Thursday, August 31, 2017

घुरनी चली साहित्य डगर



कौशलेंद्र प्रपन्न
घुरनी को अच्छे से मालूम था कि साहित्य में वो गंभीर नहीं हो सकती। शब्दों की उसकी ताकत उससे छुपी नहीं थी। जानती थी कि साहित्य में घाघ से घाघ लोग दौड़ रहे हैं। रेग रहे ह्रैं। उसे रेंगना पसंद नहीं था। उसे तो यह भी पसंद नहीं था कि वो जो लिखे उसे लोग चटकारे लेकर चर्चा न करें। वो जो लिखे उसपर बखेड़ा खड़ा हो जाए।
किया भी वही जो उसे भाया। उसने वही लिखा जिसे युवा और अधेड़ लोग पढ़ना पसंद करते। पसंद भी किया। तब क्या था उसका मिज़ाज ! उसकी तो पूछिए मत सातवां आसमान भी छोटा सा लगने लगा। शहरां के चौराहों पर बड़ी सी अंगूठी डाले कानों में झूमका और टेस लाल लिपिस्टिक लगाए छा गई।
शहर शहर उसके प्रकाशक ने खूब शोर मचाया। लिखने वाले लिखते हैं कि आह से उह तक का मज़ा है। शायद घुरनी का मकसद पूरा हुआ। सुना है छोटी छोटी कहानियों में भी हाथ आजमाने लगी है। अपनी जिंदगी जी रही है। घुरनी देह को परचम बनाने पर आमादा है।
कभी बीच सड़क पर तो कभी पहाड़ को ठेंगा दिखाती तस्वीरें लगा कर लड़कों को रात में परेशान करती है। परेशान हो भी क्यों न साहित्य में अदा जो पैदा की है।
उसके लिए साहित्य के मायने अलग हैं। साहित्य मतलब जो जी न सकी उसे जीना। जो सौंदर्य का इस्तमाल न हो सका तो वह सौंदर्य क्या। किताब की ओट में खूब करतब दिखा रही है घुरनी। सुना है वो साहित्य की डगर पर तेज भागने लगी है। गलबहियां तो उसके लिए कोई मसला ही नहीं है।
घुरनी एक बात कहूं, बुरा तो न मानोगी! ज़रा संभल कर चलना साहित्य की डगर पर। चारों ओर लोग ही लोग भीड़ ही भीड़ है। ख्ुद को बचाना घुरनी। वैसे तुम्हें लगेगा कि यह क्या पुराने जमाने के बुढ़े की तरह ताकीद कर रहा हूं। रेल में अपना कोई भी अंग बाहर मत निकालना। स्टेशन पर मत उतरना। किसी से दिया हुआ खाना मत खाना। समझता हूं तुम समझदार हो गई हो। दुनिया तुमने भी तो अपनी आंखों से देखी है। पर फिर भी रायबहादुर बन रहा हूं। ज़रा संभल कर घुरनी।

Wednesday, August 30, 2017

विश्वविद्यालय की छटपटाती अकादमिक आत्माएं यानी ताबूत की पहली कील




कौशलेंद्र प्रपन्न
विश्वविद्यालय है या मॉल्स, पांच सितारा होटल? कहां से कहां तक का सफ़र तय किया है हमने? इन पांच सितारानुमा संस्थानों में कौन पढ़ते हैं?
डॉ प्रज्ञा की कहानियों के पाठक जानते हैं कि प्रज्ञा अपनी कहानियों में यथार्थ को इस कदर पीरोती हैं कि वो इतिहास का दस्तावेज़ बन जाता है। इसी कड़ी में विश्वविद्यालयी उच्च शिक्षा के आंगन में किस प्रकार प्राइवेट पब्लिक इंटरवेंशन हो रहे हैं उसे करीबी से महसूसा और कलमबद्ध किया है। यह कहानी दरअसल अकादमिक की छटपटाहट को ज़बान देने की कोशिश है। ताबूत की पहली कील कहानी वास्तव में विश्वविद्यालय में बाज़ार और वैश्विक गैर शैक्षिक ताकतों का प्रवेश काल की चालों का कागज पर उतारा गया है। प्रो अनिल सद्गोपाल 1989-90 के दौर को याद करते हुए कहते हैं कि 1989-90 में विश्वविद्यालय के तमाम अकादमिक दल ने बिना किसी विरोध के खामोश होकर स्वीकार किया। इसी का परिणाम है कि आज हमारे विश्वविद्यालय वैश्विक बाजार के तय मापदंड़ों पर खुद को बदलने के लिए विवश हैं। लेकिन इस कहानी में डॉ रमन बड़ी शिद्दत से इस बदलाव और पीपीपी का विरोध करते हैं।
द्वंद्व में जीने वाला डॉ रमन अंत में वही रास्ता चुनता है जो उसके लिए अभिष्ट है। साथ प्रो. साथी उस रमन को जानते थे जो खुल कर शिक्षा-शिक्षण को तवज्जो दिया करता था। लेकिन जब डॉ रमन पर प्रशासन व प्रबंधन समिति दबाव बनाती है कि वो शिक्षक,बच्चां के पक्ष में सोचने की बजाए प्रबंधन के हिस्से की सोचें। डॉ रमन का आत्म संघर्ष जीतता है और अह्ले सुबह अपना इस्तीफा फेज देते हैं। लेकिन इस पत्र की व्याख्या और रूप में की जाती है।
डॉ रमन का जाना दरअसल एक अकादमिक का प्रबंधन से दूर होना है। प्रबंधक हमेशा प्रबंधन की भाषा बोलते और समझा करते हैं। आनन फानन में एक ऐसे विश्वास पात्र धड़ को चुनता है जो प्रबंधन के आगे बिछने में गुरेज नहीं करता। अकादमिक समूह कॉलेज के सौदर्यीकरण में जुट जाते हैं। अपने कॉलेज को बेहतर ग्रेड मिले इस लालसा में हॉस्टल के मलबे को ढक दिया जाता है।
और अंत में कॉलेज को ए ग्रेड मयस्सर होता है। चारों ओर खुशियां ही खुशियां। लेकिन डॉ रमन अपनी आंखों के सामने तमाम मंजर को देख रहे हैं और एक ख़त लिखते हैं जो डॉ प्रज्ञा की सृजनशील मना का परिचय देता है। पठनीय तो है ही यह कहानी साथ ही जो शोध छात्र विश्वविद्यालय के आंगन में पीपीपी के प्रवेश और परिणामों का अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिए एक अच्छा सुगठित दस्तावेज़ साबित होगा।

