तो देर मध्य रात्रि घर लौटे शिक्षक बताते हैं कि तेरह मई को तीन बजे, दो बजे, एक बजे रात लौटे। क्यों भाई वोटिंग तो शाम छह बजे संपन्न हो गए थे। फिर यह रात के एक या दो क्यों बजे घर लौटने में? उनका कहना था। हम मशीन आदि लेकर वापस सेंटर पर गए जहां कोई इंतजाम नहीं था। कोई व्यवस्था नहीं थी। न कोई पंक्ति और न कोई सुनने वाला। हम मशीन को शोनू की तरह गले लगाए बैठे रहे। कोई तो हो जो हमारा नंबर पुकारे और हम शोनू को सौंप कर घर लौटें। रात में घर वापसी का कोई भी इंतजाम नहीं किया गया। अकेली महिलाएं अपने परिचित सहमित्रों के साथ घर लौटीं। मशीन की खराबी तो एक कहानी है ही। साथ ही जहां नर्सरी की आयाएं नियुक्त की गई थीं वहां उनके खाने पीने का भी कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं था।
जो भी हो शिक्षक न हों तो यह पर्व अधूरा सा है। आप इसे फीका भी कह सकते हैं। लोकतंत्र के इस महापर्व को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने में लाखों शिक्षकों ने अपनी ऊर्जा, ताकत, समय लगाया। पता नहीं इन्हें कोई धन्यवाद कहेंगा या नहीं। इसका शुक्रिया अदा कौन निज़ाम करता है। वैसे भी ये प्राथमिक स्कूल के शिक्षक ठहरे। कहां जाएंगे मुंह फेर कर। अगली बार फिर फरमान जारी कर बुला लेंगे। इन फुफाओं, ताउओं को। 

Friday, May 10, 2019

अंकों के पहाड़ पर बौनी परीक्षा



कौशलेंद्र प्रपन्न
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पूर्व चेयरमैंन अशोक गांगुली का मानना है कि अंकों के बाढ़ को देखते हुए हमें अपने मूल्यांकन पद्धति का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। बच्चों के मूल्यांकन की परीक्षा प्रणाली को विश्वसनीय और वैद्धयता प्रदान करने के लिए हमें प्रयास करने होंगे। वहीं प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो. कृष्ण कुमार का मानना है सौ फीसदी अंक हासिल करने की प्रवृत्ति को समझने की कोशिश करें तो यही निकल कर आती है कि हम कैसे प्रश्न पत्र बनाते हैं? और किस प्रकार के उत्तरों का मॉडल हमने तैयार किए हैं। इस मॉडल में बच्चे शत प्रतिशत शत ऐसे हासिल करते हैं कि वे रटे हुए तथ्यों को याद कर पुनर्प्रस्तुत कर देते हैं और उन्हें परीक्षा में सौ फीसदी अंक मिल जाते हैं। इस प्रक्रिया में सृजनशीलता और मौलिक चिंतन कहीं पिछड़ जाता है। जीत उसकी होती है जिसकी रटने की क्षमता और कुशलता ज्यादा है। कृष्ण कुमार का मानन है कि इस समस्या से निपटने का एक रास्ता यह हो सकता है कि हम प्रश्नपत्रों के निर्माण और उत्तर के मॉडल को नए सिरे से गढ़ा जाए। यदि कृष्ण कुमार जी के सुझाए प्रस्ताव की परतें खोलने की कोशिश करें तो पाएंगे कि 2008-9 के आस-पास सीबीएससी के प्रश्न पत्रों का स्वरूप बदला गया। इससे पूर्व सवालों की प्रकृति विश्लेषणात्मक होती थीं। यानी वे प्रश्न पत्र लेखन, चिंतन, सृजनशील मना बच्चों की दक्षता और कौशल का भी मूल्यांकन किया करता था। दीगर बात है कि तब इस प्रकार के प्रश्न पत्र पर देश भर में चर्चा हुई कि बच्चे प्रश्न पत्रों और परीक्षा में फेल होने की वजह से आत्महत्याएं कर रहे हैंं। शिक्षाविद्ों और सीबीएससी को इस गंभरी मसले पर विचार करना चाहिए। बच्चों को परीक्षा और अंक के भय से मुक्ति दिलानी ही होगी। इस बाबात सीबीएससी ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 को आधार बिंदु बनाकर प्रश्नपत्रों की प्रकृति में परिवर्तन किया। बहुवैकल्पिक प्रश्नों के चलन के साथ ही बच्चों के अंकों में उछाल आते सभी ने देखा। देखते ही देखते दसवीं और बारहवीं में बच्चों के प्रदर्शन और अंकां की बाढ़ सी आ गई। तब भी बच्चों में आत्महत्या की घटनाएं रूकी नहीं। फिर भी बच्चे अवसाद और कुंठा में जीने लगे। उनकी निराशा इस बात की थी कि अस्सी, नब्बे तो आए किन्तु पांच या दस अंक कम क्यों रह गए। इस बार तो 400 में 400 और 500 में 500 अंक भी बच्चों ने हासिल किए हैं। उन बच्चों से पूछिए जिनके एक या दो अंक से शत प्रति शत अंक आने से चूक गए। वे बच्चे बड़े निराशा में जी रहे हैं। बच्चे तो बच्चे मां-बाप भी मुंह फुलाकर इधर उधर टहल रहे हैं।
याद कीजिए अस्सी और नब्बे का दशक जब पूरे जिले और राज्य में मुश्किल से दस बीस बच्चों को साठ या सत्तर प्रतिशत अंक आया करते थे। उन बच्चों की तस्वीरें अख़बारों में छपा करती थीं। इन बच्चों को हीरों की तरह लोग जानने लगते थे। वहीं 2000 और 2010 के बाद तो नब्बे पार के बच्चों को भी कोई नहीं पूछता। न आईआईटी, न डीयू और न अन्य प्रोफेशनल संस्थान। इन्हें अपने मनमुताबिक कोर्स के साथ संतोष करना पड़ता है। नीट में भी इन्हें लगता है इनका भविष्य अधर में है। नब्बे पार और अस्सी के इस पार अटके हुए बच्चों से पूछिए और उनके मां-बाप से पूछें तो इनसे ज्यादा कोई और दुखी जन नहीं मिलेंगे। परीक्षा के रिजल्ट आने और एक दो माह तक ऐसे बच्चे चर्चा में रहते हैं उसके बाद ये बच्चे भी गुमनामी में चले जाते हैं। जब मामला गर्म होता है तब तमाम मीडिया वाले इनका साक्षात्कार लेते हैं। इनकी सफलता के मंत्र पूछते हैं। ये अपना भविष्य किस दिशा में बनाना चाहते हैं आदि सवालों के जरिए पूरे पन्ने और बॉक्स में छापा करते हैं। इनके आप्त वचन को प्रेरणा स्रोत की तरह पेश किया जाता है। कैसे इन्होंने ख्ुद को सोशल मीडिया से दूर रखा, कहां से कोचिंग लीं, किस स्कूल में किस टीचर ने ज्यादा मदद की आदि आदि सवाल पूछ कर उसे रेखांकित कर छपने के बाद ये कहां जाते हैं इसकी फॉलो अप स्टोरी कम नहीं देखी और पढ़ी जाती है।
परीक्षा की प्रकृति और उसके चरित्र को तो समझने की आवश्यकता है ही साथ ही हमें परीक्षा के उद्देश्य को भी रेखांकित करने की ज़रूरत है। हम क्यों बच्चों का मूल्यांकन करते हैं? क्यों हमें परीक्षा लेने की आवश्यकता पड़ती है आदि। इसका सीधा जवाब है बिना कारण के कार्य नहीं होते। शिक्षा दी जा रही है तो उसका क्या असर हुआ? बच्चे कितना सीख रहे हैं इसे जांचा भी जाना चाहिए। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को विषयवार तालीम दी जा रही है उसमें से बच्चे कितना ग्रहण कर पा रहे हैं। क्या बच्चों के सीखने-सिखाने में कोई बाधा तो नहीं है किन्हीं वजहों से बच्चे सामान्यतौर पर सीख नहीं पा रहे हों। ऐसे में शिक्षा की मूल प्रकृति पर भी विमर्श करने की आवश्यकता पड़ेगी। क्या हम शिक्षा के माध्यम से सिर्फ विषयों की समझ विकसित करना चाहते हैं या फिर उन विषयों का हमारे आम जीवन में कोई उपयोगिता भी है? क्या हम इतिहास, समाज विज्ञान, विज्ञान व भाषा, गणित को अपनी जिंदगी में शामिल कर और बेहतर बना सकते हैं। शायद सत्तर या अस्सी के दशक में हमारा ध्यान विषयों के साथ ही बच्चों के सर्वांगीण विकास पर केंदीत था। जबकि 1985 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा पुनरीक्षा 1988 के दस्तावेज को देखें तो यह एनसीएफ मानता है कि बच्चों को प्राथमिक स्तर पर भाषा, गणित आदि की समझ विकसित करनी चाहिए। ख़ासकर कक्षा एक से पांचवीं तक में भाषा, गणित, विज्ञान और समाज विज्ञान की शिक्षा दी जाए। वहीं यह दस्तावेज छह कक्षा से आगे अन्य विषयों को भी शामिल किया जाए। 1988 की पुनरीक्षा एनसीएफ मानता है कि कला के जरिए प्राथमिक और उच्च कक्षाओं में बच्चों को शिक्षा दी जाए। देश के ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में भी बच्चों को जानकारी दी जाए। इस मसले पर एनसीएफ 1988 का विशेष जोर है। इन्हीं चिंताओं को 2005 के एनसीएफ में भी स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि 2008-9 में सीबीएसई ने उक्त एनसीएफ का आधार बनाकर परीक्षा के प्रश्न-पत्रों के निर्माण संबंधी संस्तुतियों को आधार बनाया था। एनसीएफ 2005 के जुड़े नेशनल फोकस ग्रुप ऑन एक्जामिनेशन की संस्तुतियों को आधार बनाकर सीबीएससी ने परिवर्तन किए किन्तु वह किस स्तर तक कारगर हुआ इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए।
शिक्षाविद्ां को मानना है कि बहुवैकल्पिक प्रश्न पत्रों में रटने और स्मृतिआाधारित कौशल की ज्यादा आवश्यकता पड़ती है। जिनकी स्मरण शक्ति अच्छी है वे बच्चे इन प्रश्न पत्रों में अधिकाधिक अंक हासिल कर लेते हैं। इन प्रश्न पत्रों में सृजनात्मकता, स्वतंत्र चिंतन और मौलिक चिंतन की संभावना को कम करती है। यही वजह है कि भाषा के पर्चे में भी बच्चे नब्बे पार अंक तो प्राप्त कर लेते हैं किन्तु स्वंतंत्र रूप से भाषा के अन्य कौशलों लेखन,पठन-समझ आदि के स्तर पर पिछड़ते नजर आते हैं। क्योंकि जब हमने भाषा के प्रश्न पत्र को वैकल्पिक बनाया तो वहां चार उत्तरों में से एक सही उत्तर को छांटना होता है। लेकिन जब मौलिक चिंतन और लेखन अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं के बराबर हो पाता है। नेशनल एचिवमेंट सर्वे, पीसा, डाइस फ्लैस रिपोर्ट, असर आदि की रिर्पोट बताती हैं कि हमारे बच्चे भाषा में लिखना-पढ़ाने कौशल में पीछे रह जाते हैं। जहां एक ओर भाषा स्वंत्रत और मौलिक चिंतन को बढ़ावर देती हैं वहीं गणित तर्कपूर्ण चिंतन और मंथन दक्षता का विकास करते हैं।
वर्तमान अंकीय प्रकृति को बढ़ावा देने वाली परीक्षा प्रणाली कहीं न कहीं बच्चां के स्वतंत्र और मौलिक चिंतन के संवर्द्धन में मददगार साबित होने की बजाए हानिकारक ही हो रही हैं। सिर्फ अंकों के पहाड़ खड़ा करना हमारा मकसद न हो बल्कि अंकों के साथ ही उसी के अनुपात में बच्चों को अपने विषयों की समझ स्तर भी विकसित हो। मूलतः परीक्षा हमारी समझ और अवबोधन के स्तर की जांच भी करती है ऐसा माना गया है। यदि यह मकसद है तो हमें उसी के अनुसार प्रश्न पत्रों के निर्माण की रणनीति भी तैयार करनी होगी। हम परीक्षा और मूल्यांकन से क्या हासिल करना चाहते हैं इसमें भी स्पष्टता लाने की आवश्यकता है। एक ओर विषयी समझ और कौशल की आवश्यकता हक़ीकत है तो दूसरी ओर अंकों की दुनिया भी उतनी साफ और कठोर है। यदि बच्चा कम अंक जिसे अस्सी से नीचे भी मान सकते हैं उन बच्चों को तथाकथित प्रसिद्ध कॉलेज में दाखिला नहीं मिल पाता। ऐसे बच्चे सरकारी कॉलेजों के समानांतर चल रही निजी कॉलेजों की ओर शिक्षा पाने के लिए भागते हैं। दोनों ही कॉलेजों में फीस एक बड़ी चुनौती नजर आती है। जो बच्चे मोटभ् फीस दे सकते हैं वे वहां दाखिल हो जाते हैं। बाकी बच्चे कहां जाते हैं, किन अंधेरे में रह जाते हैं इस ओर भी हमें सोचने की आवश्यकता पड़ेगी।

