Wednesday, May 8, 2019

जहां रोशन है दिव्यांग बच्चों की दुनियाः


कौशलेंद्र प्रपन्न
हाई वे, मुख्य सड़क, महानगरीय सड़क, राजमार्ग, साठ फुट्टा रोड़, गली, चौपड़ आदि। इन नामों से कैसी तस्वीर बनती है? यही कि उक्त सारे नाम यातायात के प्रमुख साधनों में से एक हैं। सड़क उनमें से ऐसा मार्ग है जो जमीन पर रेलवे के अतिरिक्त बना करती है। क्या ऐसी भी गली की कल्पना कर सकते हैं जहां आप इंटर करें तो आपके साथ दूसरा कोई भी कंधे से कंधा मिला कर न चल सके। यानी ऐसी गली जहां धूप को भी आने के लिए इंजाजत मांगनी पड़े। जिस गली से बाहर निकलते ही बड़ी, चौड़ी सड़कें शुरू होती हों। जहां से झांकने पर एक चमचमाती नगरी, दुकानें, मॉल्स की दुनिया शुरू हो जाती है। इशारा ऐसी झुग्गी झोपड़ी से हैं जो दोआब में बसे हैं। जहां ज़िंदगी रोशन है। जहां टीवी है, फ्रीज है, साउंड सिस्टम है। बिजली पानी है। और राशन कार्ड भी। जहां गलियों में नालियां ऐसे पसरी हैं गोया सांप की नई प्रजाति पैदा हो गई हों। न केवल दिल्ली बल्कि मुंबई, चैन्नई, कोलकाता आदि तमाम महानगरों में बसी हैं। जहां से रोज काम पर जाने वाले भीड़ में कहां खो जाते हैं इसका अनुमान लगाना ज़रा कठिन होता है। इन्हीं घरों से कई बार हमारे घर चौका बरतन करने वाली आती हैं। कभी सोचा है इनके बच्चे कहां, किन स्कूलों में दाखिल होते हैं। कहां इन्हें नई तालीम मिलती है। आदि। ऐसे ही कुछ सवाल हैं जिनका उत्तर शायद हमें देना होगा।
मोतीलाल नेहरू कैंप, संजय बस्ती, ओखला फेज 1 व 2, नेहरू प्लेस, कालका जी, गोविंदपुरी आदि जगहों पर दो फैक्ट्री के दोआब में गुलजार इन बस्तियों से मजदूर मिला करते हैं। जिनके बदौलत हमारा बड़ा काम हुआ करता है। जब ये वर्ग एक या दो माह के लिए भी गांव-घर चला जाता है तो हमारी आम जिंदगी कहीं न कहीं प्रभावित होती है। हमारे सरकारी स्कूल पर भी विपरीत असर साफ देखे जा सकते हैं। ख़ासकर पर्व त्योहारों पर, गर्मी की छुट्टियों में। जाते एक माह के लिए हैं लेकिन लौटत दो तीन माह बाद हैं। स्कूल टीचर मानते हैं कि हमारी मेहनत खराब हो जाती है। हमें दुबारा से शुरुआत करनी पड़ती है। इन बच्चों के साथ पढ़ने-पढ़ाने की दिक्कत बराबर बनी रहती है। जाने के बाद कब लौटेंगे किसी को भी नहीं पता।
इन कॉलोनियों, कैंप में बसने वाले बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का रख रखाव और मुहैया कराने में कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं लगी हैं। जो बच्चों की शिक्षा और देखभाल करते हैं। एनजीओ के अलावा कुछ सीएसआर की गतिविधियां भी यहां बहुत ही शिद्दत से काम कर रही हैं। ये बिना आवाज़ किए अपने काम में विश्वास करती हैं। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन उनमें से एक है। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन ओखला में आस्था संस्था के मार्फत दिव्यांग बच्चों की बुनियादी तालीम पर काम करती है। आस्था सस्था पिछले तकरीबन पचीस सालों से दिव्यांग बच्चों के विभिन्न मुद्दों और समस्याओं को ध्यान में रख कर गर्दन झुकाए काम में जुटी है। इस संस्था में तकरीबन सौ से ज्यादा बच्चे आते हैं। सेंटर पर आने वाले बच्चों को महज पाठ्यपुस्तकीय शिक्षा मुहैया कराने की बजाए जीवन कौशल की समझ भी दी जाती है। इन दिव्यांग बच्चों को अंधेरी गलियों और आम जीवन की उपेक्षा से निकाल कर समाज और समुदाय से जोड़ा जाता है। इन बच्चों से बात करके तो देखिए जनाब इनके आत्मविश्वास में कमाल का उछाल और जीने की चाहत, उमंग की लहरें देखने-सुनने को मिलेंगी। ऐसे ही बच्चों की छोटी छोटी आंखों में बड़े बड़े सपने भरने और देखने का माद्दा पैदा करने में टेक महिन्द्रा फाउंडेशन पिछले लगभग दस साल से जुड़ा है। यह दीगर बात है कि यह फाउंडेशन काम बोलता है में विश्वास करता है न कि प्रचारित करने में।
नाम बेशक हमारे बच्चों जैसे ही हैं इन बच्चों के। कमल, ज्योति, सानिया आदि आदि। लेकिन ये बच्चे हमारे सामान्य बच्चों से ज़रा अलग हैं। इनकी भी आंखें दो ही हैं लेकिन इन आंखों में देख सकने की रोशनी नहीं है। ऋग्वेद में एक मंत्र में कहा गया है, ‘‘चक्षोरमे चक्षु अस्तु’’ यानी नेत्र में देखने की क्षमता हो। वहीं कुछ बच्चे ऐसे हैं जो अंदर से बेचैन हैं जिन्हें ठहर कर समझने और प्यार करने की आवश्यकता है। ऐसा ही एक बच्चा है ओखला कैंप में। उसने ठहर कर विश्वास के साथ मेरे गाल को अपने कोमल हाथों, अंगुलियों से छुआ, सहलाया और गले लगा। बोल भर बस नहीं फुटे। ऐसे बच्चों के बीच जाकर लगता है हम कितने गुमान और तोर मोर छोर से भरे हैं। हम जिस जहां में रहते हैं वह कोई और दिनया है। एक दुनिया समानांतर भी बसा करती है। इस दुनिया से हम बेखबर न जाने कितनी ही रंजीशें पाले हुए रेज़ डोल रहे हैं। ऐसी दुनिया से बहुत दूर हमने अपने लिए एक अगल आप्राकृतिक दुनिया बसा ली है जहां हम दो चार के बीच हंस बोल लेते हैं। एक दूसरे को लाइक, इग्नोर कर खुश हो लेते हैं। काश कभी इन बच्चों के बीच जा पाते। खुद ब खुद हमारी अंदर की दुनिया साफ हो जाएगी।
पहली बात तो यही कि इन दिव्यांग बच्चों को उनके घरों से निकालना अपने आप में बड़ी समस्या है। और यदि बार अभिभावक विश्वास कर कर संस्था में भेज भी देती है जो कम से कम संवाद की कड़ी जुड़नी शुरू हो जाती है। दूसरे स्तर पर चुनौती तब आती है जब ये बच्चे सामान्य बच्चों के बीच जाते हैं। स्कूल परिसर कितना भी मूल्यपरक बातें कर ले। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि एक ओर समावेशनी शिक्षा और दिव्यांग बच्चों के लिए स्कूल और शिक्षा एकीकरण करने वाली हो ऐसी घोषणाएं हने कई बार कई दशक पूर्व भी की है। लेकिन जमीनी हक़ीकत बिल्कुल अगल है।

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