Tuesday, August 29, 2017

बहुभाषिकता और प्राथमिक कक्षा में शिक्षण




कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रो. निरंजन सहाय, हिन्दी विभाग काशी विद्या पीठ में प्राध्यापक, ने बहुभाषिकता पर बोलते इस ओर इशारा किया कि भारत विविध भाषा-भाषी देश है। यहां एक भाषा की मांग करना और मानक भाषा के नाम पर अन्य भाषाओं को मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। राष्टीय भाषा की मांग और स्थानीय भाषा की उपेक्षा हमारी कक्षाओं और स्कूलों में होती हैं।
स्थानीय भाषा और मानक भाषा कहीं न कहीं गंभीर मसला है इसे संविधान की नजर से भी देखने की आवश्यकता है। संविधान में शामिल और मानित 22 भाषाओं के एत्तर भी तो भाषाएं हैं जिन्हें स्कूली पाठ्यक्रमों और पढ़ने पढ़ाने दूर किया जाता है। यही कारण है कि सूची से बाहर खड़ी भाषाएं कभी भी स्कूली शिक्षा के अंग नहीं बन पातीं।
प्रतिभागियों के सवालों के जवाब प्रो. सहाय ने बड़ी शिद्दत से दिया। उन्होंने कहा कि मानक भाषा और स्थानीय भाषा में अंतर होना लाजमी है। जैसे प्रेमचंद और प्रसाद की भाषा में। हालांकि दोनों ही एक समय के लेखक रहे हैं। वैसे ही तुलसी और सूर की, जायसी की आदि की भाषा अवधि होते हुए भी स्थानीयता को लिए हुए है।
हमें कक्षा में बहुभाषिकता का सम्मान करना होगा। साथ बहुभाषिकता को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
इस व्याख्यान माला में केंद्रीय शिक्षा संस्थान के डॉ. वंदना सक्सेना, पीएचडीत्र एम फिल के छात्रों के साथ ही पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अध्यापक उपस्थित थे।

Monday, August 28, 2017

बाबा रे बाबा!!!!


ऐसो बाबा देखो रे देखो ऐसो बाबा कैसे उधम मचायो रे रे। अब कैसे ऐसे बाबाओं पर विश्वास किया जाए। जब कभी हमारे घर, गांव देहात में कोई बाबा देखे जाएं तो हम उन्हें एकबारगी अपने घर में न आने दें।
एक बाबा मेरे घर में आया करते थे। वो घर में सब के साथ प्रवचन दिया करते थे। हमें तब बहुत समझ में नहीं आता था। लेकिन यह समझते थे कि वो जब भी आते थे अपने साथ हमारे लिए टाफी लेकर आते थे। हमारे चेहरे पर खुशी दौड़ जाती थी।
अब तो लगता है कि हाल के सालों में बाबाओं के रंग रूप उभर कर सामने आए हैं सच्चे बाबाओं को शंका और शक का सामना करना होगा।
न्याय और कानून की गति बेशक धीमी हो सकती है लेकिन बाबाओं के संबंध में जिस प्रकार से कार्यवाही की गई है उससे आशा की किरण दिखाई देती है।

Friday, August 25, 2017

कोर्स कुछ, जॉब कुछ और किया जिंदगी यूं ही जीया



कौशलेंद्र प्रपन्न
उन्होंने पीएचडी की। की भी तो अच्छे संस्थान से। पीएचडी के बाद उन्होंने बी.एड भी कर डाली। सोचा कम से कम स्कूल मास्टर तो बनना तय है। लेकिन स्कूल ने लेने से मना कर दिया। आप पीएचडी जो थे। प्रिंसिपल दबाव में आ गई। हमें इतने पढ़े लिखे की जरूरत नहीं। ऐेसे लोग सवाल ज्यादा करते हैं।
बी ए के बाद वो दुकान पर बैठा करते हैं। नून तेल, क्रीम बेचा करते हैं। सोचा था कि जिंदगी में वैज्ञानिक बनेंगे। लेकिन बन गए दुकानदार। वैसे दुकानदार बनने में भी कोई हर्ज नहीं। फिर कॉलेज में समय क्यों जाया किया।
एम एस सी की। फस्ट क्लास से पास किया। सोचा लाइब्रेरी साइंस का कोर्स कर लें। कम से कम स्कूल, कॉलेज में किताबों के बीच रहा करेंगे। क्योंकि आंखों से देख रखा था उन्होंने कि पीएचडी किया हुआ उनके कॉलेज में लाइब्रेरी प्रोफेशनल काम कर रहा था। कई कॉलेज में पढ़ा चुकने के बाद भी कॉलेज ने उन्हें नहीं अपनाया। आखिर में रोटी किताब घर दे रही थी।
हमारे आस पास कई रायबहादुर हुआ करते हैं एक राय मांगों उनके पास हजारां रायें मिल जाएंगी। खुद तो कुछ कर नहीं पाए लेकिन राय देने का काम बखूबी करते हैं। राय देने की लत जो कहिए कुछ भी कोर्स बता देंगे। और मानने वाले पहले से ही कन्फ्यूज होते हैं कि अंत में झक मार कर बताए गए कोर्स में दाखिल हो जाते हैं। बेशक उनका मन लगे न लगे। उनपर हुआ सरकार का खर्च तब बेकार हो जाता हैजब वे अपने कोर्स के अनुरूप उसी क्षेत्र में काम नहीं करते। एक प्रोफेशनल को बनाने में सरकार और अपने बाप की भी अच्छी लागत आती है।आज यह कहावत सही लगती हैकि पढ़े फारसी बेचे तेल।यानी पढ़ाई के अनुसार जॉब न करना व नहीं मिलना।
आज ऐसे युवा और प्रौढ़ खूब मिलेंगे जिनकी रूचि कुछ पढ़ने की थी किन्तु कुछ कारणों से वे पढ़ नहीं पाए। जो पढ़ाई की उसमें नौकरी का अवसर नहीं मिला। बस जिंदगी में रोटी मिल रही है।जिंदगी इन ख्यालों में कटरहीहै कि हम भी तो तुरम्मखां थे। आज हम भी वहां होते जहां फलां दोस्त है।



