कौशलेंद्र प्रपन्न
खिलखिलाते फूल हैं हम इस जहां में, कौन जाने शाम तक कैसे रहेंगे...
मसला जितना आसान और सहज दिखाई देता है दरअसल है उतना ही कठिन। बच्चे बच्चे नहीं रहे। अपनी उम्र से दस कदम आगे बढ़ कर व्यस्क हो चुके हैं। उम्र से पहले पक से गए हैं। कोई भी रियाल्टी शो देख लें जो बच्चों के लिए, बच्चो के द्वारा बनाए जाते हैं उनमें बच्चे नहीं बड़े बचपन वाले होते हैं।
वह शो गायकी का हो, हंसी ठिठोली का या फिर डांस का। इन तमाम कार्यक्रमों में बच्चे नहीं बल्कि बड़े हिस्सा ले रहे होते हैं। बच्चियां व्यस्क महिला की तरह दिखने के तमाम संसाधन, पहनावा,साज-सज्जा आदि करती है। वहीं लड़के भी बड़ो के बोनसाई लगते हैं। यदि उनके चेहरे और कद ढक दिए जाएं तो अंतर कर पाना मुश्किल हो।
यह प्रतियागिता किनके लिए किनके द्वारा, किस उद्देश्य से निर्मित होती हैं इसे समझने की आवश्यकता है। बाजार के द्वारा बाजार को बढ़ाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों को बच्चों के सर्वांगीण विकास के तर्कां के पीछे खेल रचा जाता है।
जो जीता वे भी रोता है और जो हारा उसके आंसू तो दिखाने ही हैं। एक पल में बच्चों को आसमान में उड़ान भरने के पंख लगाए जाते हैं तो दूसरे ही पल अन्य हजारों बच्चों में कुंठा ठूंस दिए जाते हैं। निर्णायक मंडल ठहाके मार कर अपने पैसे बनाते हैं। बीच बीच में अपने अनुभवों के छौंक मारते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। इतना ही समय उनके पास है तो अपने काम पर ध्यान क्यों नहीं देते।
अधिकांश निर्णायक चूके हुए, छूटे हुए, फुरसतीए किस्म के नजर आते हैं। जिनके पास अपनी कहानी सुनाने और प्रतिक्रिया देने के नाम पर बेहद सतही शब्द होते हैं।
बचाना है हमें अपने बच्चों को। बचाना उस भीड़ और मेले से भी है जहां हमारे बच्चे बचपन में ही खो जाते हैं। फैशन और मीडिया का भूत कुछ ऐसा सिर चढ़ता है कि पढ़ाई -लिखाई पीछे कसमसा रही होती है। मां-बाप कचोटते, गरियाते मन मार कर शाम के शो में बिजी बच्चों को देख रहे होते हैं। कुछ कंप्रोमाइज करते हैं तो कुछ मोगैंम्बो की भूमिका में आ जाते हैं।
2 comments:
Innocence is rare these days...Coz it is mutilated everywhere...Either in form of violence against kids or expecting children to behave like miniature adults..
What is the way out of this chakravyuh?
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