गढ़ता हुआ शहर ! कैसा लगा शीर्षक? समझ तो गए होंगे। बात शहर की कर रहा हूं जो हमेँ गढ़ा करता है। आकार देता है। हम अपने शहर से तमीज़ भी लिया करते हैं।
शहर जिससे दूर चले जाते हैं। जैसे जैसे हम दूर होते हैं शहर भी नए नए रंग रूप अखितयार करता है। धीरे धीरे शहर के गांवों, खेतों बगानों को काटा जाता गई और देखते ही देखते शहर मकानों में तब्दील हो जाता है। शहर से खेत और बगीचो को बेदख़ल करने का खेल जारी है।
हम कई बार शहर से दूर हो जाते हैं। तो कभी शहर हमसे दूर होता जाता है। यह प्रक्रिया कई बार दोतरफ़ा चला करता है। जिसके स्तर को समझना होगा।
शहर हमें कोसता है तो कभी हम शहर को। यह शिकायत का सिलसिला चल पड़ता है। लेकिन तै बात है कि हमारा शहर हमेशा ही याद आया करता है।
शायद कई बार शहर से हमारी पहचान जुड़ जाती है तो कभी कभी शहर हम से पहचान हासिल किया करता है।
शहर जिससे दूर चले जाते हैं। जैसे जैसे हम दूर होते हैं शहर भी नए नए रंग रूप अखितयार करता है। धीरे धीरे शहर के गांवों, खेतों बगानों को काटा जाता गई और देखते ही देखते शहर मकानों में तब्दील हो जाता है। शहर से खेत और बगीचो को बेदख़ल करने का खेल जारी है।
हम कई बार शहर से दूर हो जाते हैं। तो कभी शहर हमसे दूर होता जाता है। यह प्रक्रिया कई बार दोतरफ़ा चला करता है। जिसके स्तर को समझना होगा।
शहर हमें कोसता है तो कभी हम शहर को। यह शिकायत का सिलसिला चल पड़ता है। लेकिन तै बात है कि हमारा शहर हमेशा ही याद आया करता है।
शायद कई बार शहर से हमारी पहचान जुड़ जाती है तो कभी कभी शहर हम से पहचान हासिल किया करता है।
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