Thursday, August 24, 2017



स्कूल की दीवार
कौशलेंद्र प्रपन्न
सीमा पर दीवारें, कांटे, तार दिखें तो अचरज नहीं होता। एक डर वहां पर काम करता है। सुरक्षा हमारी प्राथमिकता होती है। अनधिकार प्रवेश की िंचंता और असामाजिक व्यक्तियों की आवाजाही न हो यह हमारी प्राथमिकता होती है।
स्कूल में उंची उंची दीवारों, कटिले तारों का मुरेठा बांधे खड़ी दीवारें हमें डराती हैं। गोया बच्चे न हुए किसी कैदी के साथ हम बरताव कर रहे हैं। कहीं वे भाग न जाएं। कहीं बाहर से कोई आ न जाए।
देश के तमाम स्कूलों में यह नजारा देखा जा सकता है। सरकारी हो या निजी हर स्कूल की दीवार उंची हुआ करती है केवल उंची हो तो समझी जा सकती है लेकिन उन दीवारों के मुरेठे कटिले तारों से बंधे होते हैं।
गांव व शहर के स्कूलों में जिनके पास दीवारें एवं गेट नहीं हैं वहां बडे आराम से आस पास के लोग अपना ऐशगाह बना लेते हैं। साथ ही गाय,भैंस वहीं चरती विचरती हैं। ताश के खेल नशाकेंद्र में तब्दील होते देर नहीं लगती।
स्कूल और बच्चों की सुरक्षा के लिए दीवार और गेट लाजमी हैं। हो भी क्यों न कई सरकारी स्कूलों की दीवार फांदते बच्चे शहर और महानगरों में देखे जाते हैं। कंटिले तार इसी लिए लगाए जाते हैं ताकि बच्चे आसानी से दीवार लांघकर बाहर न जाने पाएं।
सवाल यह उठता है कि स्कूल क्यों ऐसा माहौल मुहैया नहीं करा पाता कि बच्चे स्कूली की दीवार ही न फांदें। क्यों बच्चों को स्कूल अपनी ओर नहीं खींच पाते? यदि स्कूल रोचक और आनंददायी हो जाएं तो संभव है हमारे स्कूल बिना दीवार के हो जाएं। तभी शायद बच्चे स्कूल से बाहर नहीं बल्कि स्कूलों में अपनी कक्षाओं में मिलेंगे।

Wednesday, August 23, 2017

कि टेरेनवा बैरी ना



कौशलेंद्र प्रपन्न
भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी में जिस शिद्दत से नाटक और गीत लिखे उसका तोड़ सच में नहीं है। टिरेनवा बैरी ना यह गीत भी बहुत दिलचस्प है। पिया को लिए जाए रे... टिकसवा पानी बुनी में बिला जाए रे, टिरेनवा न आए आदि की प्रार्थना नायिका करती है। नायिका की नजर में पति को टिरेनवा चुरा कर ले जा रही है। कलकता जा कर काली जादूगरनी के फेर में पति फंस जाएगा। कुछ ऐसे भावों को भिखारी ठाकुर ने गूंथा है।
कैफियत एक्सप्रेस भी बेचारी पटरी से उतर गई। पिछले हप्ते मुज़फ्फरनगर के पास टिरेनवा जमीन पर लेट गई। दोनां ही घटनाओं में लोगों की जानें गईं। अब आप ही बताएं एक विरहिनी क्यों न टिरेनवा को बैरी बताए। न जानें कितनी ही सांसें सदा सदा के लिए थम गईं। अब वे नहीं उठेंगे।
केई अपने बच्चों से मिलने परदेस से घर जा रहा होगा। किसी के बैग में खिलौने, चूड़ी, लहटा,उम्मीदें, ठिकोलियां रही होंगी। जो अब नहीं गूंजेंगी। कभी नहीं गूंजेंगी। कोई नौकरी के लिए निकला होगा गावं देहात छोड़कर। उसका का जग ही छूट गया।
उन टिरेनों में कितनी ही यादें, सपनें, उम्मींदें, सिसकियां और खेल-खिलौने खामोश हो गए। अब वे आंकड़ां और मुआवजों की गुहार में जिंदा होंगे।
टिरेनवा बैरी ही तो ठहरी। वैसे आती होगी खुशियों के संग लहराती हुई भी। कई के लिए पिया को लेकर आती है। और कई बार पिया को सदा के लिए चली भी जाती है।