Wednesday, May 8, 2019

जहां रोशन है दिव्यांग बच्चों की दुनियाः


कौशलेंद्र प्रपन्न
हाई वे, मुख्य सड़क, महानगरीय सड़क, राजमार्ग, साठ फुट्टा रोड़, गली, चौपड़ आदि। इन नामों से कैसी तस्वीर बनती है? यही कि उक्त सारे नाम यातायात के प्रमुख साधनों में से एक हैं। सड़क उनमें से ऐसा मार्ग है जो जमीन पर रेलवे के अतिरिक्त बना करती है। क्या ऐसी भी गली की कल्पना कर सकते हैं जहां आप इंटर करें तो आपके साथ दूसरा कोई भी कंधे से कंधा मिला कर न चल सके। यानी ऐसी गली जहां धूप को भी आने के लिए इंजाजत मांगनी पड़े। जिस गली से बाहर निकलते ही बड़ी, चौड़ी सड़कें शुरू होती हों। जहां से झांकने पर एक चमचमाती नगरी, दुकानें, मॉल्स की दुनिया शुरू हो जाती है। इशारा ऐसी झुग्गी झोपड़ी से हैं जो दोआब में बसे हैं। जहां ज़िंदगी रोशन है। जहां टीवी है, फ्रीज है, साउंड सिस्टम है। बिजली पानी है। और राशन कार्ड भी। जहां गलियों में नालियां ऐसे पसरी हैं गोया सांप की नई प्रजाति पैदा हो गई हों। न केवल दिल्ली बल्कि मुंबई, चैन्नई, कोलकाता आदि तमाम महानगरों में बसी हैं। जहां से रोज काम पर जाने वाले भीड़ में कहां खो जाते हैं इसका अनुमान लगाना ज़रा कठिन होता है। इन्हीं घरों से कई बार हमारे घर चौका बरतन करने वाली आती हैं। कभी सोचा है इनके बच्चे कहां, किन स्कूलों में दाखिल होते हैं। कहां इन्हें नई तालीम मिलती है। आदि। ऐसे ही कुछ सवाल हैं जिनका उत्तर शायद हमें देना होगा।
मोतीलाल नेहरू कैंप, संजय बस्ती, ओखला फेज 1 व 2, नेहरू प्लेस, कालका जी, गोविंदपुरी आदि जगहों पर दो फैक्ट्री के दोआब में गुलजार इन बस्तियों से मजदूर मिला करते हैं। जिनके बदौलत हमारा बड़ा काम हुआ करता है। जब ये वर्ग एक या दो माह के लिए भी गांव-घर चला जाता है तो हमारी आम जिंदगी कहीं न कहीं प्रभावित होती है। हमारे सरकारी स्कूल पर भी विपरीत असर साफ देखे जा सकते हैं। ख़ासकर पर्व त्योहारों पर, गर्मी की छुट्टियों में। जाते एक माह के लिए हैं लेकिन लौटत दो तीन माह बाद हैं। स्कूल टीचर मानते हैं कि हमारी मेहनत खराब हो जाती है। हमें दुबारा से शुरुआत करनी पड़ती है। इन बच्चों के साथ पढ़ने-पढ़ाने की दिक्कत बराबर बनी रहती है। जाने के बाद कब लौटेंगे किसी को भी नहीं पता।
इन कॉलोनियों, कैंप में बसने वाले बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का रख रखाव और मुहैया कराने में कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं लगी हैं। जो बच्चों की शिक्षा और देखभाल करते हैं। एनजीओ के अलावा कुछ सीएसआर की गतिविधियां भी यहां बहुत ही शिद्दत से काम कर रही हैं। ये बिना आवाज़ किए अपने काम में विश्वास करती हैं। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन उनमें से एक है। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन ओखला में आस्था संस्था के मार्फत दिव्यांग बच्चों की बुनियादी तालीम पर काम करती है। आस्था सस्था पिछले तकरीबन पचीस सालों से दिव्यांग बच्चों के विभिन्न मुद्दों और समस्याओं को ध्यान में रख कर गर्दन झुकाए काम में जुटी है। इस संस्था में तकरीबन सौ से ज्यादा बच्चे आते हैं। सेंटर पर आने वाले बच्चों को महज पाठ्यपुस्तकीय शिक्षा मुहैया कराने की बजाए जीवन कौशल की समझ भी दी जाती है। इन दिव्यांग बच्चों को अंधेरी गलियों और आम जीवन की उपेक्षा से निकाल कर समाज और समुदाय से जोड़ा जाता है। इन बच्चों से बात करके तो देखिए जनाब इनके आत्मविश्वास में कमाल का उछाल और जीने की चाहत, उमंग की लहरें देखने-सुनने को मिलेंगी। ऐसे ही बच्चों की छोटी छोटी आंखों में बड़े बड़े सपने भरने और देखने का माद्दा पैदा करने में टेक महिन्द्रा फाउंडेशन पिछले लगभग दस साल से जुड़ा है। यह दीगर बात है कि यह फाउंडेशन काम बोलता है में विश्वास करता है न कि प्रचारित करने में।
नाम बेशक हमारे बच्चों जैसे ही हैं इन बच्चों के। कमल, ज्योति, सानिया आदि आदि। लेकिन ये बच्चे हमारे सामान्य बच्चों से ज़रा अलग हैं। इनकी भी आंखें दो ही हैं लेकिन इन आंखों में देख सकने की रोशनी नहीं है। ऋग्वेद में एक मंत्र में कहा गया है, ‘‘चक्षोरमे चक्षु अस्तु’’ यानी नेत्र में देखने की क्षमता हो। वहीं कुछ बच्चे ऐसे हैं जो अंदर से बेचैन हैं जिन्हें ठहर कर समझने और प्यार करने की आवश्यकता है। ऐसा ही एक बच्चा है ओखला कैंप में। उसने ठहर कर विश्वास के साथ मेरे गाल को अपने कोमल हाथों, अंगुलियों से छुआ, सहलाया और गले लगा। बोल भर बस नहीं फुटे। ऐसे बच्चों के बीच जाकर लगता है हम कितने गुमान और तोर मोर छोर से भरे हैं। हम जिस जहां में रहते हैं वह कोई और दिनया है। एक दुनिया समानांतर भी बसा करती है। इस दुनिया से हम बेखबर न जाने कितनी ही रंजीशें पाले हुए रेज़ डोल रहे हैं। ऐसी दुनिया से बहुत दूर हमने अपने लिए एक अगल आप्राकृतिक दुनिया बसा ली है जहां हम दो चार के बीच हंस बोल लेते हैं। एक दूसरे को लाइक, इग्नोर कर खुश हो लेते हैं। काश कभी इन बच्चों के बीच जा पाते। खुद ब खुद हमारी अंदर की दुनिया साफ हो जाएगी।
पहली बात तो यही कि इन दिव्यांग बच्चों को उनके घरों से निकालना अपने आप में बड़ी समस्या है। और यदि बार अभिभावक विश्वास कर कर संस्था में भेज भी देती है जो कम से कम संवाद की कड़ी जुड़नी शुरू हो जाती है। दूसरे स्तर पर चुनौती तब आती है जब ये बच्चे सामान्य बच्चों के बीच जाते हैं। स्कूल परिसर कितना भी मूल्यपरक बातें कर ले। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि एक ओर समावेशनी शिक्षा और दिव्यांग बच्चों के लिए स्कूल और शिक्षा एकीकरण करने वाली हो ऐसी घोषणाएं हने कई बार कई दशक पूर्व भी की है। लेकिन जमीनी हक़ीकत बिल्कुल अगल है।

