हुसैन के इंतकाल पर पता नहीं क्यों बहादुर शाह ज़फर की पंक्ति याद आती है-
कितना बदनसीब है जफर मरने के बाद दो गज जमीन भी ना मिली कूचा ये यार में।
ठीक उसी तरह हुसैन साहिब भी ताउम्र अपनी मिटटी को तडपते रहे। आखिर में अपनी साँस का अंतिम कतरा लन्दन में ली।
रंग को अपनी जीवन की अर्धांगनी बनाने वाली हुसैन साहिब के साथ वही अर्धांगनी अंत तक साथ रही। न बेटा न परिवार के लोग ही साथ थे। अगर कोई साथ था तो वो उनकी कुची और रंगों में भरामन। वैसे भी जींवन की यही सचाई है कि जाते समय या आते वकुत कोई साथ नहीं होता। अकेला आना और अकेले ही रुक्षत होना होता है। न प्रेमिका न पत्नी और ना कोई साथ निभाता है , जो साथ पाले बढे वो सब महज़ कुछ दूर तक हाथ हिला कर मिस यू कह कर अपनी ज़िन्दगी में खूऊ जाते हैं।
कितना मुर्ख है कवि , कलाकार , भयुक जो भावना के कैनात को हकिकित मान बैठता है। सोचता है सार है यही कि कोई बिना स्वार्थ के साथ नहीं होता फिरभी क्यों कर आस लगाये बैठा रहता है।
इक दिन जमीन पर औंधे पड़ा सोचता है.....
क्या मैं बेहोशी में था? आखें खुली तो पाया कि वो सड़क पर किनारे अब तलक वेट कर रहा है......
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