कौशलेंद्र प्रपन्न
किसी के भी जाने की न तिथि तय है और न विधि। शायद इसीलिए कहा जाता है हमसब अतिथि हैं। हमारा न आना तय है और न जाना ही। दोनों ही विधि, गति, समय सब कोई और तय करता है। वही लिखकर भेजता है कि किसे कब तक इस धरा पर अपनी भूमिका निभानी हैं। दूसरे शब्दों में हमें न हमारा भविष्य के भूगोल का कुछ अता पता है और न अतीत पर कोई नियंत्रण। यदि हम कुछ कर सकते हैं तो बस इतना ही कि वर्तमान को जीएं और वर्तमान को बेहतर बनाएं। जब कभी कोई हमारे बीच से असमय चला जाता है तो एक बड़ी रिक्तता अपने पीछे छोड़ जाता है। एक ऐसी क्षति जिसे शायद कोई भी भर नहीं सकता। कहने को तो कह सकते हैं कि कोई भी स्थान ख़ाली नहीं रहता। कोई न कोई उस खालीपन को भर देता है। हमारे जीवन में हमारे अत्यंत प्रिये जब जाते हैं तब हम उस क्षति की पूर्ति नहीं कर पाते। उसमें भी जब ऐसा व्यक्ति हो जिसके जाने की अभी उम्र न हो। हालांकि यह तय करना भी हमारे हिस्से या हाथ में नहीं है कि कौन कब जाएगे। कैसे जाएगा? कहां से जाएगा? आदि। किसे कहां की जमीन मयस्सर होगी यह भी आज की तारीख़ अज्ञात है। हम जिस ग्लोबल दुनिया के नागरिक हैं ऐसे में तो और भी यह कहना मुश्किल है कि कौन कहां अंतिम सांसें लेगा। कहां की मिट्टी हासिल होगी। हम जनमते कहीं हैं, पलते बढ़ते कहीं हैं, पढ़ाई लिखाई रोजगार कहीं और करते हैं। ऐसे में जहां रोटी मिलती हैं वहीं के हो कर रह जाते हैं। ताउम्र हमें हमारी मिट्टी याद आती है। हमें हमारी जन्मभूमि पुकारा करती है लेकिन बेहद कम लोग हैं जिन्हें उनकी इच्छा और चाह के अनुसार अपनी मातृभूमि मिल पाती है।
इस दुनिया आना जितना पीड़ादायी प्रक्रिया से गुजरना होता है उससे ज़रा भी कम तनाव, चिंता, मानोविद्लन नहीं है जीने में। डॉक्टर बताते हैं कि गर्भ में पल रहा बच्चा स्ट्रेस में न हो। प्रसव के वक़्त डॉक्टर कहा करते हैं जितनी मेहनत और कष्ट, प्रयास और तनाव मां सहा करती है वहीं बच्चा भी उतनी भी भावप्रवणता के साथ तनाव में जी रहा होता है। डॉक्टर की सलाह होती है कि बच्चा तनाव में न हो आदि। अनुमान लगाना कठिन नहीं है इस दुनिया में आना भी तनावपूर्ण प्रक्रिया से गुजरना होता है। जब हम आ जाते हैं फिर एक दूसरे किस्म की दुश्चिंताओं, तनावों, संघर्षां, संवेदनात्मक द्वंद्व से रोज़दिन रू ब रू होना होता है। जो लोग विभिन्न तनावों, टकराहटों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में कुशल होते हैं वे लोग काम के दबाव एवं तनावों से कैसे निकला जाए इसे मैनेज कर लेते हैं। जो लोग काम और दफ्तर, बॉस और कार्य दबावों को अपनी जिं़दगी से विलगाने में सफल नहीं हो पाते उनके जीवन में दफ्तर और बॉस की छवियां रातदिन परेशान करने लगती हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि कब और कहां से एक स्पष्ट रेखा खींची जाए जिसमें दफ्तरी काम और जीवन की अन्य प्राथमिकताओं को तवज्जो दी जाए। ऐसी ही स्थिति में व्यक्ति धीरे धीरे चुप होने लगता है। वह अपने करीबी लोगों से भी कटता चला जाता है। एकाकीपन की ज़िंदगी उसे निराशा और कुंठा की ओर धकेलती चली जाती है। किससे अपनी बात कहे? किससे अपने द्वंद्व साझा करे इस चुनाव में वह और ज्यादा उलझता चला जाता है। एक क्षण ऐसा आता है जब वह या तो हथियार डाल देता है या फिर उसका स्वास्थ्य उसका साथ छोड़ देती है।
हमारी दुनिया में कौन कौन साथी हैं। किनसे हम अपनी बात कह सकते हैं। किन्हें चुनकर कुछ पल के लिए सहज महसूस कर सकते हैं यह चुनाव करना अपने आप में बेहद कठिन काम है। उसपर दफ्तर में किसे अपनी निजी पीर बताएं। किससे अपने अंतरजगत की हलचल साझा करें यह बहुत दुविधापूर्ण होता है। हमेशा डर लगा रहता है कि कोई निजी कमजोरी का लाभ तो नहीं उठा लेगा। इस तरह के डर हमें दफ्तर में संकुचित करता चला जाता है। जहां हम मानते हैं कि अपने जीवन व दिन का एक बड़ा हिस्सा जीया करते हैं। जिनके बीच रहते, खाते पीते हैं, लड़ते, मुंह फुलाया करते हैं उन्हीं के बीच यदि तनाव में जी रहे हैं तो ऐसे में हमारी कार्यशैली और काम, काम को निर्धारित करने वाला व्यक्ति हमारी निजी जीवन को भी प्रभावित करने लगता है। काम का तनाव इस कदर प्रबल हो जाता है कि हम घर पर भी काम और बॉस की भाषा, उसके व्यवहार से परेशान रहते हैं। रात में भी बड़बड़ाने लगते हैं। दफ्तर और घर के बीच के फासले को मिटा कर जी जान झांक देते हैं। टारगेट और प्रोजेक्ट हमारी जिं़दगी हो जाती है। पीछे छूटता चला जाता है हमारी खुशी, हमारी शांति।
पैसे और आर्थिकी पक्ष मजबूत करते करते हम कब संवेदनात्मक तौर पर झिझले होते जाते हैं इसका अनुमान ही नहीं होता। काम के बाद भी काम की प्रकृति और कार्य संपन्न कराने वाले की बॉडी लैंग्वेज हमें कोचने लगती है। हम चाह कर भी उस व्यक्ति को अपने रोज़ के जीवन से बाहर नहीं कर पाते। कितना मुश्किल होता होगा उनके लिए जो बॉस और दफ्तर के दबाव तले अपनी सांसों का गला घांट दिया करते हैं। या यूं कहें नौकरी हमारी ज़िंदगी को खाने लगे तो बेहतर है नौकरी बदल ली जाए। लेकिन सच्चाई से भी मुंह नही फेर सकते कि नौकरी पाना कितना कठिन है। मैंनेजमेंट के जानकार मानते हैं कि कई बार सक्षम कर्मी सिर्फ और सिर्फ अपने बॉस या मैंनेजर की वजह से परेशान होकर नौकरी छोड़ जाता है। इससे न केवल संस्था, कंपनी की हानि होती है बल्कि हम अपने बीच से एक कुशल, दक्ष और संवेदनशील व्यक्ति को खो देते हैं।
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