Monday, April 29, 2019

सैर पर खोया व्यक्ति



कौशलेंद्र प्रपन्न
सुबह की सैर पर मेरे पिताजी जाएं या आपके चाचाजी। क्या फर्क पड़ता है। फर्क सिर्फ उम्र का हो सकता है। वह या तो साठ के पार होंगे या फिर सत्तर अस्सी पार। जब अस्सी पार का कोई व्यक्ति सुबह की सैर पर निकलता है तो ज़रूरी नहीं कि वो सकुशल घर वापस भी आ जाए। जब सुबह का गया व्यक्ति दोपहर तलक नहीं लौटता तब चिंताएं बढ़ने लगती हैं। उसपर यदि उस व्यक्ति के पास  कोई अता पता हो, न फोन हो और न ही इतनी स्मृति की याद रह सके कि किस गली से निकले थे और किस गली में वापस आना है। कहानी तब गहराने और पेचिदा होने लगती है। तमाम तरह की आशंकाएं और अघटित दुर्घटनाओं की चिंताएं हमें परेशान करने लगती हैं।
वैसे देखा जाए तो इसमें नया क्या है। होता ही रहता है। उसपर यदि आप किसी पुलिस स्टेशन में गुम हुए व्यक्ति की सूचना देने जाते हैं तब उनके व्यवहार में साफ झलकता है। आपके लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हो सकते हैं लेकिन उनके लिए वह एक केस भर है। केस मतलब कई तरह की व्यावहारिक और व्यावसायिक ज़रूरी कागजी कार्यवायी। आप कितना भी परेशान हों, उन्हें तो ऐसे केसेज से रोज़ रू ब रू होना होता है इसलिए कितने केसे के साथ वे संवेदनशीलता दिखाएंगे और कब तक। आप लगातार अपना धैर्य खोने लगते हैं। आप और हम उन्हें खरी खोटी भी सुनने लगते हैं कि आप ध्यान नहीं दे रहे हैं। आप दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं आदि आदि। लेकिन वह अपने तई काम कर रहा होता है। खोया हुआ व्यक्ति किस मनोदशा और किस पस्थिति से गुजर रहा है इसका महज अनुमान ही लगा सकते हैं। शायद जी नहीं सकते।
जब हम खोए हुए बाबुजी, चाचाजी आदि आदि की तस्वीर निकलवाने स्टूडियो में जाते हैं तो हमारे पास या तो पासपोर्ट साइज की फोटो होती है या फिर कई बार वो भी नहीं। ऐसे में हम अपने मोबाइल को घंघालते हैं कोई सेल्फी हो, कोई फोटो ली हो जिसे इनलाज कराई जाए। और तब महसूस होता  कि कई बार फोन की उपयोगिता और फोटो खीचे जाने की सार्थकता। इस स्टूडियो में जहां एक ओर शादी ब्याह की तस्वीरें डेवलप हो रही होती हैं वहीं दूसरी तरफ आप खोए हुए व्यक्ति की तस्वीर निकलवा रहे होते हैं। वक़्त की ही बात है कहीं शादी के जश्न मनाए जा रहे होते हैं वहीं एक खोया हुआ व्यक्ति अपने परिचितों से मिलने के लिए तड़प रहा होता है।
रास्ते तो वहीं होते हैं। सड़के भी वहीं रहती हैं। गलियां भी वहीं पड़ी रहती हैं। बस उसपर चलने वाला, टहलने वाला खो जाता है। अपना पता भूल जाता है। उसमें गली का क्या दोष? उस सड़का की भी कोई गलती नहीं जिससे होकर वो खोया हुआ व्यक्ति किसी वक़्त गुजरा हो।
कस्बा हो, गांव हो, छोटा शहर हो तो लोगों को आसानी से पहचान पाते हैं। हमें एक दूसरे का पेशा, घर मकान सब याद रहता है। कोई कहीं खोना भी चाहे तो खो नहीं सकता। कोई न कोई मिल ही जाएगा जो आपके भटके कदम को घर की ओर मोड़ दे। मगर महानगर ऐसा संजाल है गलियों का। सड़कें इतनी एक दूसरे काटती, भागती रहती हैं कि उस गाड़ियां ही भाग सकती हैं। सड़कों को क्या पता उसे किस रफ्तार में भागना है या भगाना है। बस वो व्यक्ति नहीं पहचान पाती।
शहर हो या कस्बा शायद अभी भी कुछ लोग बचे हैं जो भूले हुए या खोए हुए को घर तक छोड़ आते हैं। शायद उनके पास वक़्त है या फिर वक़्त निकाल लेते हैं अपने ज़रूरी कामों में से ऐसे कामों के लिए। हम जिस दौर और रफ्तार से गुज़र रहे हैं इसमें ठहर कर चेहरे पहचानने की गुंजाइश नहीं छोड़ता। शायद हम दफ्तर पहुंचने और पंच करने की भय में इतने डरे होते हैं कि आम और साधारण संवेदना को भी भूल चुके हैं। लेकिन ऐसे ही माहौल में ऐसे भी कुछ लोग बचे हुए हैं जिन्हें किसी खोए हुए को थाने तक पहुंचाने में सकून मिला करता है। शायद ऐसे ही लोगों के कंधे पर संवेदनाएं खत्म होने से बची हैं। जब भी जहां भी कोई सत्तर या अस्सी पार मेरे या आपके पिताजी या चाचाजी सुबह की सैर पर जाएं तो एक पता लिखा पुर्चा उनकी जे़ब में ज़रूर रख दें। कोई तो होगा जो खोए हुए की जे़ब से पुर्चा निकाल कर घर छोड़ देगा।
एक खोया हुआ व्यक्ति किन मनोदशाओं में जीता होगा? एक तो जो स्वेच्छा से खोया करते हैं और दूसरे मजबूरन खो जाते हैं। दो तरह का खोना है। मजबूरन खोए हुए के तार जुड़े होते हैं। वो अपने तार जोड़ने के लिए बेचैन और परेशान हो रहा होता है।

Tuesday, April 23, 2019

अतीत में अटक जाना नहीं



कौशलेंद्र प्रपन्न
विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है ‘‘मैं उन सब से मिलने जाउंगा’’। इस कविता में क्या खूब अंदाज में विनोद जी लिखते हैं कि नदी मेरे घर नहीं आ सकती मैं उससे वहीं मिलने जाउंगा। जो लोग मेरे घर नहीं आते मैं उनके उन्हीं के घर मिलने जाउंगा। जो जो नहीं मिल पाते उनसे मिलने जाउंगा। एक जरूरी काम की तरह मिलूंगा। आदि आदि। एक हम हैं जो साथ है, जिसके साथ रहते हैंं उन्हीं से नहीं मिल पाते। उन्हीं से नज़रे चुराते हैं। उन्हीं से रास्ते मिल जाने पर बचकर निकलने की कोशिश करते हैं। रिश्ते को किस मोड़ पर हम छोड़ देते हैं जहां से शायद हम लौटना ही नहीं चाहते। कहां तो कवि, शायर, लेखक आदि तमाम कोशिश करते पाए जाते हैं कि रिश्ते को कैसे बचाया जाए। कैसे बीच के फासले को कम करने की कोशिश की जाए ताकि रिश्ते के बीच की गरमाहट बची रहे।
आज की तल्ख़ हक़ीकत यही है कि नए नए ऑन लाइन और सोशल प्लेटफॉम पर दोस्त और फॉलोवर की संख्या तो बढ़ाते हैं। लेकिन जो पास है। जिससे हम कभी भी कहीं भी लड़ सकते हैं। अपनी रंजीशें साझा कर सकते हैं। अपने दुख और सुख का साथी बना सकते हैं। इन्हें नजरअंदाज कर देते हैं। पास बैठे हुए को पुचकारने की बजाए अन्यान्य मंचों पर आकाशीय दोस्तों पर समय लगाया करते हैं। हालांकि वह भी गलत और नाजायज नहीं है। दोस्ती तो दोस्ती होती है। हां जरूरी यह है कि क्या हम इन रिश्तों को निभाने संजीदा हैं। हमारे आस-पास इतने लोग हैं जिनमें कुछ को दोस्त मान और स्वीकार सकते हैं उन्हें भी हम कई बार बेहतर तरीके से पेश नहीं आते। वजह यही है कि पास होते हुए भी हमारी पहुंच और एरिया ऑफ कंसर्न से बाहर होते हैं। हम एक ऐसे भीड़ में तब्दील हो चुके हैं जहां कंधे से कंधा टकराते तो हैं लेकिन उनसे बात करने, मिलने जुलने का वक़्त हमारे पास नहीं है। हम नजरें चुरा कर आगे बढ़ जाते हैं या फिर उन्हें नोटिस भी नहीं करते।
दूसरे शब्दों में कहें तो हम उन्हीं से वास्ता रखना अपनी प्राथमिकता रखते हैं जिनसे कहीं न कहीं, कभी न कभी कोई ज़रूरत पड़ सकती है। इस अनुमान और येजना निर्माण में यह बात स्पष्ट होती है कि उन्हीं से रिश्ता रखना है या रखना चाहिए जिनसे भविष्य में कोई काम बनता हो आदि आदि। यही वो प्रस्थान बिंदु है जहां से रिश्तों के समीकरण तय होते हैं। किनसे किस स्तर का वास्ता रखना है या रखना भी है या नहीं। सिर्फ दोस्ती शायद आज की तारीख़ में न के बराबर सी रह गई है।
रिश्तों में गरमाहट व ऊष्मा तभी तक बची रहती है जब तक कोई हमारी आम जिंदगी में शामिल हो। व कह लें जिन्हें रोज दिन अपनी बातें साझा किया करते हैं। वो लोग कभी भूलाए नहीं भूलते जिनसे हमारा साबका रोज का होता है। व्यक्ति कटता भी तभी चला जाता है जब वह हमारी रोजमर्रे की जिंदगी से अलग हो जाता है। वैसे भी व्यक्ति कब तक पुरानी यादों और स्मृतियों के साथ जिंदा रह सकता है। बच्चन साहब ने क्या खूब लिखा है, ‘‘ जो बीत गई सो बात गई माना वह बेहद प्यार था...’’ हमारे बीच से कई सारे लोग हैं जो बहुत प्यारे थे जब थे। अब वो नहीं है। कई बार भौतिक तौर पर तो कई बार संवेदना के स्तर पर दूर जा चुके हैं। लेकिन भूपेंद्र सिंह का गया एक गाना भी याद कर सकते हैं ‘‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी, गुजरते वक़्त की हर बात याद आएगी’’। जो वर्तमान को जीने वाले होते हैं वो अतीतजीवी को पिछड़ा और अतीत में रहने वाले मान बैठते हैं। कहते हैं जो बीत गई उसपर रोना क्यों? जो पास नहीं उसके लिए पछाड़ें मार कर जीना क्यों? आगे की राह आसान हो और पुराने यादें परेशान न करें इसके लिए जरूरी है कि अतीत की स्मृतियों की पोटली बांध कर दूर किसी संदूक में बंद कर दिया जाए।
हमारा पूरा का पूरा इतिहास, साहित्य, दर्शन आदि अतीत की स्मृतियों पर ही आधारित हैं। यदि अतीत को निकाल दें तो इतिहास पूरा खाली हो जाएगा। इतिहास अधूरा होगा तो हमारी संस्कृति, सभ्यता की काफी सारी थाती हमसे दूर चली जाएगी। हम किसी भी सूरत में सिर्फ और सिर्फ वर्तमान में जिंदा नहीं रह सकते। हमें कई बार अतीत का सहारा और संबल लेना ही पड़ता है। यह भी दीगर बात है कि हम अतीत की यात्रा क्यों करते हैं? क्यों हमें अतीत की कहानियों, बातों, यादों और घटनाओं में आनंद आया करता है? शायद इसलिए कि हमें अपने अतीत और स्मृतियों से एक ताकत और रोशनी भी मिलती है। हम पुरानी घटनाओं और इतिहास से एक सीख लेते हैं कि जब वह पूरी घटना गुजर गई तो यह तो बहुत छोटी है। इससे भी निपटा जा सकता है। मैंनेजमेंट के छात्रों को केस स्टडी के द्वारा किसी कंपनी के उतार-चढ़ाव के बारे में पढ़ाया जाता है कि फलां कंपनी कभी अपने प्रोडक्शन और सफलता की ऊंचाई पर क्यों था और क्यों उस कंपनी में डाउन फॉल आने शुरू हुए। इसकी समझ केस स्टडी के द्वारा समझाया जाता है। ठीक उसी प्रकार इतिहास में या फिर राजनीति में भी इसका अध्ययन किया जाता है कि फलां साल या चुनाव में क्यों फलां पार्टी की जीत हुई और क्यों दूसरी पार्टी पिछड़ गई थी इसके कार्य कारण संबंधों के विश्लेषण के लिए अतीत का मंथन और विमर्श जरूरी होता है। ऐसे में अतीत की यात्रा हमारे लिए नई दृष्टि भी प्रदान करती है। वहीं अतीत की यात्रा में एक कठिनाई यह भी महसूस की जाती है कि हम अतीत में प्रवेश तो कर जाते हैं किन्तु वहां से सकुशल और कुछ ग्रहण कर कैसे वापस आना है इसकी कला हमारी पास नहीं होती। हम अतीत में अटक जाते हैं। जबकि अतीत में अटकना ख़तरनाक माना जाता है। हमें उस अतीत और स्मृतियों से, अपने पुराने रिश्तों से वो ऊष्मा लानी होती है जिससे हम वर्तमान को बेहतर बना सकें।

Friday, April 19, 2019

यादें कैसी कैसी ऐसी वैसी...