Tuesday, August 22, 2017

वो मैंनेजर नहीं थे


कौशलेंद्र प्रपन्न
वो मैंनेजर नहीं थे। वो शुद्ध अकादमिक थे। पढ़ने पढ़ाने में डूबे रहने वाले जीव थे। अचानक उन्हें आफर आया कि क्या वो मैंनेजर बनेंगे? मैंनेजमेंट चाहती थी कि कोई संस्थान का ही हो। विश्वासपात्र ते हो ही पहली शर्त थी।
विश्वास पात्र का मतलब समझ गए हांगे। कुछ दिन माह तो वो अकादमिक कामों से छूटे रहे। लेकिन कब तक खुद को रोक पाते। सो कभी कभार पढ़ाने भी लगते। लेकिन यह काम मैंनेजमेंट को पसंद नहीं आई। उन्हें कहा गया आप संस्थान को इस तरह तैयार करें कि बाहर वाले जांच में आएं तो ए ग्रेड दे कर जाएं।
... हालांकि वो दिखावे के खिलाफ थे। वो बच्चों, शिक्षकों का सम्मान करते थे। दिक्कत यहीं हुई। पुराने वालों को समझने में परेशानी हुई कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं। लेकिन हाइहैं वहि जो राम रचि राखा। उनपर रोज दिन दबाव बढ़ने लगे। जब कभी कुछ लिखने पढ़ने बैठते तभी टुन टुना बज जाता। बच भी कैसे सकते थे।
दबाव सहने की आदत जो नहीं थी। जो काम उन्हें मिला था। उसमें मैंनेजमेंट का पार्ट नहीं था। रात तकरीबन आधी हो चुकी थी। वो उठे और एक चिट्ठी लिख डाली। सुबह देर से उठे। फोन घन घनाते रहे। चिट्ठी भेज दी गई।
...कहा गया नए साहिब आए हैं। उनका मानना है कि लोग अपनी मेल हमेशा चेक किया करें। कभी भी कामों की मेल व वाट्सएप पर थ्रो हो सकती है। कई लोगों को परेशानी तो हुई। लेकिन मरता क्या नहीं करता। सो आनन फानन में बच्चों की मदद लेकर स्मार्ट फोन चलाना बड़ों के लिए एक पहाड़ सा था। लेकिन पहाड़ पार करना भी जरूरी हो गया था।

Monday, August 21, 2017

जो लिखेगा वो छपेगा



कौशलेंद्र प्रपन्न
श्रीकान्त वर्मा की कविता की पंक्ति उधार ले कर कहूं तो जो रचेगा वो कैसे बचेगा। जो बचेगा वो कैसे रचेगा।
जे लिखेगा वो छपेगा। जो लिखेगा ही नहीं तो छपेगा कैसे? छपने के लिए लिखना पड़ता है। और लिखने के लिए छपना भी जरूरी है। छपने से लेखक का मनोबल बढ़ता है। जैसे जैसे लेखक लिखने लगता है वैसे वैसे वह छपने भी लगता है। छपते भी वही हैं जो अपने लेखन में स्तर और गुणवत्ता को बनाए रखते हैं। हालांकि कई बार बड़े बड़े लेखक की रचनाएं भी कई बार निराश करती हैं।
लिखने के लिए कंटेंट की आवश्यकता होती है। कई बार कंटेंट बेशक खराब हो लेकिन लेखक अपनी दक्षता, कौशल और शैली की बदौलत खराब से खराब कंटेंट को भी पठनीय बना देता है। हजारी प्रसाद द्विदी ने तो कुटज, नाखून क्यों बढ़ते हैं जैसे निबंध लिख डाले।
छोटी छोटी चीजों पर भी लेखकों ने अपनी शैली और अभ्यास से पठनीय बना दिया। दरअसल लेखन भी एथलीट और खिलाड़ियों की तरह होता है। रोज दिन लेखन के अभ्यास से लेखनी निखरती है। बिना अभ्यास के खिलाड़ी मैदान में ज्यादा दिन नहीं ठहर सकता।
लेखक भी रोज लिखता-पढ़ता रहता है तो उससे उसकी लेखनी और वर्तमान लेखनी से वाकिफ रहता है। वह अपनी शैली को अभ्यास और अध्ययन से पैना करता रहता है। मजे मजे में और केवल आनंद के लिए लिखने वाले एक ख़ास समूह तक ही पहुंच पाते हैं। सर्वजनीन बनने के लिए शैली और कंटेंट के साथ बरताव अहम हो जाता है।

Sunday, August 20, 2017

वे पूछते हैं मॉरल कहां है...


प्ांचतंत्र, जातक कथा, कथा सरितसागर आदि में शामिल कहानियां ने हमारे दिलो दिमाग को कंडिशन्ड कर दिया है। हम हर कहानी में कोई न कोई मूल्य, नैतिकता के पाठ ढूंढ़ते हैं। फलां कहानी में क्या नैतिक शिक्षा मिलती है आदि सवालों के जवाब की तलाश में कहानी की आत्मा की हत्या कर देते हैं।
दिल्ली या दिल्ली के बाहर रहने वाली शिक्षिका साथी सवाल करती हैं कि इस कहानी में क्या नैतिक शिक्षा बताएं तब उन पर कम सबसे ज्यादा खुद पर सवाल खड़ा करने का मन करता है कि हमने भावी शिक्षक/शिक्षिकाओं को इस तरह से अकादमिक और शैक्षिक सवालों, उलझनों से जूझने के लिए क्यों तैयार नहीं किया। यदि एक शिक्षिका/शिक्षक तकरीबन पंद्रह बीस सालों के शिक्षण तजर्बे के बाद इस सवालों से परेशान है तो इसका अर्थ हुआ हमारी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों ने हमारे शिक्षकों को मजबूती से तैयार नहीं किया।
कई बार लगता है शिक्षकों को एक एथलीट और खिलाड़ी की तरह खुद को रोज प्रैक्टिस में लगाना चाहिए। यदि खिलाड़ी अभ्यास न करे तो मैदान में वह प्रदर्शन नहीं कर पाएंगे। शिक्षकों को भी अपनी दक्षता, हूनर को रोज दिन मांजना अपने प्रोफेशन के साथ न्याय करना होता है।
इस तरह के सवालों पर बाल कृष्ण देवसरे, प्रकाश मनु, क्षमा शर्मा, शेरजंग गर्ग, पंकज चतुर्वेदी आदि ने गंभीरता से विमर्श किया है। इन लेखकों की रचनाएं और किताबें हमारी दृष्टि को साफ ही करती हैं।

