कौशलेंद्र प्रपन्न
कहां हैं ज़नाब!!! इन बच्चियों को देखिए और अपने चश्में के लेंंस को ठीक कीजिए। पढ़ते हुई बच्चियां आपकी आंखों से ओझल कैसे हो जाती हैं। जो मंज़र अन्यान्य रिपोर्ट दिखाती हैं उन्हें ही मान बैठते हैं और उन्हें ही अंतिमतौर पर कबूल कर लिया करते हैं। कभी तो सरकारी स्कूलों में ख़ुद भी जाकर देखें और बच्चों से बात करें कि क्या कर रहे हैं बच्चे स्कूलों में। लेकिन आदतन आप कह देंगे ‘‘ वक़्त ही मिलता ज़नाब’’ ‘‘कहां जाएं और क्या क्या देखें?’’ ‘‘मूवी जाएं, मॉल्स जाएं, पार्टी में जाएं कहां न जाएं।’’ क्या आपको याद है अंतिम दफ़ा आप किसी सरकारी स्कूल में गए हों। जो आपके घर के पास ही है। एकदम पास। पार्क से लगा हुआ। जहां आप देखा करते हैं कुद नीलीवर्दी में बच्चे जाया करते हैं। कुछ टीचर वहां जाया करतीं हैं। एक नागर समाज के नागरिक होने के नाते कभी भी इस चिंता से परेशान नहीं किया कि चलें आज अपने पास के सरकारी स्कूल होकर आएं। ज़रा देखें वहां कैसे बच्चे पढ़ते हैं और टीचर कब और कितना पढ़ाते हैं। हालांकि एसएमसी के सदस्य भी कम ही जाया करते हैं। तो हमारे पास ही इतना वक़्त कहां हैं जो आफिस भी जाएं घर पर भी सोएं। सोईए तान कर सोईए जब हमारे सिरहाने से सरकारी स्कूली शिक्षा छीन ली जाएगी तब हमारे पास बचाने को कुछ भी नहीं बचेगा। कितनी तेजी से सरकारी स्कूलों को हमसे छीना जा रहा है इसका अंदाज़ शायद आपको हो न हो लेकिन एक बड़ा तबका इसको लेकर चिंतित है और वकालत भी कर रहा है। कम से कम उनके हौसले को बढ़ाने ही चाहिए।
स्कूल है ज़ाफ़राबाद, पूर्वी दिल्ली का वह इलाका जिसे हम अक्सर पिछड़ा माना करते हैं। उसपर तुर्रा यह कि वह स्कूल उर्दू माध्यम का है। इस स्कूल में तकरीबन 600 सौ बच्चियां हैं। तीन मंज़िला स्कूल जहां कक्षा एक से पांचवीं तक की तालीम देने में टीचर लगे हैं। लेकिन इससे आपको क्या फ़र्क पड़ता है कि वहां पढ़ाई हो रही है या नहीं। बच्चियां पढ़ रही हैं या नहीं। लेकिन मेरा तज़र्बा कहता है कि इस स्कूल की शिक्षिकाएं और बच्चियां बहुत अच्छा पढ़ रही हैं।
कक्षा तीसरी है। बच्चियां हिन्दी की पाठ्यपुस्तक की एक कहानी पढ़ रही हैं। वह पढ़ना किसी भी कोण से कमतर नहीं कहा जा सकता। बहुत अच्छे से और समझते हुए वाचन और पठन कर रही थीं। कुछ देर के लिए लगा कि शायद कोई प्रसिद्ध तथाकथित निजी स्कूल की कक्षा तो नहीं। लेकिन नहीं। यह सरकारी स्कूल उसमें भी उर्दू माध्यम के स्कूल में हिन्दी इतनी साफ तलफ्फूज़ के साथ बच्चियां पढ़ रही हैं। यह ज़रूर काबील ए तारीफ़ है। चौकाने वाली बात यह भी थीं कि बच्चियां न केवल टेक्स्ट बुक पढ़ रही थीं बल्कि अन्य कथाओं को भी पढ़ने में दक्ष थीं।
हमारे सरकारी स्कूलों में शिक्षक और बच्चे भी बहुत अच्छा कर रहे हैं किन्तु इस किस्म की स्टोरी न तो मीडिया में आती है और न नागर समाज के पैरोकारां की नज़र में। यदि स्कूलों से कोई स्टेरी मीडिया को लुभाती है तो वह है नकारात्मक कहानियां। बच्चियां पढ़ना-लिखना नहीं जानतीं। शिक्षिकाओं को यह नहीं आता। वह नहीं आता आदि आदि। तो उन्हें जो आता है वह भी तो स्टोरी कीजिए ज़नाब। सरकारी स्कूलों को जिस तेजी से सरकारें बंद करने और मर्ज करने का मन बना चुकी हैं बल्कि दिल्ली में ही कई स्कूल बंद कर दिए गए या फिर मर्ज़ कर दिए गए उनके लिए हमें ही आवाज़ उठाने की आवश्यकता है।
3 comments:
Good..!..Prashunsniy.!..Sarkari..Schoolon..mein..padhayee..seriously..Hoti.hai..Yeh..Achha..Hai..Aankhein.Kholnewala.!...Humko..Sarkari..Schoolon..per..kaam..Kerna..Chhahiea.
Bahut..Achha.!..Sarkari.School..Bahutonse..Achhe..Hein.!.
Ese kahtein Lekhan kee Sarthakta
... Sanvedanshil Drishtee Dil tak pahunchi hai
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