कौशलेंद्र प्रपन्न
यादों का क्या है। कोई भी घटना, कोई भी बात, कोई भी स्थान जिससे हमारी यादें जुड़ी हैं वो भूले नहीं भूल पातीं। वह चाहे अच्छी यादें हों या फिर खराब। यादें तो यादें हुआ करती हैं। हम सबके पास न जाने कैसी कैसी यादें हैं। हम शायद पूरी जिंदगी यादों को स्मृतियों में संजोया करते हैं। कई बार यादों की भी छंटनी करते हैं। जो अच्छी होती हैं उसे औरों से भी साझा किया करते हैं। साझा के दौरान कई बार चूक भी हो जाती है हम सही पहचान नहीं कर पाते कि जिसके साथ साझा कर रहे हैं कहीं वह आगे चलकर मजाक तो नहीं बनाएगा आदि। लेकिन इस सब से बेख़बर हम बस एक रवानगी में अपनी पुरानी यादें साझा किया करते हैं।
यादें तो जलियावालाबाब का भी है जिसके सौ साल पूरे हुए। यादें तो 1947 की भी है जब न केवल भौगोलिक तक़्सीम हुई थी बल्कि आंसुओं को भी हमने दो फांक किया था। उस विभाजन की याद आज भी तब की कहानियों, उपन्यासों, नाटकों में गूंजती हैं। उन्हें याद कर मन गहरे अवसाद में डूबने लगता है। वहीं यादें तो तक्षशीला, नालंद विश्वविद्यालय की भी है जिन्हें सोच सोच कर माथा दमके लगता है।
यादों का हम करते क्या हैं? कभी सोचा न होगा। बस यूं ही यादों की पोटली खोलना और उनमें से कुछ यादों को झाड़ पोछ कर देखना सुनना, सुनाना बेहद लुभाती हैं। कुछ देर उन यादों में तैरने के बाद वापस किनारे आ जाते हैं। इस किनारे पर कई बार दुखद यादें इतनी गहन हो जाती हैं कि नींद उड़ जाती है। निराशा और आत्म ग्लानि से भर उठते हैं।
उसका अचानक से चले जाना भी तो यादें ही हैं। उसके साथ बीताई बातें, मुलाकातें याद आती हैं। वह ऐसे हंसता था। वह वैसे पुकारा करता था। गले लगता तो पूरर शिद्दत से मिलता था। शहर का नहीं था। जहां से आता था वहां दिखावा न के बराबर था। वहां कुछ यदि था तो अपनापा।
हर मुलाकातें, हर किसी के साथ बातें करना हर बार सुखद नहीं होता। आप तो खुलेमन से किसी से बातें कर रहे हैं। लेकिन आपको मालूम ही नहीं होता कि आपकी कौन सी बात कौन सी गतिविधि कौन कैसे रिकॉर्ड कर रहा है। मौका आते ही वह बमन करने देगा। आपका अनुमान भी नहीं होगा कि जिस बात को आपने बेहद सहज और सरल मन से कहा था उसे किसी ने किस गहरे और ग्रंथी के साथ ग्रहण किया। आपकी बातें अभी तलक खदबदा रही थीं।
कहते हैं कि समय और परिवेश बदलते ही रिश्तों के मायने बदल जाते हैं। जो कभी इतने गहरे दोस्त हुआ करते थे वही एक दिन, एक रात या फिर अचानक बदल जाते हैं। महसूस ही नहीं होता कि कभी दोनों इतने गहरे दोस्त रहे होंगे। लेकिन मूर्ख वह व्यक्ति बनता जाता है कि जो आज की तारीख़ में भी रिश्ते को उन बीते पलों में ही देखता और स्वीकारता है। जबकि परिस्थितियां बदल चुकी हैं इसका इल्म उसे होना चाहिए। हर शब्द निकष पर कस कर बोलने की ज़रूरत होती है। वरना न जाने कौन सा शब्द आपके ख़िलाफ खड़ा हो जाए।

Wednesday, April 17, 2019

हमारी भाषा कैसी हो...नेताओं जैसी कभी न हो


कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबों में नहीं मिलेगी। किसी गं्रथ में भी नहीं मिलेगी। यदि कहीं मिलेगी तो वह है नेताओं की जुबान में। नेताओं की भाषा की छटाएं हमें चुनावी रैलियों, घोषणाओं, मंचों पर मिला करती हैं। ख़ासकर नेताओं की भाषाओं की विविध छटाएं कई बार अंदर तक खखोरती हैं। चुभन पैदा करती हैं। कई बार अफ्सोस भी होता है कि हमारे चुने हुए नेता किस प्रकार की भाषा का प्रयोग आम चुनावी रैलियों में किया करते हैं। इन भाषाओं को सुनकर मालूम नहीं उनके बच्चे, पत्नी, बहु, परपोती आदि क्या कहती होंगी? क्या और कैसा महसूस करती होंगी? यह तो पता नहीं लेकिन उनकी बच्चियां या फिर नाती पोती कभी पूछते भी हैं या नहीं कि दादा जी आपने ऐसी भाषा कहां से सीखी? किस स्कूल में या किस मास्टर जी ने ऐसी भाषा बोलना सीखाया? यदि ऐसे सवाल हमारे नेताओं से बच्चे पूछें तो शायद उन्हें कुछ शर्मिंदगी महसूस हो। शायद तब किसी भी दूसरी संस्था निर्वाचन आयोग को उनके बोलने पर पाबंदी लगाने की ज़रूरत ही न पड़े। लेकिन आत्म विश्लेषण और आत्म भाषायी बोध हमारे नेताओं की जिंदगी से दूर होती जा रही हैं।
जब कभी भी नेताओं की भाषाओं का समाज शास्त्रीय विश्लेषण व अध्ययन किया जाएगा तो लगता है बड़बोली किस्म के नेताओं को अपने ही इतिहास से मुंह छुपाने की बारी आए। लेकिन चुनाव खत्म। उधर तमाम भाषायी आरोप प्रत्यारोप पर पानी और मिट्टी डाल दी जाएगी। किसी को भी याद नहीं रहेगा कि किस नेता ने किसे क्या क्या कहा। कहां क्या बोला। किसी ने किसी की चड्डी के रंग बताए तो किसी ने किसी को चोर बताया। नचनिया बोला। बोला तो बोला मंच पर बेशर्म की तरह ख्ुद भी हंसे और जनता का भी मनोरंजन किया।
हम कैसी भाषायी माहौल में जी रहे हैं। कई बार सोच कर लगता है कि सबसे पहले हम आक्रोश में अपनी भाषायी नियंत्रण खो देते हैं। जब कभी हम क्रोध में, ईर्ष्या या फिर घृणा भाव में डूबे होते हैं तब हमारी भाषायी नियंत्रण बेहद कमजोर हो जाती हैं। गुस्से में हमें मालूम नहीं पड़ता कि हम किसे क्या बोल रहे हैं। किसपर हमारी भाषा का क्या और कितना असर पड़ सकता है इसका अनुमान तक हम नहीं लगा पाते। बस एक प्रवाह में गुस्से में बोलते चले जाते हैं। जब गुस्से का भाव शांत होता है और अपनी भाषा पर चिंतन करते हैं तब महसूस होता है हमने क्या बोल दिया। क्या इस शब्द की आवश्यकता थी? क्या इस बात को और दूसरे तरीके से भी बोली जा सकती थी? आदि आदि।
हाल ही में मैट्रो में यात्रा के दौरान ऐसी ही भाषा बोलचाल में कानों में लगातार पड़ रहे थे। सोच रहा था कैसी भाषा का प्रयोग कॉलेज जाने वाली लड़कियां कर रही हैं? जो वो बोल रही हैं उसका गहरा क्या अर्थ है इससे बेख़बर को कई बार उस शब्द का इस्तमाल कर रही थीं। शब्द था ‘‘फट गई’’
दो लड़कियों ने एक केवल एक बार बल्कि तकरीबन दस से ज्यादा बार प्रयोग कीं कि मेरी तो फट गई। क्लास में गई और देखा मैडम आ चुकी हैं देखते ही मेरी तो फट गई। पहली नजर में इस शब्द में कोई खामी नजर नहीं आएगी। लेकिन ठहर कर सोचें तो फटना यहां ख़ास अर्थ में महदूद नजर आता है। आंखें फटना कहना उनका आशय नहीं था। यह तो तय है। क्या फट गई इसका ख्ुलाया करना मेरा प्रयास नहीं है, बल्कि कॉलेज में पढ़ने वाली बच्चियों को इसके बहुअर्थी मायने से परिचय न होना होगा ऐसा नहीं है। वे बख्ूबी जानती हैं। लेकिन गैर इरादतन और लापरवाही में बोल रही थीं। इसी तरह की भाषा का प्रयोग हम न जानें कब और किसके सामने बिना विचार किए करते हैं।
हमें अपनी भाषा और भाषायी मर्यादा का ख़्याल तो रखना ही चाहिए। जब हम किसी से ख़ासकर श्क्षित व अशिक्षित भी समाज में नागर व ग्रामीण समाज के साथ बोल रहे हैं तो अपनी भाषायी तमीज़ का परिचय देना कहीं न कहीं अपनी पीढ़ी को भाषा के प्रति सजग करना भी है।

Thursday, April 11, 2019

सात पूंछ का मैं





कौशलेंद्र प्रपन्न 
एक कहानी है सात पूंछों का वाला चूहा। इस चूहे को मां बहुत प्यार करती है। वैसे हर मां को अपना बच्चा बहुत प्यारा होता है। वह चाहे जानवर हो या मनुष्य। बच्चा चाहे दिव्यांग हो या साधारण। विशेष हो या फिर सामान्य। बच्चा बच्चा होता है। उस कहानी में चूहे को समाज यानी उसके दोस्त। खेल खेल में काफी परेशान करते हैं। सात पूंछ का चूहा सात पूंछ का चूहा आदि आदि। चूहा इन कमेंट्स से बहुत परेशान होता है। मां से बिना साझा किए पास के नाई के पास जाता है और कहता नाई नाई मेरी एक पूंछ काट दो। श्नै श्नै एक एक कर सारी पूंछें कट जाती हैं। फिर भी कहने वाले नहीं रूकते। कहने वाले फिर चिढ़ाते हैं कि बिना पूंछ का चूहा बिना पूंछ का चूहा आदि आदि। बिना पूंछ का चूहा फिर भी परेशान है। 
यह कहानी हमारी जिं़दगी के बेहद करीब बैठती नज़र आती है। हमारे भी आस-पास ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो हमें किसी भी सूरत में सुखी और स्वीकार नहीं कर पाते। वो अपने तई हमें बदलना चाहते हैं। उनके जैसे हों तो ठीक यदि नहीं तो उन्हें परेशानी होती है। वे चाहते हैं कि यह विशेष क्यों है? क्यों इसके सात पूंछ या आस-पास फलां की ज्यादा मांग है। सभी उसे ही पूछा करते हैं। यही चीज उन्हें पसंद नहीं आती। तभी तमाम तरह की नसीहतें देने लगते हैं। बिना मांगे राय देना और अपने आप को रायबहादुर साबित करने में ज़रा भी मौका नहीं चूकते। इधर हम हैं कि उनकी बातें और आ जाते हैं। उन्हीं के जैसे बनने में अपनी स्वभावित प्रकृति भूल जाते हैं। हम अपनी पहचान और प्रकृति को ताख़ पर रखकर औरों के जैसे बनने में जुट जाते हैं। होता यह है कि जो हम थे वह तो रह नहीं पाते और जो होने के लिए अपनी पूंछ कटा बैठे उन जैसे भी न हो सके। ऐसी स्थिति में हमारी गति सांप छुछुदर की हो जाती है। 
हमारा परिवेश कुछ कुछ ऐसी भी भूमिका निभाया करता है। कई बार हम परिवेश के अनुसार ढल जाते हैं तो कई बार परिवेश को अपने अनुरूप ढालने में सफल हो जाते हैं। इस संघर्ष में काफी संभावना इस बात की भी होती है कि हम अपने अस्तित्व को परिवेश के अनुसार ओढ़ लें। बहुत कम लोग होते हैं जो परिवेश को अपने अनुसार ढाल पाएं। शायद इस किस्म के लोगों को लीडर या मैंनेजर के नाम से जानते हैं। जो अपना परिवेश स्वयं गढ़ा करता है। इस प्रकार के लोगों की संख्या दिन प्रति दिन कम होती जा रही है। 
प्रेमचंद ने किसी कहानी में लिखा है कि यदि गर्दन किसी के पांव के नीचे हो तो उस पांव को सहलाने में ही गनीमत है। वरना...। और हम एक ऐसे डर और निराशा में जीने लगते हैं जिसको पार कर पाने की क्षमता पर ही विश्वास खोने लगते हैं। ठीक उसी तरह हमारी पूंछ यदि किसी के पांव के नीचे दबी हो तो बेहतर पर धीरे से अपनी पूंछ खींच लें। वरना हमारी पूंछ कट जाएगी या टूट जाएगी। 
हमारे आस-पास ऐसी कहानियां खूब हैं जो हमें जीने के लिए रोशनी देती हैं। यदि हम जग गए तो अपनी पूंछ भी बचा पाएंगे और अपने परिवेश को भी सुरक्षित कर पाएंगे। हमारे अपने बच्चे किन हालात से गुजरते होंगे ख़ासकर यदि वे विशेष हैं तो। हम बहुत कम ही ऐसे बच्चों के बारे में सोच पाते हैं कि फलां बच्चे के साथ परिवेश कैसे पेश आता है।  