Thursday, August 17, 2017

प्याले मोदी चाचा


नमस्ते।
हम तो जा लहे हैं। कुछ तो चले गए, बचे हुए भी जल्द चले जाएंगे। आपकी दुनिया से। इक बात कहना चाहता हूं चाचा कि मेरे जाने के बाद हमरे माई बापू को पलेसान मती कीजिएगा। उन्होंने तो हमें अस्पताल पहुंचाया। प्याल कलते थे हमसे। उन्होंने नहीं माला। हमरे छोटे योगी चाचू को कहिएगा कि वो हमारे जाने के बाद हमारे घर में रोने मत जाएं। क्या है चाचा कि बढ़की आई उनको देख कर औरे रेने लगेगी।
मोदी चाचा! आपको भी नेहरू चाचा की तरह हमसे प्याल हैं न। जहां भी जाते हैं वहां बच्चों से जलूल मिलते हैं। हमको तो आप चचा ही लगते हैं। पकल बार दाढ़ी आपकी भी है और हमरे दादू के भी बार सन्न सफेद हो चुके हैं। तो मोदी चाचा हमरे जाने पर दो मिनट की चुप्पी मत रखिएगा स्कूलों में। क्योंकि न तो मेरा चेहरा आपको बंद आंखों में आएगा और न योगी चाचा ही हमरी माई के लोर पोछ पाएंगे।
अच्छा ही हुआ चचा कि हम अपनी उम्र जीने से पहिले आपके स्वच्छ भारत से चले गए। जीते तो जाने क्या से क्या और होते। शायद किसी भट्ठे पर या दुकान में काम कर कर के अपनी रीढ़ तोड़ रहा होता। कोई कैलाश अंकल को नोबल मिल भी मिल गया। हमरी कौन सुने चचा। जिंदा रहता तो स्कूल भी जाता। आपकी स्कील इंडिया प्लान को थोड़ा गंदला ही करता। हमरी तरह के और भी तो बच्चे हैं चचा जो स्कूल भी नहीं जाते। आप कहते हैं सात करोड़ से भी जियादा हैं। तो चचा हम मर के उस संख्या को थोड़ा कम ही तो किए।
चचा एक बात बोलूं सुनेंगे न? हमरी जिबह हुआ है। हम तो रहे नहीं जे बदला ले पाते। अब आप हमरी चचा हैं। योगी चचा भी हैं। उन्हें मत छोड़िएगा जिन्होंने हमरी जान से खिलवाड़ की है।
आपकी
कारूसाव
गांव बेल
ग्राम ओबरा

Wednesday, August 16, 2017

देश मेरा रंगीला और पहाड़ी बच्चे





कौशलेद्र प्रपन्न
देश मेरा रंगीला और अपना उत्तराखंड़ प्यारा आदि गानों के साथ बच्चों में उत्साह देखने लायक था। इन बच्चों ने राष्टीय गीतों और अन्य गानों से मन तो मोह ही लिया साथ ही इनकी सहजता और भोलापन भी कमाल का था।
कणाताल, उत्तराखंड़ के सरकारी स्कूलों में कक्षा सातवीं और पांचवीं के बच्चों ने कविताएं भी सुनाईं। अंग्रेजी की कविता को धाराप्रवाह गा कर सुनाया। बस मतलब पूछा तो अवाक् रह गए। क्योंकि अर्थ शायद बताए नहीं गए। या फिर इन्हें अर्थ नहीं आते थे। थोडी मदद की कि इसमें कहा गया है कि मेरा उत्तराखंड़ प्यारा है। प्रकृति की गोद में सुंदर राज्य है। पेड़, पहाड़ बहुत प्यारे हैं। यहां के लोग हंबल, निश्छल और प्यारे हैं।
यहां की नर्सरी कक्षा की मैम रचना पोखरियाल से भी बात हुई इन्होंने कहा यहां पढ़ने की ललक बच्चों में दिखाई देती है। स्कूल आठ बजे का है लेकिन बच्चे सात बजे तक आ जाते हैं।

Friday, August 11, 2017

जॉब के लिए क्या करें बॉस!!!



