कौशलेंद्र प्रपन्न
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए उत्त्र प्रदेश सरकार को निर्देश जारी किया है जिसके निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। उच्च न्यायालय ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को निर्देश दिया है कि सरकारी नौकरी वाले,सांसदों, न्यायपालिका आदि से संबद्ध कर्मियों के बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ें। दूसरे शब्दों में हजूर और मजूर के बच्चे एक ही टाट पर बैठें। जहां उच्च और निम्न वर्ग का भेद न हो। यह अवधारणा नया तो नहीं है हां यह दिलचस्प जरूर है। जमीनी तल्ख़ हकीकत यह है कि आज सरकारी स्कूलों में उन्हीं परिवारों के बच्चे पढ़ने जाते हैं जो निजी स्कूलों के नाज़ नखरे नहीं उठा सकते। यूं तो मजूर और अशक्त मां बाप की भी तमन्ना यही होती है कि उनके बच्चे निजी स्कूलों में ही पढ़ें। लेकिन उनकी माली हालत साथ नहीं देती। बहुत पहले शिक्षा में यह बात जोर शोर से उठी थी कि सभी के लिए समान शिक्षा और समान स्कूल हों। ताकि समाज का ताकतवर और कमजोर वर्ग का बच्चा भी एक साथ शिक्षा हासिल करे। यदि इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि राजा और प्रजा दोनों के ही बच्चे एक समान स्कूल में ही पढ़ा करते थे। गुरुकुल की परंपरा यही बताती है कि गुरुकुल में राजा का बच्चा और आम प्रजा का बच्चा दोनों ही समान शि़क्षा पाता था। गुरु की नजर में वे महज बच्चा हुआ करते थे। लेकिन जैसे जैसे हमारे समाज में शक्ति और अर्थ का वर्चस्व बढ़ा वैसे वैसे स्कूलों में विभाजन की रेखाएं चैड़ी होती चली गईं। कोठारी आयोग से लेकर शिक्षा नीति, राष्टीय शिक्षा आयोगों में भी समान स्कूली शिक्षा की वकालत की गई। आज प्राथमिक शिक्षा की पतली होती गुणवत्ता के चादर को देखकर घोर निराशा होती है। यह निराशा कम होने की बजाए निरंतर गहराती ही जा रही है। प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता एक अहम मसला है। कई सारी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की रिपोर्ट हमें ताकीद करती हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की पढ़ने-लिखने और समझने की क्षमता का स्तर अपनी कक्षानुरूप नहीं है। कक्षा छः में पढ़ने वाला बच्चा कक्षा दूसरी व तीसरी की भाषा की किताब नहीं पढ़ पाता। यही हाल गणित और विज्ञान विषय का है।
उच्च न्यायालय की चिंता और निर्देश एक उम्मीद की रोशनी की तरह लगती है। उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए वह इन स्कूलों में सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों, स्थानीय निकायकर्मियों, जनप्रतिनिधियों तथा न्यायव्यवस्था के जुड़े लोगों के बच्चे भेजे जाएं और छः महीने के बाद मुख्य सचिव इस बाबत रिपोर्ट दे कि इस बीच इस आदेश का किस हद तक पालन किया गया है। गौरतलब है कि न्यायालय के आदेशों की माखौल इतिहास में कैसे उड़ाए गए हैं। जिस तरह से पिछले आदेशों व निर्देशों की धज्जियां उड़ाई गईं हैं क्या इस निर्देश का हस्र भी वही नहीं होगा। यदि सरकारी स्कूलों की स्थिति पर नजर डालें तो देख पाएंगे कि पिछले साल से इस वर्ष जुलाई तक विभिन्न राज्यों में सरकारी स्कूलों में तालें लटका दिए गए हैं। महाराष्ट में 14 हजार, राजस्थान में 17 हजार, तेलंगाना में 4 हजार, उत्तराखंड़ में 3 हजार, छत्तीसगढ़ में 4 हजार से ज्यादा सरकारी स्कूलों को विभिन्न तर्कांे के आधार पर बंद कर दिए गए। यहां सरकार की मनसा की झलकी मिलती है। क्या सरकार इन स्कूलों को बंद कर समाज को एक बेहतर सरकारी स्कूलों का विकल्प दे रही है?क्या सरकार की मनसा निजी स्कूलों को बढ़ाने का है? क्या यह एक वैश्विक उपक्रम का हिस्सा है कि सरकारें अपने स्कूलों को नकारा साबित कर बंद कर दें फिर सस्ते दामों पर मिली जमीनों पर निजी स्कूलों को खाद पानी दे फलने फुलने का वातावरण बनाया जाए आदि।