Wednesday, April 10, 2019

टाइटेनिक के डूबने का मायने



कौशलेंद्र प्रपन्न
टाइटेनिक के डूबने का गहरा अर्थ है। डूबने के बाद कई तरह के विमर्श हुए। उस जहाज के डूबने के पीछे क्या वजहें थीं इसके पीछे भी ख़ास मंथन हो चुका है। जो सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है वह यही है कि कैप्टन का अति आत्मविश्वास और दूरद्रष्टा की कमी। यदि फिल्म का वह दृश्य याद करें तो उसमें साफतौर पर अतिआत्मविश्वास की ठसक सुनाई देती है। सभी का यही मानना था कि यह जहाज पूरी तरह से आधुनिक संसाधनों और औजारों, तकनीक से लैस है। यह कभी डूब नहीं सकती। आदि आदि। हुआ क्या? टाइटेनिक डूबी। डूबी क्यों? कैप्टन अपने आत्मविश्वास में दूरदृश्यता का परिचय नहीं दे पाया। वह यह भी अनुमान नहीं लगा सका कि सामने जो आईस बर्ग दिखाई दे रही है उसका वास्तविक आकार और दूरी कितनी है आदि।
मैंनेजमेंट में भी इसे गहराई से समझने और अध्ययन करने की आवश्यकता है। यदि किसी प्रोजेंक्ट का लीडर नियंता दूरदर्शी नहीं है तो संभव है ऐसे प्रोजेक्ट या संस्थान को डूबो सकता है जिसके बारे में माना जा सकता है कि यह कंपनी बलंद है और बंद नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए विश्व में बड़ी बड़ी कंपनियों की मिर्जिंग व विलयन की घटनाओं को सामने रख कर समझने की कोशिश करें तो यह बात और स्पष्ट हो सकती है। रैनबैक्शी का दाइची में विलय होना और फिर दाइची से सन फार्मा में विलयन को साधारण घटना नहीं मानी जा सकती। इसके पीछे लीडर की अदूरदर्शिता और लापरवाही साफ दिखाई देती है। सिर्फ एक कंपनी का मसला भर नहीं है बल्कि रिलायंस ने कई मीडिया घरानों को अपने में विलय कर लिया। वहीं सत्यम को टेक महिन्द्रा लिमिटेड में विलय होना भी अपने आप में आंखें खोलने के लिए काफी हैं। उक्त जितनी भी विलय की बात की गई हैं सब के सब अपने समय की स्थापित और बड़ी कंपनियों में कहीं न कहीं लीडर की निर्णयात्मक क्षमता और अतिआत्मविश्वास के साथ ही निर्णय कमी साफतौर पर समझी जा सकती है।
कोई भी कंपनी या प्रोजेक्ट का सफल बनाने और उसे सही राह पर चलाने में केवल और केवल बजट ही अहम नहीं होते बल्कि उस बजट का सदुपयोग और सही वजह के लिए खर्च करने और कटौती करने जैसे निर्णय लेने पड़ते हैं। लेकिन यदि इस बिंदु पर लीडर गलत निर्णय ले ले तो उसका असर प्रोजेक्ट पर प्रकारांतर पर निश्चित ही पड़ता है। डूबते हुए प्रोजेक्ट को बचाना भी एक जोखिमभरा काम होता है। यदि किसी कंपनी से कर्मचारी छोड़कर लगातार जाने लगें तो यह एलॉर्मिंग स्थिति होती है। लीडर को इसका विश्लेषण करना चाहिए कि क्यों किसी भी कंपनी या प्रोजेक्ट से क्षमतावान कर्मी छोड़कर जा रहे हैं। कहीं निराशा और भविष्य की प्रोन्नति न दिखाई देने की स्थिति में कर्मी जा रहे हैं तो इसके लिए आत्मबल और आत्मविश्वास बढ़ाने और येजनाबद्ध तरीके से स्थिति को संभालने की आवश्यकता पड़ती है।
मैंनेजमेंट के जानकर मानते हैं कि काफी हद तक कर्मी के कंपनी छोड़जाने के पीछे कई बार मैंनेजर के व्यवहार और मैंनेजर बड़ा कारण होता है। दूसरे शब्दों में मैंनेजर व बॉस की वजह से सक्षम और दक्ष कर्मी कंपनी या प्रोजेक्ट छोड़ने पर मजबूर होते हैं। इससे हानि बॉस या मैंनेजर ये ज्यादा उस कंपनी या प्रोजक्ट को उठानी पड़ती है। तथ्य तो यह भी है कि किसी भी कर्मी के जाने व आने कंपनी या प्रोजेक्ट न तो बंद होते हैं और न कोई काम रूकता है। लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि एक सक्षम और दक्ष कर्मी की तलाश में समय लग जाता है।

Tuesday, April 9, 2019

ऐतिहासिक बोध को हटाकर कम किया गया किताबों का बोझ


कौशलेंद्र प्रपन्न
इतिहास की किताब का बोझ कम करने की दिशा में एनसीईआरटी ने दसवीं की कक्षा के इतिहास की किताब से तीन पाठ हटा दिए हैं। पहले यह पुस्तक 200 पेज की थी। अब 72 पेज हटा दिए गए हैं। पाठ्यपुस्तकों का बोझ कुछ तो कम हुआ ही होगा। गौरतलब हो कि 2017 में भी एनसीईआरटी ने तकरीबन 1,334 बदलाव किए थे। इसमें से 182 पाठ्यपुस्तकों में सुधार, डेटा अपडेट करना एवं नए तथ्य जोड़ने आदि शामिल है। यह तो अच्छी पहल है कि समय समय पर पाठ्यपुस्तकों को अधुनातन करने के लिए आंकड़ों, तथ्यों को सुधारा और अपडेट किया जा रहा है। दिलचस्प यह भी है कि वो कौन से डेटा थे या किस प्रकार के अपडेट को शामिल किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में किन विशेषज्ञों को शामिल किया गया। पाठ्यपुस्तकों से ख़ास पाठों को हटाए जाने के बाद एनसीईआरटी ने तर्क यह दिया कि पाठ्यक्रम को व्यावहारिक बनाने और पढ़ाई का बोझ कम करने के लिए मानव संसाधन एवं विकास मंत्री के सुझावों के बाद लिया गया। पाठ्यपुस्तक एवं पाठ्यचर्या निर्माण समिति का गठन ख़्यात संस्था एनसीईआरटी किया करती है। इन समितियों में विभिन्न शिक्षा संस्थानों, विश्वविद्यालयों, विद्यालयों, स्वयं सेवी संस्थाओं, शिक्षाविद्ों आदि को शामिल किया जाता है। समिति के मेंबरान शामिल की जाने वाली सामग्री, प्रस्तुति, कथ्य की तथ्यता आदि की जांच करने के बाद लेखन प्रक्रिया में शामिल हेती है। लिखी हुई सामग्री का पुनर्पाठ एवं समीक्षा विद्वत् समिति के सदस्यों से कराई जाती है। जब इन तमाम समितियों से कथ्य और कथानक की प्रस्तुति, तथ्य आदि की जांच के उपरांत अनुमति मिल जाती है तब यह पाठ्यपुस्तक के तौर पर छापने का अधिकार एनसीईआरटी प्रयोग कर पुस्तकें छापती हैं। संभव है उक्त प्रक्रिया में फिर भी कोई चूक रह जाए जिस ओर यदि ध्यान दिलाया जाए तो उसे सुधारा जा सकता है। उक्त संदर्भ में इसे इसी रूप लिया जा सकता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि 2005 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के आधार पर तैयार पाठ्यपुस्तकों में अब गलती दिखाई दी? क्या अब तक किसी की नज़र इस ओर नहीं गई? हालांकि जब भी गलती दिखाई दी तभी सुधार लेना इसमें कोई गलत भी नहीं है। लेकिन क्या यह उस विद्वत् समिति की कार्य दक्षता और विवेक पर शक करना नहीं है? क्या समिति के विशेषज्ञों की विषयी ज्ञान और शिक्षण शास्त्र की समझ पर प्रश्न खड़ा नहीं है? आदि आदि।
गौरतलब है कि 2002 में भी पाठ्यपुस्तकों के साथ इस प्रकार की कवायद की जा चुकी है। तब सर्वोच्च न्यायालय को इस पूरे विवाद पर हस्तक्षेप करना पड़ा था। तब भी इतिहास की किताबें ही सुधार और पाठ हटाए जाने की परिधि में आई थी। इसके साथ ही यह भी बताया गया था कि फलां फलां पेज क कथ्य को शिक्षक कक्षा में चर्चा करने से बचें। उसी दौरान साहित्य को भी नहीं छोड़ा गया था और हिन्दी की किताब से प्रेमचंद की कहानी को हटा कर मृदुला सिन्हा की रचना ज्यों मेहंदी के रंग को जोड़ा गया था। तब भी इस रद्दोबदल पर अकादमिक क्षेत्र में काफी विवाद और संवाद हुए थे। किन्तु जब तक तब की सरकार रही तब तक ज्यों की त्यों परिवर्तन जारी रहे। पाठ्यपुस्तकों से ख़ास पाठ, पृष्ठ आदि को हटाने का इतिहास कोई नया नहीं है। हां चौकाने वाली बात सिर्फ इतनी सी है कि यह बस्ते का बोझ कम करने की चिंता किस समय में सता रही है। पाचं वर्ष में नींद नहीं ख्ुली। न ही पाठ्यपुस्तकों की चिंता सताई किन्तु जब चुनाव होने हैं तब किताबों के तथ्यों को सुधारे के फरमान जारी किए गए। हालांकि एनसीईआरटी सरकार की सलाहकार के तौर पर काम करती है। लेकिन सीधे सीधे मानव संसाधन मंत्रालय इस संस्था पर अपना वर्चस्व बनाए हुए है। अंतर सिर्फ यही होता है कि इस मंत्रालय के मंत्री बदल जाते हैं। जो अपनी अपनी विचार धारा के आधार पर एनसीईआरटी के मार्फत पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यचर्याओं में तब्दीलियां कराया करते हैं।
बस्ते का बोझ कम करने के लिए प्रो. यशपाल ने सिफारिश की थी। उनकी सिफारिश को सरकारें  कितनी तवज्जो दी यह किसी से भी छुपी नहीं है। उन्होंने तो जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने की सिफारिश भी की थी लेकिन इसपर आज तक सरकार गंभीरता नहीं दिखा पाई। लेकिन स्व और पार्टी हित को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों ने पाठ्यपुस्तकों को एक सशक्त हथियार के तौर पर इस्तमाल किया है। यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि पाठ्यपुस्तकों में किन पाठों को शामिल की जाए और किन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए इसके पीछे गहन शिक्षा-शिक्षण शास्त्र के तमाम विमर्शों को ताख पर रख दिया जाता है। कक्षा में दसवीं की जिस इतिहास की किताब से तीन पाठों को हटा कर बोझ कम करने की दुहाई दी जा रही है उस पर नज़र डालना गलत नहीं होगा। ‘‘ भारत-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन’’ नाम से पहला अध्याय भारत-चीन (विशेष रूप से वियतनाम) में राष्ट्रवाद के उदय पर है कि किस तरह उपनिवेशवाद और वियतनाम में साम्राज्यवादी विरोधी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को आकार दिया गया था। दिलचस्प है कि किसी भी देश के संघर्ष आंदोलन व स्वतंत्रता की लड़ाई में स्त्री पुरूष दोनों की ही भूमिका अहम रही हैं। इन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि किसी भी देश के आंदोलन में महिला की भूमिका रही तो उसे हटाकर हम किस प्रकार की ऐतिहासिक समझ विकसित कर रहे हैं। क्या हम बच्चों को वैश्विक स्तर पर राजनीति, भौगालिक, सांस्कृतिक बदलावों, संघर्षां आदि से महरूम रखना चाहते हैं। या उन्हें यथार्थ की जमीन से भी परिचित कराना हमारा मकसद है। उद्देश्य स्पष्ट रखना होगा कि हम इतिहास के जि़रए किस प्रकार की समाजो-सांस्कृतिक समझ बच्चों में विकसित करना चाह रहे हैं।
दसवीं के पुस्तक से हटाए गए पाठ में दूसरा अध्याय है ‘वर्क लाइफ एंड लेजर ’ लंदन और बॉम्बे। गौरतलब है कि जैसे जैसे वैश्विक स्तर पर महानगरों का विकास और आधुनिकीकरण हुआ वैस वैसे कई बुनियादी परिवर्तन भी दर्ज होते गए। यह पाठ ख़ासकर शहरों के विकास के इतिहास को प्रस्तुत करता हे। इसके साथ ही बेराजगार और गलियों में सामान बेचने वाले फेरीवाले की जिंदगी और उनकी जीवन की तल्ख़ हक़ीकतों को प्रस्तुत किया गया। दीगर बात है कि इसमें शहरों के तेजी से विकास से जुड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों से संबंधित जानकारी दी गई है। यह समझना ज़रा मुश्किल है कि इस पाठ को हटाने से कौन का बोझ कम हुआ? क्या हम बच्चों को अपने परिवेशीए समझ से काट कर रखना चाहते हैं। या फिर तथाकथित निम्न तबके के कामों के जुड़े कर्मियों से हम बच्चों को परिचय नहीं कराना चाह रहे हैं। ध्यान रहे कि बंगाल की वर्तमान सरकार ने शंगूर आंदोलन को बतौर वहां की पाठ्यपुस्तक में शामिल कराया था। समाज में होने वाले प्रमुख आंदोलनों की पृष्ठभूमि, उसके समाजो राजनीतिक बुनावटों को समझने के लिए यदि किताबों को शामिल की गईं तो उसके पीछे के शैक्षणिक दर्शन को भी हमें समझने की आवश्यकता है न कि पाठ्यपुस्तकों के बोझ कम करने के नाम पर गैर जिम्मेदाराना तौर पर हटा दिया जाए।
तीसरा अध्याय जिसे किताब से बेदख़ल किया गया यह भी मानिख़ेज़ है। ‘नोवल्सख् सोसाइटी एंड हिस्ट्र’ यह पाठ ख़ासकर उपन्यासों की लोकप्रियता के इतिहास के बारे में है। किस तरह से इसने पश्चिम और भारम में सोचने के आधुनिक तरीकों को प्रभावित किया। यदि हम टेल आफ टू सिट्जि पढ़ते हैं तब हमें तत्कालीन समाज की स्थिति के बारे में कहानी के मार्फत जानकारी मिलती है। वहीं मीड नाइट चिल्ड्रेन पढ़ते हैं तब हमें भारत के विभाजन और विभाजन पूर्व के इतिहास की जानकारी मिलती है। उसी तर्ज पर हम कृष्णा सोबती की कहानी ‘‘सिक्का बदल गया’’, ‘मलबे का मालिक’, ट्रेन टू पाकिस्तान आदि उपन्यास, कहानियां एक ख़ास कालखंड़ की न केवल कहानी कहती है बल्कि इन कहानियों के जि़रए बच्चों में इतिहास बोध पैदा करती है। क्या हमें इस प्रकार कह कहानियों, उपन्यासों आदि को पाठ्यपुस्तकों से बाहर कर दिया जाना चाहिए। फिर तो हमें गोदान, कर्मभूमि, नमक का दारोगा आदि को भी बाहर का रास्ता दिखाना होगा। जहां तक दलित विमर्श के नाम पर एक पाठ को हटाया गया तो क्या हमें जूठन, मणिकर्णिका आदि उपन्यासों को भी अपठनीय कृतियों की सूची में डाल कर कह देना चाहिए कि इसे हटाने से बच्चों पर किताबी बोझ कम होगा यह तर्क कितना वाजिब और शैक्षणिक दर्शन और शिक्षा शास्त्र के अनुकूल है इसपर मंथन करने की आवश्यकता पड़ेगी।
पाठों को हटाने, जोड़ने का सिलसिला न रूका और न रूकेगा। याद हो कि इससे पूर्व एनसीईआरटी ने नौवीं कक्षा की इतिहास की पाठ्पुस्तक से भी तीन पाठ हटा चुकी है। इसमें एक अध्याय जातीय संघर्ष को विमर्श के केंद्र में रखता था। इस पूरी तब्दीली में मानव संसाधन मंत्री ने यह सुझाव दिया था कि सभी विषयों का पाठ्यक्रम कम किया जाए, लेकिन एनसीईआरटी ने सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों के कंटेंट को लगभग 20 फीसदी कम कर दिया। वहीं गणित और विज्ञान के पाठ्यक्रम में सबसे कम कैंची चलाई है। 