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों तीन लोगों से बात हुई। इसमें कोई नई बात क्या है? आप सभी की भी किसी न किसी से बात होती ही रही होगी। लेकिन इस बातचीत में कुछ तो ख़ास था। कुछ तो ऐसे ताप रहे होंगे कि आप सभी से साझा करने को मचल उठा। बात छोटी है पर है बड़ी गंभीर।
उन्होंने कहा, पढ़ाना उनके लिए कोई दिक्कत की बात नहीं। पढ़ाते ही रहे हैं। प्रशासनिक काम भी देखते रहे हैं। लेकिन पिछले दो एक सालों में प्रशासनिक काम पढ़ने-पढ़ाने में इस कदर लद गए हैं कि पढ़ाने की चाह को दबाना पड़ रहा है। उन्हें दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग में काम करते हुए तकरीबन बीस साल हो चुके हैं। उन्होंने विभिन्न शैक्षिक संस्थानों के साथ मिल कर काम किया है। करिकूलम, टेक्स्टबुक आदि भी बनाया है। अब रोज आरटीइ के जवाब दे देकर और फाइल के पेट भरने में लगे हैं।
दूसरी बातचीत सहायक प्राध्यापक से हुई। उनके पास भी बीस पचीस सालों का तर्जबा है। अच्छा लिखती-पढ़ती हैं। इनका भी अनुभव किताब, पाठ्यपुस्तक निर्माण, करिकूलम आदि में महारत हासिल है। लेकिन कहने लगीं जॉब बचाने के लिए बेकार से काम करने पड़ रहे हैं। गैर शैक्षिक कामों में झोके जाने की शिकायत सिर्फ उनकी ही नहीं है बल्कि स्कूली शिक्षक भी ऐसी ही शिकायत करते हैं। इनकी कौन सुनता है। प्रशासन और सत्ता ऐसी शिकायतों पर ध्यान नहीं देती। उन्हें रिपोर्ट और फाइल पूरी चाहिए। वीआरएस लेकर स्वतंत्र रूप से काम करने की इच्छा दोनों ने ही अपनी बातचीत में व्यक्त किया।
कहना तो नहीं चाहिए कि ये कितने सौभाग्यशाली हैं कि उनके पास नौकरी है। नौकरी है तो आर्थिक चिंता से दूर भी हैं। ज़रा उनकी सोचें जिन्हें ऑटोमेशन के बरक्स अपनी नौकरी गवानी पड़ रही है। एक निजी आइटी कंपनी ने अपने वीसी और अन्य उच्च पदों पर काम करने वालों को विकल्प दिया कि नौ माह की सैलरी लेकर कंपनी को अलविदा कर दें। कुछ वक्त लगा लेकिन अब ख़बर आई है कि सब ने यह ऑफर स्वीकार कंपनी से बाहर हो गए।
इन दिनों आइटी सेक्टर पर ऐसी घटनाएं आम हो चुकी हैं। एचसीएल, सन फार्मा, टेक महिन्द्रा आदि ने अपने यहां स्टॉफ कम करने शुरू कर चुके हैं। बाजार में नौकरियां सिमटी जा रही हैं। ख़ुद की नौकरी बचाए रखने के लिए आइटी सेक्टर के लोग विभिन्न संस्थानों से खर्चीले कोर्स कर रहे हैं जो ऑटोमेशन से लड़ने के स्कील दे सकें। एक कोर्स की कीमत तीन से चार लाख है।
ज़रा सोचिए शिक्षण कर्म में ऐसी कोई ऑटोमेशन की तलवार नहीं लटकी हुई है। न किसी टीचर की नौकरी अचानक रातों रात जा सकती है। वहीं दूसरी ओर बाजार में शाम तक आपने काम किया और सुबह गेट पर ही आपने लैपटॉप, आइकार्ड आदि मांग ली जाती है और कहा जाता है कि एचआर से मिल लें। वह सुबह और शाम कैसी होती होगी।
लेकिन हमारे टीचर को अपनी स्कील को मांजने और खंघालने की आवश्यकता है। ताकि बच्चां को आने वाली चुनौतियों से सामने करने में मदद मिल सके।

Thursday, August 10, 2017

हमरा के पार लगा द फिर जइह



कौशलेंद्र प्रपन्न
करवट बदलते हुए उन्होंने कहा,
‘हमरा के पार लगा द फिर जइह’
‘हमरा के अकेले मत छोड़िह’
...और ओंखों में लोर ढुलक रहे थे। चाची ने देखा तो उनकी तो सांसें थथम गई। आज सुबह सुबह इनको क्या हो गया।
लेकिन कुछ समझ पातीं कि तभी बोल उठे ‘ मन बहुत घबराता है।’ मेरे जाने के बाद तुम्हारा क्या होगा।’
रात भर उन्हें नींद नहीं आई। बार बार चाची पूछ रही थीं बताइए क्या हुआ? क्यों ऐसी बात कर रहे हैं। वो तो किसी और ही लोक में थे।
अचानक हिचकी को रोकते हुए कहने की हिम्मत की कि देखो आज मैं जिंदा हूं। मेरे ही सामने तुम्हें उसने इस तरह से सुनाया। सुनाया नहीं बल्कि तुम्हें मारा ही नहीं बस। मैं खून के आंसू बहाता रहा। कुछ बोल नहीं सका। पता नहीं क्यों मैं चुप रह गया। लेकिन मैं नहीं चाहता कि मेरे जाने के बाद तुम्हारी फजीहत हो।
हमने छह छह बच्चों को पाल पोस कर बड़ा किया। उफ् तक नहीं की। और आज यह स्थिति देख कर लगता है इन्हें पैदा ही नहीं करते।
वो अपनी ही रव में रोए भी जा रहे थे और कह भी रहे थे जिसे काफी दिनों से गले में दबा रखी थी।
मुझे पार लगा दो। मैं तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकता। उनके इस बात पर चाची का मन किया कस के डांटें। लेकिन वो थे कि रोए जा रहे थे। और पार लगाने की बात कर रहे थे। आप कितने स्वार्थी हैं जो अपने पार उतरने की तो बात कर रहे हैं लेकिन आपके जाने के बाद मेरा क्या होगा?
... कुछ ही दिन हुए सुबह टहलने नहीं गए। नींद ही नहीं खुली। चाची ने उठाया तो फफक कर रोने लगीं।
आख़िर जिंद्द पूरी ही कर ली। देखते न देखते दो माह गुजरे हांगे। ठीक वही समय रहा होगा। चाची भी उनसे मिलने चलीं गईं। अब घर भर में रौनक है। खुशियां हैं। किसी को चिंता नहीं सताती कि चाची और वो किसके पास रहने वाले हैं। वो चार आंखें हमेशा के लिए सो गईं।

Wednesday, August 9, 2017

मोर नहीं वो तो पेड़ है..



