हाल में जिस शिक्षक की शिकायत पर उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक परिवर्तनकारी निर्देश जारी किए जिसकी प्रशंसा चारों ओर हो रही है जिसपर तमाम अखबारों, सोशल मीडिया एवं शैक्षिक जगत में तारीफ हो रही है उसी शिक्षक को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। उस शिक्षक को बर्खास्त किया जा चुका है। एक शिक्षक कैसे आवाज बुलंद कर सकता है। सत्ता इस आवाज को किसी भी कीमत पर सुनने को तैयार नहीं है। शिक्षक वर्ग को माना ही जाता है कि यह महज आज्ञाकारी होना चाहिए। यह वर्ग सिर्फ और सिर्फ आदेशों का पालन करने के लिए बना है। वह आदेश गैर शैक्षिक कामों में लगाने का हो या फिर शिक्षण प्रशिक्षण जैसे गंभीर कर्म। शिक्षक सिर्फ पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों को पूरा कराने वाला सस्ता और सुलभ साधन मात्र है। जब भी किसी शिक्षक ने अपनी स्थिति और पद के विपरीत आवाज उठाने की कोशिश की है तब तब उसे फरमान पकड़ाए गए हैं। लेकिन इन तमाम परिघटनाओं पर नजर डालें तो यह सहज ही जान पड़ता है क्योंकि शिक्षक की अपनी न तो कोई सत्ता होती है और न सामाजिक पहचान ही। समाज इस वर्ग को जिस नजर से देखता है उसमें भी एक कातरता और बेचारगी का भाव होता है। एक शिक्षक ने प्राथमिक स्कूलों में हो रहे शैक्षिक परोड़ों का समाज और न्यायपालिका के समक्ष रखने की कोशिश की। लेकिन उसकी आवाज और छटपटाहटों को सत्ता और सरकार जिस रूप में ली यह किसी से दबा-छुपा नहीं रहा।
गौरतलब है कि शिक्षक की सामाजिक हैसियत और सत्तायी चरित्र को हमेशा से ही कमतर आंका गया है। जबकि शिक्षण और शिक्षक की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। यदि एक शिक्षक कम पढ़ा लिखा व खास वैचारिक पूर्वग्रह का है तो वह हजारों लाखों बच्चों को प्रभावित करता है और उसी के अनुरूप गढ़ता है। इस खतरे को हम देख नहीं पा रहे हैं। याद हो कि सन् 2009 के आसपास बिहार सरकार ने प्राथिमक स्कूलों में शिक्षा को ठेके पर यानी तदर्थवाद के हाथों सौंप दिया। हजारों गैर प्रशिक्षित स्नातकों, परास्नातकों के हाथों बिहार की प्राथमिक शिक्षा को सौंप दिया गया। जिन्हें मानदेय के नाम पर 4000 से 6000 पर रखा गया। इस तरह से वहां की प्राथमिक शिक्षा को गैर प्रशिक्षित शिक्षकों के हाथों सौंप कर सरकार फारिक हो गई। इसके परिणाम एक दो सालों के बाद आने शुरू हुए। बल्कि कहना चाहिए कि इस तरह से गैर प्रशिक्षित शिक्षकों के हाथों सौंपे गए प्राथमिक शिक्षा के परिणाम आने में थोड़ा वक्त लगता है लेकिन उन परिणामों के भयावहता को भांप कर डर लगता है। आज की तारीख में पूरे देश भर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को देखते हुए घोर निराशा होती है। बच्चे कक्षा 3 री, 5 वीं व आंठवीं में पढ़ते तो हैं लेकिन उन्हें भाषा, गणित, विज्ञान आदि विषयों की समझ, ज्ञान एवं कौशल अत्यंत कमतर होते हैं। इस बाबत कई सारी रिपोर्ट सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं से हर साल आती रही हैं। लेकिन सरकार की नींद नहीं खुलती। सरकार बस पूरी कोशिश में है कि किसी भी तरह से सरकारी स्कूलों को नकारा साबित कर प्राथमिक स्कूलों को बंद किया जाए और यह काम जिनी कंपनियों के हाथों गिरवी रख दी जाए। सरकार इस मनसा में तेजी से आगे बढ़ भी रही है। यदि 2014-15 के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि विभिन्न राज्यों में सरकारी स्कूलों को बंद कर दिए गए। राजस्थान में 1800, छत्तीसगढ़ में 3000, उत्तराखंड़ में 4000 एवं अन्य राज्यों मंे भी सरकारी स्कूलों मंे ताले लगाने के प्रयास किए जाए रहे हैं। इन बंद किए गए स्कूलों के पीछे सरकारी तर्क शास्त्र यह है कि हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं है। हमारे पास शिक्षक नहीं हैं आदि। इन तर्कों की रोशनी में देखें तो आरटीई स्पष्ट मानती है कि हर स्कूल में प्रशिक्षित शिक्षक, 31 और 1 का अनुपात एवं भवन होने चाहिए। इन दृष्टि से देखें तो अमूमन सरकारी स्कूलों के पास जमीन है। भवन भी हैं किन्तु जर्जर हालत में हैं। उन्हें दुरूस्त करने की बजाए निजी हाथों में देने के लिए सरकार बेचैन है। उत्तराखंड़ में तो एक निजी संस्थान को सरकारी स्कूलों को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी जा चुकी है।
जिस रफ्तार से सरकारी स्कूलों को नकारा साबित करने पर सरकारें तत्पर हैं उन्हें देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब सरकारी स्कूलों की बागडोर निजी संस्थानों के हाथों में होगी। ज़रा कल्पना कीजिए ऐसा होता है तो लाखों गरीब परिवारों के बच्चा कहां शिक्षा हासिल करने जाएंगे। यूं तो यूपी हाई कार्ट ने निर्देश तो जारी किए हैं लेकिन हजूर और मजूर के बच्चे किस स्कूल में पढ़ने जाएंगे। सरकारी की बेचैनी और चिंता सरकारी स्कूलों को बचाने की बजाए उन्हें अपने हाथों तर्पण करने की ज्यादा है। यह तर्पण का खेल 1990 सब के लिए शिक्षा यानी जेमितियन सम्मेलन के बाद शुरू हुआ था। इस सम्मेलन के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा सरकार की बजाए विश्व बैंकों और वैश्विक पूंजी से तय की जाने लगी। तत्कालीन शैक्षिक परिघटनाओं पर नजर रखने वाले प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिल सद्गोपल का मानना था कि यदि शिक्षा का इतिहास लिखा जाएगा तो यह एक दुखड़ माना जाएगा। क्योंकि इस सम्मेलन के बाद प्राथमिक शिक्षा का समूचा परिदृश्य ही बदल गया।
प्राथमिक शिक्षा और शिक्षक को जब तक पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों के निर्माण में सहभागिता सुनिश्चित नहीं जाएगी तब तक सकारात्मक परिवर्तन की कल्पना अधूरी ही रहेगी। शिक्षक स्वयं बेशक समाज में एक दिन में क्रांति न ला पाए किन्तु वह जिस बीजों को सींचता और पालता है वह एक दिन क्रांति के सबब बनते हैं। आज की तारीख में प्राथमिक शिक्षा को जिस हल्के में लिया जाता है यही वजह है कि हमारे बच्चे कक्षा 6 ठी तक पहुंचते पहुंचते या तो स्कूल से बाहर की दुनिया में खम जाते हैं या फिर जिस स्तर की शिक्षा हासिल करते हैं वह बड़ी चिंता में शामिल हो जाती हैं।
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