कौशलेंद्र प्रपन्न
नदी गंदी सिर्फ बाहरी तत्वों से नहीं होती। कई बार नदी को हम अपने हित में गंदी ही रखते हैं। यदि नदी साफ हो गई तो करोड़ों रुपए का व्यापार कैसे होगा। गंगा, यमुना, झेलम, चिराब आदि नदियां तो हैं ही जिन्हें बचाना है।
मगर एक नदी हमारे भीतर बहा करती है। इस नदी को साफ करने के लिए बाहरी अनुदान की जरूरत नहीं होती। हम चाहें तो अंतर नदी को साफ और निर्मल रख सकते हैं। लेकिन अफ्सोस कि हम अपनी अंतर नदी को गंदली ही रखना चाहते हैं। ताकि कोई तल की गहराई न जान सके।
यह नहीं कहता कि लोगों के चेहरे पर कई चेहरे होते हैं। यह तो बात पुरानी है। चलिए नए बिंब से देखते हैं। नद ीवह बिंब मुझे आई कि नदी केवल बाहर ही नहीं बहा करती। बल्कि एक नदी हमारे भीतर भी बहा करती है। निरंतर।
कई मोड़-भाव, मनोदशाओं के किनारों से टकराती बहती रहती है। हम इस नदी को बड़ी होशियारी से साफ नहीं रखते। यदि साफ हो गई तो लोगों को मालूम चल जाएगा कि फलां की नदी ख़ासा गंदली है। वह कभी भी अपनी नदी का प्रच्छालन नहीं करते।
हमारे भीतर बहने वाली नदी बेहद जरूरी है कि वो साफ सुथरी रहे। लेकिन साफ नहीं रख पाते। जबकि यम,नियम, प्रणायाम, धारणा, ध्यान आदि के जरिए हम चाहें तो अपनी अंतर नदी को निर्मल कर सकते हैं।
आध्यात्म में इस नदी को साफ करने के लिए साधनों का जिक्र है। लेकिन भौतिक सफाई की बात करें तो हमें अपनी अंदर और अपने व्यवहार को हमेशा जांचते रहना चाहिए। इससे हमें मालूम होता है कि हमने कहां और कब गलती की। इसलिए कहां गया है कि हमें मनसा,वाचा कर्मण किसी भी स्तर पर हत्या नहीं करनी चाहिए। लेकिन हम यह जानते हुए भी अनजाने में न जाने किस किस को मानसिक, भावनात्मक स्तर पर चोट पहुंचाते हैं।
दूसरे शब्दों में हमें न केवल अपनी भौतिक नदी को बचाने का प्रयास करना है बल्कि अंदर की नदी को भी निर्मल और स्वच्छ रखने का प्रयास करना है।
1 comment:
बिलकुल सही कहा आपने , आजकल हमारे भीतर की नदी ज़्यादा व्याकुल,अस्वच्छ है। भीतर की नदी अशांत भी है ! हमें खुद इसकी गहराई नहीं पता । इसे निर्मल करने के लिए हमें भीतर छुपे मल से मुठभेड़ तो करनी ही होगी !
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