Monday, April 8, 2019

तनावों से लड़ने की सीख देती शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा न केवल हमारी जिं़दगी को आकार देने, मायने प्रदान करने और जीवन के मकसद निर्धारित करने में मदद करती है बल्कि जीवन मूल्यों, जीवन कौशलों को सीखने की तमीज़ भी पैदा करती है। संभव है उक्त अपेक्षाएं कोरी मूल्यपरक लगें किन्तु तमाम शिक्षाविद्, शैक्षणिक दस्तावेज़, शिक्षा दार्शनिकों की मानें तो उनपर सबकी एक ही राय शिक्षा के प्रति बनती है कि शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य बनने में मदद करती है। बेहतर मनुष्य से सीधा तात्पर्य यही है कि हमारे अंदर अच्छे -बुरे, करणीय अकरणीय, शिष्ट और अशिष्ट के बीच अंतर करने की बौद्धिक समझ हो। क्या स्वयं के लिए और क्या समाज के लिए बेहतर है आदि की समझ शिक्षा अपनी यात्रा में विद्यार्थियों को तालीम दिया करती है। दीगर बात है कि शिक्षा के इस प्रयास में कई अवांतर हस्तक्षेप की वजह से शिक्षा कई बार अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाती। इसमें हम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक हस्तक्षेप को रेखांकित कर सकते हैं। इतिहास बताता है कि राजनीति ने समय समय पर शिक्षा के इस प्रयास को अपने तई बदलने और रास्ते मोड़ने से भरपूर प्रयास किए हैं। काफी हद तक इस राजनीतिक हस्तक्षेप में विभिन्न दलों को सफलता भी हासिल हुई है। यही वजह है कि शिक्षा समय समय पर अपने मूल राह से भटकी हुई भी नज़र आती है। जबकि यह भटकाव शिक्षा की मूल प्रकृति नहीं है, बल्कि इसे प्रभावित करने में कई बाह्य कारक प्रभावी होते हैं।
हमारी शिक्षा एक ओर पाठ्यपुस्तकीय समझ और कौशल प्रदान करती जिसके ज़रिए हम परीक्षा की नदी तो पार कर लेते हैं लेकिन जीवन कौशल और व्यावहारिक दक्षता हासिल करने से चूक जाते हैं। वहीं दूसरी ओर शिक्षा हमें जीवन और इससे जुड़ी बारीक समझ विकसित करने में पीछे रह जाती है। मसलन विपरीत परिस्थितियों में कैसे समायोजन स्थापित करें, यदि कार्य स्थल या निजी जीवन में संघर्षां, तनावों, दुश्चिंताएं हैं तो उन्हें कैसे प्रबंधित किया जाए इसकी समझ व्यापक न होने की स्थिति में बच्चे एवं व्यस्क जीवन से कूच कर जाते हैं। हाल ही में दसवीं की एक बच्ची ने परीक्षा परिणाम देखने के बाद आत्महत्या का राह चुना और शिक्षा-जीवन और समाज को छोड़ गई। परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद आत्महत्या का सिलसिला बतौर जारी है। हर साल परीक्षा परिणाम के बाद देशभर में जो बच्चे असफल होते हैं उनमें कई बच्चे/बच्चियां जीवन की विफलता मान बैठते हैं और वह वयैक्तिक हानि, असफलता मान जीवन जीने के लायक स्वयं को न मान आत्महत्या का रास्ता चुनते हैं। ऐसी घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए 2007 के आस-पास एनसीईआरटी, सीबीएससी आदि संस्थाएं मिलीं और शिक्षाविद्ों ने परीक्षा की प्रकृति पर मंथन किया। अंत में इस निर्णय पर आम सहमति बनी कि परीक्षा के प्रश्न पत्रों के स्वरूप में बदलाव किए जाएं। अंक के स्थान पर श्रेणी (ग्रेड) दी जाए। जब अराटीई अप्रैल 2010 में लागू हुई तो इसमें किसी भी बच्चे को फेल न करने के प्रावधान को तवज्जो दी गई। इससे उम्मीद थी कि बच्चों में परीक्षा संबंधी तनाव और भय को कम कर लिया जाएगा। अफ्सोसनाक हक़ीकत तो यथावत् रही। बच्चे आत्महत्याएं करते रहे। परीक्षा का भय बतौर ज़ारी रहा।
शुरू में बच्चों में शिक्षा को लेकर भय का माहौल बनता है। बच्चे स्कूल नहीं जाना चाहते। उन्हें स्कूल और घर के मध्य की दूरी को पाटने में हम विफल रहे। यही कारण है कि बच्चों को स्कूल परिसर लुभाने की बजाए डराते हैं। जबकि स्कूलों को बाल रूचि आधारित विकसित करने की कोशिश की जानी चाहिए थी। जो काफी हद तक इस योजना में स्कूलों को बाल सुरूचिपूर्ण रंगों, चित्रों, रेखा चित्रों का आदि का इस्तमाल भी किया गया। इससे बच्चों को स्कूल आना, पढ़ना रूचने लगा लेकिन अभी भी ऐसे बच्चों की संख्या लाखों में थी जिन्हें स्कूल का विकल्प नहीं मिल सका। वे बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से आज तक कटे हुए हैं। शिक्षा से यह कटाव और भी चौड़ा होता है जब हमारी राजनीतिक शक्तियां कम करने की बजाए उसे और गहरी करते हैं। मसलन शिक्षा हासिल करने से वंचित रह गए बच्चां को कैसे शिक्षा की परिधि में लाई जाए इसको लेकर राजनीति पहलकदमियां कम ही दिखाई देती हैं।
डॉक्टर का मानना है कि एक बच्चा जब गर्भ में होता है तब भी वह तनाव में हो सकता है। बच्चे को स्ट्रेस न हो इसके लिए डॉक्टर सलाह भी देते हैं। ख़ासकर जब प्रसव काल होता है तब तो विशेषरूप से डॉक्टर की सलाह होती है कि कोशिश कीजिए बच्चा स्ट्रेस में न हो। इन्हीं तनावों को दूर करने के लिए न केवल कोठारी आयोग बल्कि बाद के तमाम आयोगों ने अपनी संस्तुतियां दीं। वहीं राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 शांति के लिए शिक्षा पर जोर देते हुए शांति का पाठ को पाठ्यचर्या का मुख्य हिस्सा बनाया। दीगर बात है कि शांति के लिए शिक्षा पर अभी मजबूती से काम होना शेष है। वहीं हैप्पीनेस करिकूलम भी लांच किया गया। इसके मार्फत दावा तो यही किया गया कि बच्चों में शिक्षा और परीक्षा आदि को लेकर भय को दूर किया जा सकेगा। इस हैप्पीनेस करिकूलम का आधार यही शिक्षा की बुनियाद को बनाया गया कि बच्चा प्रसन्न और आनंदपूर्ण तरीके से सीखने-सिखाना की प्रक्रिया का हिस्सा बन सके। बच्चे स्कूल स्वेच्छा से आएं और आनंद आनंद में शिक्षा की बारीकियों से जुड़ सकें। हालांकि यह अभी एक ही राज्य में लागू है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस करिकूलम की सफलता की व कहें कितना कारगार है इसकी समीक्षा बाकी है। वहीं दूसरी ओर हाल ही में सोशल, इमोशनल और ईथिकल करिकूलम के नाम से दलाई लामा ने विश्व के तकरीबन तीस से भी ज्यादा शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध शिक्षाविद्यों द्वारा तैयार करिकूलम लॉच किया। इस करिकूलम के पीछे के विमर्श को समझने की कोशिश करें तो एक बात स्पष्ट होती है कि हमें विश्व में शांति  की स्थापना करनी है और युद्ध को रोकना है तो उक्त पाठ्यक्रमों से बच्चों को जोड़ना होगा। इस करिकूलम की मुख्य स्थापना यह भी है कि पूर्व के पाठ पढ़ाने यानी उपदेश के तर्ज रखने से परहेज किया गया है। इस करिकूलम के जरिए सामाजिक, संवेदनात्मक आदि मूल्यों की शिक्षा देने का प्रयास किया जाएगा।
गौरतलब हो कि सोशल, इमोशनल और ईथिकल करिकूलम (एसइइ) शायद पहली बार एनसीईआरटीएत्तर किसी और संस्था ने निर्माण किया है। इससे पूर्व 1975, 1985, 1988, 2000 और अंतिम 2005 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा का निर्माण हुआ। इन तमाम रा.पा.रू में परीक्षा और शिक्षा की प्रकृति को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश की गई थी। यदि 1975 की रा.पा.रू की बात करें तो इसमें जिक्र है ‘‘ जहां स्कूल में केवल शुष्क शैक्षिक अनुभव दिए जाते हैं या मूल्यांकन की विधि रटने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती है, वहां यह सब निरर्थक हो जाता है, जिस पर हमने अभी तक विचार-विमर्श किया।’’ पेज 47। यह दस्तावेज मानता है कि मूल्यांकन का तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपने ज्ञान के उपयोगपूर्वक नई स्थितियों से जूझने एवं समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने की ओर बढ़ सकें। वहीं 1988 की पाठ्यचर्या यह मानती है कि पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीके, पाठ्यचर्या इत्यादि में कई परिवर्तन किए गए, पर परीक्षा के क्षेत्र में कोई ख़ास प्रयास नहीं हुए। यही वजह है कि शिक्षा पर परीक्षा का वर्चस्व आज भी बना हुआ है। डॉ ऋतुबाला अपने शोध लेख में इस बाबत लिखती हैं कि पाठ्यचर्या 1988 न्यूनतम अधिगम स्तर की सिफारिश करती है, साथ ही साथ राष्ट्रीय टेस्टिंग सेवा की संस्तुति भी। ज्ञातव्य है कि ये दोनों ही विषय राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं उसकी कार्य योजना में देखने को मिलती है। पाठ्यचर्या का मानना है कि शारीरिक, संज्ञानात्मक एवं भाविक एवं साइको-मोटर स्किल को भी परीक्षा अपने दायरे में लाए। परिप्रेक्ष्य, पेज 20, वर्ष 24, अंक 3, दिसंबर 2017 दिलचस्प तो यह भी है कि पीछे तकरीबन हर पांच या दस साल में राष्ट्रीय पाठ्यचर्याएं बनाई गई हैं। अंतिम 2005 में बनी थी। इसे बने हुए भी दस साल से ज्यादा वक्त हो चुका है। कायदे से तनावों, चिंताओं, जीवन के संघर्ष आदि से कैसे एक बच्चा और व्यस्क जूझे और बाहर आ सके इसकी तालीम देने की ज़रूरत है।
हालांकि कई चीजें जीवन-संघर्ष सीखा देती हैं। किन्तु शिक्षा की इसमें अहम भूमिका होती है कि हम कैसे अपनी संवेदनाओं, भावनाओं पर नियंत्रण स्थापित कर सकें। न केवल बच्चों को बल्कि शिक्षकों को भी इसकी तालीम देने की आवश्यकता है कि वो इमोशनल मैंनेजमेंट और भावनाओं की समझ कैसे पैदा करें। बच्चों में इमोशनल साक्षरता कैसे विकसित की जाए इसकी समझ, तैयारी और प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता पड़ेगी। जब एक ओर हमारा शिक्षक स्वयं तनाव और संघर्षों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में असफल होता है तो वह कैसे बच्चों को कक्षा में भावना प्रबंधन की सीख दे पाएगा।