सामने चल रहे मोर को देख कर कहा देखो देखो!!! मोर।
कितना सुंदर लग रहा है।
पाखी ने कहा, ‘मोर नहीं है वो’
‘ध्यान से देखो, वो तो चलता फिरता पेड़ है।’
मैं औचक रह गया। यह क्या? भला मोर पेड़ कैसे हो सकता है। लेकिन हुआ वही। पाखी ने उसे पेड़ कहा तो वह कल्पनाशील मना बच्ची की नजर थी। बंधे बंधाए फ्रेम में चीजों को देखने, समझने और ग्रहण करने को विवश मन हमारा जड़ और गौंण अर्थों को ही पकड़ता है।
राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 बच्चों की कल्पनाशीलता को बढ़ाने की बात करता है। वह मानता है कि बच्चों को कल्पनाशील होने का अवसर हमें देना चाहिए। इस दर्शन को ध्यान में रखते हुए पूरी पाठ्य पुस्तकों का लेखन किया गया। लेकिन कक्षायी अनुभव बताते हैं कि शिक्षक आज भी क कबूतर और अ से अनार ही बताते हैं। बाल अनुभव और कल्पनाशील मन को सोचने और चिंतन करने का अवसर हमें दे कर तो देखें फिर परिणाम इसी तरह के मिलेंगे।
ऐसे में हमें बच्चों के जवाब को स्वीकारने की क्षमता और उदारता दिखानी होगी। हमें यह भी स्वीकारने होंगे कि बच्चों की दुनिया ऐसी कल्पनाएं भी कर सकते हैं जो हम बड़ों की सीमा के पार खड़ी होती हैं।
दूसरा संवाद-
‘चाचू आपने अपनी कार की लाइट क्यों जला रखी है?’
‘जब सामने वाली कार की लाइट जल रही है तो आप अपनी लाइट बचाओ।’
‘ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी कार से अपनी कार की लाइट जला लें।’
यह बातचीत है अपने विभू की। जो काफी दिमाग लगाने के बाद और हिम्मत के बाद अपनी राय दी। अचानक से इस तरह की राय को बचकाना मान बैठने की भूल कर देते हैं। लेकिन ज़रा सोचिए कि दिल्ली जैसे शहर की सड़कों पर चकाचक लाइट होती हैं। उसपर हाई बिम्ब की लाइट जलाने की क्या आवश्यकता है? बिला वजह आंखों में ज्यादा चुभती हैं।
बाल मन को कल्पना करने की छूट और खुलापन हमें देना होगा। तब हमारे सामने बच्चों की दुनिया ख्ुलेगी और उड़ेगी भी।

Tuesday, August 8, 2017

सफाई करते मरो हे योगी...


तुम वेद के मंत्र ‘...पद्भ्याम शूद्रो अजायत्’ पांव से पैदा हुए हो। तुम्हारा जन्म ही हमारी सेवा करने, मल मूत्र साफ करने के लिए हुआ है। अगर इस सफाई और सेवा में तुम्हारी जान भी चली जाती है तो जाए। मैन्यू कि?
सेना बॉडर पर मरते हैं, क्षात्र धर्म निभाते हुए मरते हैं। वे तो क्षत्रिय हैं। उनकी मौत मौत नहीं। वह शहादत है। तुम ठहरे चौथे पायदान पर। तुम्हारी मौत के लिए दो मिनट का मौन भी हमें गंवारा नहीं। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तो कई बार तुम्हारी मौत पर सरकार को फटकार लगा चुकी है। लेकिन न तो सरकार जगती है और न नागर समाज।
तुम्हारी मौत कोई आतंकियों से लड़ते हुए नहीं होती। तुम्हारी मौत दुश्मन सेना की गोली से नहीं होती। तुम्हारी मौत होती हैसमाज की गंदगी साफ करते हुए। तुम्हारा योगदान ही क्या हैसमाज को? जो तुम्हारे लिए कोई आंसू बहाए।
तुम्हारा घर परिवार अंधेरे में जीता हैतो जीए। तुम्हारी मौत पर राखी का त्योहार ख़राब नहीं करता। तुम्हारे घर में मातम हो तो हो। हम तुमसे कहते हैंकल आना और सफाई कर जाना। त्योहार वाले दिन तो और भी गंदगी होती है।उसे कौन साफ करेगा।
मेन हॉल में जहरीली गैस होती हैतो हो। तुम्हें वही काम साजता है।हम विकास कर चुके हैं। हमारे पास दसियों फ्लाइओवर हैं। हमारे पास चमचमाते मॉल्स हैं। तुम्हारे पास क्या है। ले देकर साफ सफाई। वह चाहे तुम चिलचिलाती धूप में करे, सर्दी में करो या फिर बरसात में। तुम्हारे आस पास से बड़ी बड़ी गाड़ियां एसी की ठंढ़ी हवा पास करती चली जाएंगी। तुम्हारे हिस्से आएगा मेन हॉल में बजबजाती बदबू और कीचड़ में सना काला देह।

Friday, August 4, 2017

घुरनी बोली उठी...



