कौशलेंद्र प्रपन्न
घुरनी को अच्छे से मालूम था कि साहित्य में वो गंभीर नहीं हो सकती। शब्दों की उसकी ताकत उससे छुपी नहीं थी। जानती थी कि साहित्य में घाघ से घाघ लोग दौड़ रहे हैं। रेग रहे ह्रैं। उसे रेंगना पसंद नहीं था। उसे तो यह भी पसंद नहीं था कि वो जो लिखे उसे लोग चटकारे लेकर चर्चा न करें। वो जो लिखे उसपर बखेड़ा खड़ा हो जाए।
किया भी वही जो उसे भाया। उसने वही लिखा जिसे युवा और अधेड़ लोग पढ़ना पसंद करते। पसंद भी किया। तब क्या था उसका मिज़ाज ! उसकी तो पूछिए मत सातवां आसमान भी छोटा सा लगने लगा। शहरां के चौराहों पर बड़ी सी अंगूठी डाले कानों में झूमका और टेस लाल लिपिस्टिक लगाए छा गई।
शहर शहर उसके प्रकाशक ने खूब शोर मचाया। लिखने वाले लिखते हैं कि आह से उह तक का मज़ा है। शायद घुरनी का मकसद पूरा हुआ। सुना है छोटी छोटी कहानियों में भी हाथ आजमाने लगी है। अपनी जिंदगी जी रही है। घुरनी देह को परचम बनाने पर आमादा है।
कभी बीच सड़क पर तो कभी पहाड़ को ठेंगा दिखाती तस्वीरें लगा कर लड़कों को रात में परेशान करती है। परेशान हो भी क्यों न साहित्य में अदा जो पैदा की है।
उसके लिए साहित्य के मायने अलग हैं। साहित्य मतलब जो जी न सकी उसे जीना। जो सौंदर्य का इस्तमाल न हो सका तो वह सौंदर्य क्या। किताब की ओट में खूब करतब दिखा रही है घुरनी। सुना है वो साहित्य की डगर पर तेज भागने लगी है। गलबहियां तो उसके लिए कोई मसला ही नहीं है।
घुरनी एक बात कहूं, बुरा तो न मानोगी! ज़रा संभल कर चलना साहित्य की डगर पर। चारों ओर लोग ही लोग भीड़ ही भीड़ है। ख्ुद को बचाना घुरनी। वैसे तुम्हें लगेगा कि यह क्या पुराने जमाने के बुढ़े की तरह ताकीद कर रहा हूं। रेल में अपना कोई भी अंग बाहर मत निकालना। स्टेशन पर मत उतरना। किसी से दिया हुआ खाना मत खाना। समझता हूं तुम समझदार हो गई हो। दुनिया तुमने भी तो अपनी आंखों से देखी है। पर फिर भी रायबहादुर बन रहा हूं। ज़रा संभल कर घुरनी।