सरकारी स्कूलों में यदि स्थिति खराब है तो इसके लिए सरकार तो जिम्मेदार है ही साथ ही सरकारी स्कूलों में अध्यापन करने वाले अध्यापक वर्ग भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि एक बार सरकारी टीचर बन जाने के बाद कितने प्रतिशत शिक्षक ऐसे हैं जो अपनी नैतिक और पेशागत जिम्मेदारियों को समझते और निभाते हैं? कितने शिक्षक हैं जो अपनी शैक्षिक समझ और ज्ञान को अधुनातन करने का प्रयास करते हैं? जितनी प्रतिबद्धता और बेचैनी सरकारी स्कूल में नौकरी पाने की होती है क्या उसका दस फीसदी भी जिम्मेदारी एवं शिक्षण की छटपटाहट शिक्षकों में बची रहती है आदि सवाल भी पूछे जाने चाहिए। क्योंकि जितना वेतन अध्यापकों को आज की तारीख में मिल रही है वह दुनिया के अन्य पेशों की नजर से देखें तो एक अच्छी सैलरी मानी जा सकती है। अब सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या सरकारी शिक्षक अपने वेतन के साथ न्याय करता है। यदि नहीं तो क्यों न ऐसी व्यवस्था की जाए कि जिस कक्षा का रिजल्र्ट खराब हो उसक अध्यापक की प्रोन्नति, वेतन आदि में कटौती की जाए। यह विमर्श तेजी से आगे आकार ले रहा है कि शिक्षकों की जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व को सुनिश्चित किया जाए। यदि सरकार उन्हें एक अच्छी सैलरी दे रही है तो उनसे बेहतर शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक स्तर की उम्मीद तो की ही जा सकती है।
निजी स्कूलों के बेल लगातार बढ़ने के पीछे सरकारी सुस्तता और मौन स्वीकृति भी एक बड़ा कारण है। वरना क्या वजह है कि सरकारी स्कूलों में एक निजी स्कूलों के शिक्षकों से कहीं ज्यादा पढ़े लिखे शिक्षकों की टीम है किन्तु जब कक्षा में शिक्षण शिक्षा के स्तर की बात आती है तब निजी स्कूल के लिए तालियां बजती हैं और सरकारी टीचर के लिए लानत मलानत ही हिस्से आते हैं? क्या वजह है कि सरकारी स्कूल का शिक्षक अपने वेतन से आधी या उससे भी कम सैलरी पाने वाले निजी स्कूलेां के शिक्षकों के बरक्श कमतर परिणाम देता है। कहीं न कहीं सरकारी ढर्रे की सोच भी एक बड़ा रोड़ा है जिसके वजह से सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता संदेह के घेरे में है। यदि ठहर कर देखें तो सरकारी स्कूलों की भी कई कोटियां हैं- नवोदय विद्यालय, सर्वाेदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय, सैनिक विद्यालय, प्रतिभा विद्यालय आदि। इन तमाम विद्यालयों में भी शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता में अंतर देखे जा सकते हैं।
उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देश को सकारात्मक सोच की पहलकदमी मानी जा सकती है। संभव है इस निर्देश को माॅडल मान कर अन्य राज्यों में भी ऐसे ही कदम उठाए जाएं। इस निर्देश में स्पष्टतौर पर कहा गया है कि जो सरकारी अधिकारी, न्यायव्यस्था, कार्यपालिका,जनप्रतिनिधि आदि से अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजेंगे उन्हें निजी स्कूलों की फीस के बराबर राशि खजाने में जमा कराना होगा। इतनी ही नहीं बल्कि उनके प्रमोशन और इक्रिमेंट आदि भी रोके जाएं। यह अगले शैक्षिक सत्र से लागू होने की आशा है।
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