Monday, April 1, 2019

व्यक्ति को लीलता तनाव



कौशलेंद्र प्रपन्न 

किसी के भी जाने की न तिथि तय है और न विधि। शायद इसीलिए कहा जाता है हमसब अतिथि हैं। हमारा न आना तय है और न जाना ही। दोनों ही विधि, गति, समय सब कोई और तय करता है। वही लिखकर भेजता है कि किसे कब तक इस धरा पर अपनी भूमिका निभानी हैं। दूसरे शब्दों में हमें न हमारा भविष्य के भूगोल का कुछ अता पता है और न अतीत पर कोई नियंत्रण। यदि हम कुछ कर सकते हैं तो बस इतना ही कि वर्तमान को जीएं और वर्तमान को बेहतर बनाएं। जब कभी कोई हमारे बीच से असमय चला जाता है तो एक बड़ी रिक्तता अपने पीछे छोड़ जाता है। एक ऐसी क्षति जिसे शायद कोई भी भर नहीं सकता। कहने को तो कह सकते हैं कि कोई भी स्थान ख़ाली नहीं रहता। कोई न कोई उस खालीपन को भर देता है। हमारे जीवन में हमारे अत्यंत प्रिये जब जाते हैं तब हम उस क्षति की पूर्ति नहीं कर पाते। उसमें भी जब ऐसा व्यक्ति हो जिसके जाने की अभी उम्र न हो। हालांकि यह तय करना भी हमारे हिस्से या हाथ में नहीं है कि कौन कब जाएगे। कैसे जाएगा? कहां से जाएगा? आदि। किसे कहां की जमीन मयस्सर होगी यह भी आज की तारीख़ अज्ञात है। हम जिस ग्लोबल दुनिया के नागरिक हैं ऐसे में तो और भी यह कहना मुश्किल है कि कौन कहां अंतिम सांसें लेगा। कहां की मिट्टी हासिल होगी। हम जनमते कहीं हैं, पलते बढ़ते कहीं हैं, पढ़ाई लिखाई रोजगार कहीं और करते हैं। ऐसे में जहां रोटी मिलती हैं वहीं के हो कर रह जाते हैं। ताउम्र हमें हमारी मिट्टी याद आती है। हमें हमारी जन्मभूमि पुकारा करती है लेकिन बेहद कम लोग हैं जिन्हें उनकी इच्छा और चाह के अनुसार अपनी मातृभूमि मिल पाती है। 
इस दुनिया आना जितना पीड़ादायी प्रक्रिया से गुजरना होता है उससे ज़रा भी कम तनाव, चिंता, मानोविद्लन नहीं है जीने में। डॉक्टर बताते हैं कि गर्भ में पल रहा बच्चा स्ट्रेस में न हो। प्रसव के वक़्त डॉक्टर कहा करते हैं जितनी मेहनत और कष्ट, प्रयास और तनाव मां सहा करती है वहीं बच्चा भी उतनी भी भावप्रवणता के साथ तनाव में जी रहा होता है। डॉक्टर की सलाह होती है कि बच्चा तनाव में न हो आदि। अनुमान लगाना कठिन नहीं है इस दुनिया में आना भी तनावपूर्ण प्रक्रिया से गुजरना होता है। जब हम आ जाते हैं फिर एक दूसरे किस्म की दुश्चिंताओं, तनावों, संघर्षां, संवेदनात्मक द्वंद्व से रोज़दिन रू ब रू होना होता है। जो लोग विभिन्न तनावों, टकराहटों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में कुशल होते हैं वे लोग काम के दबाव एवं तनावों से कैसे निकला जाए इसे मैनेज कर लेते हैं। जो लोग काम और दफ्तर, बॉस और कार्य दबावों को अपनी जिं़दगी से विलगाने में सफल नहीं हो पाते उनके जीवन में दफ्तर और बॉस की छवियां रातदिन परेशान करने लगती हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि कब और कहां से एक स्पष्ट रेखा खींची जाए जिसमें दफ्तरी काम और जीवन की अन्य प्राथमिकताओं को तवज्जो दी जाए। ऐसी ही स्थिति में व्यक्ति धीरे धीरे चुप होने लगता है। वह अपने करीबी लोगों से भी कटता चला जाता है। एकाकीपन की ज़िंदगी उसे निराशा और कुंठा की ओर धकेलती चली जाती है। किससे अपनी बात कहे? किससे अपने द्वंद्व साझा करे इस चुनाव में वह और ज्यादा उलझता चला जाता है। एक क्षण ऐसा आता है जब वह या तो हथियार डाल देता है या फिर उसका स्वास्थ्य उसका साथ छोड़ देती है। 
हमारी दुनिया में कौन कौन साथी हैं। किनसे हम अपनी बात कह सकते हैं। किन्हें चुनकर कुछ पल के लिए सहज महसूस कर सकते हैं यह चुनाव करना अपने आप में बेहद कठिन काम है। उसपर दफ्तर में किसे अपनी निजी पीर बताएं। किससे अपने अंतरजगत की हलचल साझा करें यह बहुत दुविधापूर्ण होता है। हमेशा डर लगा रहता है कि कोई निजी कमजोरी का लाभ तो नहीं उठा लेगा। इस तरह के डर हमें दफ्तर में संकुचित करता चला जाता है। जहां हम मानते हैं कि अपने जीवन व दिन का एक बड़ा हिस्सा जीया करते हैं। जिनके बीच रहते, खाते पीते हैं, लड़ते, मुंह फुलाया करते हैं उन्हीं के बीच यदि तनाव में जी रहे हैं तो ऐसे में हमारी कार्यशैली और काम, काम को निर्धारित करने वाला व्यक्ति हमारी निजी जीवन को भी प्रभावित करने लगता है। काम का तनाव इस कदर प्रबल हो जाता है कि हम घर पर भी काम और बॉस की भाषा, उसके व्यवहार से परेशान रहते हैं। रात में भी बड़बड़ाने लगते हैं। दफ्तर और घर के बीच के फासले को मिटा कर जी जान झांक देते हैं। टारगेट और प्रोजेक्ट हमारी जिं़दगी हो जाती है। पीछे छूटता चला जाता है हमारी खुशी, हमारी शांति। 
पैसे और आर्थिकी पक्ष मजबूत करते करते हम कब संवेदनात्मक तौर पर झिझले होते जाते हैं इसका अनुमान ही नहीं होता। काम के बाद भी काम की प्रकृति और कार्य संपन्न कराने वाले की बॉडी लैंग्वेज हमें कोचने लगती है। हम चाह कर भी उस व्यक्ति को अपने रोज़ के जीवन से बाहर नहीं कर पाते। कितना मुश्किल होता होगा उनके लिए जो बॉस और दफ्तर के दबाव तले अपनी सांसों का गला घांट दिया करते हैं। या यूं कहें नौकरी हमारी ज़िंदगी को खाने लगे तो बेहतर है नौकरी बदल ली जाए। लेकिन सच्चाई से भी मुंह नही फेर सकते कि नौकरी पाना कितना कठिन है। मैंनेजमेंट के जानकार मानते हैं कि कई बार सक्षम कर्मी सिर्फ और सिर्फ अपने बॉस या मैंनेजर की वजह से परेशान होकर नौकरी छोड़ जाता है। इससे न केवल संस्था, कंपनी की हानि होती है बल्कि हम अपने बीच से एक कुशल, दक्ष और संवेदनशील व्यक्ति को खो देते हैं।   

