Wednesday, August 9, 2017

मोर नहीं वो तो पेड़ है..



सामने चल रहे मोर को देख कर कहा देखो देखो!!! मोर।
कितना सुंदर लग रहा है।
पाखी ने कहा, ‘मोर नहीं है वो’
‘ध्यान से देखो, वो तो चलता फिरता पेड़ है।’
मैं औचक रह गया। यह क्या? भला मोर पेड़ कैसे हो सकता है। लेकिन हुआ वही। पाखी ने उसे पेड़ कहा तो वह कल्पनाशील मना बच्ची की नजर थी। बंधे बंधाए फ्रेम में चीजों को देखने, समझने और ग्रहण करने को विवश मन हमारा जड़ और गौंण अर्थों को ही पकड़ता है।
राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 बच्चों की कल्पनाशीलता को बढ़ाने की बात करता है। वह मानता है कि बच्चों को कल्पनाशील होने का अवसर हमें देना चाहिए। इस दर्शन को ध्यान में रखते हुए पूरी पाठ्य पुस्तकों का लेखन किया गया। लेकिन कक्षायी अनुभव बताते हैं कि शिक्षक आज भी क कबूतर और अ से अनार ही बताते हैं। बाल अनुभव और कल्पनाशील मन को सोचने और चिंतन करने का अवसर हमें दे कर तो देखें फिर परिणाम इसी तरह के मिलेंगे।
ऐसे में हमें बच्चों के जवाब को स्वीकारने की क्षमता और उदारता दिखानी होगी। हमें यह भी स्वीकारने होंगे कि बच्चों की दुनिया ऐसी कल्पनाएं भी कर सकते हैं जो हम बड़ों की सीमा के पार खड़ी होती हैं।
दूसरा संवाद-
‘चाचू आपने अपनी कार की लाइट क्यों जला रखी है?’
‘जब सामने वाली कार की लाइट जल रही है तो आप अपनी लाइट बचाओ।’
‘ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी कार से अपनी कार की लाइट जला लें।’
यह बातचीत है अपने विभू की। जो काफी दिमाग लगाने के बाद और हिम्मत के बाद अपनी राय दी। अचानक से इस तरह की राय को बचकाना मान बैठने की भूल कर देते हैं। लेकिन ज़रा सोचिए कि दिल्ली जैसे शहर की सड़कों पर चकाचक लाइट होती हैं। उसपर हाई बिम्ब की लाइट जलाने की क्या आवश्यकता है? बिला वजह आंखों में ज्यादा चुभती हैं।
बाल मन को कल्पना करने की छूट और खुलापन हमें देना होगा। तब हमारे सामने बच्चों की दुनिया ख्ुलेगी और उड़ेगी भी।

2 comments:

Meri ladli sarkar said...

बहुत अच्छा।

Unknown said...

बहुत बढिया।

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