यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Thursday, June 23, 2011
...Then leave....
Wednesday, June 15, 2011
मीडिया के सामने दर्शाक्बतेरू चेहरा
अफ़सोस के साथ ही कहना पड़ता है कि लोग नाम से भीख देते हैं तो दान भी। मरने पर रोने वाले आखं भी बॉडी की प्रतिष्ट पर उसी मात्र में आशुं बहाते हैं।
Monday, June 13, 2011
खबर की कीमत
इक इमानदार पत्रकार को खामोश कर दिया गया। आज पत्रकारिता के सिपाही वो नहीं रहे जो कभी पत्रकारिता के शुरूआती सफ़र में थे। उनने पत्र को हथियार की तरह इस्तमाल किया। उनको न धमकी न पेड़ खबर की धन्धेबाज़ अपनी रह से डिगा पते थे। लेकिन इक दौर यह भी आये जब पत्रकार और पत्र की साथ राजनीति और अन्दार्वोर्ल्क से हवा। तब कलम रिरियाने लगी।
पकिस्तान में भी पिछले दिनों शहजाद पत्रकार को आतंद के सरगना की बलि चदा दी गई । उस का भी दोष यही था। उसने भी आतंदी संगठन की अन्दर की बातें और प्लान आम कर रहा था। पत्रकार की निष्ठां और जीमेदारी क्या होती है कैसे निभायी जाती है यह इनसे सिखने की जरूरत है।
खबर जान की कीमत पर देने वाले पत्रकार की जरूरत आज ज्यादा है।
Saturday, June 11, 2011
इक दिन जमीन पर औंधे पड़ा सोचता है
हुसैन के इंतकाल पर पता नहीं क्यों बहादुर शाह ज़फर की पंक्ति याद आती है-
कितना बदनसीब है जफर मरने के बाद दो गज जमीन भी ना मिली कूचा ये यार में।
ठीक उसी तरह हुसैन साहिब भी ताउम्र अपनी मिटटी को तडपते रहे। आखिर में अपनी साँस का अंतिम कतरा लन्दन में ली।
रंग को अपनी जीवन की अर्धांगनी बनाने वाली हुसैन साहिब के साथ वही अर्धांगनी अंत तक साथ रही। न बेटा न परिवार के लोग ही साथ थे। अगर कोई साथ था तो वो उनकी कुची और रंगों में भरामन। वैसे भी जींवन की यही सचाई है कि जाते समय या आते वकुत कोई साथ नहीं होता। अकेला आना और अकेले ही रुक्षत होना होता है। न प्रेमिका न पत्नी और ना कोई साथ निभाता है , जो साथ पाले बढे वो सब महज़ कुछ दूर तक हाथ हिला कर मिस यू कह कर अपनी ज़िन्दगी में खूऊ जाते हैं।
कितना मुर्ख है कवि , कलाकार , भयुक जो भावना के कैनात को हकिकित मान बैठता है। सोचता है सार है यही कि कोई बिना स्वार्थ के साथ नहीं होता फिरभी क्यों कर आस लगाये बैठा रहता है।
इक दिन जमीन पर औंधे पड़ा सोचता है.....
क्या मैं बेहोशी में था? आखें खुली तो पाया कि वो सड़क पर किनारे अब तलक वेट कर रहा है......
Thursday, June 9, 2011
बाबा तो लम्बी दौड़ की योजना के साथ आये
विशामित्र ने धनुष उठाया। कौतिल्या ने साफ़ कहा कि ब्राहमण पठन पाठन कर सकता है तो जुररत पड़ने पर युद्ध भी कर सकता है।
बाबा जिस श्यास ही सही लेकिन सैनिक की फ़ौज कड़ी करना चाहते हैं। इस्पे होम मिनिस्टर ने गंभीर प्रतिक्रिया दिया , तो अब कानून ही उनसे निपटेगी।
सामने आने लगे बाल्क्रिशन जो नेपाली मूल के हैं लेकिन खुद को भारतीय साबित कर वेदेष घूम आये। कसे जा रहे है। साथ ही बाबा की दावों को अम्रीका ने खारिज किया तो उसके पीछे भी सर्कार कदम उठा चुकीं है।
Monday, June 6, 2011
बाबा की भद
बस यही वो प्रस्थान बिंदु है जहाँ से बाबा की बिछलन शुरू हुई। किसे तरह वो औरतो के पीछे छुपते रहे इसे पूरी दुनिया ने देखा। भक्तो की भीड़ कड़ी कर उनने सोचा कि हम सत्ता से भीड़ लेंगे। सरकार को समर्पित मंत्री बाबा की शक्ति जानते थे इस लिए पहले मनुहार किया। लेकिन नहीं मने तो दंड का प्रयोग किया।
साम, दम, दंड, भेद इन चार बिन्दुयों को अपना कर ब्रिटिश ने हमारे ऊपर राज किया। तो बाबा किसे खेत की मुली हैं।
योग करते , जनता वैसे ही अपने दिलों में बसा राखी थी। बाबा को राजनीती का चस्का पता नहीं किसे ने लगा दिया। वैसे उन्न्ने कोई गलत कदम नहीं उठाया था। लेकिन मंच गलत चुना। उस पर रिथाम्भारा को बैठना आग में घी डालना साबित हुआ।
चलिए इक लम्बी सांस ले और छोड़ें.......
आमीन
Friday, June 3, 2011
इक थी पूजा। वो खूब पढना चाहती थी लेकिन उसकी किस्मत में शायद पढना नहीं लिखा था। पिछले दिनों उससे मुलाक़ात ही हुई थी। कहा मैं पढना चाहती हूँ। बड़े हो कर पढ़ना चाहता है मेरी। वो यूँ तो खामोश रहती लेकिन जवाब आते हुए भी जवाब नहीं डरती थी। बोहोत बोलने पार जवाब देती। रंग तो जैसे उसकी ऊँगली पर नाचती थी क्या ही कमाल कि चित्रकारी करती।
कुछ दिन मुलाक़ात नहीं हुई। इक दिन अचानक नज़र आई । उसके दोस्तों ने कहा इसकी माँ कल रात भवान के पास चली गई। मायूस पूजा चुपचाप देख रही थी कभी उन क्लास को ज़हन में जिसे बसा रखा था। सुए लग गया था कि बस अब ज्यादा दिन यहाँ न आना हो पायेगा।
हुवा भी वही जिसका दर था। पियाकड़ बाप ने उसे किसी कोठी वाले के घर चौका बर्तन के लिए रख दिया। हम चाह कर भी उसे शिक्षा में रोक नहीं पाए। उसके सपने खतम हो गए। असमयेक मौत
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...