Sunday, March 31, 2019

यैसे और इस उम्र में जाना साथी

ये तो ठीक नहीँ किया। कुछ कहा भी नहीँ। कहूँगा, किसी दिन बैठेंगे फिर बातें करूँगा। कितनी सारी बातें थीं तुम्हाते पास कहने को,मगर अनकहे तुम्हारे ही साथ चले गए। हम कितने दिल से कंजूस हैं कि जो बात कहनी है उसे काँख में सुदामा की तरह दबा के रखते हैं। मगर हम भूल जाते हैं कि हमारे दोस्त कृष्ण नहीं रहे जो मन की बात व भाव समझ सकें।
तुम जिस तरह गए वो स्वीकार नहीं हो पा रहा है। कोई संकेत, न आवाज़ कुछ तो इशारा किया होता।मगर कुछ नहीँ। शनिवार क्या आया हम सब पर भारी पड़ा। यैसा भी क्या काम का दबाव था कि कुछ कह न सके। कुछ साझा भी नहीँ कर पाए। बस रूठ कर चले गए।
जब सिद्धार्थ गए थे तब अपने पीछे बच्चा, बीवी छोड़ गए थे। वैसे ही तुम्हारे पीछे भी सब छोड़ गए। घर पर तुम्हारा बच्चा माँ से पूछ रहा था माँ रो क्यों रही हो? माँ इस किस्म के सवालों से रोज़ रु ब रु होगी।
दोस्त बहुत याद आवोगे। जब भी भाई!!!!! शब्द।
हम कितने ही शब्द, रंजिश, ख़फ़ा, दिल में पिरो कर जीते हैं। जबकि मालूम किसी को नहीँ कब कौन हमारे बीच से चला जायेगा। सारी रंजिशें यहीं सिर पटकती रह जाएगी

Friday, March 29, 2019

मैंनेजर का दिल


कौशलेंद्र प्रपन्न
है न दिलचस्प बात कि मैंनेजर के भी दिल हुआ करते हैं। यूं तो कहा जाता है मैंनेजर यदि दिल के काम करने लगे तो वह अच्छा व श्रेष्ठ मैंनेजर की अहर्ता खो देता है। यदि मैंनेजर दिल के काम करने लगे तो प्रोजेक्ट के डूबने के भी चांस काफी होते हैं। लेकिन कहा तो यह भी जाता है कि एक अच्छा मैंनेजर दिल और दिमाग के समुचित योग से बेहतर प्रदर्शन कर पाता है। कहते तो यह भी हैं कि यदि मैंनेजर सभी को दोस्त बना ले तो वह भी ठीक नहीं। यानी मैंनेजर के पास एक ऐसी फाइल होती है जिसमें ज़रूरी, बेहद ज़रूरी, अत्यंत ज़रूरी और गैर ज़रूरी, निहायत ही गैर ज़रूरी कामों को डम्प करता है। वह काम की प्रतिबद्धता और महत्ता को परखते हुए अपने कामों को प्राथमिकता की श्रेणी में डालता है।
मैंनेजर दिल की बात नहीं करता। यदि वह दिल से बातें करने लगेगा तो वह प्रोजेक्ट कहीं न कहीं नुकसान ही पहुंचाएगा। दिल लगाने से मतलब यह भी हो सकता है कि वह अपने काम से तो दिल लगता है व्यक्ति से नहीं। व्यक्ति तो आते जाते रहते हैं। लेकिन प्रोजेक्ट पर असर नहीं पड़े इसको लेकर मैंनेजर सजग होता है।
मैंनेजर को मालूम होता है कि उसे कब, कहां, किससे, कितना और कैसे बोलना है। कैसे बातों को प्रस्तुत करना है। इन कौशलों में वह दक्ष होता है। यदि दक्षता नहीं तो वह मैंनेजर बेहतर नहीं। बोलने में दक्ष होता है तो वह मुश्किल से मुश्किल दौर और समय को भी बेहतर तरीके से डील कर लेता है। कमजोर मैंनेजर वह माना जाता है जो उक्त कौशलों में दक्ष नहीं।

Wednesday, March 27, 2019

चुनावी मौसम में ख़बरों से दूर...चलिए कोई किताब पढ़ी जाए


कौशलेंद्र प्रपन्न
पत्रकार एवं सामाजिक चिंतक रवीश कुमार बड़ी ही शिद्दत से गुज़ारिश करते हैं कि इन दो माह यदि हम टीवी यानी न्यूज चैनल और अख़बार पढ़ना बंद कर दें तो बेहतर हो। इसके पीछे तर्क देते हैं कि जब ख़बरों में से सूचना और विश्लेषण गायब हो जाए तो बेहतर है ऐसी ख़बर को न देखा जाए और न पढ़ें। शुक्रिया रवीश जी कम से कम कोई तो है जो आगाह करने की हिम्मत रखता है। जब सबलोग कहें कि ख़ामोश रहो। सवाल करना क्या ज़रूरी है। ऐसे दौर में कोई तो है जो बोलने और सवाल करने की प्रकृति और सहज दर्शन को समझाने की कोशिश कर रहा है।
चुनावी बयार ज़ोरों पर है। क्या अख़बार और क्या न्यूज चैनल हर जगह ख़बर के मायने बदल चुके हैं। अख़बारों पर नज़र डालें तो बीस और तीस पेज में से अधिकांश पन्ने राजनीतिक ख़बरों से रंगी नजर आती हैं। राजनीतिक में से भी चुनावी ख़बरें तैरती मिलेंगी। विश्लेषण तो इन अख़बारी ख़बरों की भी होनी चाहिए। शायद आज नहीं तो कल कोई तो व्यक्ति या संस्था यह काम करेगी। कितने पन्ने चुनावी ख़बरों में रंगे गए। इन चुनावी ख़बरों की रफ्तार में क्या मुख्य पन्न और क्या आख़िरी पन्ना आद्यांत चुनावी घटनाएं, घोषणाएं, बयान, टूटना, जुड़ना आदि ख़बरों से भरी होती हैं। कई प्रमुख घटनाएं और ख़बरें ऐसे में पन्नों पर आने से रह जाती हैं। इनमें सामाजिक, शैक्षणिक, भौगोलिक आदि को शामिल कर सकते हैं।
यही हाल न्यूज चैनलों का भी है। जिस भी न्यूज चैनल को खंघालिए हर जगह चुनावी बाजार लगा है। कहीं वाद विवाद, कहीं प्रवचन, कहीं भविष्यवाणियों के पत्ते खोले जा रहे हैं। कहीं सुग्गा वाचन कर रहा है आदि आदि। इनके बाजार में वाचल वक्ता प्रमुख दलों के चैनलों पर खखार रहे होते हैं।
एकबारगी मन करता है कि अख़बार लेने बंद कर दिए जाएं। न्यूज चैनल को हमेशा के लिए गला घोट कर चैन से कोई किताब पढ़ी जाए। कोई साहित्य या रूचिकर काम किए जाएं। हम जिस समय में अख़बार पढ़ने या फिर न्यूज चैनल देखा करते थे। उस वक्त संभव है अपने प्रिय से बातचीत की जाए। जिनके लंबे समय से बात नहीं हुई। जिनके हम मिले नहीं ऐसे कुछ काम किए जा सकते हैं। किताबें पढ़ना थोड़ा श्रमसाध्य काम है। धैर्य और रूचि की भी बात है, लेकिन कोशिश की जा सकती है। 

Monday, March 25, 2019

वैमनस्य नहीं प्यार रह जाता है


कौशलेंद्र प्रपन्न
आपको क्या लगता है हमारे जाने के बाद क्या बचेगा? क्या रह जाएगा हमारे बाद? ये सड़कें, ये नदी, ये पहाड़ आदि आदि तो रहेंगे ही। रह जाएंगे कुछ और बरसे हमारे साथ के लोग। जो याद किया करेंगे। हमारे प्यार को। हमारे व्यवहार को। और याद रह जाएंगी साथ बिताए पल। जिसमें वो तमाम चीजें शामिल हैं जिन्हें हम जी कर जाएंगे।
जिनके साथ रूसा रूसी थी। जिन्हें देखना पसंद नहीं किया करते थे। पसंद तो उनका बोलना भी खलता था। खलता था जैसे वो देखा करते थे। लेकिन उनके जाने के बाद उनके साथ बिताए पल पीछे छूट जाती हैं।
वैमनस्य की आयु उतनी लंबी नहीं होती जितनी प्यार की हुआ करती है। प्यार भरे पल ज्याद साथ रह जाया करती हैं। वैमनस्य एक समय के बाद धीमा पड़ जाता है। रह जाती हैं तो बस बिताए हुए सुखद पल। कभी कभी वैमनस्य वाले पल भी हमें रह रह कर कोचते हैं किन्तु उनके जाने के बाद वो भी धूमिल हो जाता है।
जिनसे सोचा था लड़ेंगे। ऐसा कहेंगे। वैसे लड़ेंगे। यह भी कहेंगे। वह भी कह कर लड़ेंगे आदि आदि। लेकिन जब मालूम चला वो तो चले गए। फिर किससे लड़ेंगे। कौन होगा जिनके अपने मन की बात करेंगे। उनके जाने के बाद सारी रंजिशें यहीं रह जाती हैं। रह जाता है तो बस प्यार।

Wednesday, March 20, 2019

रोज़ की ज़िंदगी से कट जाना



कौशलेंद्र प्रपन्न
कुछ लोग ऐसे जाते हैं जैसे जाती है धूप। जैसे जाती है हवा और जाती है यादें। धीरे धीरे सब कुछ धीमी होती जाती है। हमें मालूम भी नहीं पड़ता कि कौन कब चला गया। कहां चला गया आदि। लेकिन जो जाता है अपने पीछे कुछ तो ज़रूर छोड़ जाता है। कुछ अच्छी। कुछ मधुर। कुछ खट्टी यादें। जिन्हें हम जाने के बाद या तो बिसुरा देते हैं या फिर संजोकर रख लिया करते हैं। जब हमारी रोज़ की जिं़दगी से कोई कट जाता है तो वह हमारी चिंताओं, संवेदनाओं आदि से भी कटता चला जाता है। ऐसा अकसर होता है कि जिसे हम रोज़ देखा और मिला करते हैं उससे हम वास्तव में जुड़े होते हैं। उसकी तमाम चीजें हमें खुशी और दुख दोनों ही दिया करती हैं।
जो हमारी जिं़दगी में शामिल होते हैं हम उनकी चिंता भी किया करते हैं। उस व्यक्ति की हर वो छोटी चीज हमें परेशान भी किया करती हैं। कई बार यह प्रक्रिया ऐसी धीमी गति से होती है कि हमें उसकी तीव्रता और रफ्तार महसूस नहीं हो पाती और जाने वाला व्यक्ति यूं ही हमारी जिं़दगी से दूर चला जाता है।
हम जाने अनजाने न जानें ऐसे कितने ही व्यक्ति हमारी ज़िंदगी से साइन आउट हो जाते हैं। इनका कोई बैकअप नहीं रह जाता। कभी कभी बस यादों में आवाजाही किया करते हैं बस। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अचानक से ग़ायब हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे लोग तुरंत हमारी जिं़दगी से दूर हो जाते हैं। ऐसे वो लोग हुआ करते हैं जिन्हें शायद हम देखना, सुनने और मिलना तक नहीं चाहते।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...