कौशलेंद्र प्रपन्न
तीन महीने बाद ही सही लेकिन घुरनी ने आवाज तो उठाई। ऐसी आवाज की लोगों को विश्वास नहीं था। सबकी आंखें फटी की फटी रह गईं। वैसे घुरनी नहीं चाहती थी कि उसकी शिकायत लिखित में की जाए। लेकिन उसे मैनेजर ने हौसला बढ़ाया कि आवाज को लिख कर उठानी चाहिए और लिख कर दे गई अपनी आपबीति।
फरमान भी जारी हो गया। उसे समिति के सामने पेश होना हुआ। सवालों, शंकाओं और शक की चार गुणा दो यानी आठ आखें उसकी ओर उठ रही थीं। तो आपने ऐसा क्यों किया? आपके खिलाफ शिकायत दर्ज हुई है। आप तो हमारे ख़ास कर्मी रहे हैं। आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी। लेकिन ऐसा हुआ। आप क्या कहना चाहेंगे?
आप बोलते रहिए। क्या हम आपकी बात को रिकार्ड कर सकते हैं?
और वो एक रव में बोल रहा था। बोल रहा था उन तमाम घटनाओं की तहें खुल रही थीं। कब कैसे और किस हालात में ऐसी घटना घटी।
उसने बताया कि उसका मकसद घुरनी को चोट पहुंचा नहीं था। न भावनात्मक और न शारीरिक। लेकिन घुरनी मेरे व्यहार से चोटिल हुई। तभी तो यह बात यहां पहुंची। मुझे एहसास है कि मुझसे गलती हुई। गले लगाना और उसे गले लगाना तक तो ठीक था। लेकिन एक दिन गले लगाने की भाव दशाओं में गंदलापन आ गया। मैं स्वीकार करता हूं।
वह बोले जा रहा था। और आंखें भी उसकी बातों और भावों को साथ दे रही थीं। सामने बैठे चारों लोगों की आंखें भी बीच बीच में नम हो जातीं। क्योंकि जो बातें कही जा रही थीं उसमें एक पश्चाताप के ताप दिखाई दे रहे थे।
उसने कहा कि मुझसे गलती हुई। इसके लिए जो भी सज़ा सही लगे सदन के हाथ में है।
... और वो चुप हो गया।
सुना गया कि उस समिति में अपनी बात रखने के बाद वो वहीं नहीं रूका। न वो घर गया। और न दफ्तर। उसे कहा गया आप तब तक दफ्तर नहीं जाएंगे जब तक आपको कहा न जाए।
वो कहां गया किसी को भी मालूम नहीं। न उसके घर वालों को और दफ्तर वालों को। सभी की उत्सुकता बढ़ने लगी। घर वाले बेचैन उसे तलाशते रहे।
जब घुरनी को वो चार दिन तक दफ्तर में नहीं दिखा तो एक संतोष हुआ कि लगता है उसे रफा दफा कर दिया गया। लेकिन जब उसे पता चला कि वो गायब हो गया। कहां गया किसी को भी नहीं पता।
अब घुरनी थोड़ी उदास सी रहने लगी। उसने ऐसा तो नहीं सोचा था। और न ही ऐसा कुछ चाहा था। उसने तो बस उसे सबक सीखाने की चाही थी। घुरनी को एहसास था कि वो स्वभाव से गलत और खराब नहीं है। वो माहौल ऐसा बना कि उससे गलती हो गई। लेकिन इतनी बड़ी घटना भी नहीं थी कि उसे इतनी बड़ी सज़ा दी जाए।
हप्ता बीता, महीने गुजर गए। अब उसकी जगह पर कोई और बैठा करता है। अब उसके सिस्टम पर कोई और काम करता है। जब भी की पैड की आवाज आती है घुरनी को उसकी याद आती है।
लेकिन अब वो कहीं नहीं है। कहीं नहीं मतलब कहीं नहीं। बस उसके लिखे कुछ कतरे अभी भी दफ्तर में कहीं उसकी याद दिला जाती है। जिसे देखना नहीं चाहती। और कई बार उन शब्दों को पढ़़ भी लेना चाहती है। क्या लिखा करता था। कमाल है।


Thursday, August 3, 2017

घुरनी नंबरदार हो जाओ



कौशलेंद्र प्र्पन्न
घुरनी यह भी कितनी अच्छी बात है कि कोइ्र्र तुम्हें शर्मा, वर्मा, तनेजा, सिन्हा, मिश्रा,ठाकुर, चौहान आदि से नहीं पुकारेगा। न ही तुम्हारी पहचान तोमर, राणा से होगी। अभी तो तुम्हारी आवाज सुनते ही पूछ बैठते हैं आप उत्तराखंड़ से हैं? आप बिहार से हैं, या कि बंगाली लग रही हैं। और तुम्हें कितना ख़राब लगता है। जब सभी के सामने तुम्हारा नाम सुन कर जब यह पता नहीं चलता कि किस जाति की हो और लोग पूछते हैं सिर्फ घुरनी आगे आगे क्या? लोग जानना चाहते हैं तुम अपने नाम के पीछे क्या लगाती हो? तुम्हारे नाम,आवाज से लोग अनुमान लगाना चाहते हैं, जान लेना चाहते हैं कि तुम कहां से आती हो? उसपर काफी हद तक निर्भर करेगा कि वे लोग तुमसे कितना और किस तरह का रिश्ता रखें।
अच्छा ही हुआ तुमने अपना नाम बदल लिया। बल्कि तुमने तमाम संज्ञाओं को छोड़ संख्यावाची पहचान को चुना। संख्या की न कोई जाति होती है, न धर्म होता है, न राज्य और न ही क्षेत्र। वह तो महज नंबर होता है। तुमने तो सुना ही होगा एक एक्टर है 007 जेम्स बॉड। कितना अच्छा है ि कवह किस जाति का है पता ही नहीं चलता।
हमारे समाज में लोग नंबर से जाने जाएं जैसे 198031 जन्म वर्ष,और तारीख। इसका पैटर्न कुछ और भी हो सकता है। जैसे हम तारीख को महिना, दिन, और वर्ष से भी शुरू कर सकते हैं। पैटर्न छोड़ो घुरनी। वह तो बाद की बात है। पहले इस पर सहमत हो जाओ कि क्या नंबरदार बनना चाहती हो?
नंबरदार होने के बाद तुम्हारी पहचान होगी 0662000 समझ पा रही हो। 06 तारीख, 6 माह और 2000 वर्ष है। इसमें तुम्हारी भाषा, जाति, क्षेत्र सब की सम्मान तो हुआ ही साथ ही तुमसे कोई यह नहीं पूछेगा कि तुम्हारी जाति क्या है पार्टनर?
याद हो कि जेल में कैदियों के नाम नहीं होते। बल्कि उन्हें नंबरों से ही पहचाना जाता है। उन्हें नंबरों से ही पुकारा जाता है। जाति,वर्ग, धर्म विहीन जेल समाज में कितना अच्छा है कि सबकी पहचान नंबरां से हुआ करता है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...